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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 भावाल्पबहुत्वैश्च' इन दो सूत्रों को देखें तो पता चलता है कि उन्होंने परपंरा प्राप्त षट्खण्डागम के आगमिक ज्ञान की रक्षा करते हुए साररूप में सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्ति की रचना की है। टीका की दृष्टि से वृत्तिवैशिष्ट्य
सर्वार्थसिद्धि नामक यह तत्त्वार्थवृत्ति तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध समस्त टीकाओं में प्राचीनतम है। पं. फूलचन्द शास्त्री इसे तत्त्वार्थाधिगम भाष्य से भी प्राचीन मानते हैं। सर्वार्थसिद्धि की कतिपय विशेषतायें इस प्रकार हैं
1. सूत्र में आये प्रत्येक पद का सहेतुक विवेचन।
2. भगवती आराधना, मूलाचार, गोम्मटसार, पञ्चसंग्रह, वारसाणुवेक्खा, सिद्धभक्ति, युक्त्यनुशासन, भावपाहुड आदि ग्रंथों के उद्धरण देकर अपने कथन का समर्थन।
3. विविध भारतीय दर्शनों की मान्यताओं का प्रायः उन-उन दार्शनिकों के शब्दों में उल्लेख।
4. सर्वार्थसिद्धि के अनुसार तत्समयप्रचलित तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों की यथार्थ स्थिति का ज्ञान।
5. मूलानुगामी वृत्ति किन्तु आवश्यक होने पर मूलसम्बद्ध अन्य व्याख्यान।
6. प्रत्यासत्तेः प्रधान बलीयः, प्राप्तिपूर्वको निषेधः इत्यादि प्रचलित व्याकरण विषयक परिभाषाओं का उल्लेख।
7. तत्त्वार्थसूत्र की रचना के उद्देश्य का उल्लेख। 8. सूत्र में लिङ्गभेद एवं वचनभेद का स्पष्टीकरण। 9. आगम से किञ्चित् भी भिन्न कथन होने पर पूर्व कथन से संगति। 10. सर्वागपूर्ण टीका। 11. पश्चाद्वर्ती टीकाकारों का आधार। 12. सिद्धांत प्रतिपादन के साथ दार्शनिक विवेचन। 13. न्याय शैली में शंका-समाधान पूर्वक व्याख्यान।
14. आलोकितपान भोजन नामक अहिंसा व्रत की भावना में अन्तर्भूत होने से रात्रिभोजनविरमण रूप छठे अणुव्रत का पृथक् कथन करने का अनौचित्य।
इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वार्थसिद्धि की शैली वर्णनात्मक होते हुए पदों की सार्थकता का सांगोपांग व्याख्यान करने के कारण टीका की दृष्टि से अत्यन्त प्रभावी एवं गंभीर है। वास्तव में पूज्यपादाचार्य को तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित विषयों का तथा व्याकरण के वर्णलाघव का गहरा एवं तलस्पर्शी ज्ञान था। निर्वचनों और पदों के सार्थक्य के विवेचन में आचार्य पूज्यपाद अनुपम हैं।
-अध्यक्ष
संस्कृत विभाग एस. डी. (पी.जी.) कॉलेज, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)