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विष्णुपुराण में जैनधर्म
- डॉ. रमेशचन्द जैन
विष्णुपुराण के अनुसार ध्रुव की संतान परंपरा में अंग नामक राजा का सुनीथा रानी से वेन नामक पुत्र हुआ।' सुनीथा मृत्यु की पुत्री थी। वह वेन जब राजपद पर अभिषिक्त हुआ तो उसने विश्वभर में घोषित कर दिया कि मैं ही भगवान् हूँ। यज्ञपुरुष और यज्ञ का भोक्ता एवं स्वामी मैं ही हूँ, इसलिए अब कभी कोई मनुष्य दान और यज्ञादि न करे। ब्रह्मा, विष्णु, शम्भु, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, पूषा, पृथ्वी और चन्द्रमा अथवा अन्य जो भी देवता या अनुग्रहकारी हैं, उन सभी का निवास राजा में होने के कारण राजा सर्वदेवमय होता है। हे द्विजो! यह जानकर मेरे ओदश का पालन करो। किसी को भी दान, यज्ञ, हवनादि नहीं करना चाहिए। हे ब्राह्मण! जैसे स्त्री का परमधर्म पतिसेवा है, वैसे ही आपका परमधर्म मेरी आज्ञा का पालन है। ऋषियों ने कहा- हे राजन्! आपका आदेश ऐसा होना चाहिए, जिससे धर्म का नाश न हो। यह संपूर्ण विश्व हवि से ही उत्पन्न हुआ है। जब महर्षियों के पुनः पुनः समझाने पर भी वेन न माना तो अत्यन्त क्रोधपूर्वक वे कहने लगे कि इस पापात्मा को मार डालो। जो अनादि-अनन्त विष्णु का निंदक है, वह आचरण हीन पुरुष राजा नहीं है। यह कहकर उन महर्षियों ने प्रभुनिंदा के कारण पहले से ही मृत हुए उस राजा का मंत्रपूत कुशों के आघात से वध कर दिया। महर्षियों ने सर्वत्र बड़ी धूल उड़ती देखकर अपने पास खड़े लोगों से पूछा कि यह क्या है? तब उन्होंने उत्तर दिया कि इस समय राष्ट्र राजा रहित हो गया है इसलिए दीन दुःखी मनुष्यों ने धनवानों को लूटना आरंभ कर दिया है। उन अत्यन्त वेगवान् लुटेरों से ही यह धूल उड़ रही है। तब उन महर्षियों ने परामर्श कर उस पुत्रहीन राजा वेन की जाँघ को पुत्र प्राप्ति के लिए मथा। उसके मथे जाने से जले हुए लूंठ के समान काले वर्ण का अत्यन्त नाटा और छोटे मुख का एक पुरुष प्रकट हुआ। उसने अत्यन्त आतुरता पूर्वक उन ऋषियों से पूछा कि मैं क्या करूँ? तब उन ऋषियों ने 'निषीदं' अर्थात् 'बैठो' कहा इसलिए वह आगे चलकर निषाद कहा गया। उसके वंशज विन्ध्याचल में रहने वाले, पापकर्मों में रत निषाद हुए। उसी निषाद रूप द्वार के मार्ग से राजा वेन का पाप निकल गया, इस प्रकार निषाद राजा वेन के पापों को नष्ट करने वाले हो गए। ऋषियों ने राजा वेन के दायें हाथ को मथा। उससे पृथु उत्पन्न हुआ। सब प्राणी उसके उत्पन्न होने से प्रसन्न हुए। सत्पुत्र की उत्पत्ति से वेन भी स्वर्ग गया।
उपर्युक्त वर्णन से यह बात द्योतित होती है कि वेन यज्ञीय क्रियाकाण्ड तथा विष्णुभक्ति का घोर विरोधी था। वह जीव स्वातन्त्र्य में विश्वास करता था और द्रव्य दृष्टि से जीवात्मा को परमात्मा मानता था अतः उसने स्वयं को प्रभु घोषित किया तथा यज्ञपुरुष भी स्वयं को माना। जैनधर्म जीवात्मा को ईश्वर या प्रभु मानता है। कर्मबन्धन के कारण