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)))))))))))))))) )))))))) power hindering karmas (Antaraaya) and deluding karmas (Mohaniya) into likeness of a top-punctured palm tree. This jiva (living being/soul) having reached the level of Apurvakaran (unprecedented purity; eighth
Gunasthan) gets (in due course) endowed with infinite, supreme, Punobstructed, unclouded, complete and perfect 'ultimate knowledge' or Keval-jnana and 'ultimate perception' or Keval-darshan.
विवेचन : प्रस्तुत सूत्र में विभंग ज्ञान के बाद प्राप्त हुये अवधिज्ञानी के प्रशस्त अध्यवसायों के प्रभाव से ॐ वाली विशेष आत्म-विशुद्धि से केवलज्ञान प्राप्त होने तक का क्रम बताया है- मोहनीय कर्म का नाश-मुख्य प्रस्तुत सूत्र में ज्ञानावरणीयादि तीनों कर्मों का उत्तरप्रकृतियों सहित क्षय पहले ॐ बताया है, किन्तु मोहनीय कर्म के क्षय हुए बिना इन तीनों कर्मों का क्षय नहीं होता। इसी तथ्य को प्रकट करने 9 के लिए यहाँ कहा गया है-“तालमत्थकडं च णं मोहणिज्ज कटु', इसका भावार्थ यह है कि जिस प्रकार ताड़ वृक्ष
का मस्तक सूचि भेद (सुई से या सुई की तरह छिन्न-भिन्न) करने से वह सारा का सारा वृक्ष क्षीण (नष्ट) हो ॐ जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय होने पर शेष घातिकर्मों का भी क्षय हो जाता है। अर्थात् मोहनीय ॐ कर्म की शेष प्रकृतियों का क्षय करके साधक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय; इन तीनों कर्मों की + सभी प्रकृतियों का क्षय कर देता है। (वृत्ति, पत्र ४३५)
मस्तकसूचिविनाशे, तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तद्वत् कर्मविनाशोऽपि मोहनीयक्षये नित्यम्॥१॥
--भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३६ ॥ __ केवलज्ञान, विषय की अनन्तता के कारण अनन्त है। केवलज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, ॐ इसलिए वह अनुत्तर (सर्वोत्तम) है। वह दीवार, भींत आदि के व्यवधान के कारण प्रतिहत (स्खलित) नहीं होता।
इसलिए वह 'निर्व्याघात' है। सम्पूर्ण आवरणों के क्षय होने पर उत्पन्न होने से वह 'निरावरण' है। सकल पदार्थों
का ग्राहक होने से वह 'कृत्स्न' होता है। अपने सम्पूर्ण अंशों से युक्त उत्पन्न होने से वह ‘प्रतिपूर्ण' होता है। 9 (भगवतीसूत्र, भा. ४ (पं. घेवरचन्द जी], पृ. १६०४)
Elaboration--This aphorism describes the process of attaining Kevaljnana by an initiated Avadhijnani through extensive spiritual purity
gained by noble mental activity. fi Destruction of deluding karma-Here the first step is described fas destruction of auxiliary species of three karmas including knowledge
obstructing karma. But these three karmas cannot be destroyed unless
deluding karma is first destroyed. This fact has been indicated here by i the phrase--'taalmatthakadam cha nam mohanijjam kattu'. This phrase
conveys that as a palm tree is destroyed simply by piercing or cutting its head, in the same way once deluding karma is destroyed the remaining three vitiating karmas are also destroyed. In other words when an aspirant destroys all the species of deluding karma, he also destroyes all
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नवम शतक : इकत्तीसवाँ उद्देशक
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Ninth Shatak : Thirty First Lesson
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