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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
से उत्पन्न होने वाली वनस्पितयाँ भी रही हैं। सेवाग्राम आश्रम में संतरों के बगीचे में परंपरानुसार फल आने के अवसर पर मिठास इत्यादि के लिए पानी बन्द कर देने की कृषि पद्धति थी। गांधी जी को इससे मर्मान्तक पीड़ा हुई और उन्होंने आश्रमवासियों से कहा यदि मुझे कोई पानी बगैर रखे और प्यास से मेरी मृत्यु हो तो तुम्हें कैसा लगेगा। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' यह सदा याद रखो। भारतवर्ष का जैन समाज उन सभी के प्रति हृदय से कृतज्ञ है। राजधानी में मुगलों की सत्ता के प्रमुख केन्द्र लालकिले की पर्दे वाली दीवार के ठीक सामने 'परिन्दों का अस्पताल' जैनधर्म की सहस्राब्दियों की परंपरा को स्थापित किए हुए है। इस धर्मार्थ चिकित्सालय की परिकल्पना 1924 ई. में कुछ धर्मानुरागी श्रावकों ने की थी। वर्तमान में दिगम्बरत्व को सार्थक रूप एवं शक्ति प्रदान करने में अग्रणी परमपूज्य आचार्य शिरोमणि चारित्र चक्रवर्ती स्व. श्री श्री शांतिसागर जी महाराज की धर्मदेशना से प्रभावित होकर इस चिकित्सालय का शुभारंभ श्रमण संस्कृति के प्रभावशाली केन्द्र श्री लाल मंदिर जी (चांदनी चौक) में हो गया। अस्पताल की उपयोगिता को अनुभव करते हुए धर्मध्वजा करुणा एवं मैत्री की जीवन्त मूर्ति परमपूज्य आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज के पावन सान्निध्य में भारत सरकार के केन्द्रीय गृहमंत्री लौहपुरुष श्री गोविन्दवल्लभ पन्त ने 24 नवम्बर, 1957 को अस्पताल के नए भवन का उद्घाटन किया था। राजधानी के जैन समाज के युवा कार्यकर्ता श्री विनयकुमार जैन की लगन से अस्पताल में तीसरी और चौथी मंजिल को परमपूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी के सान्निध्य में नया रूप प्रदान किया गया है। पिछले वर्ष इस अस्पताल का कुछ विकास हुआ है जिसके कारण देश-विदेशों में इसकी लोकप्रियता बढ़ी है और धर्म के मिशन के प्रति विश्वव्यापी सद्भावनाएँ प्राप्त हो रही हैं।
वास्तव में पशु-पक्षी चिकित्सालय किसी भी धर्म का व्यावहारिक मंदिर है। इस प्रकार के मंदिर धर्म के स्वरूप को वास्तविक वाणी देते हैं। जैनविद्याविशेषज्ञ डा. मोहनचंद ने 26 दिसम्बर 1982 को अस्पताल की सुझाव पुस्तिका में अपनी सम्मति देते हुए लिखा है:- "संसार में अपनी भूख को शांत करने के लिए जो पक्षियों को अपना आहार बनाते हैं, ऐसे लोग, काश! इस अस्पताल को देख लें तो शायद उन्हें उपदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।"
जैनधर्म के आद्य तीर्थंकर श्री ऋषभदेव से लेकर आजतक करुणा की जो अजस्र धारा मानव मन को अपूर्व शान्ति एवं सुख का संदेश दे रही है उस सात्त्विक भाव को विश्वव्यापी बनाने के लिए जैन समाज को संकल्प के साथ रचनात्मक रूप देना चाहिए। विश्व की संहारक शक्तियों में सदाशयता का भाव भरने के लिए करुणा के मानवीय एवं हृदयस्पर्शी चित्रों का प्रस्तुतीकरण होना आवश्यक है। आज का विश्व भगवान् महावीर स्वामी, भगवान् बुद्ध एवं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की वाणी को साकार रूप में देखना चाहता है। अतः सहस्राब्दियों से करुणा एवं अहिंसा के प्रतिनिधि जैन समाज को कुछ इस प्रकार के वैचारिक कार्यक्रम बनाने चाहिए जिससे आज की प्रज्ञावान् पीढ़ी को सही दिशा मिल सके। क्या जैन समाज आज की परिस्थितियों में भगवान् महावीर के ओजस्वी व्यक्तित्व