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अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011
प्रकार की पूजाओं के उल्लेख हैं। मंत्रों से युक्त सभी पूजाएं अभिषेक-प्रशाल, आह्नान, स्थापन और सन्निधिकरण पूर्वक अष्ट द्रव्यों-जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल से भाव सहित करने पर असीम फल को प्रदान करती हैं। मंत्रों के बिना पूजन के लिए एक कदम भी नहीं बढ़ाया जा सकता है। अभिषेक के पूर्व की जाने वाली जलशुद्धि, अमृत स्नान, दिग्बन्धन, परिणामशुद्धि, तिलक, रक्षा बन्धन, यज्ञोपवीत, रक्षा, शान्ति, दीप स्थापन, सिद्धयंत्र स्थापन आदि समस्त क्रियाएँ मंत्रोच्चारणपूर्वक ही पूर्ण होती हैं। अभिषेक में प्रत्येक कलश की जलधारा मंत्रपूर्वक छोड़ी जाने पर फलवती होती है। शान्तिधारा में लौकिक एवं पारलौकिक समस्त दुःखों के निवारणार्थं तथा विश्व, देश, समाज और समस्त प्राणियों के कल्याणार्थ मंत्रों के माध्यम से भावनाएं सम्प्रेषित की जाती हैं। पूजा का प्रारंभ महामंत्र 'नवकार' से होता है।
जितने भी मंत्र हैं, सभी मंत्र णमोकार मंत्र से निकले हैं। द्वादशांग जिनवाणी का सार भी यही है । समस्त श्रुतज्ञान की अक्षरसंख्या इसमें निहित है। जैनदर्शन के तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, गुण, पर्याय, नय, निक्षेप, आश्रव, बन्ध आदि इस मंत्र में विद्यमान हैं। समस्त मंत्रों की मूलभूत मातृकाएं इस महामंत्र में अन्तर्निहित हैं।' 'अ' से 'क्ष' पर्यन्त मातृका वर्ण कहे जाते हैं।" इनका सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम रूप से तीन प्रकार का क्रम है। संहारक्रम से कर्म विनाश तथा सृष्टि और स्थिति क्रम से आत्मानुभूति के साथ लौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति में निमित्त हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। 'क' से 'ह' तक व्यंजन वर्ण बीज कहलाते हैं और अ, आ, इ आदि स्वर शक्ति स्वरूप माने गये हैं।" जिन मंत्रों में बीज और शक्ति के संयोग रूप जो वर्ण होते हैं। उनमें उन वर्णों की ध्वनियों की शक्ति के अनुसार शक्ति होती है। प्राच्य और पाश्चात्य सभी विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि श्रद्धा और विश्वासपूर्वक मंत्रोच्चार अवश्य ही फल प्रदान करते हैं। वस्तुतः विश्वास आध्यात्मिक जीवन का आधार है। विश्वास के बिना अनन्तपथ सिद्धत्व की ओर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। श्रद्धा से सम्यक् दृष्टि प्राप्त होती है। ज्ञान का द्वार श्रद्धा से ही खुलता है। श्रद्धा और विश्वास परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। मंत्रों के मूल में भी श्रद्धा और विश्वास प्रमुख हैं। इनके होने पर ही ध्यान की स्थिति बन सकती है और मंत्रों से फल की प्राप्ति हो सकती है। पं. दौलतराम जी ने मोक्षमहल पर चढ़ने के लिए श्रद्धा को प्रथम सीढ़ी कहा है। जब तक मुक्ति के समीप नहीं पहुँच जाते तब तक वीतरागी देवों के मंत्रों का श्रद्धा से स्मरण करना आवश्यक है क्योंकि उन्हीं मंत्रों के चिंतन और मनन से कर्मों का नाश संभव है। सभी मंत्रों में णमोकार मंत्र अनादि है। इसी मंत्र से सभी मंत्र प्रसूत हैं।
पूजा के प्रारंभ में न केवल णमोकार मंत्र की आराधना की जाती है, बल्कि अनिवार्य रूप से पूजा के आवश्यक अंग के रूप में उसका गुणगान, महत्त्व एवं उपयोगिता निम्न प्रकार से बतायी जाती है- 'जो मनुष्य पवित्र या अपवित्र यहां तक कि सुस्थित या दुस्थित भी नमस्कार मंत्र का ध्यान करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। वह अंतरंग और बहिरंग से पवित्र हो जाता है। नवकार मंत्र अजेय है, सभी बिघ्नों तथा पापों का विनाश