Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 532
________________ 卐 फ्र 卐 ३८. तब क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा- हे माता-पिता ! आपने मुझे जो यह कहा कि पुत्र ! तेरा यह शरीर उत्तम रूप आदि गुणों से युक्त है, इत्यादि, यावत् हमारे 5 कालगत होने पर तू प्रव्रजित होना । (किन्तु ) हे माता-पिता ! यह मानव शरीर दुःखों का आयतन है, अनेक प्रकार की सैकड़ों व्याधियों का निकेतन है, अस्थि - (हड्डी) रूप काष्ठ पर खड़ा हुआ है, नाड़ियों और स्नायुओं के जाल से वेष्टित है, मिट्टी के बर्तन के समान दुर्बल (नाजुक) है। अशुचि (गंदगी) से संक्लिष्ट (बुरी तरह दूषित) है, इसको टिकाये ( संस्थापित ) रखने के लिए सदैव इसकी सँभाल ( व्यवस्था) रखनी पड़ती है, यह सड़े हुए शव के समान और जीर्ण घर के समान है, सड़ना, पड़ना और नष्ट होना, इसका स्वभाव है। इस शरीर को पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पड़ेगा; तब कौन जानता है कि पहले कौन जायेगा और पीछे कौन ? इत्यादि सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् इसलिए मैं 5 चाहता हूँ कि आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं प्रवज्या ग्रहण कर लूँ । फ्र when we breathe our last and you are in the autumn of your life, then fulfilling your duty of siring heirs for the family, you may get detached (from the household), go to Shraman Bhagavan Mahavir and get initiated into his ascetic order getting your head tonsured." शरीर की नश्वरता का कथन FLEETING NATURE OF THE BODY ५ ३८. ( जमालि) तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा- पियरो एवं वयासी - तहा वि णं तं अम्म ! ताओ ! जं णं तुब्भे ममं एवं वदह 'इमं च णं ते जाया ! सरीरगं० तं चैव जाव पव्वइहिसि एवं खलु अम्म ! ताओ ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविहवाहिसयसन्निकेतं अट्ठियकट्टुट्ठियं छिरा - ण्हारुजाल ओणद्ध - संपिणद्धं मट्टिय भंड व दुब्बलं असुइकिलिट्ठ अणिट्ठवियसव्वकालसंठप्पयं जराकुणिमञ्जरघरं व सडण - पडेण - विद्धंसणधम्मं पुव्विं वा पच्छा वा अवस्स - विप्पजहियव्यं भविस्सइ, सणं जाणइ अम्म ! ताओ ! के पुव्विं० ? तं चैव जाव पव्वइत्तए । 38. Kshatriya youth Jamali replied to his parents "Dear father and mother! You just said to me that my body is endowed with unique beauty and other qualities. and so on up to... when we breathe our last you 卐 may get initiated into the ascetic order. But father and mother, this 5 human body is the abode of miseries and shelter of many diseases; it फ्र 5 5 stands on wood-like bones, is replete with clumps of nerves and muscles and is fragile like a pot of clay. It is completely contaminated with filth and requires a lot of care all the time. It is like a decaying corpse and a dilapidated house with a tendency to decay, fall and get destroyed. Sooner or later one has to part with it. Who knows which one of us will die first and who later? and so on up to... As such, I want that if you allow me I will get initiated into the ascetic order." भगवती सूत्र (३) (458) Jain Education International Bhagavati Sutra (3) தமிழிழதமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிமிமிமிமிமிமிமி For Private & Personal Use Only Y Y y y फ 卐 卐 5 卐 卐 5 卐 फ्र 卐 www.jainelibrary.org

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