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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता जैसे भट्ट अकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि की व्याख्या करने के लिए ही तत्त्वार्थराजवार्तिक की रचना की हो।
भट्ट अकलंकदेव के ही समान आचार्य विद्यानन्द ने भी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि के अनेक वाक्यों को ग्रहण किया है। यथा
सर्वार्थसिद्धि
(तत्त्वार्थसूत्र 9.6 की वृत्ति)
जात्यादिमदावेशाभिमानाभावो मार्दवम्।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
यथावत्
यथावत्
योगस्यावक्रतार्जवम्
प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्तिः शौचम् ।
प्रकर्षप्राप्तलोभनिवृत्तिः शौचम् ।
इसी प्रकार अनेक स्थलों पर आचार्य विद्यानन्द ने सर्वार्थसिद्धि से शब्दों का अनुहरण किया है। भावसाम्य तो पदे पदे देखा जा सकता है। ५. व्याकरणविचक्षणता
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पूज्यपादाचार्य एक दार्शनिक के साथ श्रेष्ठ वैयाकरण भी हैं। अवणबेलगोला के अभिलेखों के आधार पर जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता पूज्यपादाचार्य माने जाते हैं। आचार्य गुणनन्दि ने जैनेन्द्र प्रक्रिया में मंगलाचरण में पूज्यपादाचार्य को नमस्कार करते हुए उनके लक्षण ग्रंथ का उल्लेख किया है
'नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम्। यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्क्वचित् ॥ "
(जिन्होंने लक्षण शास्त्र की रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपाद को प्रणाम करता हूँ। उनके लक्षण शास्त्र में जो है, वह अन्यत्र भी है और जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है।)
आचार्य पूज्यपाद ने स्वरचित जैनेन्द्र व्याकरण के अतिरिक्त पाणिनीय व्याकरण के सूत्र का भी उल्लेख किया है। उन्होंने 'सौधर्मेशान.... आदि (4.19) की वृत्ति में 'तदस्मिन्नस्तीत्यण्' तथा 'तस्य निवासः' सूत्रों का उल्लेख किया है। इनमें प्रथम का रूप पाणिनीय अष्टाध्यायी में 'तदस्मिन्नस्तीति देशे तन्नाम्नि (4.2.67) तथा जैनेन्द्र व्याकरण में 'तदस्मिन्नस्तीति देश: खौ' (4.1.14 ) है। अतः यह कहना कठिन है कि उन्होंने प्रथम सूत्र किससे लिया है। किन्तु दूसरा सूत्र 'तस्य निवासः' (4.2.69) तो अष्टाध्यायी का ही है। क्योंकि जैनेन्द्र व्याकरण में तो 'तस्य निवासदूरभवी' (5.1) की वृत्ति में उल्लिखित सूत्र 'विशेषणं विशेष्येण' जैनेन्द्र व्याकरण का ही है, क्योंकि अष्टाध्यायी में यह 'विशेषणं विशेष्येण बहुलम्' है।
सर्वार्थसिद्धि में व्याकरण की प्रयोगकुशलता को देखकर उनके वैयाकरणत्व की स्वतः सिद्धि हो जाती है।
व्याकरण महाभाष्य के रचयिता पतञ्जलि आचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं या पश्चाद्वर्ती- यह कहना अन्त: प्रमाणों के अभाव में असंदिग्ध रूप से संभव नहीं है। किन्तु दोनों में अत्यन्त साम्य देखकर एक ने दूसरे का अनुहरण किया है - यह सुस्पष्ट है कतिपय