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अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011
टीकाकार विद्वान द्वय श्री पं. टोडरमल जी एवं पं. आशाधर जी को मंत्र-तंत्र मूढ़ कहना, अपने अज्ञान का प्रदर्शन मात्र है, वह भी उस व्यक्ति द्वारा जिसका जीवन डाल से टूटे पत्ते के समान इधर-उधर भटकता रहा हो । बीसपंथ के पंडित कुल में उत्पन्न होकर स्व-घोषणानुसार जो व्यक्ति क्रमशः रजनीश जी, कानजी स्वामी, तेरहपंथी, बीसपंथी, वैदिक पंथी होकर वीतरागी परंपराओं को विकृत कर रहा, उसके द्वारा महान् विद्वान् पंडितों को मूढ़ कहना घोर अपमानजनक है। इन विद्वानों द्वारा जितना साहित्य सृजन किया है उसका अध्ययन, चिंतन, मनन एवं हृदयंगम करने में मेरे जैसे अल्प बुद्धि वालों को अनेक भव लग जायेंगे।
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९. यह परिकल्पना अयथार्थ एवं आगमविरुद्ध है कि धरणेन्द्र व पद्मावती के द्वारा मुनि पार्श्वनाथ को कमठ के उपसर्ग से सुरक्षित कर देने के पश्चात् मुनि पार्श्वनाथ श्रेणी आरोहण के योग्य हो सके। इससे यह ध्वनित होता है कि धरणेन्द्र- पद्मावती यदि नहीं होते तो मुनि पार्श्वनाथ विचलित हो गये होते और उन्हें केवलज्ञान नहीं होता। वस्तुतः ऐसा विचार वस्तु की स्वतंत्र सत्ता की अवधारणा के विरुद्ध और वैदिक संस्कृति की कर्त्तावादी अवधारणा से प्रभावित है। यह प्रकारान्तर से पार्श्वनाथ का अवर्णवाद करना है। पंच पांडवों को आत्मध्यानरत अवस्था में तप्त लोहे के कड़े पहना दिये थे। उनकी सहायता के लिये कोई शासन रक्षक देव सामने नहीं आया। भगवान नेमिनाथ के यक्ष - यक्षी भी बेखबर रहे। फिर भी, युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम मुनिराज श्रेणी आरोहणकर मुक्त हो गये। यदि धरणेन्द्र- पद्मावती मुनिराज पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर करने की भावना से नहीं आते तब भी आत्मध्यानरत मुनिराज पार्श्वनाथ श्रेणी आरोहण कर लेते। इन दो कार्यों के मध्य कारण-कार्य संबन्ध नहीं है। सामान्यजन को कुतर्कों से भ्रमित करना धर्म-द्वेष का कार्य होता है।
१०. देवलोक के वर्णन में चारों प्रकार के देवों के स्वरूप, उनके भेद, उनकी शक्तियां, उनकी स्थिति आदि के बारे में विस्तृत वर्णन तिलोयपण्णत्ति एवं अन्य ग्रंथों में दिया गया है। उस स्तर के अनुरूप अपने पदानुसार देवों की कार्य व्यवस्था प्रभावशील रहती है। किसी की कल्पना मात्र से कोई देव मंत्री या सेनापति नहीं हो जाता। जिनेन्द्र भगवान् का शासन स्व रक्षित है। उसकी रक्षा किसी देव या मनुष्य के अधीन नहीं है। जैन शासन का स्वरूप जगत् के शासन से भिन्न है। देवों को जिनशासन का रक्षक बनाकर उनका उपहास उड़ाना है और जैनशासन को हीन सिद्ध करना है। सेनापति और मंत्री जमात के रूप में नहीं होते। कुछ विशिष्ट ही होते हैं।
११. जिनशासन की परंपरा है कि उच्च पद वाले महानुभावों का निम्न पद वाले विनय/सम्मान करते हैं। मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि श्रेष्ठ होता है। सम्यग्दृष्टि असंयमी से संयमी व्रती श्रेष्ठ होता है संयमीव्रती से गृहत्यागी अट्ठाईस मूलगुण धारी श्रेष्ठ और पूज्य होता है। गुण के अनुसार विनय की पात्रता होती है। इसी कारण इन्द्र और चक्रवर्ती तीर्थंकर को नमन और पूजा करते हैं। यही नहीं देखते कि तीर्थंकर के जीव का लौकिक जगत् में क्या पद या वैभव था यक्ष-यक्षी, देवी-देवता, मिध्यादृष्टि / सम्यग्दृष्टि असंयमी की