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अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011
आकाश
धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है, काल द्रव्य एक प्रदेशी है एवं पुद्गल द्रव्य एक संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेशी है। शुद्धता की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य सदा शुद्ध हैं एवं जीव और पुद्गल शुद्ध-अशुद्ध दोनों होते हैं। चेतनता की अपेक्षा से जीवद्रव्य मात्र चेतन है शेष पाँचों द्रव्य अचेतन हैं। जीवद्रव्य कर्त्ता है शेष पाँचों द्रव्य कारण हैं। उपकार की अपेक्षा जीव, मात्र जीवों पर ही उपकार करता है, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल पर उपकार करते हैं, द्रव्य पाँचों द्रव्यों पर और कालद्रव्य छहों द्रव्यों पर उपकार करता है। उपकारी की अपेक्षा से जीव पर छहों द्रव्य उपकार करते हैं, पुद्गल द्रव्य पर जीव को छोड़कर सभी द्रव्य, धर्म और अधर्म द्रव्य पर आकाश और काल द्रव्य, आकाश द्रव्य पर कालद्रव्य और कालद्रव्य पर आकाश द्रव्य उपकार करता है। भेदों की अपेक्षा धर्म और अधर्म द्रव्य के कोई भेद नहीं हैं एवं शेष चारों द्रव्यों के भेद होते हैं। अवगाहन की अपेक्षा से जीवद्रव्य का लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में असंख्यात बहुभाग में और सर्वलोक में रहने का स्थान है। पुद्गल द्रव्य का एकप्रदेश, संख्यातप्रदेश, असंख्यातप्रदेश में है, धर्म, अधर्म द्रव्य का लोकाकाश प्रमाण रहने का स्थान है। आकाश द्रव्य सर्वगत है। काल द्रव्य एकप्रदेश प्रमाण है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पाँचों द्रव्य अस्तिकाय हैं। सामान्य गुणों की अपेक्षा सभी द्रव्यों के 6 सामान्य गुण हैं। विशेष गुणों की अपेक्षा जीवद्रव्य के चार ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, पुद्गल के चार स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण, धर्मद्रव्य का गतिहेतुत्व, अधर्मद्रव्य का स्थितिहेतुत्व, आकाशद्रव्य का अवगाहनत्व और कालद्रव्य का वर्तनाहेतुत्व है। स्वभावों की अपेक्षा जीव और पुद्गल के 21 स्वभाव हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य के 16 एवं कालद्रव्य के 15 स्वभाव हैं। पर्याय की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनकी अर्धपर्याय होती है परन्तु जीव और पुद्गल की अर्थ और व्यञ्जन दोनों पर्यायें होती हैं। उहाँ द्रव्यों में मात्र जीवद्रव्य ही उपादेय है एवं शेष द्रव्य ज्ञेय हैं।
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सभी आचार्यों ने द्रव्य के स्वरूप को समान रूप से स्वीकार किया है। सभी ने गुण और पर्याय से सहित और उत्पाद-व्यय-प्रौव्य से जो सहित है उसी को द्रव्य माना है। द्रव्य के भेदों में भी कभी भेद दिखाई नहीं दिए। 6 भेद आदिनाथ स्वामी ने बताये थे तो 6 भेद ही महावीर स्वामी ने भी बतलाये । परन्तु अन्य दर्शनों में अलग-अलग भेद माने गए हैं जिनमें तर्कसंग्रह में वर्णित नवभेदों को लगभग सभी ने स्वीकार किया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, आत्मा और मन ये नव द्रव्य स्वीकार किये गये हैं। इनमें से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और मन का तो पुद्गल में अन्तर्भाव हो जाता है । द्रव्यमन का पुद्गल में और भावमन का जीव में अन्तर्भाव हो जाता है। दिशा का आकाश में अन्तर्भाव हो जाता है। शेष तो हम स्वीकार ही करते हैं। इसतरह द्रव्यों की संख्या 6 ही उपयुक्त है।
कालद्रव्य के विषय में श्वेताम्बर परम्परा में ही दो मत हैं। एक मत तो काल को द्रव्य के रूप में स्वीकार करता है और दूसरा मत काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता है। दूसरे मत के अनुसार सूर्यादि के निमित्त से जो दिन-रात, घड़ी-घंटा, पल-विपल आदि रूप