Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 579
________________ 2 5 5 5 5 5 5955 5959595555559 555 59595959595959 55 5 5 5 5 5 5 5 5 95 95 95 2 卐 ததததததி*******தமிழ******************** 卐 [A.] Gautam! Kilvishik devs (servant gods) with a life-span of thirteen Sagaropam dwell higher than the Brahmalok (the fifth heaven) and lower than the Lantak Kalp (specific divine dimension). १०८. [ प्र. ] देवकिब्बिसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति ? [उ.] गोयमा ! जे इमे जीवा आयरियपडिणीया उवज्झायपडिणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया, संघपडिणीया, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकरा अवण्णकरा अकित्तिकरा बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहिय अप्पाणं च परं च उभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणति, पाउणित्ता तस्स टाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति तं जहा - तिपलि ओवमट्ठितीएसु वा तिसागरोवमट्टितीएसु वा तेरससागरोवमट्टितीएसु वा । १०८. [ प्र. ] भगवन् ! किन कर्मों के करने से किल्विषिक देव, किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न होते हैं ? [ उ. ] गौतम ! जो जीव आचार्य के प्रत्यनीक (द्वेषी या विरोधी ) होते हैं, उपाध्याय के प्रत्यनीक होते हैं, कुल, गण और संघ के प्रत्यनीक होते हैं तथा आचार्य और उपाध्याय का अयश ( अपयश ) करने वाले, अवर्णवाद बोलने वाले और अकीर्ति करने वाले हैं तथा बहुत से असत्य भावों (विचारों या पदार्थों) को प्रकट करने से, मिथ्यात्व के अभिनिवेशों (कदाग्रहों) से, अपनी आत्मा को, दूसरों को और स्व- पर दोनों को भ्रान्त और दुर्बोध करने वाले बहुत वर्षों तक श्रमण- पर्याय का पालन करके उसे अकार्य (पाप) - स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल के समय काल करके निम्नोक्त तीन में (से) किन्हीं कित्त्विषिक देवों में किल्विषिक देवरूप में उत्पन्न होते हैं । जैसे कि - ( १ ) तीन ल्योपम की स्थिति वालों में, (२) तीन सागरोपम की स्थिति वालों में, अथवा (३) तेरह सागरोपम की स्थिति वालों में । 108. [Q.] Bhante ! What actions lead to reincarnation as Kilvishik devs? [A.] Gautam! Those beings who are hostile (pratyaneek) to the acharya (head of the organization), hostile to the upadhyaya (teacher of the canon), and hostile to the Kula, Gana and Sangh (Lineage of a single acharya is called Kula. A friendly group of three Kulas is called Gana. An apex body of many Ganas having ascetics endowed with virtues of 5 right knowledge- faith conduct is called Sangh.); those who speak ill of 5 the acharya and upadhyaya, cast aspersions on them, spread calumny about them; those who preach falsehood and mislead themselves as well as others and fill wrong ideas in their minds as well as those of others through dogmatic falsehood; leading an independent itinerant ascetic life for many years and leave their earthly body, without critical review and repenting for the sins committed in the past, at the time of death, such नवम शतक: तेतीसवाँ उद्देशक (499) Jain Education International Ninth Shatak: Thirty Third Lesson 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 595555 55 2 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555952 For Private & Personal Use Only फ्र www.jainelibrary.org

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