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वेदान्त और स्वरूपसम्बोधन परिशीलन
डॉ. जयकुमार
भारतीय दर्शन सम्प्रदायों में वैदिक विचारधारा का सर्वोत्कृष्ट दर्शन संप्रदाय वेदान्त माना जाता है। श्री सदानन्द यति ने वेदान्तसार में ' वेदान्तो नामोपनिषत्प्रमाणम्" कहकर वेदान्त का अर्थ वेद की अंतिम कड़ी उपनिषद् माना है, जबकि श्री बलदेव उपाध्याय अन्त शब्द का अर्थ रहस्य सा सिद्धान्त मानकर वेदान्त का अर्थ वेद का मन्तव्य स्वीकार करते हैं। प्रोफेसर सत्यदेव मिश्र ने लिखा है कि 'उपनिषदों से उद्भूत, गीता के द्वारा सुविकसित तथा ब्रह्मसूत्रों के सुप्रतिष्ठापित वेदान्त का वैदिक दर्शनों में विशिष्ट स्थान है। गीता उपनिषदों का सार है और ब्रह्मसूत्र औपनिषद् मंत्रों का संक्षिप्त रूप है, अतएव वेदान्त वस्तुतः औपनिषद् दर्शन है।
जैन
अवैदिक विचारधारा के दर्शनों में जैनदर्शन का माहात्म्य सर्वत्र स्वीकृत है। अनेकान्तवाद की सरणि पर आश्रित होने के कारण यह दर्शन किसी एक दृष्टिकोण का हठाग्रह न रखकर वस्तु के किसी विशिष्ट धर्म को जब प्रधानतया व्याख्यापित करता है तो अन्य धर्मों को गौण मानकर चलता है, उनका न विवेचन करता है और न निषेध ही करता है। इसी कारण जैनदर्शन को निर्णायक की भूमिका का निर्वाहक कहा जाता है। स्वरूपसंबोधन तर्कशास्त्र की पद्धति पर रचित आध्यात्मिक दर्शन ग्रंथ है। इसके परिशीलन में आचार्य विशुद्धसागर महाराज ने आत्मविषयक विविध वैदिक एवं अवैदिक दार्शनिक मान्यताओं का उपस्थापन कर उनका सयुक्तिक निरसन किया है। इस प्रसंग में वेदान्त की आत्मविषयक मान्यताओं का निरसन प्रस्तुत आलेख का विषय है।
आत्मा अद्वैत वेदान्त का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य है, क्योंकि इसके ज्ञान के द्वारा ही परब्रह्म परमात्मा को जाना जा सकता है। आत्मा की सिद्धि को स्वयंसिद्ध मानकर वेदान्ती किसी प्रकार का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझते हैं। आद्य शंकराचार्य ने स्पष्टतया कहा है- 'आत्मा तु प्रमाणादिव्यवहाराश्रयत्वात् प्रागेव प्रमाणादिव्यवहारात् सिद्धयति, न च तस्य निराकरणं संभवति । आगन्तुकं हि वस्तु निराक्रियते, न स्वरूपम्। न हि अग्नेरुष्णाग्निना निराक्रियते।' स्पष्ट है कि आचार्य शंकर की दृष्टि में आत्मा स्वयंसिद्ध है। वह कोई बाह्य वस्तु नहीं है, अतएव उसका निराकरण असंभव है। निराकरण तो आगन्तुक वस्तु का होता है, स्वरूप का नहीं। अग्नि से उसकी ऊष्मा का निराकरण नहीं किया जा सकता है।
वेदान्त आत्मा को सत्, चित्, एक अखण्ड, अद्वैत, अमूर्तिक, सर्वगत मानकर उसे ब्रह्म का अंश स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक आत्मा को कथंचित् सत्, चित् एक, अद्वैत, अमूर्तिक एवं सर्वगत तो मानते हैं, परन्तु एकान्त रूप से नहीं। स्वरूप संबोधन परिशीलन