Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 569
________________ ***************மித*************** फ्र ९५. किन्तु जमालि अनगार प्रबलतर वेदना से पीड़ित व अधीर हो उठा। इसलिए उन्होंने 卐 दुबारा 5 फिर श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया और इस प्रकार पूछा- देवानुप्रियो ! क्या मेरे सोने के लिए संस्तारक (बिछौना) बिछा दिया या बिछा रहे हो ? उत्तर में श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस प्रकार कहा- - देवानुप्रिय के सोने के लिए बिछौना (अभी तक ) बिछा नहीं, बिछाया जा रहा है। 95. The excruciating pain made ascetic Jamali impatient. He, 5 therefore, summoned the ascetics once again and asked – “Beloved of फ्र gods! Are you still spreading the bed for me or have you spread the 5 same." The ascetics replied - "We have not yet spread the bed for you, O फ Beloved of gods! It is still being spread.” फ्र फ्र 卐 ९६. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - जं णं समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव एवं परूवेइ - 'एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए जाव 5 निज्जरिज्जमाणे णिज्जिण्णे' तं णं मिच्छा, इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए, जम्हा णं सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे संथरिज्जमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे वि अणिज्जिणे । एवं संपेहेइ; एवं संपेहेत्ता समणे निग्गंथे सद्दावेइ; समणे निग्गंथे सद्दावेत्ता एवं वयासी-जं णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खड़ 5 जाव परूवेइ - एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सव्वं जाव णिज्जरिज्जमाणे अणिज्जिणे । சு 卐 卐 नवम शतक : तेतीसवाँ उद्देशक 卐 फ्र 卐 卐 ९६. श्रमणों की यह बात सुनने पर जमालि अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'चलमान चलित है, उदीर्यमाण उदीरित है, यावत् निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण है', यह कथन मिथ्या है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष दीख 5 रहा है कि जब तक शय्या-संस्तारक बिछाया जा रहा है, तब तक वह बिछाया गया नहीं है, ( अर्थात्- ) बिछौना जब तक बिछाया जा रहा हो', तब तक वह 'बिछाया गया' नहीं है । इस कारण 'चलमान' 'चलित' नहीं, किन्तु 'अचलित' है, यावत् 'निर्जीर्यमाण' 'निर्जीर्ण' नहीं, किन्तु 'अनिर्जीर्ण' है। इस प्रकार विचार कर श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'चलमान' 'चलित' (कहलाता) है; ( इत्यादि पूर्ववत् सब कथन) यावत् (वस्तुतः ) निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण नहीं, किन्तु अनिर्जीर्ण है। 卐 卐 96. On hearing these words of his fellow ascetics, a thought flashed in ascetic Jamali's mind - “Shraman Bhagavan Mahavir asserts... and so on up to... establishes that moving means already moved, fruiting means 卐 already fruited and so on up to ... shedding means already shed. But chis assertion is false because it is evident from the visible activity that as long as the bed is being spread it is still not already spread. In other words as long as the bed is being spread it cannot be taken as already spread. That is why moving does not mean already moved but in Ninth Shatak: Thirty Third Lesson 卐 卐 卐 process 卐 卐 (489) ********************************* Jain Education International फ्र For Private & Personal Use Only फफफफफफफफफ www.jainelibrary.org

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