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विभंगज्ञान एवं अवधिज्ञान प्राप्त होने की क्रमिक प्रक्रिया
GRADUAL PROCESS OF RISING FROM VIBHANGAA-JNANA TO AVADHI-JNANA
१४. तस्स णं छटुंछटेणं अनिविखत्तेणं तवोकम्मेणं उड़े बाहाओ पणिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स # आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगइपयणुकोह-माण-माया-लोभयाए 9 मिउमद्दवसंपन्नयाए अल्लीणताए भद्दताए विणीतताए अण्णया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं
परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गण-गवेसणं 卐 करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स है असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई जाणइ पासइ, से णं तेणं विन्भंगनाणेणं समुप्पनेणं
जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि
जाणइ, से णं पुवामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता समणधम्मं रोएति, समणधम्मं रोएत्ता के चरित्तं पडिवज्जइ, चरित्तं पडिवज्जित्ता लिंगं पडिवज्जइ, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं ॐ परिहायमाणेहिं, सम्मइंसणपज्जवेहिं परिवडमाणेहिं परिवडमाणेहिं से विभंगे अनाणे सम्मत्तपरिग्गहिए + खिप्पामेव ओही परावत्तइ । है १४. (विभंग ज्ञान प्राप्ति के कारण) निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) का तपःकर्म करते हुए सूर्य के के सम्मुख बाहें ऊँची करके आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए उस (बिना धर्मश्रवण किए केवलज्ञान तक म प्राप्त करने वाले) जीव की प्रकृति-भद्रता (सरलता) से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही + क्रोध, मान, माया और लोभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदृत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में ॐ अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से तथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या है + एवं तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा (ज्ञान-प्राप्ति की चेष्टा), अपोह (वस्तु ॐ तत्त्व की विचारणा), मार्गणा (विद्यमान गुणी का आलोचन) और गवेषणा (व्यतिरेक धर्मों का 5 निराकरण) करते हुए ‘विभंग' नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। फिर वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा
जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है। उस फ़ उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है। वह पाषण्डस्थ
(व्रतों का पालन करने वाला), सारम्भी (आरम्भयुक्त), सपरिग्रह (परिग्रही) और संक्लेश पाते हुए 卐 जीवों को भी जानता है और विशुद्ध होते हुए जीवों को भी जानता है। (तत्पश्चात्) वह विभंगज्ञानी
(विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत होने की प्रक्रिया) सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, सम्यक्त्व प्राप्त म करके श्रमणधर्म पर रुचि करता है, श्रमणधर्म पर रुचि करके चारित्र अंगीकार करता है। चारित्र + अंगीकार करके लिंग (साधुवेश) स्वीकार करता है। तब उस (भूतपूर्व विभंगज्ञानी) के मिथ्यात्व के ॐ पर्याय क्रमशः क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह 'विभंग' नामक + अज्ञान, सम्यक्त्वयुक्त होता है और शीघ्र ही अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
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| भगवती सूत्र (३)
(330)
Bhagavati Sutra (3)
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