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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
करता तो वह पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक को इस मंत्र में पूज्यत्व का स्थान दे देता।
३. अकर्त्तावादी जैनदर्शन की अवधारणा
जैनदर्शन अकर्त्तावादी है। सभी जीव अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार जन्म-मरण, सुख-दु:ख, अनुकूल-प्रतिकूल संयोग पाते हैं और भोगते हैं। कोई किसी से प्रसन्न-अप्रसन्न होकर सुखी-दुखी नहीं हो सकता। इस दृष्टि से किसी की पूजा करना इष्टकारक नहीं है। कर्मचक्र का आधार जीव के भाव हैं। भावों के अनुसार ही कर्मचक्र का प्रभाव होता है। अतः अशुभ से निवृत्ति, शुभ में प्रवृत्ति और शुद्ध भाव को अनुभूत करने की भावना करना चाहिये। समता भाव रखना चाहिये। असाताकर्म के उदय में कोई किसी का सहायक नहीं होता।
४. जिनेन्द्र देव अनुपमेय
तीर्थकर-जिनेन्द्र देव अनुपमेय हैं। उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती क्योंकि उनके समान या उनसे श्रेष्ठ विश्व में और कोई नहीं है। संभावना द्वारा लक्ष्मी से जिनेन्द्र भगवान् की तुलना करना और लक्ष्मी को श्रेष्ठ बताना बुद्धि का विकार प्रदर्शित करना है। प्रथम, लक्ष्मी के अस्तित्व का ही पता नहीं है। दूसरे नारी पर्याय अनेक स्वाभाविक दोषों से युक्त होने के कारण नारी पर्याय में मुक्त नहीं हो सकती। तीसरे रागी नारी के गुणों से वीतरागी देव की तुलना करना जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद करना है।
५. श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाह और सनत्कुमार यक्षों की पूजा उनके सुरलोक में नहीं की जाती। यदि वे जिनेन्द्रदेव के शासन रक्षक (उपदेव) होते तो उनकी पूजा-उपासना भवनवासी और व्यंतर देवों द्वारा अवश्य की जाती। जिनकी पूजा असंयमी देवलोक में नहीं होती उनकी पूजा मनुष्यलोक के असंयमी, संयमी-व्रती महानुभावों का करना, करवाना या अनुमोदना करना बुद्धि की घोर विपरीतता और तीव्र मोहोदय का प्रताप समझना चाहिए।
६. तीर्थकरों के यक्ष-यक्षी अन्य जीवों के समान निश्चित आयु वाले होते हैं। काल प्रवाह में उनकी आत्मा कहां किस पर्याय में होगी किसी को ज्ञात नहीं। ऐसी अनिश्चित स्थिति में उनकी पूजा-आराधना से धर्म की रक्षा या दु:ख का निवारण कैसे हो सकता है? विचारणीय है। यदि इनका अस्तित्व शाश्वत होता और वे धर्म रक्षक होते तो अभी तक धर्म की जो हानि हुई या हो रही है, वह कभी नहीं होती। जैनधर्म का इतिहास रक्त रंजित और मंदिरों का आपराधिक ध्वंश नहीं होता। शासन-रक्षक की कल्पना तर्कहीन है।
७. मनुष्य लोक में जिनेन्द्र देव की प्रतिमाओं की पूजा-अभिषेक उनकी विधिवत् प्रतिष्ठा होने के बाद ही की जाती है। जब अप्रतिष्ठित जिनेन्द्र की मूर्ति अपूज्य होती है, तब रागी देव-देवी की अप्रतिष्ठित मूर्ति पूज्य कैसे हो सकती है? यह तो महाविपरीतता है। रागी देवी-देव की मूर्ति की यदि प्रतिष्ठा भी करा दी जाय तब भी उससे इष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती।
८. पंचकल्याणकों में सूरिमंत्र देने के बाद ही मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। सूरिमंत्र का संबन्ध, जैसी जानकारी मिली है किसी यक्ष या देवता से नहीं होता जो मूर्ति में अतिशय उत्पन्न करते हों। यह आधारहीन कल्पना प्रतीत होती है। अनेक आगम शास्त्रों के ज्ञाता और