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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
5. उस समय नग्न साधुओं का धर्म आर्हत् धर्म के रूप में विश्रुत था। 6. आर्हत् धर्मी हवन, ब्राह्मणभोज, श्राद्ध, हिंसात्मक यज्ञ आदि नहीं मानते थे। 7. वैदिक धर्मी आर्हत् धर्मियों के प्रति मन में घृणाभाव धारण करते थे।
विष्णुपुराण में उन्हें पाखण्डी कहकर उनका कुत्सितयोनियों में जन्म बतलाकर उनके प्रति जुगप्सा व्यक्त की गई है। इस हेतु विष्णुपुराण के तृतीय अंश का अठारहवाँ अध्याय दृष्टव्य है। विष्णुपुराण ने जैनधर्म को विकृत रूप में वर्णित करने का प्रयास किया है, किन्तु इन वर्णनों से भी अनेक सत्य और तथ्य उभरकर सामने आते हैं। इससे आर्हत् परंपरा की प्राचीनता पर भी प्रकाश पड़ता है। विष्णुपुराणकार ऋषभदेव को यज्ञकर्ता मानकर भी उनके नग्न (दिगम्बर) रूप को छिपा नहीं सके। संदर्भ:
1. विष्णुपुराण 13/1-7 2. वही 13/11 3. वही 13/13-14 4. वही 13/21-22 5. वही 13/23-29 6. विष्णुपुराण) 13/30-37 7. विष्णुपुराण 2/1/1-2 8. विष्णुपुराण 2/1/28-35 9. वही 3/17/5-6 10. वही 3/18/1-12 11. वही 3/18/23-31 12. तस्मादेतान्नरो नग्नांस्त्रयीसन्त्यागदूषितान्।
सर्वदा वर्जयेत्प्राज्ञ आलापस्पर्शनादिषु।। विष्णुपुराण ।। 3/18/50 13. वही 3/18/56 14. वही 3/18/69
- बिजनौर (उत्तरप्रदेश)