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भरत चक्रवर्ती प्रवर्तित विद्यासंस्कार
- प्रो. हीरालाल पांडे
पाँच म्लेच्छ खंडों एवं एक आर्यखण्ड को साठ हजार वर्षों में जीत कर भरत ने षटखंडों का एक छत्र सम्राट् बन सोचा कि मैं परोपकार में किस प्रकार अपनी संपदा का सदुपयोग करूँ? अनगार, अपरिग्रही, निग्रंथ मुनि किसी से धन नहीं लेते अतएव गृहस्थों में जो मनुष्य हैं और अणुव्रतों को धारण करने वाले हैं उनको इच्छित धन तथा सवारी आदिक वाहनों को देकर संतुष्ट करना चाहिये, जिससे समाज व्यवस्था समुन्नत हो और प्रत्येक व्यक्ति धर्म के पालन में दृढ़ चित्त हो और जन्म-मरण के दु:खों से मुक्त हो- मुक्ति पाने में समर्थ हो।
इसी तथ्य को “महापुराण" के अड़तीसवें सर्ग के अष्टम पद्य में प्रकट किया गया
येऽणुव्रतधरा धीरा धौरेया गृहमेधिनाम्।
तर्पणीया हि तेऽस्माभिः ईप्सितैर्वसु वाहनैः॥८॥ अतः भरत चक्रवर्ती ने इस महोत्सव में आने के लिये आदेश प्रसारित कर दिया। नियत दिनांक को नियत समय पर सभी राजा अपने-अपने सदाचारी इष्ट मित्र, परिवार सदस्य, नौकर-चाकर आदि को साथ ले उपस्थित हुए। परीक्षार्थ भरतचक्री ने महोत्सव के मार्ग को हरे-हरे अंकुरों, पुष्पों तथा फलों से सुंदर बनाकर दो भागों में बांट दिया था।
जो अणुव्रतधारी नहीं थे वे हरे भरे अंकुरित एवं पुष्पफलमय राह को पार कर उत्सव में पहुंचे परन्तु व्रतधारी अणुव्रती हिंसा के डर से बिना सजे रेतीले मार्ग से उत्सव में पहुंचे।
इन व्रतधारियों को भरतचक्री ने द्विज या ब्राह्मण संज्ञा दी और ब्राह्मण जाति या वर्ण की स्थापना की। इसका संकेत "महापुराण" के अड़तीसवें सर्ग के 23वें पद्य में किया है
अथ ते कृतसन्माना: चक्रिणा व्रतधारिणः।
भजन्ति स्म परं दाढर्य लोकश्चैनानपूजयत्॥२३॥ "भरतचक्री द्वारा सम्मानित व्रतधारी अणुव्रती द्विज-ब्राह्मण व्रतों में पक्के बन गये और अव्रती और अन्य लोगों ने उनको अधिक सन्मान या पूजा का पात्र माना।"
भरत चक्री ने इन द्विज या ब्राह्मणों को इज्या-देवपूजा के प्रकार 1. सदार्चन (मंदिर में प्रतिदिन जिनेन्द्र देव का पूजन), 2. चतुर्मुख (महामुकुट बद्ध राजाओं द्वारा महापूजन यज्ञ), 3. कल्पद्रुम (चक्रवर्तियों द्वारा किमिच्छक-मुंहमांगा दान दिया जाने वाला पूजन यज्ञ), 4. आष्टाह्निक (आष्टाह्निका पर्व में पूजन विधान यज्ञ), 5. ऐन्द्रध्वज
(इन्द्रों द्वारा किया जाने वाला महायज्ञ)। इन पाँच पूजनों का तथा 2 वार्ता (विशुद्ध