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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 इस समाप्तिसूचक पुष्पिका में 'इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धिसंज्ञायां प्रथमोऽध्यायः' कहकर इसे वृत्तिग्रन्थ स्वीकार किया है। सर्वार्थसिद्धि में प्रायः सूत्र के प्रत्येक पद का व्याख्यान किया गया है। अतः इसकी वृत्तिता सुस्पष्ट है। सर्वार्थसिद्धि के भाषात्मक वृत्तिवैशिष्ट्य को निम्नलिखित बिन्दुओं को आधार बनाकर देखा जा सकता है१. सुगम पदविन्यास
यद्यपि सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्र की वृत्ति है, अत: सैद्धान्तिक प्रतिपादन के कारण सरल पदों का विन्यास सरल नहीं है, तथापि पूज्यपादाचार्य ने टीका ग्रंथ होने पर भी मौलिकता की अक्षुण्णता हेतु सुगम पदों को प्रयुक्त किया है। उत्थानिका में ही किसी निकटभव्य ने एक आश्रम में मुनिपरिषद् के मध्य में स्थित एक निर्ग्रन्थाचार्य से जब सविनय पूछा तब उनके पदों का विन्यास सहज ही श्रोता या पाठक के मन को आकर्षित करने में समर्थ है।
यथा- भगवन्! किं नु खलु आत्मने हितं स्यादिति। स आह- मोक्ष इति। स एव पुनः प्रत्याह- किं स्वरूपोऽसौ मोक्षः, कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति। इसी प्रकार 'रूपिणः पुद्गलाः' (तत्त्वार्थसूत्र 5.5) की वृत्ति भी द्रष्टव्य है
रूपं मूर्तिरित्यर्थः। का मूर्तिः ? रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्तिः। रूपमेषामस्तीति रूपिणः। मूर्तिमन्त इत्यर्थः।.... २. बह्वर्थप्रतिपादन
सर्वार्थसिद्धि वृत्ति के अवलोकन से सुस्पष्ट होता है कि इसमें पूज्यपादाचार्य ने अल्प शब्दों के प्रयोग द्वारा बहु अर्थ को प्रकट कर दिया है। इस प्रसंग में 'जीवाजीवानवबन्ध संवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्' (तत्त्वार्थसूत्र 1.4) की वृत्ति द्रष्टव्य है, जिसमें उन्होंने अति संक्षेप में सातों तत्त्वों की ऐसी परिभाषायें प्रस्तुत कर दी हैं, जिन्हें 'गागर में सागर' कहा जा सकता है। यथा
तत्र चेतनालक्षणो जीवः।.... तद्विपर्ययलक्षणोऽजीवः। शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप आम्रवः। आत्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः। आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः। एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। कृत्स्नकर्मविप्रयोगलक्षणो मोक्षः।
इसी प्रकार 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' (तत्त्वार्थसूत्र 5.38) की वृत्ति भी द्रष्टव्य है
'गुणाश्च पर्ययाश्च गुणपर्ययास्तेऽस्य सन्तीति गुणपर्ययवद्रव्यम्.....के गुणा:? के च पर्यायाः ? अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिणो पर्यायाः। ऐसे ही अनेक वाक्यों को आधार बनाकर श्री अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में विस्तारपूर्वक भाष्य किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थवृत्ति का प्रणयन किया है तथा पं. जयचन्द्र छावड़ा ने भाषावचनिका लिखी है। ३. महत्त्वपूर्ण निर्वचन
सर्वार्थसिद्धि में श्री पूज्यपादाचार्य ने जो निर्वचन किये हैं, वे सूत्रकार द्वारा प्रयुक्त शब्दों के हार्द को प्रकट करने में पूर्णतया समर्थ तो हैं ही, श्री पूज्यपादाचार्य के अप्रतिम