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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 भाषाज्ञान को प्रकट करते हैं। यथादर्शनम्- स्वयं पश्यति, दृश्यतेऽनेनेति दृष्टिमात्रं वा। (१.१) ज्ञानम् - जानाति, ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा। (१.१) चारित्रम् - चरति, चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा। (१.१) पापम् - पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति। (६.३) पुण्यम् - पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा। (६.३) आत्मा - अक्ष्णोति व्याप्नोति जानात्यक्ष आत्मा। तमेव प्रतिनियतं प्रत्यक्षम्। ( १. १) मतिः - इन्द्रियैर्मनसा च यथासमर्थो मन्यतेऽनया मनुते मननमात्रं वा मतिः। (१.९)
इसी प्रकार पूज्यपादाचार्य ने सैकड़ों पारिभाषिक शब्दों के क्रिया को आधार बनाकर जो निर्वचन किये हैं, वे पश्चाद्वर्ती आचार्यों को मार्गनिर्देशक बने हैं। इसी को आधार बनाकर उन्होंने अपनी टीकायें लिखी हैं। ४. निर्दोष लक्षण
श्री पूज्यपादाचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र की वृत्ति करते समय जिनके लक्षणों का कथन किया है, वे लक्षण सर्वथा अव्याप्ति एवं अतिव्याप्ति दोषों से शून्य हैं। यथाप्रमादः- कुशलेष्वनादरः। (८.१) प्रमादः- सकषायत्वम्। (७.१३) योगः- वाङ्मनःकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिष्यन्दः। (२.२६) प्रकृतिः- स्वभावः। निम्बस्य का प्रकृतिः? तिक्तता। गुडस्य का प्रकृतिः।
मधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः? अर्थानवगमः।.... (8.3) स्थिति:- कालपरिच्छेदः। (१.७) उपशमः-आत्मनि कर्मण: स्वशक्तेः कारणवशादनुभूतिरुपशमः। यथा कतकादिद्रव्यसम्बन्धादम्भसि पंकस्य उपशमः। (2.1) क्षयः- आत्यन्तिकी निवृत्तिः। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि शुचिभाजनान्तसंक्रान्ते पंकस्यात्यन्ताभावः। (2.1) 'प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्' अत्यन्त प्रसिद्ध है।
अनेक लक्षण तो ऐसे हैं, जिन्हें भट्ट अकलंकदेव और आचार्य श्री प्रभाचन्द्र ने यथावत् सर्वार्थसिद्धि से ग्रहण कर लिया है। कतिपय स्थल द्रष्टव्य हैं। सर्वार्थसिद्धि
तत्त्वार्थराजवार्तिक (तत्त्वार्थसूत्र 1.15 की वृत्ति) विषयविषयिसन्निपातसमयानन्तर
यथावत् ग्रहण माद्यग्रहणमवग्रहः। अवग्रहगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकाङ्क्षणमीहा।
यथावत् ग्रहण विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः
यथावत् ग्रहण इस प्रकार शब्दसाम्य के साथ-साथ अनेक स्थलों पर भावसाम्य भी दिखलाई