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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
प्रतिष्ठा भी कर्मभूमि में होती है। विदेह क्षेत्र की व्यवस्था कथंचित् भिन्न है। यह व्यवस्था अनादि काल से प्रभावशील है।
श्रमण संस्कृति में मात्र तीर्थंकरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा और पूजा होती है। तीर्थंकरों की मूर्तियों के अलावा किसी अन्य देवी-देवता, यक्ष-यक्षी या मानव अनुकृति की प्रतिष्ठा एवं पूजा मूल-आम्नाय की परंपरा में नहीं होती है। असंयमी की मूर्ति बनाने की परंपरा भी नहीं है।
देवलोक में जिनेन्द्र देव (तीर्थकरों) की मूर्तियों की पूजा हेतु अकृत्रिम जिनालय बने हैं जहां जिनेन्द्रदेव का अभिषेक और पूजा सर्व देवों द्वारा की जाती है। इन अकृत्रिम जिनालयों में कर्मभूमि में उत्पन्न एवं सिद्ध हुए तीर्थकरों की अनुकृति रूप मूर्तियाँ शाश्वत रूप से विद्यमान रहती हैं और मूल-आम्नाय की परंपरानुसार पूज्य होती हैं। भवनवासी एवं ज्योतिर्लोक के जिनमंदिरों के गर्भगृह में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाह-सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ स्थित होने के बाद भी देवगणों द्वारा उनकी पूजा करने का उल्लेख नहीं मिलता। यह शाश्वत व्यवस्था अनुकृति की प्रतिकृति की है जिसका विवरण आचार्यों द्वारा तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि आगम ग्रंथों में दिया गया है।
तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार में वर्णित जिनभवनों की प्रतिकृति (टूकॉपी) भरत क्षेत्र की विद्यमान कर्मभूमि में की जाने की परंपरा विकसित हुई है। भवनवासी अकृत्रिम जिनालयों के गर्भगृह में वर्णित श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाण्ह-सनत्कुमार आदि यक्षों की मूर्तियों को आधार बनाकर कर्मभूमि के जिनालयों में रागी-मूर्तियों की स्थापना, पूजा की विकृत परंपरा प्रारंभ करने का उपदेश, समर्थन और उन्मादी व्याख्या की जाने लगी, जैसा कि 'शासन देवता उपास्य या अनुपास्य' एवं 'दीपावली पूजनम्' कृतियों में किया गया है। इस विकृत परंपरा की निम्न उन्मादी या तर्क रहित व्याख्याएँ विचारणीय हैं
१. जिनेन्द्र के मत में पूर्ण या आंशिक वीतरागता पूज्यनीय
विश्व के सर्व धर्म/ दर्शनों में मात्र जैनधर्म ही विशिष्ट धर्म है जिसमें गुणाश्रित वीतरागता पूर्ण या आंशिक को पूज्य माना गया है। वीतरागियों की पूजा-स्तवनादि से वीतराग विशेषज्ञान की प्राप्ति होती है जो मोक्षमार्ग में साधक का काम करता है। जिनमत के अनसार जन्म-जरा-मृत्यु आदि अट्ठारह दोषों से मुक्त जीव ही पूज्य है। विशेषता इतनी है कि जो साधक आचार्य, उपाध्याय एवं साधु आंशिक वीतरागता के धारी हैं, वे भी पूज्य माने गये हैं। असंयमी और बहुदोष-युक्त महिलाएँ इस श्रेणी में नहीं आतीं। रागी-द्वेषी देवी-देवता भी अपूज्य हैं। उनकी पूजा से वीतराग विशेषज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।
२. अनादिमहामंत्र णमोकार मंत्र में पूज्यत्व
जिनधर्म शाश्वत धर्म है। इसका अनादि महामंत्र णमोकार मंत्र है। इसमें अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं को नमस्कार किया है। विद्यमान आगम में इसका अंकन षट्खंडागम में आचार्य पुष्पदंत जी ने किया है। यदि कोई सामान्य जन इसका प्रथम अंकन करता तो भी वह पंचपरमेष्ठी को ही नमस्कार करता। यही शाश्वत सत्य है। यह सोच तर्क संगत नहीं है कि यदि णमोकार मंत्र का लेखन चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयमीजन