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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
डालूँगा।
आधानं प्रीतिसुप्रीती धृतिर्मोदः प्रियोद्भवः। नामकर्मबहिर्याननिषद्याः प्राशनं तथा।।५५॥ व्युष्टिश्च केशवापश्च लिपिसंख्यानसंग्रहः।
उपनीतिव्रतं चर्या व्रतावतरणं तथा॥५६॥ "1. आधान 2. प्रीति 3. सुप्रीति 4 धृति 5. मोद 6. प्रियोद्भव 7. नामकर्म 8. बहिर्यान 9. निषद्या 10. प्राशन 11. व्युष्टि 12. केशवाप 13. लिपिसंख्यान संग्रह 14. उपनीति 15. व्रतचर्या 16. व्रतावतरण।"
इन 16 क्रियाओं का बचपन से विद्यार्जन तक जीवन पर्यन्त संस्कारों की श्रेष्ठता लाने में अच्छा प्रभाव पड़ता है। इन संस्कारों से भावी संतान का जीवन समुज्वल एवं धार्मिक बनता है। संस्कार भूत, भविष्यत् और वर्तमान की सुखी जीवन की कुंजी है और रामबाण औषधि है। अतः कहा गया है
सुखं वाञ्छन्ति सर्वेऽपि जीवा दुःखं न जातुचित्।
तस्मात् सुखैषिणो जीवा संस्कारायाभिसंमताः॥ "पू. क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी" ने “जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश" के पृष्ठ 149 पर संस्कारों के महत्त्व के विषय में निम्न प्रकार डंके की चोट लिखा है
"व्यक्ति के जीवन की संपूर्ण शुभ और अशुभ वृत्ति उनके संस्कारों के अधीन है। जिनमें से कुछ पूर्वभव से अपने साथ लाता है और कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है। इसीलिये गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करने के लिये विधान बताया गया है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर जिनेन्द्र पूजन व मंत्र विधान सहित 53 क्रियाओं का विधान है, जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाण का भाजन बन जाता है।"
खदान से निकले हीरे जवाहरातों को संस्कारों द्वारा निर्मल और चमकीला बनाया जाता है तभी उनका निखार होता है और कीमत बढ़ जाती है। "भक्तामर स्तोत्र" में कहा गया
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु। तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि॥२०॥ "हे जिनेन्द्र देव! अनन्त पर्यायात्मक ज्ञान जैसा आप में शोभायमान होता है वैसा ज्ञान हरिहरादि नायक देवों में नहीं शोभा पाता जिस प्रकार संस्कारित चमकीले मणियों में तेज गौरव को पाता है। उस प्रकार चमकते कांच के टुकड़ों में तेज शोभा नहीं देता। 20।।
इसीलिये जिनेन्द्रदेव त्रिलोकी सर्वज्ञ कहे जाते हैं। बालक बिना संस्कारों के उच्च