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************************************ निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा (विश्वास) करता हूँ । भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीति ( युक्तिपूर्ण आस्था) (विश्वास) करता हूँ । भन्ते ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मेरी रुचि (श्रद्धा के अनुसार चलने की इच्छा) है । भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के अनुसार चलने के लिए तत्पर हुआ हूँ । भन्ते ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन तथ्य है, सत्य है; भगवन् ! यह सन्देहरहित यावत् जैसा कि आप कहते हैं (वैसा ही है ) । किन्तु हे देवानुप्रिय ! (प्रभो!) मैं अपने माता-पिता को (घर जाकर ) पूछता हूँ और उनकी अनुज्ञा लेकर (गृहवास का परित्याग करके) आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।" (भगवान ने कहा-) "देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।"
30. On hearing and understanding Shraman Bhagavan Mahavir's sermon Jamali, the Kshatriya youth, felt delighted and contented. He got up, went around Bhagavan Mahavir three times... and so on up to ... paid homage and said – “ Bhante ! I have respect (shraddha) for the sermon of Nirgranths (Jain tenets ). Bhante! I have faith (pratiti, or logical acceptance) in the same. Bhante! I have liking for the same. Bhante! I am ready to follow the same. Bhante! This sermon of Nirgranths is real 5 and true; Bhante! It is authentic ... and so on up to... it is, indeed, as you have spoken. O Beloved of gods! Under your auspices and after seeking permission from my parents, I would like to get tonsured and accept the path of homeless ascetics renouncing the householder's duties. (Bhagavan responded – ) “Beloved of gods ! Do as you please. Do not procrastinate."
माता-पिता से दीक्षा की अनुज्ञा PERMISSION FROM PARENTS FOR INITIATION
३१. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते संमाणे हट्टतुट्ट० समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता तमेव चाउघंटं आसरहं दुरूहेइ, दुरूहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिया बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरंट जाव धरिज्जमाणेणं महया भडचडगर० जाव परिक्खित्ते जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागगच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेव उवागच्छत्ता तुरए निगिहिs, तुरए निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, रहे टवेत्ता रहाओ पच्चोरुहइ, रहाओ पच्चरुहित्ता जेणेव अभिंतरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव अम्मा- पियरो तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अम्मा- पियरो जणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी - एवं खलु अम्म ! ताओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए ।
३१. जब श्रमण भगवान महावीर ने जमालि क्षत्रियकुमार से पूर्वोक्त प्रकार से कहा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार किया। फिर उस चार घंटा वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ और रथारूढ़ होकर श्रमण भगवान महावीर के पास
नवम शतक: तेतीसवाँ उद्देशक
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(451) १ Ninth Shatak: Thirty Third Lesson
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