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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
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भगवान् कभी भी पररूप नहीं होते, वे स्वचतुष्टय में ही विराजते हैं। फिर भिन्न-भिन्न देहों में रहने वाले जगत् प्राणी एक ईश्वर अंश किसी भी अवस्था में नहीं हो सकते हैं। न पिता की आत्मा पुत्र में हो सकती है, ऐसे ही पुत्र पिता का अंश नहीं है, दोनों ही स्वतंत्र जीवद्रव्य हैं। 16
इस प्रकार वेदान्तविषयक मान्यताओं का जैनदर्शनानुसार प्रतिपादन एवं निरसन करके आचार्यश्री ने सत्यार्थ आगमप्ररूपणा की है। अन्त में उन्हीं के कथन से मैं आलेख को समाप्त करता हूँ कि 'सत्यार्थ आगम प्ररूपक की दुर्गति नहीं हो सकती तथा विपरीत कथन करने वाले की दुर्गति ही होती है। अब निर्णय स्वयं दीजिए कि क्या करना है? मूलाचार जी में गुरु के प्रतिकूल चलने वाले की असमाधि लिखी है, फिर जो जिनदेव के प्रतिकूल चलें, उनकी समाधि कैसी? समाधि के अभाव में सुगति कैसी? 17 संदर्भः
1. वेदान्तसार 2. भारतीय दर्शन
वेदान्त में बौद्ध सन्दर्भ, पुरोवाक् 4. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य 5. स्वरूपसंबोधन परिशीलन, पृष्ठ 85 6. वही, पृष्ठ 67 7. वही, पृष्ठ 75 8. वही, पृष्ठ 76 9. वही, पृष्ठ 70 10. वही, पृष्ठ 168-169 11. वही, पृष्ठ 212 12. वही, पृष्ठ 212 13. वही, पृष्ठ 86 14. वही, पृष्ठ 69 15. वही, पृष्ठ 65 16. वही, पृष्ठ 155 17. वही, पृष्ठ 105
- एसोसिएट प्रोफेसर-संस्कृत विभाग
एस. डी. (पी.जी.) कालेज
मुजफ्फरनगर (उ०प्र०)