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विष्णवित्त वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभयुव्वेवणकरीहिं पण्णवणाहिं पण्णवेमाणा एवं वयासी - एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति, अहीव एतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा वा महानदी सोयगमणया, महासमुद्दे वा भुजाहिं दुत्तरे, तिक्खं कमियव्वं, गरुयं लंबेयव्वं, असिधारगं वतं चरियव्वं । नो खलु कप्पड़ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए इ वा, उद्देसिए इ वा, मिस्सजाए इ वा, अज्झोयर इवा, पूइए इ वा, कीए इ वा, पामिच्चे इ वा, अच्छेज्जे इवा, अणिसट्टे इ वा, अभिहडे इ वा, कंतारभत्ते इवा, दुब्भिक्खभत्ते इ वा, गिलाणभत्ते इ वा वद्दलियाभत्ते इ वा, पाहुणगभत्ते इ वा, सेज्जायरपिंडे इवा, रायपिंडे इ वा, मूलभोयणे इ वा, कंदभोयणे इ वा, फलभोयणे इ वा, बीयभोयणे इ वा, हरियभोयणे इवा, भुत्तए वा पायए वा ।
तुमं सि च णं जाया ! सुहसमुयिते णो चेव णं दुहसमुयिते, नालं सीयं, नालं उण्हं, नालं खुहा, नालं पिवासा, नालं चोरा, नालं वाला, नालं दंसा, नालं मसगा, नालं वाइय- पित्तिय- सेंभिय- सन्निवाइए विवि रोगायंके परीसहोवसग्गे उदिण्णे अहियासेत्तए । तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुज्झं खणमवि विप्पयोगं, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहिं जाव पव्वइहिसि ।
४३. जब क्षत्रियकुमार जमालि को उसके माता-पिता विषय के अनुकूल बहुत-सी उक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों द्वारा कहने, बतलाने और समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषय के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली उक्तियों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे-- हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य अनुत्तर ( अद्वितीय), परिपूर्ण न्याययुक्त, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग और निर्वाणमार्गरूप है। यह अवितथ (असत्यरहित, संदेहरहित) आदि आवश्यक के अनुसार यावत् सर्वदुःखों का अन्त करने वाला है। इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। परन्तु यह (निर्ग्रन्थधर्म) सर्प की तरह एकान्त ( चारित्र - पालन के प्रति निश्चय) दृष्टि वाला है, छुरे या खड्ग आदि तीक्ष्ण शस्त्र की तरह एकान्त ( तीक्ष्ण) धार वाला है । यह लोहे के चने चबाने के समान दुष्कर है; बालु (रेत) के कौर (ग्रास) की तरह स्वादरहित (नीरस) है। गंगा आदि महानदी के प्रतिस्रोत ( प्रवाह के फ सम्मुख) गमन के समान अथवा भुजाओं से महासमुद्र तैरने के समान पालन करने में अतीव कठिन है । (निर्ग्रन्थधर्म पालन करना) तीक्ष्ण (तलवार की तीखी धार पर चलना है; महाशिला को उठाने के समान गुरुतर भार उठाना है। तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान व्रत का आचरण करना (दुष्कर) है।
पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए ये बातें कल्पनीय नहीं हैं । यथा - (१) आधाकर्मिक, (२) औद्देशिक, (३) मिश्रजात, (४) अध्यवपूरक, (५) पूतिक (पूतिकर्म), (६) क्रीत, (७) प्रामित्य, (८) अछेद्य, (९) अनिसृष्ट, (१०) अभ्याहृत, (११) कान्तारभक्त, (१२) दुर्भिक्षभक्त, (१३) ग्लानभक्त, (१४) वर्दलिकाभक्त, (१५) प्राघूर्णकभक्त, (१६) शय्यातरपिण्ड, और (१७) राजपिण्ड; (इन दोषों से युक्त आहार साधु को लेना कल्पनीय नहीं है ।) इसी प्रकार मूल, कन्द, फल, बीज और हरित - हरी वनस्पति का भोजन करना या पीना भी उसके लिए अकल्पनीय है।
नवम शतक: तेतीसवाँ उद्देशक
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Ninth Shatak: Thirty Third Lesson
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