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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
यहां है। इस एक स्वभाव एकान्त से वस्तु में अर्थ क्रियाकारक का अभाव होता है। अर्थक्रिया कारक के अभाव में वस्तुत्व का ही अभाव होता है। ध्यान दीजिए- लोक में ऐसा कोई द्रव्य नहीं है, जो मात्र एक स्वभावी ही हो अथवा अनेक स्वभावी ही हो, प्रत्येक द्रव्य उभयस्वभावी हैं।
(4) जैन दर्शन में कथित आत्मा और ज्ञानादि गुणों के निश्चयनयात्मक अद्वैत और वेदान्त के ब्रह्माद्वैत में आकाश-पाताल का अन्तर है। वेदान्त में सत् एक ही माना गया है और वह है ब्रह्म। लोक में दृष्टिगोचर जीव एवं जड़ पदार्थ रज्जु में सर्प की तरह अध्यास मात्र है। वेदान्त के अनुसार आत्मा (ब्रह्म-जीव) में गुण-पर्यायों का अस्तित्व मान्य नहीं है, जबकि जैनदर्शन के अनुसार निश्चयनय से आत्मा के अद्वैतता का कथन करने पर भी उसमें गौण रूप से द्रव्यगत द्वैत का भी निरूपण रहता ही है। वेदान्त का अद्वैतवाद ऐकान्तिक है, जबकि जैन अद्वैतवाद अनैकान्तिक है।
यद्यपि जैनदर्शन अद्वैतवादी (एकतत्त्ववादी) नहीं है तथापि वह अद्वैतवाद (आत्मवाद) का समर्थक भी है। तभी तो एकत्व, विभक्त, अद्वैतभाव की प्रशंसा करते हुए आचार्यश्री कहते हैं- 'अद्वैत का आनन्द ही कुछ और है, उसे द्वैत में लीन क्या समझ पायेगा।.... एकान्त स्थान हो, अद्वैत भाव हो, वहाँ भावातीत की अनुभूतियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। इसके पूर्व उन्होंने कहा है- “अद्वैत भाव परभाव से भिन्न रहता है, अद्वैत भाव अन्य से अत्यन्ताभाव है, अद्वैत की साधना ही श्रेष्ठ साधना है, द्वैत साधना है (वह) साधना का कारण है, परन्तु कार्यभूत साधना अद्वैत ही है। योगीश्वर द्वैत से अद्वैत की ओर रत रहते हैं।
'द्वैतभाव प्रारंभ अवस्था में तो उपोदय है, परन्तु परम उपादेयभूत अद्वैतभाव पर भी दृष्टि जाना चाहिए।
जब वे अद्वैत की प्रशंसा करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई वेदान्ती बोल रहा हो। उनके द्वारा की गई प्रशंसा से कोई अद्वैत एकान्त का ग्रहण न करले, अतएव वे स्पष्ट करते हैं कि- 'अहो योगीश्वरो! अद्वैत साधना ही श्रेयमार्ग है। यहाँ अद्वैत प्रयोजन अद्वैत एकान्त की सिद्धि नहीं समझना, न अन्य का अभाव। शून्य अद्वैत से भिन्न अद्वैत की बात कह रहा हूँ। जगत् के अनन्त पदार्थों की सत्ता में एकमात्र लक्ष्य निज आत्म पदार्थ को रखना। ...एकमात्र स्वद्रव्य का भाव रखना, पर विकल्पों से शून्य हो जाना अद्वैतभाव है। यह अद्वैत आराधना ही निश्चय चारित्र है।
(5) वेदान्त में आत्मा को सर्वथा अमूर्तिक मानने का एकान्त है, जबकि जैन दार्शनिक उसे कथंचित् अमूर्तिक और कथंचित् मूर्तिक भी मानते हैं। आचार्यश्री स्वरूप संबोधन परिशीलन में आत्मा के सर्वथा अमूर्तिकपने का निषेध करते हुए उसे सापेक्ष दृष्टि से मूर्तिक भी स्वीकारते हैं। वे कहते हैं- 'मूर्तिक भी है आत्मा, अमूर्तिक भी है आत्मा। स्पर्श रस-गंध -वर्ण निश्चयनय से आत्मा में नहीं पाये जाते हैं, इसलिए आत्मा अमूर्तिक स्वभावी है, परन्तु बन्ध की अपेक्षा से व्यवहार नय से आत्मा मूर्तिक भी है, यह अनेकान्त है। दूसरी बात यहाँ यह भी समझना कि ज्ञान साकार होता है, ज्ञान मूर्तिक होने से आत्मा मूर्तिक है तथा