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4555555555555555555555555555555555555 ॐ भंग-चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में पाया जाता है। सयोगी अवस्था में उसने ऐर्यापथिक कर्म बाँधा था; ज 卐 किन्तु एक समय पश्चात् ही चौदहवें गुणस्थान की प्राप्ति हो जाने पर शैलेशी अवस्था में नहीं बाँधता, तथा ॥ + आगामीकाल में नहीं बाँधेगा। ५. पाँचवाँ भंग-यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने आयुष्य के पूर्वभाग में + उपशमश्रेणी आदि नहीं की, इसलिए नहीं बाँधा, वर्तमान में श्रेणी प्राप्त की है, इसलिए बाँधता है और भविष्य में :
भी बाँधेगा। ६. छठा भंग-शून्य है। यह किसी भी जीव में नहीं पाया जाता, क्योंकि छठा भंग है-नहीं बाँधा,
बाँधता है, नहीं बाँधेगा। प्रथम की दो बातें तो किसी जीव में सम्भव हैं, लेकिन ‘नहीं बाँधेगा' यह बात एक ही 9 भव में नहीं पाई जा सकती। ७. सप्तम भंग-भव्यविशेष की अपेक्षा से है। ८. अष्टम भंग-अभव्य की अपेक्षा 卐 से है।
१. सादि-सान्त, २. सादि-अनन्त, ३. अनादि-सान्त, और ४. अनादि-अनन्त, इन चार विकल्पों में से ऊ केवल प्रथम विकल्प-सादि-सान्त में ही ऐर्यापथिक कर्मबन्ध होता है, शेष तीन विकल्पों में नहीं।
जीव के साथ ऐर्यापथिक कर्मबन्धांश सम्बन्धी चार विकल्प-इसके पश्चात् चार-विकल्पों द्वारा ऐर्यापथिक कर्मबन्धांश सम्बन्धी प्रश्न उठाया गया है। उसका आशय यह है-(१) देश से देशबन्ध-जीव-आत्मा के एक देश ऊ से, कर्म के एक देश का बन्ध, (२) देश से सर्वबन्ध-जीव के एक देश से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध, (३) सर्व से ऊ
देशबन्ध-सम्पूर्ण जीव प्रदेशों से कर्म के एक देश का बन्ध, और (४) सर्व से सर्वबन्ध-सम्पूर्ण-जीव प्रदेशों से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध-इनमें से चौथे विकल्प से ऐर्यापथिक कर्म का बन्ध होता है, क्योंकि सर्व आत्म प्रदेशों पर एक समान कर्म बन्ध ही होता है, जीव का ऐसा ही स्वभाव है, शेष तीन विकल्पों से जीव के साथ कर्म का बन्ध नहीं होता।
साम्परायिक कर्मबन्ध-कषाय निमित्तक कर्मबन्धरूप साम्परायिक कर्मबन्ध के स्वामी के विषय में प्रथम प्रश्न ऊ में सात विकल्प उठाये गये हैं, उनमें से (१) नैरयिक, (२) तिर्यंच, (३) तिर्यंची, (४) देव, और (५) देवी, ये 卐 पाँच तो सकषायी होने से सदा साम्परायिक बन्धक होते हैं, (६) मनुष्य-नर, और (७) मनुष्य-नारी ये दो
सकषायी अवस्था में साम्परायिक कर्मबन्धक होते हैं, अकषायी हो जाने पर साम्परायिक बन्धक नहीं होते। ॐ बन्धकर्ता-द्वितीय प्रश्न में साम्परायिक कर्मबन्धकर्ता के विषय में एकत्वविवक्षित और बहुत्वविवक्षित स्त्री, + पुरुष, नपुंसक आदि को लेकर सात विकल्प उठाए गये हैं, जिसके उत्तर में कहा गया है-एकत्वविवक्षित और E बहुत्वविवक्षित स्त्री, पुरुष और नपुंसक, ये ६ सदैव साम्परायिक कर्मबन्धकर्ता होते हैं, क्योंकि ये सब सवेदी हैं। ॐ अवेदी कदाचित् (कभी-कभी) पाया जाता है, इसलिए वह कदाचित् साम्परायिक कर्म बाँधता है। तात्पर्य यह फ़ है-स्त्री आदि पूर्वोक्त छह साम्परायिक कर्म बाँधते हैं, अथवा स्त्री आदि ६ और वेदरहित एक जीव (क्योंकि
वेदरहित एक जीव भी पाया जाता है, इसलिए) साम्परायिक कर्म बाँधते हैं. अथवा पर्वोक्त स्त्री आदि छह और वेदरहित बहुत जीव (क्योंकि वेदरहित जीव बहुत भी पाये जा सकते हैं, इसलिए) साम्परायिक कर्म बाँधते हैं।
तीनों वेदों का उपशम या क्षय हो जाने पर भी जीव जब तक यथाख्यातचारित्र को प्राप्त नहीं करता, तब तक ॐ वह वेदरहित जीव साम्परायिकबन्धक होता है। यह स्थिति ९वें गुण स्थान के अंत में और १०वें गुण स्थान में 5
होती है। यहाँ पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की विवक्षा इसलिए नहीं की गई है कि दोनों में एकत्व और बहुत्व
पाया जाता है, तथा वेदरहित हो जाने पर साम्परायिक बन्ध भी अल्पकालिक हो जाता है। साम्परायिक ऊ कर्मबन्धक के भी ऐर्यापथिक कर्मबन्धक की तरह २६ भंग होते हैं। वे पूर्ववत् समझ लेने चाहिए। साम्परायिक कर्मबन्ध-सम्बन्धी त्रैकालिक विचार-काल की अपेक्षा ऐर्याप
-er गाजी ताजित निनार-काल की अपेक्षा ऐर्यापथिक कर्मबन्ध सम्बन्धी भंग प्रस्तत ॐ किये गये थे, लेकिन साम्परायिक कर्मबन्ध अनादिकाल से है। इसलिए भूतकाल सम्बन्धी जो ‘ण बन्धी-नहीं | भगवती सूत्र (३)
(172)
Bhagavati Sutra (3)
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