Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 402
________________ 5555555555555555555555555555E 卐 खवेइ, अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया लोभे खवेइ, पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता संजलणे कोह-माण-माया-लोभे 卐 खवेइ। संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दरिसणावरणिज्जं पंचविहमंतराइयं तालमत्थकडं च णं मोहणिज्जं कटु कम्मरयविकरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते ॐ अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाण-दंसणे समुप्पज्जति। २६. वह (पूर्वोक्त) अवधिज्ञानी बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों के प्रभाव से, अनन्त ॐ नैरयिकभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त (-विमुक्त) कर लेता है, अनन्त तिर्यञ्चयोनिक भवों में के से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है, अनन्त मनुष्यभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर ! - लेता है और अनन्त देव-भवों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है। जो ये नरकगति, ॐ तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति नामक चार उत्तर (कर्म-) प्रकृतियाँ हैं, उन प्रकृतियों के । 卐 आधारभत अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करके अप्रत्याख्यानकषाय क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है, प्रत्याख्यान क्रोधादि कषाय का क्षय करके प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय + करता है; प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय का क्षय करके संज्वलन के क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। संज्वलन के क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करके पंचविध (पाँच प्रकार के) ॐ ज्ञानावरणीय कर्म, नवविध (नौ प्रकार के) दर्शनावरणीय कर्म, पंचविध अन्तराय कर्म को तथा मोहनीय कर्म को कटे हुए ताड़ वृक्ष के समान बनाकर, कर्मरज को बिखेरने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट ॐ उस जीव के अनन्त, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, कृत्स्न (सम्पूर्ण), प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ म केवलज्ञान और केवलदर्शन (एक साथ) उत्पन्न होता है। 26. With the effect of the enhancing noble mental activity (prashast adhyavasaaya) that (aforesaid) Avadhi-jnani extricates his soul from 4 infinite infernal rebirths, extricates his soul from infinite animal rebirths, extricates his soul from infinite human rebirths and extricates his soul from infinite divine rebirths. He destroys anger, conceit, deceit and greed of extreme bond-intensity (anantanubandhi) that are the root cause of the aforesaid four auxiliary species (uttar-prakriti) of karmas, causing the aforesaid rebirths, namely infernal, animal, human and 45 divine. After destroying anger, conceit, deceit and greed of extreme bond- y 41 intensity (anantanubandhi) he destroys unrenounced passions (apratyakhyan kashaya) including anger, conceit, deceit and greed. After destroying unrenounced passions he destroys evanescent (sanjualan) anger, conceit, deceit and greed. After destroying evanescent (sanjvalan) anger, conceit, deceit and greed he dissipates the karmic dust by turning 4 five kinds of knowledge obstructing karmas (Jnanavaraniya), nine kinds 4 卐 of perception/faith obstructing karmas (Darshanavaraniya), five kinds of 听听FFFF भगवती सूत्र (३) (338) Bhagavati Sutra (3) 555 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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