Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 511
________________ १५. तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी तथा उस अत्यन्त बड़ी ऋषि-परिषद् (ज्ञानी साधकों की परिषद) आदि को धर्मकथा कही; यावत् परिषद् वापस ॐ चली गई। 15. After this Shraman Bhagavan Mahavir gave his sermon to Brahman Rishabh-datt, Brahmani Devananda and the large gathering 4 ... and so on up to... the assembly dispersed. . १६. तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे 卐 उट्ठाए उढेइ, उट्ठाए उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया० जाव नमंसित्ता एवं वयासी-‘एवमेयं है भंते ! तहमेयं भंते !' जहा खंदओ (स. २, उ. १, सु. ३४) जाव ‘से जहेयं तुब्भे वंदह' त्ति कटु ॐ उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ॥ + ओमुयइ, सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं ॐ करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो 卐 आयाहिणं पयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, एवं जहा ॐ खंदओ (स. २, उ. १, सु. ३४) तहेव पव्वइओ जाव सामाइयमाइयाइं इक्कारस अंगाई अहिज्जइ जाव + बहूहिं चउत्थ-छ?-ऽट्ठम-दसम जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियायं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं म झूसित्ता सढि भत्ताइं अणसणाए छेदेइ, सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावो जाव . तमढें आराहेइ, २ जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। म १६. इसके पश्चात् वह ऋषभदत्त ब्राह्मण, श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म-श्रवण कर और उसे हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट होकर खड़ा हुआ। खड़े होकर उसने श्रमण भगवान ॐ महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमन करके इस प्रकार निवेदन किया+ 'भगवन् ! आपने कहा, वैसा ही है, आपका कथन यथार्थ है भगवन् !' इत्यादि (दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक, सू. ३४ में) स्कन्दक तापस-प्रकरण में कहे अनुसार; यावत् जो आप कहते हैं, वह उसी प्रकार फ़ है।' इस प्रकार शेष वर्णन करना चाहिए। तत्पश्चात् वह (ऋषभदत्त ब्राह्मण) ईशानकोण (उत्तर-पूर्व + दिशा भाग) में गया। वहाँ जाकर उसने स्वयमेव आभूषण, माला और अलंकार उतार दिये। फिर ॐ स्वयमेव पंचमुष्टि केशलोच किया और श्रमण भगवान महावीर के पास आया। भगवान की तीन बार फ़ प्रदक्षिणा की, यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा-भगवन् ! (जरा और मरण से) यह लोक चारों के ओर से प्रज्वलित हो रहा है, भगवन् ! यह लोक चारों ओर से अत्यन्त जल रहा है, इत्यादि कहकर म (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक, सू. ३४ में) जिस प्रकार स्कन्दक तापस की प्रव्रज्या का प्रकरण है, तदनुसार (ऋषभदत्त ब्राह्मण ने) प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत् सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् बहुत-से उपवास (चतुर्थभक्त), बेला (षष्ठभक्त), तेला (अष्टमभक्त), चौला (दशमभक्त) ॐ इत्यादि विचित्र तपःकर्मों से आत्मा को भावित करते हुए, बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय नवम शतक : तेतीसवाँ उद्देशक ___(441) Ninth Shatak : Thirty Third Lesson | 55555555555555 89555555555555))))))))))) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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