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अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011
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भगवान् महावीर के चारों संघों को चलाने वाला या उनका भार वहन करने वाला निर्मोही गृहस्थ है। धार्मिक गृहस्थों के बिना समाज व्यवस्था या संघ व्यवस्था या राज्य और राष्ट्र व्यवस्था तथा विश्वव्यवस्था चरमरा जायेगी ।
पं. शिवजी राम पाठक प्रतिष्ठाचार्य ने " जैनसंस्कारविधि" के पृष्ठ 51 पर लिखा है
स्वगृहे प्राक् शिरः कुर्यात् श्वासुरे दक्षिणामुखः । प्रत्यङ्मुखः प्रवासे च न कदाचिदुदङ्मुखः ॥ १ ॥ पादौ प्रक्षालयेत् पूर्वं पश्चात् शव्यां समाचरेत्। मृदुशय्यां स्थितः शेते रिक्तशय्यां परित्यजेत् ॥ २ ॥
"अपने घर में पूर्व की ओर सिरहाना करके सोवें, ससुराल में दक्षिण की ओर सिरहाना करके और प्रवास में पश्चिम की ओर सिरहाना करके सोवें। उत्तर की ओर सिरहाना करके ना सोवें। सोने के पहले अपने पैरों को अच्छी तरह धोवें। शय्या कोमल हो कठोर नहीं हो। "
सहवास महीने में तीन या चार बार से अधिक नहीं हो तो अच्छी संतान होगी ऐसा आयुर्वेदादि ग्रंथों में भी लिखा है।
दूसरी प्रीति क्रिया है जो गर्भाधान होने पर तीसरे महीने में होती है और भगवान् जिनेन्द्र की पूजा आदि से उसका संबंध है। दम्पति युगल को धर्माराधना में यथाशक्ति समय लगाना चाहिये। सुयोग्य संतान की प्राप्ति या सुखमय संसार पुण्य के फलों के अन्तर्गत गिना जाता
है।
तीसरी सुप्रीति क्रिया है जो गर्भाधान के पाँचवें महीने में शुभ मुहूर्त में मंदिर में भगवान् जिनेन्द्र की पूजा आदि के साथ की जाती है।
चौथी धृति क्रिया गर्भाधान के सातवें महीने में शुभ मुहूर्त में भगवान् जिनेन्द्र पूजन आदि के साथ संपन्न होती है। आज भी सादों के नाम से समाज में यह क्रिया प्रचलित है। सभी क्रियायें धार्मिक भावनाओं से भरी है जिनका संबंध सुयोग्य धार्मिक संतान की प्राप्ति से जुड़ा है।
पाँचवी मोह क्रिया गर्भाधान के आठवें महीने में होती है। इसमें शुभ मुहूर्त में जिनेन्द्र पूजन के साथ अन्य क्रियायें होती हैं। इसे कुछ समाजों में "आठवां पूजना" नाम दिया गया है। बाधाएं हों तो यह क्रिया आठवें या नवमे माह में की जा सकती है।
छठवीं क्रिया प्रियोद्भव क्रिया या "जातकर्म संस्कार क्रिया" है जिसमें संतान होने के पश्चात् जिनेन्द्र, यन्त्र पूजन तथा हवन आदि क्रियायें की जाती हैं। यदि लड़की पैदा हुई तो क्रियाओं के मंत्र नहीं बोलकर केवल द्रव्यमात्र से ही पूजनादि करना चाहिये ऐसा श्री पं. पाठकजी ने लिखा है। इन क्रियाओं का वर्णन उपासकाध्ययनांग में है।
सातवीं क्रिया “ नामकरण" क्रिया है। इसे "नामसंस्कार" क्रिया भी कहते हैं। पं. शिवजी राम पाठक ने लिखा है
द्वादशे षोडशे विंशे द्वात्रिंशे दिवसेऽपि वा । नामकर्म स्वजातीनां कर्तव्यं पूर्वमार्गतः ॥