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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
अणु- एक प्रदेश में होने वाले स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो कहे जाते हैं वे अणु कहलाते हैं। इसका विशेष स्वरूप प्रदर्शित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियेगेझं ।
जं दव्वं अविभागी तं परमाणुं विआणादि॥२१ अर्थात् जिसका आदि, मध्य और अन्त एक है और जिसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकतीं ऐसा जो विभाग रहित द्रव्य है उसे परमाणु जानना चाहिये। सरल भाषा में जिसका कोई दूसरा भाग नहीं हो सकता वह अणु है।
स्कन्ध- जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है वे स्कन्ध कहलाते हैं। अथवा दो या दो से अधिक परमाणुओं के समूह को स्कन्ध कहते हैं। स्कन्ध के ६ भेद हैं__1. बादर-बादर- जो पुद्गलपिण्ड दो खण्ड करने पर अपने आप फिर नहीं मिलते हैं वे बादर-बादर स्कन्ध कहलाते हैं। जैसे- काष्ठ, पाषाणादि।
2. बादर- जो पुद्गलपिण्ड खण्ड-खण्ड किये जाने पर भी अपने आप मिल जाते हैं वे बादर स्कन्ध कहलाते हैं । जैसे दुग्ध, घृत, तेल आदि।
3. बादर-सूक्ष्म- जो देखने में तो स्थूल हों किन्तु हस्तादिक से ग्रहण करने में नहीं आते, वे बादर-सूक्ष्म स्कन्ध हैं। जैसे- धूप, चन्द्रमा की चांदनी आदि।
4. सूक्ष्मबादर- जो होते तो सूक्ष्म हैं परन्तु स्थूल जैसे प्रतिभासित होते हैं वे सूक्ष्म-बादर कहे जाते हैं। जैसे- स्पर्श, रस, गन्ध, शब्द आदि।
5. सूक्ष्म- जो अतिसूक्ष्म हैं और इन्द्रियों से ग्रहण करने में भी नहीं आते हैं वे सूक्ष्म कहलाते हैं। जैसे- कर्मवर्गणा आदि।
6. सूक्ष्म-सूक्ष्म- जो कर्मवर्गणाओं से भी अतिसूक्ष्म हैं वे सूक्ष्म-सूक्ष्म स्कन्ध कहलाते हैं। जैसे- द्वयणुक स्कन्ध आदि।
अणु की उत्पत्ति भेद से और स्कन्ध की उत्पत्ति भेद, संघात और भेद-संघात से होती है। पुद्गल द्रव्य की मुख्य रूप से 10 पर्यायें हैं- शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत। पुद्गल संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होते हैं। अणु एक प्रदेशी होता है फिर भी उपचार से उसको बहुप्रदेशी कहा गया है। पुद्गल द्रव्यों के उपकारों का उल्लेख करते हुए आचार्य लिखते हैं कि शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छवास, सुख, दु:ख, जीवन, मरण ये पुद्गल के उपकार हैं।
धर्मद्रव्य- जो जीव और पुद्गलों को चलने में उदासीन रूप से सहायक है वह धर्मद्रव्य है। जैसे- मछली को पानी, पतंग को हवा, रेलगाड़ी को पटरी आदि। यहां विशेष बात यह है कि धर्मद्रव्य मात्र चलते हुए जीव-पुद्गल को ही सहायता करता है, नहीं चलने वाले को जबरदस्ती नहीं चलाता है। अतएव गति में उदासीन कारण होता है धर्मद्रव्य।