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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 ___ "जन्म से बारहवें, सोलहवें, बीसवें अथवा बत्तीसवें दिन में शुद्ध शुभ मुहूर्त में अपने बच्चे या बच्ची का वंश परंपरा के अनुसार "नामकरण संस्कार" करना चाहिए।
इस क्रिया में पूजन, यंत्रपूजन आदि मंगल क्रियायें की जाती हैं। “घटपत्र विधि" से भगवान् जिनेन्द्र देव के 1008 नामों में से इच्छानुसार कागज के टुकड़ों पर लिख गोलियाँ बनाकर घड़े में डालकर किसी अबोध बालक से गोली निकलवाकर मंत्र पूर्वक "नामकरण' किया जाता है। वर्तमान में तो मनमाना घर का नाम रखा जाने लगा है और जन्मकुंडली के अनुसार राशिनाम प्रचलित होने लगा है। "जैनेन्द्र सिद्धांत कोष" में 12वें दिन नाम संस्कार करने का उल्लेख है।।
आठवीं "बहिर्यान" क्रिया है। जन्म से 1 माह 15 दिन बाद किसी शुभ मुहूर्त में माता-पिता बालक को स्नानादि करा नये वस्त्र पहनाकर यंत्रपूजन हवनादि के पश्चात् बालक को मंदिर गाजे बाजे के साथ गृहस्थाचार्य के साथ ले जावें तथा आवश्यक क्रियायें कराकर घर लावें । “जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष" में जन्म से 3 या चार माह पश्चात् इस क्रिया के करने का विधान किया है। ___ नवम "निषद्या" क्रिया है जो तीसरे चौथे महीने के बाद किसी शुभ दिन में मंत्रपूर्वक बालक या बालिका को झूले में बिठाकर झुलाते हैं। किसी शुभ दिन में नाक और कान छिदवाते हैं। यंत्र पूजन और हवनादि क्रियायें की जाती हैं।
दसवीं "अन्नप्राशन" क्रिया है जिसे सातवें या नौवें महीने में शुभ मुहूर्त में यंत्र पूजन हवनादि के साथ किया जाता है। बालक को माता-पिता गोद में बिठाकर पूर्व दिशा में मुख करते हैं और बालक का दक्षिण दिशा में मुख कर घृत मिश्री मिश्रित खीर खिलाते हैं।
ग्यारहवीं व्युष्टि क्रिया या 'वर्षवर्धन संस्कार" किया जाता है। यह क्रिया दसवें, ग्यारहवें या बारहवें महीने में जब बालक चलने योग्य हो जाता है तब की जाती है। इसमें शुभ दिन शुभ मुहूर्त में जिनेन्द्रपूजन हवनादि के पश्चात् पिता बालक को उत्तरमुख करके अपने हाथों से दोनों भुजायें पकड़कर मंत्रोच्चार पूर्वक बालक का दाहिना पाँव आगे को पूर्वोन्मुख गमन करना सिखाता है। इसे वर्षगाँठ भी कहते हैं।
वर्तमान में आंग्ल पद्धति से केक काटने के साथ तथा मोमबत्तियाँ वर्षों के अनुसार प्रज्वलित करके तथा बुझा करके की जाती है। केक काट कर खिलाते हैं तथा प्रीतिभोज दिया जाता है। इस प्रीतिभोज में सब अपने-अपने हाथों से उठाकर खाते जाते हैं। अब खान पान की शुद्धता जाती रही। सब जूते-चप्पल पहिन कर खाते हैं। इसे 'बफे सिस्टम' कहा जाता है जो समाज में प्रचलित हो गया है। यह कलियुग की बलिहारी देन है।
बारहवीं "चौलक्रिया" या "केशवाप" क्रिया कहलाती है। इसे दूसरे वर्ष से पंचम वर्ष के भीतर किसी भी वर्ष के शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में किया जा सकता है परन्तु यह क्रिया निम्न श्लोकों में दिये गये आदेशों को ध्यान में रखकर करना चाहिये। यंत्र पूजन हवनादि होना चाहिए।
चूलाकर्म शिशोर्मातरि गर्भिण्यां यदि वा भवेत्। गर्भस्य वा विपत्तिः स्याद् विपत्तिर्वा शिशोरपि॥१॥