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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
पंद्रहवीं "व्रताचरण" क्रिया है इसे "व्रतचर्या" क्रिया भी कहते हैं। 'उपनयन' क्रिया के बाद इस क्रिया का पालन करने वाला ब्रह्मचारी कमर में रत्नत्रय के चिह्नस्वरूप तीन लड़वाली मुंज की रस्सी कमर में पहिनता है जो वर्तमान में कटिडोर बनकर रह गया है। सादी धोती और दुपट्टा पहिनता है और यज्ञोपवीत धारण करता है। की गई प्रतिज्ञाओं का पालन दृढ़ता से करता है। पृथ्वी पर या चटाई पर सोता है। हरी दातौन नहीं करता, पान खाना, अंजन लगाना, उबटन लगाना, पलंग पर सोना आदि ब्रह्मचर्य बाधक बातों का त्याग करता है।
सोलहवीं "व्रतावतरण" क्रिया है। यह विद्यार्थी जीवन तक की अंतिम क्रिया है। पूर्णतया अभ्यास कर यह ब्रह्मचारी बालक विद्यार्थी जीवन के चिह्न सावन महीने में और श्रवण नक्षत्रादि सहित शुभ मुहूर्त में त्याग देता है। यन्त्रपूजन, हवन आदि कर गृहस्थाचार्य को मौंजी खोलकर दे देता है तथा गृहस्थों के पहिनने के योग्य वस्त्रादि धारण करने का पात्र बनता है।
“विद्यालंकार" के अन्तर्गत इन सोलह क्रियाओं को "सोलह संस्कार" भी कहते हैं। इनका विद्याध्ययन काल तक विशेष रूप से महत्त्व है। परन्तु जैन समाज में इन संस्कारों की उपेक्षा होती गई अतएव आज का विद्यार्थी मात्र परिवार के संस्कारों के अधीन रह गया है। समाज के संस्कारों का बंधन टूट गया है। इन क्रियाओं में से किसी भी क्रिया का आज पालन नहीं होता है। अतः बालक और बालिकायें पथभ्रष्ट हो गये हैं। इन संस्कारों का यदि ध्यान रखा जावे तो समाज अनेक समस्याओं से बच सकता है। ___ आज समाज में संपूर्ण शिक्षा सरकारी हो गई है। शिक्षा जगत् का संबन्ध धार्मिक संस्कारों से नहीं के बराबर हो गया है। विद्यार्थी को सहशिक्षा देने वाली संस्थाओं में पढ़ना पड़ता है। आज के वातावरण में कलियुग की झलक मिलने लगी है। अतएव दूषित विद्यालय, दुराचरण, रैगिंग, बलात्कार, अनमेल विवाह, दहेजप्रथा, एड्स, हृदयरोग, कैंसर
आदि भयानक रोगों के घर बनते जा रहे हैं। अतएव समाज को इस विद्यासंस्कारों के विषय में ध्यान देना जरूरी हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में बालक-बालिकाओं की शिक्षा के लिये गुरुकुल प्रणाली पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
"इत्यलम्"
- 7, लखेरापुरा, भोपाल (मध्यप्रदेश)