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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 श्रेणी में आते हैं, इससे अधिक पद उनका नहीं है। संयमी, व्रती और मुनिजन यदि इनकी उपासना/स्तुति करते हैं तो वे निश्चित ही जिनेन्द्रमुद्रा में जैन-बाह्य साधक हैं।
१२. सर्वाण्ह यक्ष की आढ़ में उपलक्षण न्याय के नाम पर तीर्थकर के यक्ष-यक्षी एवं क्षेत्रपालादि सभी (कथित) रक्षक देवों को शासन रक्षक मानना बिना आटे के रोटी बनाने जैसा है।
प्रथम, सर्वाण्ह-सनत्कुमार यक्ष धर्म रक्षक नहीं कहे गये हैं और यदि किसी भ्रम के कारण धर्म रक्षक माने भी जावें तब इनका कर्तव्य उनके जीवन काल में उन तक ही सीमित रहेगा। दूसरा सृजन-रक्षण-संहार की मान्यताएँ वैदिक संस्कृति की है जो गृहीत मिथ्यात्व की जनक हैं। देशनालब्धि से इन मान्यताओं का विसर्जन हो जाता है। प्रायोग्य लब्धि गृहीत मिथ्यादृष्टि को नहीं होती। गृहीत मिथ्यात्व के निवारण हेतु पूज्य-अपूज्य का सविवेक निर्णय अपेक्षित है।
१३. 'दीपावली पूजनम्' के पृष्ठ 5 एवं पृष्ठ 47-48 के मध्य में पूज्य आचार्य श्वेतपिच्छाचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज के मत के रूप में लिखा है कि आचार्य श्री ने 'विश्वप्रसिद्ध पद्मावती की देन' में शासन देवताओं को पूज्य सिद्ध किया है और पुस्तक का मूल्य 'एक पुष्प चढ़ाकर धरणेन्द्र पद्मावती के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें' रखा है। इस पुस्तक की विषय वस्तु का अध्ययन किया। इसमें कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है, जिससे यह ध्वनित या सिद्ध हो कि पूज्य आचार्यश्री ने शासन देवताओं को 'पूज्य' सिद्ध किया है। वस्तुतः यह तो संग्रह-पुस्तिका है। पुस्तक का प्रकाशन 'श्री दिगम्बर जैन पद्मावती पुरवाल दिल्ली' ने किया है। पुस्तक-लेखन और प्रकाशन दो अलग व्यवस्थाएं हैं। लेखक का इसमें कोई सरोकार नहीं रहता कि पुस्तक का मूल्य क्या हो? सशुल्क या नि:शुल्क भेंट दी जाये, इसका निर्णय प्रकाशक का होता है। प्रकाशक के निर्णय से लेखक/संग्रहकर्ता सहमत हो यह आवश्यक नहीं। उक्त पुस्तक का मूल्य प्रकाशक ने धरणेन्द्र-पद्मावती के प्रति कृतज्ञता स्वरूप एक पुष्प चढाने का सुझाव दिया है। लौकिक धरातल पर एक साधर्मी बन्धु के प्रति कृतज्ञता अनेक प्रकार से ज्ञापित की जाती है। आगंतुक का स्वागत पुष्पहार से भी करते हैं। इससे समीचीन श्रद्धा का कोई संबन्ध नहीं होता। अतः संदर्भित प्रकरण में, उक्तानुसार 'दीपावली पूजनम्' के लेखक ने आचार्य श्री के बारे में जो निष्कर्ष ग्रहण किया, वह सही एवं उचित नहीं है। आचार्य श्री आगम के मर्मज्ञ हैं उनकी सहमति के बिना ऐसे मनमाने निष्कर्ष निकालना किसी निस्पृही व्यक्तित्व को विवादित करने जैसा
१४. आर्ष परंपरा के समर्थक और करणानुयोग के उद्भट विद्वान स्व. श्री पं. रतनचन्द जैन मुख्तारः व्यक्तित्व और कृतित्व (द्वितीय संस्करण) का प्रथम खंड सामने है। पृष्ठ 619 पर प्रकाशित शंका-समाधान यथावत् इस प्रकार है
शंका- पद्मावती आदि देवियां पूजनीय हैं या नहीं ?
समाधान- पद्मावती आदि देवियाँ पंचपरमेष्ठियों में गर्भित नहीं होती। इसलिये अरहन्त आदि परमेष्ठी की तरह वे पूजनीय नहीं है किन्तु वे जैनधर्म की अनुयायी हैं, साधर्मी हैं