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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
शिशोर्मातरि गर्भिण्यां चलाकर्म न कारयेत्।
गते तु पंचमे वर्षे दोषयेन्नहि गर्भिणी॥२॥ बालक की माता के गर्भवती होने पर यह क्रिया करने पर गर्भ के बालक और गर्भवती पर विपत्ति आ सकती है। अतएव बालक की माता के गर्भवती होने पर यह चूलाकर्म क्रिया नहीं करनी चाहिये। यदि पांचवें वर्ष बाद यह क्रिया हो तो माता के गर्भवती होने पर भी कोई दोष नहीं है। "जैनसंस्कारविधि" पृष्ठ 63-641
नापित के द्वारा माता सहित बालक के पूर्व दिशा या उत्तर दिशा में मुख करके बैठने पर छुरे से मुंडन मंत्र पूर्वक कराया जाता है। बालक के बालों को गीले आटे में लपेटकर जलाशय पहुंचाते हैं। शान्तिविसर्जन पूर्वक तथा वस्त्राभूषण पहिनाकर बालक की चोटी के स्थान पर केशर से साथिया बना मुनिराज या मंदिर के दर्शन कराते हैं। अन्त में दान भोजनादि के साथ क्रिया संपन्न की जाती है।
तेरहवीं "लिपिसंख्यान" क्रिया है जो पांचवें वर्ष के अंत में सूर्य के उत्तरायण होने पर की जाती है। इस क्रिया के लिये बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार अत्यन्त शुभ माने गये हैं, रविवार और सोमवार मध्यम दिन है परन्तु शनिवार और मंगलवार निकृष्ट दिन माने गये
___ इस क्रिया में अनध्याय, प्रदोषकाल, चतुर्थी, षष्ठी, नवमी और चतुर्दशी तिथि हेय हैं। इस क्रिया को घर में या विद्यालय में बालक को स्नान करा पवित्र वस्त्राभूषण पहिना यंत्रपूजन हवनादि के साथ करना चाहिये। उपाध्याय बालक से शुद्ध केशर से काठ की सुंदर चिकनी पट्टी पर "ॐ" लिखवाता है और "ॐ नमः सिद्धेभ्यः" लिखवाकर उच्चारण कराता है। बालक के हाथों में पुस्तक और पट्टी देते हैं। बालक गृहस्थाचार्य, उपाध्याय, माता-पिता आदि गुरुजनों को प्रणाम कर, चरणस्पर्श कर आशीर्वाद लेता है। अंत में विद्यागुरु और गृहस्थाचार्य का द्रव्य वस्त्रादि से सम्मान कर विद्यादान के साथ शांतिविसर्जन किया जाता है।
चौदहवीं उपनयन क्रिया या यज्ञोपवीत क्रिया है जो 'उपनीति' क्रिया नाम से भी कही गई है। यह क्रिया बालक के आठवें वर्ष में प्रवेश करने के बाद 24वें वर्ष तक की जा सकती है।
"आदिपुराण" में इस क्रिया के लिये आठवाँ वर्ष ही उपयुक्त माना गया है क्योंकि इस वर्ष तक बालक अत्यन्त आज्ञाकारी होता है और धार्मिक भावनाओं का आगे विकास होने का अवसर सुलभ होता है। शुभ दिन शुभ मुहूर्त और मुनिसंघ आदि के नगर में विराजमान होने पर यंत्रपूजन हवनादि के साथ यह क्रिया होनी चाहिये। गृहस्थाचार्य विधि पूर्वक इस क्रिया को कराते हैं और श्रावकाचार पालन करने एवं विवाह होने तक ब्रह्मचर्यव्रत पालने की प्रतिज्ञा कराते हैं। अन्य आवश्यक ज्ञान भी दिया जाता है। इस प्रकार बालक ब्रह्मचर्य के साथ जैन श्रावकाचार धारण कर उत्कृष्ट ज्ञान की आराधना करने में विद्याभ्यास में मन को लीन रखता है।