Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 576
________________ १०३. [प्र. ] जमालि अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर भगवान गौतम स्वामी श्रमण 9 भगवान महावीर के पास आये और भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन ! यह निश्चित है कि जमालि अनगार आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य था। भगवन् ॐ ! वह जमालि अनगार काल के समय काल करके कहाँ गया है, कहाँ उत्पन्न हुआ है ? ॐ [उ. ] हे गौतम ! इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम स्वामी से कहा-गौतम ! मेरा अन्तेवासी जमालि नामक अनगार वास्तव में कुशिष्य था। उस समय मेरे द्वारा ॐ (सत्सिद्धान्त) कहे जाने पर यावत् प्ररूपित किये जाने पर उसने मेरे कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि + नहीं की थी। उस कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करता हुआ दूसरी बार भी वह अपने आप मेरे पास से चला गया और बहुत-से असद्भावों के प्रकट करने से, इत्यादि पूर्वोक्त कारणों से यावत् वह ॐ काल के समय काल करके किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। 103. (Q.) Having learnt about Jamali's death Bhagavan Gautam i Swami came to Shraman Bhagavan Mahavir and after paying homage and obeisance asked -- Bhante! I am curious to know where your rebel disciple, Jamali, has gone after death and where has he reincarnated? i [A.] “Gautam!" Addressing thus, Shraman Bhagavan Mahavir replied to Bhagavan Gautam Swami — "Gautam! My disciple ascetic Jamali was indeed a rebel. At that time he did not have any faith, inclination and interest in what I said. Having no faith, inclination and interest in what I said, he left me of his own accord. This way he preached his false ideas ... and so on up to... (as aforesaid) he left his earthly body and has reincarnated as a divine being among the Kilvishik devs (servant gods). विवेचन : प्रस्तुत जमालिचरित की प्रेरणा-जमालि के दीक्षा ग्रहण तक के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है, उसका ज्ञान और वैराग्य उत्कृष्ट कोटि का था। माता-पिता के कथन का उसने जितनी निपुणता तथा युक्तिपूर्वक समाधान किया, उसमें उसके ज्ञान गर्भित वैराग्य की झलक मिलती है। दीक्षा लेने के पश्चात् भी उसने उग्र के तपश्चरण कर शरीर को कृश कर डाला। किन्तु जब उसके मन में अपने ज्ञान का मिथ्या अहंकार जाग गया तो वह छद्मस्थ होते हुए भी स्वयं को सर्वज्ञ बताने का दुराग्रह करके सर्वज्ञ-वचनों के विपरीत प्ररूपणा करने लगा। इतनी उत्कृष्ट क्रिया, कठोर चारित्र पालन व तपश्चरण करके भी एकान्त दुराग्रहवश गुरु बनकर विराधक होकर संसार परिभ्रमण करता है। जमालि भगवान के कैवल्य-प्राप्ति के १४ वर्ष पश्चात् प्रथम प्रवचन ॐ निन्हव हुआ। साध्वी प्रियदर्शना (जमालि की संसार-पक्षीया पत्नी) भी पूर्व अनुरागवश उसकी बात का समर्थन करने 卐 लगी। तब उसके शय्यातर ढंक कुंभकार ने उसे अनेक युक्तियों से इस मिथ्या कथन की अव्यावहारिकता तथा निरर्थकता को समझाया। तब वह जमालि का पक्ष छोड़कर अपनी हजार साध्वियों के साथ पुनः भगवान की शरण में चली गई। जमालि का सिद्धान्त 'बहुरत वाद' के नाम से जाना जाता है। (आवश्यकनियुक्ति तथा भाष्य) | भगवती सूत्र (३) (496) Bhagavati Sutra (3) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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