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________________ E a. वर्धमान तप महिमा / /655 विश्व शान्ति प्रकाशन, ब्यावर ننننننننننننننننننننننننننننننننننننننننننننننننننتندخنننتننت
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________________ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः वर्धमान तप महिमा अर्थात् श्री श्रीचन्द्र' केवली चरित्र विश्व शान्ति प्रकाशन C/o प्रधानाध्यापक, श्री शान्ति जैन विद्यालय, ब्यावर मा.श्री कैलामघागर मृग झोन मंदिर श्री महावीर जैन आमा , कोषा
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________________ प्रकट प्रभावी अचिन्त्य चिन्ता मणि 1.math.zrveda . rine 18-. .. P.P. A* सहरफणा श्री पार्श्वनाथ भगवान *adhak Trust
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________________ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री गौतम स्वामिने नमः पू० आ० देव श्री सिद्धर्षि गणि कृत श्री 'श्रीचन्द्र' केवलि चरित्र ओकारं बिन्दु संयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः, कामदं मोक्षदं चैव, ॐकाराय नमो नमः / / ___ श्री पंचपरमेष्ठि वाचक प्रणव बीज ॐ का ध्यान धारण कर, भगवान् श्री जिनेश्वर देव तथा सद्गुरु महाराज को वन्दन करके श्री "श्री चन्द्र" केवलि चरित्र की रचना करता हूँ। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम शिष्य अनन्त | लब्धि निधान गणधर श्री गौतम स्वामी ग्रामानुग्राम विचरते हुए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ करीब 2512 वर्ष पूर्व श्री वैशाली नगरी के बाहर एक सुन्दर उद्यान में पधारे। यह शुभ संवाद- सुन कर गुरु भक्ति से अति हर्षोल्लसित चेटक महाराजा अपने परिवार तथा प्रजाजनों के साथ गणधर भगवंत की सेवा में उपस्थित हुा / उन के चरण कमलों में वन्दन कर और सुख साता पूछ कर सब लोक यथा योग्य स्थान पर बैठ गये। - उस समय श्री गणधरजी महाराज ने धर्म देशना प्रारम्भ की:- "हे महानुभावो / सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवन्तों ने दान, शील, तप, और भाव रूप चार प्रकार का धर्म फरमाया है / यह धर्म मोक्ष की प्राप्ति का कारण भूत है / उन में तप धर्म को उत्कृष्ट कहा गया है। इस के अनेक भेद हैं। पूर्व में भगवान् वर्धमान स्वामी ने श्रेणिक महाराजा के समक्ष सब तपों में विशाल तप का जिस प्रकार वर्णन किया था उसका आज कथन - करते हैं। निकाचित कर्मों का नाश करने वाला और सर्व अभीष्ट फल का प्रदान करने वाला श्री वर्धमान प्रायंबिल तप है जिस में क्रमशः एक 2 वृद्धि को पाते हुए 108 अायं विल तप की अोली और पारणे में उपवास / आते हैं। __ श्री सिद्धान्त में कहा है कि 'एक आयंबिल एक उपवास ऐसे बढ़ते हुए अनुक्रम से सौ ओली करने पर यह तप पूर्ण होता है / इस महातप की पूर्णाहुति 14 वर्ष 3 मास और 20 दिन में होती है / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ आचामाम्लैवर्धमान स्यादतिदुष्करं / य एतत्कुरुते सोऽते श्री चन्द्रवत्सुखी भवेत् / / इस अत्यंत दुष्कर आयंबिल वर्धमान तप को कोई विरला पुण्यशाली ही पूर्ण कर श्री 'श्री चन्द्र' के समान सर्वदा सुख का अनुभव करता है। इस अत्यन्त दीर्घ तप की सुन्दर आराधना चंदन ने की और तप के फलस्वरूप 'श्री चन्द' के भव में सर्वतोमुखी सुख सौभाग्य को प्राप्त किया वह दृष्टान्त इस प्रकार है: श्री जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में पूर्वकाल में कुश स्थल नाम की एक सुन्दर एवं विशाल नगरी थी जहां पर 10 लाख नगरों के अधिपति प्रतापसिंह नाम के एक न्यायी राजा राज्य करते थे। उनके 500 रानियों में मुख्या जय श्री रानी से जय, विजय, अपराजय और जयंतक नामक चार पुत्र थे। राजा प्रतापसिंह के पास करोड़ सैनिक, 10 लाख अश्व, यशोधवल मुख्य 10 हजार हाथी, तथा इतने ही रथ, ऊंट, वाजिंत्र व चर पुरुष थे / मंत्रियों और सामन्तों से संयुक्त वह राजा प्रजा पर न्याय पूर्वक शासन करता था। एक दिन राजा गज्य सभा में बैठा था। उस समय व्यापार निमित्त देश विदेश घूमता हुआ वरदत्त नाम का एक सेठ वहां आया / राजा ने उसे पूछा कि "पाप किस नगर के रहने वाले हैं ? देश P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ देशान्तर घूमते हुए क्या आपने कुशस्थल से अधिक सुन्दर कोई नगर देखा है ?" वरदत्त सेठ प्रणाम पूर्वक बोला कि, "महाराज ! आप श्री के अधिकार में अनेक नगर हैं परन्तु दीपशिखा नगरी इन्द्रपुरी जैसी सुन्दर है / वहां सर्व प्रथम राजा का भव्य प्रासाद है / नगर के मध्य भाग में प्रथम भगवान् का चार मुख्य द्वारों वाला एक अति रमणीय मन्दिर है / उसकी चारों दिशाओं में बाजार, गृह, प्रासाद, किल्ले हैं। ईशान कोण में राज कुटुम्ब रहता है, अग्नि कोण में व्यापारी वर्ग और नैऋत्य कोण में अन्य जाति के लोग निवास करते हैं। नगर के बाहिर सुन्दर कमलों की श्रेणी से सुशोभित पद्म सरोवर हैं / समीपवर्ती अनेक वाटिकाएं, उद्यान / प्रादि मनोहर स्थल हैं। मैं उसी दीपशिखा नगरी का निवासी हूँ, हे महाराज ! वह | सुन्दर नगरी वास्तव में आप श्री के देखने योग्य है।" यह सुन कर राजा प्रतापसिंह को उस नगरी को देखने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई / मुख्य मन्त्री के प्रोत्साहन से उन्होंने सैन्य सहित / दीपशिखा की ओर प्रयाण किया उस समय सारी प्रकृति रमणीय थी / मन्द 2 समीर चल रही थी / शुभ पक्षी मधुर पालाप कर रहे थे। एक दिन प्रतिहारी ने राजा के पास आकर विनंति की कि "महाराज ! चार कलाकार आप श्री की सेवा में उपस्थित होना चाहते।। हैं / '' राजा की आज्ञा होने पर उन चारों को हाजिर किया गया / राजा ने उन से पूछा कि "आप किस 2 कला में प्रवीण हैं ?" पहला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 6 5 10 कलाकार बोला कि 'महाराज ! मैं पक्षियों की बोली जान सकता हूँ" दूसरे ने कहा कि "मैं स्वामी के मन की बात जान लेता हूँ।" तीसरा बोला कि "मैं स्त्री पुरुष के लक्षणों का ज्ञाता हूँ।" चौथे ने उत्तर दिया कि "मैं रथ भ्रमण कला में प्रवीण हूँ। हमारे गुरु गुणधर हैं / आप श्री की सेवा करने के लिए हम आये हैं / " राजा प्रतापसिंह ने कलाकारों का सन्मान कर उनकी याचना स्वीकार की। वे प्रसन्नता पूर्वक राजा के पास रहने लगे। कहा भी है कि “आहार, निद्रा, भय और मैथुन में तो मनुष्य और पशु समान हैं परन्तु वस्तुतः ज्ञान ही मनुष्य में विशेष है। ज्ञान रहित मनुष्य पशु तुल्य है / " प्रयाण करते मार्ग में नदी, वाटिका, उद्यान आदि में राजा इच्छानुसार क्रीड़ा करता था / लोग राजा को भेंट अर्पण करते जिन्हें वह स्वीकार कर उन को सम्मानित कर दान देता था / क्रमशः वे दीप शिखा नगरी के पास आये / उस समय एक शुभ पक्षी ने मधुर स्वर से शुभ शुकन किया पक्षियों की बोली जानने वाला कलाकार बोला कि "हे राजन् ! आपको एक सुन्दर स्नेहवाली कन्या का मिलाप होगा / इस में कोई भी सन्देह नहीं।" इस से राजा के मन में हर्ष हुआ। उसी समय दीप शिखा नगरी के राजा दीपचंद ने आकर प्रतापसिंह नरेश को प्रणाम कर विनंति की कि "हे देव ! आप श्री अपने चरण कमलों से हमारी नगरी को पावन करें।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ विनंति स्वीकार कर दोनो राजाओं की सवारी नगर की ओर बढ़ी / आगे जाते हुए पद्म सरोवर की पाल पर पहुंचे। वहां से नगरी की सुन्दर रचना दृष्टिगोचर हो रही थी। विविध प्रकार के सुन्दर तोरणों से सज्जी हुई गली वाजारों की श्रेणियों को देखते हुए उन्होंने नगर में प्रवेश किया / उस समय राज मार्ग में एक सात खण्ड के महल में सुन्दर झरोखों की श्रेणी के अग्र स्थान पर एक दिव्य कन्या सखियों सहित राजा प्रतापसिंह को देखने के लिए खड़ी थी। प्रतापसिंह की उस कन्या रत्न पर दृष्टि पड़ते ही प्रताप का मनरूपी भ्रमर उसके मुखरूपी कमल पर आसक्त हो गया। क्षण वार में जैसे कि कोई योगी लय में स्थिर हो गया हो वैसी राजा प्रतापसिंह की दशा को देख कर मन जानने वाले कलाकार ने कहा कि "जिस कन्या रत्न को देख कर आप स्थिर हुए हैं, वह आप श्री के पुण्य के प्रताप से आप को प्राप्त होगी।" यह सुन कर राजा प्रतापसिंह को आश्चर्य एवं हर्ष हुआ।) प्रतापसिंह ने पूछा कि 'हे भद्र ! यह किस का महल है ? और यह मनोहर कन्या किसकी है ?" कलाकार ने कहा कि “आप के भक्त / राजा दीपचन्द की पटरानी प्रतीपवती का यह महल है और यह सूर्यवती कुमारी उसीकी पुत्री है।" राजा दीपचन्द को बहुत दिनों से सूर्यवती के लिए योग्य वर की चिन्ता थी। राजा प्रतापसिंह के आगमन से उसकी यह चिन्ता दुर P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 67 1 हो गयी / जैसे किसी रोगी को उत्तम वैद्य के आगमन से आनंद होता है उसी प्रकार आज राजा दीप वन्द हर्षोल्लसित था / इधर कुमारी सूर्यवती भी पलक झपके विना अनिमेषदृष्टि से प्रतापसिंह के मुख लावण्यरूपी अमृत का पान कर रही थी। सवारी आगे बढ़ी / नगर के मध्य भाग में भव्य जैन मन्दिर को देखकर राजा प्रतापसिंह ने अति हर्ष से उसमें प्रवेशकर के विधि पूर्वक श्री जिनेश्वर भगवान् को वन्दन किया / फिर वे लोग राज सभा में पहुँचे / राजा प्रतापसिंह एक सुन्दर सिंहासन पर विराजमान हुए / उस समय जैसे कि कोई मोर मेघ गर्जन से नाम उठे उसी प्रकार अति हर्षान्वित होकर राजा दीपचन्द ने प्रतापसिंह नरेश के साथ कुमारी सूर्यवती का हस्तमिलाप विशाल महोत्सव पूर्वक कर दिया / यह देख कर स्त्री पुरुष के लक्षण जानने वाला कलाकार कहने लगा कि 'हे पृथिवीपति / सूर्यवती सुलक्षणा होने से दो भाग्यशाली पुत्रों की जनयिता होगी। वे कुल दीपक और जगत विख्यात होंगे। अतः यह पटरानी पद पर स्थापित की जाने योग्य है / " उसकें ये वचन सुन कर राजा प्रतापसिंह ने सूर्यवती को पटरानी पद से विभूषित किया। सब लोग सूर्यवती के अद्भुत सौभाग्य की सराहना करने लगे / उस समय राजा दीपचन्द की भतीजी चन्द्रावती के पति सिंहपुर नरेश शुभगांग के दूत ने वहां उपस्थित होकर राजा दीपचन्द को एक P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ संदेश दिया। राजा दीपचन्द उसे प्रतापसिंह नरेश के समक्ष रख कर बोला कि "हे देव ! वासंतिका नाम की भयङ्कर अटवी में शूर नाम का एक पल्लिपति रहता है / वह सर्व राजाओं के लिए दुर्जय है / उस पल्ली के पश्चिम में सिंहपुर नगर है वहां के राजा शुभगांग के महल में से राणी चन्द्रावती का एकावली हार चोरी हो गया / कोतवाल ने चोरों को पकड़ कर राजा के समक्ष उपस्थित किया / दण्ड प्रहार होने पर उन्होंने अपराध स्वीकार कर लिया और बोले कि, "हम शूरपल्लीपति के भील हैं / शूर की आज्ञा से चोरी करने आये थे।' उन से एकावली हार लेकर क्रोधित होकर गजा शुभगांग ने कोतवाल को आज्ञा की कि इन चोरों को शूली पर चढ़ादो / जब शूर ने ये समाचार सुने तो उसने रोप से भीलों की विशाल सेना के साथ सिंहपुर नगर को घेर लिया है। इस परिस्थिति में क्या करना उचित है ? यह निर्णय आप श्री ही कर सकते हैं / शूर के भय से वहां के व्यापारी व्यापार नहीं कर सकते हैं। शूर ने आस पास के सारे मार्गों को घेर लिया है / जिससे कोई व्यक्ति कष्ट उटाकर भी वहां जा नहीं सकता है।" हस्ती की चिंघाड़ को सुनकर जिस प्रकार केसरी सिंह गर्ज उटता है उसी प्रकार शूर के बारे में यह संदेश सुनकर प्रतापसिंह राजा गण उठे / उन्होंने तुरन्त ही प्रयाण भेरी बजवादी / भेरी के नाद से चतुरंग सेना सज्ज हो गई / शूर को दण्ड देने के लिए प्रतापसिंह राजा ने एकदम प्रयाण कर दिया। कुछ ही दिनों में वे सिंहपुरी नगरी के P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ समीप पहुँच गये और नदी के किनारे पर पड़ाव डाल दिया / उस समय शूर की सेना आदि की संख्या के बारे में समाचार गुप्तचरों द्वारा प्रतापसिंह ने प्राप्त किये और तुरन्त ही परस्पर मन्त्रणा करके सेना को युद्ध के लिए तैयार हो जाने का आदेश दिया। उधर भीलों ने यूर को समाचार दिया कि कुशस्थल का राजा प्रतापसिंह विशाल सैन्य से सुसज्जित होकर पाया है। शूर ने तुरन्त ही वृद्धजनों से सलाह की / उन्होंने कहा कि "हे देव ! प्रतापसिंह राजा बहुत बलवान है। अतः अपने लिए भाग जाना ही श्रेयस्कर है " शूर बोला कि हम भागकर भी कहां जावेंगे ? प्रतापसिंह यमराज के समान कर है / उसके पंजे से छूट जाना भी तो कठिन है।" यह सुनकर वृद्ध पुरुप -मौन हो गये / तब शूर ने कुछ विशेप विचार कर अपने उत्तम गंध हाथी के उपर आरूढ़ होकर भीलसेना सहित रणक्षेत्र में पदापर्ण किया। प्रतापसिंह राजा भी सेना सहित तैयार ही थे / परन्तु उन्होंने अपनी सेना पर दृष्टि डालने पर अपने सब हाथियों को मद रहित तथा ऊंघते हुए देखकर राजा दीपचन्द से पूछा कि "ये हाथी इस दगा को कैसे प्राप्त हो गये हैं / ?'' दीपचन्द ने कहा कि 'शूर के गंध हस्ती की गंध से अपने हाथी मद रहित हो गये हैं।" 1. राजा प्रतापसिंह विचार करने लगे कि अब हमें क्या करना चाहिये ?' इतने में रथभ्रमण विद्या वाले कलाकार ने प्राकर विनंती की ___कि 'हे राजन् ! आप श्री इस रथ में प्रारूढ़ होकर मेरी कला का निरी क्षण करें।" प्रतापसिंह राजा धनुष और वारणों से सज्ज होकर रथा_रूढ़ हुए / रथ रण क्षेत्र के स्थल पर पहुंचा / शूर गंध हरती पर बैटकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 101 उनके सामने आया। कलाकार ने रथ को अति वेग से चारों तरफ / घुमाया / प्रतापसिंह राजा ने शूर को गणों से नीचे गिरा दिया। तुरन्त ही उसे काष्ट के पिंजरे में कैद कर दिया गया और जय कलश गंध हस्ती को अपने कब्जे में कर लिया। प्रतापसिंह राजा का जय जय कार चारों तरफ गूंज उठा / शूर की सेना चारों तरफ भाग गई / सिंहपुर नगर से शुभगांग राजा ने आकर प्रतापसिंह राजा का प्रणाम पूर्वक सन्मान किया / सबने अटवी में जाकर पल्ली को भंगकर दिया एक मूडा मोती, 56 कोटी स्वर्ण और दुसरी अमूल्य वस्तुओं को तो प्रतापसिंह ने अपने खजाने में रख लिया / शेष धन दीपचन्द और शुभगांग राजाओं को बांट दिया / वस्त्र प्रादि सेना में वितीर्ण कर दिये। उस समय राजा प्रतापसिंह चारों कलाकारों पर अति प्रसन्न होकर बोले कि, 'तुम अपनी 2 कला में पूर्ण प्रवीण हो / एक ने पक्षियों की बोली जानी, दूसरे ने मेरे मन की बात को जाना, तीसरे ने कन्या के लक्षण जानकर उसके फल बतलाये तथा चौथे ने रथ भ्रमण की कला द्वारा मुझे विजय दिलवाई। तुम्हारी कला से मुझे अपार लाभ हुआ है / तुम्हारे कला विज्ञान पर मैं अति सन्तुष्ट हूँ। तुम्हारी तीव्र बुद्धि प्रति प्रशंसनीय है / तुमने कला प्राप्त करने में जो परिश्रम किया, वह सार्थक ही है।" इस प्रकार प्रतापसिंह राजा ने उन कलाकारों की सराहना कर अति प्रसन्नता पूर्वक विशाल दान देकर उनका सन्मान किया / सूर्यवती के नाम से पल्ली के स्थल पर सूर्यपुर नाम का नया विशाल नगर बसाया / दीपचन्द राजा और शुभगांग राजा ने बहुत सी भूमि भेंट की। प्रतापसिंह राजा ने सिंहपुर नगर का निरीक्षण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 11 110 किया। तत्पश्चात राजा प्रतापसिंह और दीपचन्द दीपशिखा नगरी में वापिस आये। कुछ समय वहां ठहरने के पश्चात् प्रतापसिंह सूर्यवती पटरानी सहित कुशस्थल की ओर प्रस्थान के लिए उद्यत हुए / वहां से विदा लेते समय राजा रानी तथा समस्त नगरजनों के नयनों में से अश्रु झरने लगे। महारानी प्रदीपवती ने सूर्यवती को कुलांगना के योग्य हित शिक्षा दी। प्रयाण करते 2 प्रतापसिंह राजा अपनी नगरी के समीप पा पहुँचे / शुभ मुहूर्त में सजी हुई कुशस्थल नगरी में महोत्सव पूर्वक उन्होंने प्रवेश किया / पूर्व पुण्य के प्रभाव से वे विविध प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग करने लगे / कहा है कि, 'उत्तम कुल में जन्म, शरीर का निरोगीपन, सौभाग्य, पूर्ण आयु, निर्मल यश, विद्या और धन सम्पदा धर्म से ही प्राप्त होते हैं। धर्म सव संकटों में रक्षण करता है / शुद्ध मन से किया हुआ धर्म स्वर्ग और मोक्ष को देता है।" एक दिन प्रतापसिंह राजा के पुत्र जय, विजय, अपराजय और जयंतक जब महल के झरोखे में खेल रहे थे तो उस समय राज मार्ग में बहुत से लोगों को इकट्ठे होकर जाते हुए देखकर उन्होंने सेवक को पूछा कि ये लोग एकत्रित होकर कहां जा रहे हैं ? उसने कहा कि "एक विख्यात ज्योतिषी परदेश से आया है इसलिए ये P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ते 12 10 लोग एकत्रित हुए हैं / " कुमारों ने सेवक को श्राज्ञा दी कि उस ज्योतिषी को हमारे पास बुला लायो / आशीर्वाद देने में तत्पर उस ज्योतिषी को कुमारों ने उचित सन्मान देकर योग्य आसन पर बिठाया / . कुमारों ने पूछा कि 'आप कहां से पधारे हैं ? और कहां जाने का विचार है ? आप क्या जानते हैं ?" ज्योतिषी ने कहा कि 'हे राजपुत्रों मेरी एक लम्बी कहानी है जो कि मैं तुम्हें सुनाता हूँ / इस नगर से पश्चिम दिशा में पृथ्वी की शोभा रूप, धर्म लक्ष्मी से मनोहर ऐसा सिंहपुर एक नगर है / वहां लक्ष्मी से परिपूर्ण श्रीधर ज्योतिषी रहते थे। उनके नागिला नाम की प्रिय भार्या थी उसके धरण नाम का एक पुत्र हुआ जो अनुक्रम से बड़ा हुआ। उसी नगरी में भियंकर नाम के एक दूसरे विख्यात ज्योतिपी भी थे ! उनकी शीलवती नाम की स्त्री तथा श्री देवी नाम की पुत्री थी / जब श्री देवी तरुणवय को प्राप्त हुई तो वह रूप लावण्य से सुशोभित, कला कौशल में प्रवीण और / जैन धर्म में अति अनुरक्ता हो गयी / श्रीधर ने उस श्री देवी की धरण के लिए मांगनी की / महोत्सव पूर्वक दोनों का लग्न हो गया / श्री देवी अत्यन्त विशुद्ध स्वभाव वाली, बड़ी लज्जाशील और अहंत धर्म की क्रियाओं में तत्पर रहती थी। वह हित, मित, प्रिय और सत्य वचन बोलती थी परन्तु उसको सासु नागीला निष्ठुर स्वभाव वाली थी। श्री देवी दिन रात घर का काम करती परन्तु सासु तो झूठा ठपका ही दिया करती थी। जिस प्रकार पानी के रेट चलने पर लट्टे की लकड़ी से खटपट की आवाज रहती है . उसी प्रकार नागीला के मुह से हमेशा कलह क्लेश भरे शब्द P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 13 10 निकलते ही रहते थे ! झूठा कलंक, निन्दा, चुगली उसका नित्य प्रति का स्वभाव था / बिचारी श्री देवी तो प्रातः जल्दी उठती, घर की सफाई करती, पानी भरती, अनाज दलती, भोजन बनाती, तथा सासु ननन्द, देवर की सेवा करने में कोई कसर बाकी न रखती / वह कष्ट पूर्वक जीवन व्यतीत करती परन्तु श्री जिनेश्वर देव की भक्ति में सर्वदा उद्यमशील बनी रहती थी। श्री देवी के माता पिता पड़ौसी आदि जब कभी उससे पूछते कि क्या तुझे पति के घर सुख है ? तब वह अपने घर की हमेशा प्रशंसा ही किया करती परन्तु कभी दुसरी कोई घर की बात नहीं करती थी। समय बीतता गया / नागीला का स्वभाव दिन प्रतिदिन क्रूर बन रहा था, उसके घर में यदि कोई भी तोड़ फोड़ होती, या कोई चीज खो जाती तो वह अपने पुत्र को कहती कि यह श्री देवी का काम है / भूठी बातें कह कह कर उसके कान भरती रहती जिससे क्रोधित होकर धरण श्री देवी को मारने लगता / श्री देवी धर्मात्मा घराने में जन्मी थी। धर्म के संस्कारों के कारण वह अपने पूर्व के कर्मों को दोष देती परन्तु सासू के लिए अपने मन में कोई बुरा विचार नहीं लाती थी। वह यही मानती थी कि यह अपने किये हुए कर्मों का फल है। ___ इस प्रकार कुछ दिनों के पश्चात् एक दिन उसके ससुर की अंगूठी घर में कहीं पड़ गई, परन्तु उसे ध्यान नहीं रहा / प्रभात में कचरा इकट्ठा करते हुए श्री देवी को अंगूठी मिली / एक स्थान पर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 14 10 रख कर वह दूसरे कार्य के लिए चली गई / जब ससुरे को याद आयी तब वह पूछने लगा कि, क्या किसी को मेरी अंगूठी मिली है ? वार 2 पूछने पर भी अंगूठी का पता नहीं लगा। - इतने में श्री देवी ने पशुओं के बाढ़े में से अंगूठी लाकर ससुरे को दे दी / इससे ससुरा खुश तो हुआ परन्तु सासू ने श्री देवी को देते देख कर कहा कि, 'मैं जानती हूँ कि बहू चोर है / इस प्रकार यह चोर बहू सर्व वस्तुओं को चुराने लगेगी, तो मेरा घर किस प्रकार चलेगा? हे लोगों ! मेरे घर का आचरण देखो ! जहाँ ऐसी बहू हो वहाँ मेरा वचन कौन सुने ? सब के घरों में बहुएं होगी परन्तु ऐसी नहीं होगी। बहु ने अंगूठी चुराली।" इस प्रकार जोर 2 से नाटक रचने लगी कि / हे पुत्र ! सूकुल . में उत्पन्न हुई तेरी स्त्री घर में आनन्द करती है। मां के चिढ़ाने से धरण को प्रावेश आ गया, और बिना विचारे एकदम उस सती के मस्तक पर लकड़ी से प्रहार किया / श्री देवी का मस्तक फट गया भौर वह मूच्छित होकर गिर पड़ी उस समय श्री देवी नमस्कार महामंत्र का स्मरण कर रही थी। मस्तक में से रक्त की धारा छूट पड़ी। घरण हाहाकार करने लगा / मस्तक पर औषधी लगाई। किसी ने श्री देवी के माता पिता को ये समाचार दे दिये / वे विलाप करते हुए वहां आये। माता श्री देवी को गोद में लेकर कल्पान्त करने लगी कि / हे पुत्री | यह क्या हुआ ? मेरे मुख P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 15 110 को देख / हे पुत्री! तेरे किस वचन को याद करू / अब मुझे माता कह कर कौन बुलाएगा? हे पुत्री ! तू छोटी होने पर भी लज्जा से उत्तर नहीं देती थी / तेरा मुख कमल सदा शान्त रहता था। मैं कभी तुझे ढांटती फिर भी तू क्रोधित नहीं होती थी / तुम्हारी वह उत्तम भाव पूर्ण जिनेश्वर देव की भक्ति, नियम पालन, तप और त्याग, तेरे सिवाय दूसरी कन्या में तो देखने को नहीं मिलते / हे पुत्री ! तू चुप क्यों है ?" पिता ने कहा कि, "मेरी पुत्री रत्न के साथ जो व्यवहार हुआ है उसे विधाता भी सहन नहीं कर सकता।" इस प्रकार के विलाप सुनकर धरण भी विह्वल हो उठा / पश्चातापपूर्वक वह भी विलाप करने लगा कि मैंने क्रोध से सोच विचारे किये बिना कैसा घोर पाप कर डाला है। उसका कोई भी दोष नहीं था फिर भी मेरे निष्ठुर प्रहार से यदि वह मृत्यु को प्राप्त हो गई तो जगत में मैं स्त्री हत्यारा कहलाऊगां, हाय ! मैंने महान् पाप कर डाला।" हमेशा झूठ बोलने वाली नागीला का लोगों ने तिरस्कार किया पड़ोस की स्त्रियां कहने लगी कि जिस प्रकार साँप के मुंह में से मेंढक छूटे, उसी प्रकार श्री देवी मृत्यु पाकर सासु के पजे में से छूटेगी। इस प्रकार लोगों में उसकी बड़ी अपकीर्ति हुई / श्री देवी के पुण्य से एक योग्य वैद्य वहां आ पहुँचा / उसने पानी मंत्रित करके श्री देवीपर छांटा। उससे श्री देवी में चैतन्य आया। यह स्वरुप देख कर वैद्य ने कहा कि “अब धर्म रुपी ओषध का सेवन करो।" श्री देवी को उसके माता पिता घर ले गये अन्त समय P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ समीप जान कर उसे भव्य आराधना करायी। उसने सब जीव राशि को खमाया / चित्त की शुद्धि पूर्वक पापो की निन्दा की पुण्य की अनुमोदना की सात क्षेत्रों में दान दिया। चारशरण धारण किये / अनशन, ममता त्याग, ब्रह्मचर्यादि व्रत ग्रहण किये / इस प्रकार श्री देवी ने सुसमाधि पूर्वक मृत्यु का आलिङ्गन किया / लोगों ने उसके श्वसुर पक्ष का तिरस्कार किया जिससे श्रीधर नगर में मुह बताने योग्य नहीं रहा / सिंहपुर में धरण को विवाह के लिए कन्या प्राप्ति न होने से श्रीधर ने दूसरे नगर के एक ज्योतिषी की पुत्री उमा के साथ उसका विवाह किया। उमा अति उद्धत और क्रोधी स्वभाव वाली थी / सब के सामने बोलने लगती और हठ से घर का कोई काम नहीं करती थी। वात 2 में सब का दोष प्रगट करती रहती थी। उमा के सामने उसकी सासु नागीला की तो ऐसी दशा थी सेसी शेर के सामने बकरी की होती है / अब तो घर का सारा काम नागीला को ही करना पड़ता / कुछ काल के पश्चात सासु ससुर मृत्यु को प्राप्त हो गये। उमा ने माया भक्ति और युक्ति से पति को वश में कर लिया / भरण ने अपने मित्र सोम देव के सामने अपनी पत्नी की प्रशंसा की / जिसे सुनकर उसका श्रावक मित्र घोला / तुम्हारी बात सत्य हो परन्तु नीतिकारों का कथन है कि गुरु की प्रशंसा समक्ष करनी, मित्र व बन्धु की परोक्ष में करनी तथा पुत्र व स्त्री की मृत्यु P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ के बाद करनी चाहिये / स्त्री अत्यन्त निर्दयी होती है / स्त्री हिरण के सींग के समान टेड़ी होती है। नदी के समान नीचे जाने वाली होती है / वज्र जसी कठोर हृदय वाली होती है / स्त्री के चित्त में एक बात होती है, वचन में दूसरी और क्रिया में कोई तीसरी चीज नजर माती है / ऐसी मायावी स्त्रियों से कौन स्नेह करे / तू वृथा ही अपनी स्त्री की इतनी प्रशंसा करता है / " धरण ने पूछा कि, "हे मित्र ! इस तरह तुम कैसे बोलते हो?" वह बोला कि "हे मित्र ! मैं तुम्हारी स्त्री को अच्छी तरह जानता हूँ। वह एक दिन भी घर में नहीं रहती। मायावी आचरणों से स्नेह नहीं होना चाहिये / यदि तुझे मेरी बात का निर्णय करना हो तो परदेश जाने के बहाने से रात्री में परीक्षा कर लो।' 'धरण ने इसे स्वीकार किया। . ... धरण ने परदेश जाने की सम्मति बहुत कठिनाई से प्राप्त की। सारा दिन मित्र के घर विताया / रात्रि में उमा. घर से कहीं बाहर गई / मित्र के कहने से धरणघर में गुप्त तरीके से छुप गया और जिस प्रकार पहले दरवाजा बन्द था उसी प्रकार दरवाजा बन्द कर दिया। मित्र वापिस अपने घर चला गया। उत्साह से कुछ समय पश्चात उमा ने कहीं से वापिस आकर विशेष रसोई * आदि की तैयारी की इतने में एक पुरुष मुह को ढाँके हुए पाया प्राश्चर्य से धरण उसे देख रहा था.। मन में विचारने लगा कि 'यह कौन हो सकता है ? यह तो पापात्मा रणधीर है। यह क्षत्रिय-मेरे घर में किस लिए. पाया है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 18 * इतने में तो उमा ने घर का द्वार बन्द कर दिया / रणधीर केखुश करके प्रानन्द से दोनों हास्य विलास करके सो गये / यह दुष्ट कृत्य देख कर घरण ने क्रोधित होकर विचार किया कि इन दोनों दुष्टो को मार डालू ? फिर विचार करने लगा, कि इससे तो मैं स्त्री हत्यारा कहलाउंगा, ऐसा विचार कर कोतवाल पुत्र रणधीर को नीचे पाकर मार डाला / द्वार खोल कर धरण वापिस अन्दर छुप गया। उमा के कण्ठ के पास रणधीर का रक्त आया / उसकी ठण्डक से एकदम चमक कर जागी / यह दृष्य देख कर हा ! हा ! यह क्या हुप्रा / किसने रणधीर की हत्या कर डाली / द्वार को खुल्ला देख कर उमा ने निश्चय किया कि किसी शत्रु ने ही इसकी हत्या की है। अब तो वह रणधीर को शरीर और तलवार, रक्त वाले वस्त्र आदि बांध कर पोटुला अपने सिर पर रख कर तुरन्त बाहर निकली। - गुप्त रीति से धरण भी पीछे 2 गया / उमा गठरी को कुएं में फेंक कर तुरन्त वापिस घर मा गई / धरण गहर खड़ा होकर विचारने लगा कि 'अहो ! कैसी इस स्त्री की क्रूरता और कुकर्मता है ?" इतने में तो उमा खिचड़ी प्रादि लेकर घर के द्वार को बन्द करके एकदम आगे बढ़ी / घरण भी कौतुक वश गुप्त रुप से पीछे 2 गया / उमा ने जल मार्ग द्वारा नगर से बाहर निकल कर निर्भयता से श्मशान पार करके गुफा में प्रवेश किया। दीपमाला से सुशोभित उसमें एक महल था / वहां सुन्दर प्रासन पर स्त्रियों के समूह में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 16 अग्रमुखी योगिनी खरी बैठी थी। उमा को देखकर स्त्रियां उमा आ गयी' इस प्रकार कोलाहल करने लगीं। . योगिनी खर्परी को अन्नदान से खुश कर उमा नमन करके बैठ गयो / खर्परी ने पूछा कि, 'तूने मंत्र के साधना की ?' हां, आपके प्रभाव से साधना की।' / "हे बुद्धिमते ! फिर तू क्या कहती है ?" : "हे महेश्वरी ! मेरे उपर प्रसन्न हो, वृक्ष को उड़ाने की विद्या मैं मांगती हैं।" _ खपरी ने कहा कि, 'हे शुभे / मुझे बड़ी बलि दे' उमा ने कहा कि, 'हे माता ! काली चउदस को अपने पति की बलि दूंगी। 'अच्छा' कह कर प्राज्ञा दी / उमा ने अंजली कर के वश करने का चूर्ण मांगा। . "मैंने तुझे पहले दिया था वह कहां गया ?" ... उमा ने कहा कि, "उस चूर्ण से जिसे वश किया था वह आज मृत्यु पा गया" * दूसरा चूर्ण पाकर उमा भक्ति से नमन करके घर आ गयी / धरण सर्व स्त्री चारित्र देख कर और सुन कर भयभीत हो गया / भय, आश्चर्य और रौद्ररस से धरण का हृदय वीर, शोक और बीभत्स रस युक्त हुआ / फिर हास्य शृंगार रस का त्याग करके शान्त रस मय हुआ। .. .. . . मायावो कुटिल और दुष्ट आचरण वाली उमा को धिक्कारता हुआ घरण विचारने लगा कि चूर्ण से वश करके वह मेरी बलि चढ़ा देगी,जिस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ TTITL * 204. प्रकार रस्सी से बंधी हुई गाय दूसरी जगह जा नहीं सकती उसी तरह मैं भी दुसरी जगह कैसे जा सकूगा / ऐसा विचार करता हुआ धरण मित्र के घर गया, मित्र के पूछने पर सब हकीकत उसे कह सुनायी। मित्र ने कहा कि, 'दुख, निन्दा और भय से क्या ? स्त्रियों का स्वभाव ही चंचल होता है / कर्म की गति कैसी विचित्र है ? बता अब तू क्या करना चाहता है / " धरण ने गद्गद् स्वर से कहा कि "उमा का मुख देखे बिना दूर देशान्तर जाना चाहता हूं। दो हत्या के पाप से भरा हुआ मैं आत्महत्या करूगा / " ... .. - मित्र ने कहा कि, “इस प्रकार मत करना क्यों कि दूध से सर्पनी की तरह तुम्हारे धन-से उमा उन्मत्त हो जायगी। इस लिए पहले अपने घर जाकर सबं सम्पत्ति को अपने अधीन करलो। फिर सदगुरु से दो हत्या का प्रायश्चित ग्रहण कर लेना। इस प्रकार से कार्य करना ही तुम्हें योग्य होगा परन्तु कदापि आत्म * हत्या का विचार न करना।" 1 मित्र की सलाह से धरण ने अपने घर जाकर सारी सम्पत्ति को अपने अधिकार में किया / उमा ने बड़े आडम्बर से कृत्रिम स्नेह दिखाया / परन्तु वह अब उसके स्नेह पाश में न फंसा / / - दूसरी और लोगों ने शव को कुएं में से बाहर निकाला, रणधीर को पहचान कर हा हा कार करने लगे / यह सुनकर उमा भी हा हा कार करने लगी। ... . . ' धरण सारी लक्ष्मी को लेकर मित्र के घर चला गया / वह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 21 10 वहां भोजन कर योगी का वेष धारण कर उस नगर से बाहर निकला और देश देशान्तर भ्रमण करने लगा। भ्रमण करते हुए एक ग्राम में पानी की प्याऊ पर एक सिद्ध पुरुष को बैठे देखा / उस को नमन कर धरण पास में बैठ गया। उसे विनय आदि गुणों से युक्त देखकर सिद्ध पुरुष ने पूछा कि हे भद्र / तू कौन है ?" धरण ने सर्व हकीकत कह सुनायी / और उससे पूछा कि "मैंने दो मनुष्यों की हत्या का पाप किया है / उस पाप से मैं किस प्रकार मुक्त हो सकता हूँ ?' सिद्ध ने मन में विचार किया कि, 'घरण बहुत मुग्ध है, कारण कि अपनी गुप्त बात मुझे कहता है।" फिर वह बोला कि "मैं भी चिन्तित मन वाला हूँ। जिसका मन स्वच्छ होता है, उसकी बुद्धि भी अच्छी होती है / " .... ' धरण ने पूछा कि, 'आप श्रीमान् को कौन सी चिन्ता है ? ' सिद्ध ने कहा कि, 'मेरे गुरु ने सन्तुष्ट होकर मुझे एक विद्या दी थी / वह विद्या स्वर्ण से सिद्ध हो सकती है। यह चिन्ता मेरे मन में शूल की तरह दुख देती है।'' धरण ने पूछा कि "कितना स्वर्ण इसके लिए चाहिये ?' .... .. ...... . सिद्ध ने हंस कर कहा कि, 'हे बुद्धिशाली ! मुझे कितना स्वणं 6 सकेगा?" धरण ने कहा कि, 'मेरे पास बहुत से रत्न है।" धरण की उदारता तथा गुणों से सिद्ध प्रसन्न हुआ और विचारने लगा कि, यह भद्र मुझे जानता भी नहीं फिर भी मुझ पर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 221 विश्वास करता है / सिद्ध ने कहा कि 'हे मुग्ध / मुझे रत्नों से कोई प्रयोजन नहीं / मैंने तो सिर्फ तेरी परीक्षा के लिए ऐसा कहा था / रत्न अपने पास ही रख / मुझे तो स्वर्ण पुरुष बनाने के लिए एक पुरुष ला दे." धरण उसके लिए भी तैयार हो गया / तब वह सिद्ध पुरुष अति प्रसन्न होकर बोला कि "हे सज्जन ! मुझे कोई स्वर्ण पुरुष आदि नहीं चाहिये, परन्तु मुझे तो एक सुन्दर सुपात्र पुरुष की आवश्यकता थी ? वह पूरी हो गयी है। मैं अब वृद्ध हो गया हूँ इस लिए अपने गुरु की दी हुई वर्तमान भूत और भविष्य को जाने वाली त्रिकाल विद्या, तुझे देता हूं / पूर्व संचित पुण्य प्रताप से तू मुझे मिला हैं हे कल्याणकारी ! मेरे पास 'कर्ण पिशाचिका' नाम की विद्या है / उस विद्या से त्रिकाल सम्बन्धी सत्य वस्तु का ज्ञान होता है / उस विद्या को तूं ग्रहण कर।" . घरण ने हर्ष पूर्वक सिद्ध पुरूष से उस विद्या को ग्रहण किण और विधि पूर्वक उस विद्या को सिद्ध भी कर लिया ! बहुत दिनों तक वह सिद्ध की सेवा में रहा / सिद्ध की आज्ञा से धरण पृथ्वी तल पर भ्रमण करने लगा। गिरि, वन, अरण्य गांव, आदि के नये 2 प्राश्चर्यो कोदेखते हुए एक दिन सुन्दर आम्रवृक्ष की छाया में ध्यान मग्न मुनि श्री को देखकर धरण ने उनके चरण कमलों में उल्लास पूर्वक नमन करके अपने आपको धन्य माना / वह उनके पास बैठ गया। मुनि श्री ने धर्मलाभ देकर प्रर्हत धर्म की देशना देते हुए फरमाया कि "जो दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण करे, और उसे शुभ स्थान में पहुँचाए वहीं घम हा. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .. "श्री नमस्कार महामन्त्र जैसा मन्त्र, 'श्री शत्रुजय जैसा तीर्थ और प्राणी की रक्षा जैसा धर्म, इन तीनों के समान त्रिभुवन में तुलना करने वाली कोई वस्तु नहीं है। श्री नमस्कार मन्त्र के स्मरण मात्र से प्राणी भवोभव की विपत्तियों को पार कर जाते हैं और सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं / अनन्ता जिनेश्वर देवों द्वारा स्पर्शित तथा कहलाता है। अनेकों पापों को करने वाले हत्यारे सैकड़ों जीवों को मारने वाले तिर्यच भी इस तीर्थ को प्राप्त कर अपने कर्म खपा गये हैं / जिस प्रकार हमें अपने प्राण प्रिय हैं, उसी प्रकार जीव मात्र को भी अपने प्राण प्रिय होते हैं ! यह जानकर उत्तम पुरुषों को प्रत्येक जीव की रक्षा करनी चाहिये " ... इस धर्म देशना को सुन कर घरण हाथ जोड़कर अपना पाप प्रकाशित कर आत्म निन्दा करने लगा / "हे पूज्य !: मैं महा पापी हूँ, हत्यारा और क्रूर कर्म को करने वाला हूं। दो हत्याओं के पाप से मेरी क्या गति होगी.?". डी . मुनिश्री ने फरमाया कि, 'हे पुण्यात्मा ! तप और --क्रिया में में उद्यमशील, होकर तुम शत्रुजय तीर्थ पर जाकर दुष्कर तप की आराधना करो और विधि पूर्वक श्री नमस्कार महामन्त्र का जाप करो। इस से तुम दो हत्याओं के पाप से शीघ मुक्त हो जाओगे / ", FIR मुनिश्री के वचन स्वीकार कर उसने अहंन्त धर्म को धारण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 24 * किया / मुनिजी की बार 2 स्तुति करते हुए वह बोला कि "निश्चय ही पाप मेरे बड़े उपकारी हैं। आप के अलौकिकउपकार से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।" फिर हर्ष पूर्वक नमस्कार करके धरण श्री शत्रुजय तीर्थ की तरफ प्रायश्चित करने की भावना से चल पड़ा। क्रमशः प्रयाण करते हुए वह आज कुशस्थल में पाया है / हे राजकुमारों मैं वही घरण हूँ। यहां से मैं शत्रुजय जाऊंगा। .. - उस सिद्ध पुरुष के प्रसाद से मैं भूत भविष्य वर्तमान को जानकर बतला सकता हूँ। मुझे लोग प्रख्यात ज्योतिषी धरण के नाम से जानते हैं।" यह अद्भुत वृतान्त सुनकर राजकुमारों को बड़ा भाश्चर्य हुआ। परस्पर विचार विमर्श करके उनमें से ज्येष्ठ कुमार जय ने धरण को फल पुष्प प्रादि देकर पूछा कि "पिताजी का राज्य किसको मिलेगा?" घरण ने विधि से देखकर सिर हिलाया और बोला कि "राज्य के बारे में क्या पूछते हो ? आप में से राज्य किसी के भाग्य में दृष्टिगोचर नहीं होता। नूतन पटराणी सूर्यवती के एक प्रदूमुत पुत्र होगा ! वही राज्य लक्ष्मी की प्राप्त करेगा ऐसा मेरा बभिप्राय है।" - यह कटु वाक्य सुनकर क्रोध से राजकुमारों ने कहा कि "ऐसे पनिष्ट वचन क्या बोलते हो ? तुम तो कुछ भी नहीं जानते हो / सर्व शूरवीरों में अग्रसर जयकुमार के अतिरिक्त तथा हमें भी छोड़कर इस राज्य को दूसरा कौन भोग सकेगा ?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ + 25 * राजकुमारों का यह प्रतिकूल वर्ताव देख कर धरण कहने लगा कि "अभी तो मेरा मन अशान्त है। प्रत: पीछे कभी अच्छी तरह देख कर बतलाऊंगा। अब मैं जाता हूँ।" फल को ग्रहण कर व धन को छोड़ कर धरण वहां से शीघ्र ही रवाना हो गया। कम . से वह शत्रुजय तीर्थ पर पहुँच गया और मुनिश्री के आदेशानुसार विधि पूर्वक धर्माराधन करने लगा। - इधर चारों राजकुमार विचार सागर में डूब गये। अति. चिन्तातुर होकर परस्पर विचार करने लगे कि “क्या उसकी कही हुई बात सत्य सिद्ध होगी ? परन्तु सरस्वती की वाणी भी तो किसी समय असत्य हो जाती है। .... इतर. "जिस प्रकार. पूर्व में एक ज्योतिषी द्वारा यह बतलाये जाने पर कि तुम्हारे पुत्र से कुल का नाश होगा, बुद्धिमान मन्त्री ने अपनी चतुराई से कुल का रक्षण कर लिया था / व्यन्तर देव द्वारा राजकुमारी की चोटी काट लेने से जो कष्ट उत्पन्न होने वाला था वह भी उसके बुद्धि बल से टल गया था अतः हम भी उसी प्रकार कोई कार्य करेंगे / इ क ' : .. "जैसे मन्त्री पुत्र रोहणीया को देवी ने संकट में डाला था परन्तु उसे भोयरे में डाल देने से संकट जाता रहा था / वैसे हमें भी कोई उस भाषा:: MEROFERESTF उपाय सोच लेना चाहिये / " 5 7 ... ..वृद्ध शुक समान बुद्धि वाला जय कुमार बोला, "चिन्ता करने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 26 10 की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह सर्वज्ञ तो है नहीं जो सदैव सत्य ही। बोलता हो। फिर भी मैं उपाय कर लूगा। यदि सूर्यवती के पुष होगा तो मैं किसी को ज्ञात होने से पूर्व ही उसे समाप्त कर दूंगा।" सौभाग्यवश सूर्यवती की सखी सैन्द्री आम्रकल भक्षणार्थ वहाँ मायी हुई थी। वहां ही सीड़ियों में छुप गई / धरण की भविष्य वाणी और राजकुमारों के उपाय को सुन कर वह वहां से तत्काल भाग निकली और रानी सूर्यवती के पास पहुंच कर उसे सारी हकीकत कह सुनाई। - यह सुन कर हर्ष और शोक से युक्त सूर्यवती रानी की उस समय वैसी ही दशा थी जैसी जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के एक तरफ दिन और दूसरी तरफ रात्रि होने से होती है। ___वह कहने लगी कि "अब क्या होगा? क्या हम प्रतापसिंह राजा को यह बात बतायें ? परन्तु अभी ऐसे विकल्पों का क्या अर्थ है ? भावि जो होना होगा वैसा हो जायगा।" विविध तपश्चर्या का प्राचरण करती हुई सूर्यवती रानी ने एकदा मध्य रात्रि में चार शुभ स्वप्नों का स्पष्ट दर्शन किया। (1) आकाश के मध्य में से पूर्णिमा का चन्द्र खिसक कर वापस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 27 * उसी स्थान पर आ गया / (2) किसी ने सूर्यवती को विकसित कमल दिया, पहले तो वह मुरझा गया परन्तु देवी के हाथ से वापिस खिल उठा। (3) अमृत समान उज्जवल मंदिर बारिश के कारण काला पड़ गया। सूर्यवती सोचने लगी कि फिर यह काला न हो जावे इसलिए उसको रत्नो से उज्जवल बना दिया / (4) किसी के द्वारा बन्द छत्र सूर्यवती के मस्तक पर रखा गया वह अपने आप खुल गया / . रानी सूर्यवती हर्ष से जागृत हो कर श्री नमरकार महामन्त्र का ध्यान कर प्रतापसिंह राजा के पास गई और अपने स्वप्न राजा को कह सुनाये / गजा ने हर्षित होकर अलग 2 विचार कर कहा कि "तुमने बहुत ही शुभ स्वप्न देखे हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम भाग्यशाली पुत्र को जन्म दोगी।" सूर्यवती ने हर्ष पूर्वक कहा कि "जैसा अापने कहा है उसी प्रकार ही हो / " . . _ "अाज अपना धर्म रुपी कल्पवृक्ष फलीभूत हुआ है।" - प्रातःकाल प्रतापसिंह राजा राजसभा में पधारे। तत्पश्चात मन्त्रिों को स्वप्न पाठकों और ज्योतिषिओं को बुलाने का आदेश दिया। उनके आते ही उन्हें फलों पुष्पों आदि से सन्मानित कर, रानी के देखे हुए स्वप्नों को कह कर, उनका फल पूछा / ... - उन्होंने आपस में विचार करके कंहा कि “महारानी सूर्यवती - एक पुत्र को जन्म देगी (1) वह पूर्ण चन्द्र के समान कलावान् होगा (2) वह लक्ष्मी के निवास रुप कमल के समान होगा (3) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 28* बद्भुत धर्म परायण होगा तथा (4) सकल पृथ्वी पर एक छत्री को भोगेगा। .... . इन स्वप्नों के भाव बड़ी कठिनता से समझ में आते हैं : ये स्वप्न अति शुभ हैं / " प्रतापसिंह राजा ने उनका उचित त करके स्वप्नों के फल सूर्यवती रानी को कह सुनाये / ... जिस प्रकार रोहणगिरि में रत्न वृद्धि को पाते हैं उसी प्र 1. सूर्यवती की कुक्षि में गर्भ वृद्धि पाने लगा। बहुत दिनों बाद सूर्य को "चन्द्र" का पान करने का दोहद उत्पन्न हुआ। परन्तु वह दोहद पूर्ण न होने से रानी धीरे 2 कमजोर लगी। प्रतापसिंह ने पूछा कि "क्या कारण है. ?" सूर्यवती ने की सर्व हकीकत कही। ...... . इससे चिन्तातुर राजा ने मन्त्री से कहा कि “ऐसा उपाय .... जिस से रानी का दोहद पूर्ण हो / ' ....... मन्त्रियों ने तुरन्त की ब्याही हुई गाय के दूध में शक्कर कर पानी के साथ उबाल कर चांदी के थाल को पूर्ण भर क* झोपड़ी में रख दिया, बाद में छत में छेद कर दिया उसमें च 2. प्रतिबिंब जव पड़ने लगा तब सूर्यवती रानी को एकान्त में चन्द्र - 1) करने की प्रार्थना की। रानी धीरे 2 उसका पान करने लगी / = पर पहले से एक सेवक को मंठा रखा था। यह छेद को धीरे 2 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ न 26 . करता गया जब वर्तन पूरा खाली हो गया तव छेद को बन्द कर दिया। "दोहद पूर्ण होने से टूर्यवती को अति हर्ष हुआ।. . marrammmmmmmmmmmmmmmmmmm .. . प्रतापसिंह और सूर्यवती ने उस सुन्दर दोहद के कारण आनन्द से यह निश्चय किया कि “चन्द्र के दोहद के कारण भविष्य में जो पुत्र - जन्मेगा उसका शुभ नाम "श्रीचन्द्र कुमार रखेंगे। अतः उन्होंने इस नाम की रत्न जड़ित सुन्दर अंगूठी तैयार 7. करवाई / ' "राजा रानी के मन में इतना अत्यधिक हर्ष उत्पन्न हुआ जो .5 तीन जगत में भी नहीं समा सकता था / , रा . 2. का , एक बार प्रतापसिंह राजा वन में क्रीड़ा करने गये हुए थे वहां कितने ही चर पुरुष कोलाहल करते हुए आये। राजा ने पूछा कि __ "क्या बात है ?" चर पुरुषों ने कहा कि "महाराज !' नैऋत्य कोण में ___समुद्र के किनारे कणकोटपुर और रत्नपुर नगर हैं / वहां के राजा मन्ज और महामल्ल मिल कर अपने ग्राम नगर आदि को त्रासित कर म कुशस्थल में वापस लौट कर राजा. प्रतापसिंह ने सेनापति को महासेना सहित तैयार होने का आदेश दिया। चारों तरफ प्रयाण भेरी 2 बजने लगी / अन्तःपुर में जाकर रानी सूर्यवती को राजा ने कहा कि, “हे प्रिये ! अचानक, विजय यात्रा उपस्थित हुई है / तुम सुख से यहां रहना / मैं जल्दी ही शत्रुओं को जीत कर यहां लौट आऊंगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 30 - रानी सूर्यवती ने कहा "मैं भी आपके साथ चलूगी / " प्रतापसिंह ने कहा कि "प्रोढ गर्भ के कारण वहां चलना ठीक नहीं / " सूर्यवती ने गद्गद् कंठ और ज्योतिषी का भावि कथन कह कर कहा, "मैं यहां नहीं रहूंगी" प्रतापसिंह ने कुछ क्षण सोच कर कहा कि 'हे प्राण प्रिये! तूदुःखी मत हो, सब शुभ ही होगा। जय आदि चारों कुमारों को मैं अपने साथ लेता जाऊंगा। तू निर्भय हो कर यहां सुख से रहो जैसे गुफा में सिंह रहता है।" दूसरी तरफ परस्पर सलाह करके बड़े भाई जयकुमार को महल में ही रख कर तीनों राजकुमार राजा प्रतापसिंह के पास पहुँचे / उन तीन कुमारों को देख कर प्रतापसिंह ने पूछा कि "जयकुमार कहां है ?" कुमारों ने कहा कि, "जयकुमार का शरीर ठीक नहीं है / " यह सुन / कर प्रतापसिंह ने जयकुमार को बुलवाने के लिए फिर सैनिकों को भेजा। दूसरी बार बुलाये जाने पर भी जयकुमार नहीं आया / .. उत्साह में राजा ने शीघ्र प्रयाण कर दिया और जयकुमार के व पाने की बात जल्दी के कारण राजा प्रतापसिंह को ध्यान में नहीं रही / "चाहे जितना भी पुरुषार्थ करें भवितव्यता को कोई टाल नहीं सकता।" कहा है कि, "चाहे सूर्य पश्चिम में उदय हो जावे, चाहे मेरु पर्वत चलायमान हो जाय, चाहे पवंत के अग्र भाग में कमल उग जाय अथवा अग्नि शीतलता धारण करले, तो भी निकाचित कम की रेखा बदल नहीं सकती।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 31 * प्रयाण करते हुए राजा प्रतापसिंह की सेना स्थान 2 से पाये हुए राजाओं सुन्दर रथों सारथियों और सैन्य दलों से वृद्धि को प्राप्त हुई। . राजा ने योग्य स्थल पर सारी सेना को विश्राम कराया / गुप्तचरों ने शत्रु के सैन्य की खबर प्रतापसिंह को दी। विचारणा करके राजा प्रतापसिंह ने तैयार हो कर रण क्षेत्र में प्रवेश किया और युद्ध प्रारम्भ हो गया। ... भाले वाले के सामने भाले वाला, तलवार वाले के सामने तलवार वाला, धनुषबाण वाले के सामने धनुषवाण वाला, अश्वारोही के सामने अश्वारी, सामन्तों के सामने सामन्त प्रादियों का भयंकर युद्ध हुआ / शत्रु के बल के समक्ष अपने विशाल सैन्य को भागते हुए देख कर विजयादि तीनों कुमारों ने भागे आकर भयंकर बाणों की वर्षा करके शत्रु को पराङ्मुख कर दिया / . ............ कुमारों को बलवान जानकर और भागती हुई अपनी सेना को रोकने के लिए तत्काल रोष से होंठ चढ़ा कर शस्त्रों से सज्म होकर मल्ल और महामल्ल सामने आए और बहुत समय तक कुमारों के साथ युद्ध करते रहे। - -- मल्ल राजा ने तलवार के वार से विजय को मूछित कर दिया / पुत्रों और सेना को खिन्न देख कर सूर्य समान तेजस्वी प्रतापसिंह राजा ने अपनी तलवार खींच कर, "कहां है, दुष्ट मल्ल ?" इस प्रकार बोलते P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 32 1. हुए प्रति वेग से मल्ल का मस्तक शीघ्न ही काट डाला। ... उसी समय प्रतापसिंह राजा की जय 2 कार होने लगी / महामल्ल अपनी जान बचाने के लिए सेना के साथ रत्नपुर में घुस गया / मल्ल के कणकोट्टपुर प्रादि नगरों पर अधिकार करके, राजा प्रतापसिंह ने महामल्ल के रत्नपुर सिवाय सारे देश को जीत कर, रत्नपुर पर घेरा डाल दिया : और उसे जीतने की प्रतिज्ञा कर वह वहां सुख पूर्वक रहने लगा। .इधर पट्टरानी सूर्यवती प्रतापसिंह राजा के प्रयाण से उत्पन्न हुए दुःख को भूल कर, श्री जिनेश्वर देव द्वारा कथित धर्म की आराधना में तत्पर थी। एक दिन हथियारों से सज्जित सैनिकों को प्राये हुए देख कर उसने अपनी सखी सैन्द्री को कहा कि, "ये सैनिक यहां किस लिए आये हैं ?" सैन्द्री ने सैनिकों से पूछा कि, "तुम कौन हो?" सैनिकं बोले कि, "राजा प्रतापसिंह ने हमें रत्नपुर से रानी के गर्भ के रक्षाणार्थ भेजा है, इसलिए हमसे भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है।" परन्तु सैन्द्री ने उन्हें मृषावादी जान कर रानी के पास आकर कहा कि "मुझे तो ये जय के सैनिक प्रतीत होते हैं, परन्तु वे अपने माप को राजा प्रतापसिंह के कह कर झूठ बोल रहे हैं ! ..जय ने, मभं रक्षण के बहाने से इन्हें दुष्ट विचार से यहां नियुक्त किया प्रतीत होता है।" ऐसी दुखदु परिस्थिति देख कर निश्वास लेते हुये सूर्यवती ने कहा कि, "प्यारी सैन्द्री ! अब हम क्या करगी ? : सैन्द्री ने कहा कि, "हे सूर्यवतीदेवी !- क्योतिषी के वचनों को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 33 * सुन कर जय ने एकान्त में जो विचारणा की थी, यह सारा षड़यन्त्र उसी के अनुसार रचा गया है। प्रयाण के समय राजा के बार 2 बुलाने पर भी जय जानबूझ कर यहीं ठहर गया / अब क्या होगा ? कुछ समझ में नहीं आता / अब तो प्रभु जिनेश्वर देव की ही शरण ग्रहण करो।" शुभ महूर्त में जब चंद्र उच्च नक्षत्र में था और सर्व ग्रह उच्च स्थान पर थे। तब मध्य रात्रि के समय सूर्यवती पट्टराणी ने गर्भकाल पूर्ण होने पर एक पुत्र रत्न को जन्म दिया / ___वह पुण्यशाली मूर्तिमान सूर्य जैसा तेजस्वी था। उसके तेज के सामने दीपक भी निस्तेज दिखाई देता था। उस पुत्र रत्न को देख कर सूर्यवती का हृदय रुपी सरोवर हर्ष रूपी जल से उच्छल उठा / श्री 'श्रीचन्द्र कुमार रूपवान, भाग्यवान, शुभ लक्षणों से युक्त, चन्द्र जैसी कान्ति वाला, विकसित कमल के समान नयनों वाला और अष्टमी के चन्द्र के जैसे ललाट वाला था / . . .. दूसरी ओर जय के यम जैसे सैनिकों को देख कर सूर्यवती गद्गद् स्वर से कहने लगी, "हे सखियो / मेरे विचित्र भाग्य को देखो। आज राजाजी भी कुशस्थल में नहीं हैं। इस समय भला किसे हर्ष न होता ? परन्तु वाजिन्त्र गीत नृत्य आदि महोत्सव तो दूर रहे. हम थाली भी बजा सकें ऐसी भी परिस्थिति नहीं ! धिक्कार हो मेरे ऐसे दुष्ट कर्मों को।" P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ + 34 . "जैसे रोहणाचल रत्नों से युक्त होता है ऐसे यह श्रीचन्द्र कुमार सब गुणों से युक्त है / परन्तु आज हम अपने हर्ष का शोषण करें ऐसी भवितव्यता बन गई है।" रानी सूर्यवती के दुःख से सर्व सखियां दुःखित हुई। दीर्घ निश्वास वाली स्वामिनी को देख कर सखियों ने कहा कि, "हे देवी! दुःख को हृदय में धारण मत करो क्योंकि अभी ही प्रसव हुआ है। चिन्ता से व्याधि वृद्धि पाती है। शरीर क्षीण होता है, बुद्धि घटती है, इसलिए बुद्धिशालियों को चिन्ता नहीं करनी चाहिये / दुःख और विकल्पों से क्या ? श्रीचन्द्र के पुण्य प्रताप से सब शुभ होगा। स्वमनोरथ रुपी कल्पवृक्ष आज पुत्र जन्म से सफल हो गया है / अब तो "श्रीचन्द्र" का उनके नाम की अंगूठी से और आभूषणों से शृंगार करें।" ऐसा कह कर उसे पुनः स्नान करवा कर सुन्दर आभूषणों से अलंकृत करके, इन्द्र के समान रुपवान देख कर सैन्द्री ने कहा कि, 'हे बहनों। श्री 'श्रीचन्द्र का शुभ भाग्य और अति सुन्दर शरीर, विधाता ने रत्नों आदि के सार में से सार ग्रहण कर बनाया होगा * ऐसा मैं मानती हूँ / राजा प्रतापसिंह के घर आज कल्पद्रप तुल्य भी 'श्रीचन्द्र' कुमार जन्मा है / हमें उसकी यत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिये / अभी क्या है और सुवह क्या होगा, कुछ पता नहीं। जब उस दुष्ट को पता लगेगा तो इस पुत्र रत्न को ग्रहण कर लेगा। तब हम क्या कर सकेंगी ? अतः अभी ही विचार करके रक्षा कर लेनी : पाहिये।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 35 10 एक सखी बोली कि, "पेटी आदि में इसे छुपा देवें तो वह कैसे जान सकेगा ?" दूसरी ने कहा कि "यह ठीक नहीं, वह बल प्रयोग करने लगेगा तो हम उसे कैसे रोक सकेंगी? क्रूर दृष्टि वाले शत्रु से कुमार को कौन बचा सकेंगी? तीसरी ने कहा कि, "हे सैन्द्री तू! अपने बुद्धि बल से रक्षा का कोई उपाय ढूढ निकाल ! बुद्धि से वह कार्य हो सकता है जो बल से भी शक्य नहीं, विपुल धन से भी जो कार्य नहीं हो सकता वह कार्य . बुद्धि से हो जाता है " तब रानी सूर्यवती ने कहा कि, “मैंने पूर्वभव में पुण्यानुबन्धी पुन्य किया होगा, जिससे ऐसा सुन्दर पुत्र रत्न जन्मा है / इसलिए इसके रक्षणार्थ उपाय करना चाहिये / इसलिए हे बुद्धिमतो सैन्द्री ! इस . समय तू अपनी चतुराई का उपयोग कर / " विचार पूर्वक सैन्द्री ने कहा कि, "मैं निर्वृद्धि होने पर भी कुमार को महल के बाहर किसी अच्छे स्थान पर रखने का उपाय करना चाहती हूं, परन्तु वह भी बहुत दुष्कर है क्योंकि द्वार पर खड़े सैनिक = बाहर जाने वाले से पूछताछ करेंगे। - - . रानी कहने लगी कि "महा संकट में से निकलने का फि कौनसा : उपाय करें ?" सैन्द्री बोली कि, "मेरी अल्प बुद्धि में एक उपाय नजर आता है। प्रतिदिन शाम को मालन अपने गृह उद्यान से ताजे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ . * 361 कूल तोड़ कर शय्या के लिए दे जाती है और प्रभात में त्यागे हुए फूरत ले जाती है। ' हमेशा की तरह आज प्रभात में वह मालन शंका रहित श्रीचन्द्र कुमार को उन पुष्पों में गृह उद्यान में लेजा कर इकठ्ठ किये हुए पुष्पों के पुंज में गुप्त रूप से रख देगी। जब संकट टल जायेगा। तव उसे वापिस ले पायेंगे / "देखते हैं अब क्या होता है ?" सूर्यवती ने अति हर्षित होते हुए कहा कि, "हे बुद्धिशालिनी ! सर्व शुभ है। तेरी बुद्धि तो पंडितों से भी बढ़ कर हैं।" रात बीत गई। श्री 'श्रीचन्द' के रूप का दर्शन करने के लिए उदयाचल पर्वत पर धीरे 2 सूर्य प्राया। विकसित मुख कमल वाले श्रीचन्द्र को सखियों ने गोद में लेकर बार 2 चुम्बन करके, तिलक नेत्रांजन आदि करके, मस्तक पर मुकुट रखा। सखियों में से किसी की भी श्रीचन्द्र को छोड़ने की इच्छा नहीं होती थी। श्री 'श्रीचन्द्र' को सूर्यवती गोद में लेकर बारबार चुम्बन करके, दृढ़ स्नेह से, बहुत स्तनपान करा कहने लगी कि, "हे पुत्र! वहांत अकेला कैसे रहेगा? गिरि गुफा में केसरीसिंह के बालक का कौन रक्षक होता है ? हे वत्स ! तू अपने मुख कमल के दर्शन मुझे जल्दी करवाना / इतने में हमेशा की तरह मालन प्रभाव में आयी। निश्चिन un Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratna
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________________ * 37 . सुझावानुसार मालन को समझा कर श्री 'श्रीचन्द्र' को पुष्पों के करंडिये में रख कर उसे दे दिया। वह हमेशा की भांति सैनिकों के आगे से हो कर गृह उद्यान में चली गई। रत्न कम्बल में लपेटे हुऐ, श्री 'श्रीचन्द्र' को पुष्पों के पुंज में बड़ी सावधानी पूर्वक बिना किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचाये गुप्त रख कर दोनों हाथों से, वह कहने लगी कि, "हे वत्स ! तुम सुखी रहो / अब मैं चलती हूं। पुज कोयहां एक क्षण के लिए भी नहीं रुक सकती हूँ।"मालन पुष्पको निरखती हुई वहाँ से सूर्यवती के पास आ गयी। इतने में सैनिकों ने अन्दर अवलोकन करते प्रसव के चिन्हों को देख कर सखियों से पूछा कि, "स्वामिनी ने कुमार को जन्म दिया या .. कुमारिका को ?" जब किसी ने भी उत्तर नहीं दिया तो तत्काल सैनिकों ने जय को समाचार दिया। शीघ्र ही जय वहां आ पहुँचा / बालक को न देखकर, जय ने तुरन्त ही सूर्यवती की पेटियों भोरे आदि की छानबीन की परन्तु कहीं भी कुछ न मिलने पर जय को प्रति खेद हुा / जप ने सैन्द्री से पूछा कि, "यहां क्या हुआ ?" ULLLLLLLLLL...................... सैन्द्री ने गर्भ का जर आदि इकट्ठा करके उसे बतलाते हुए कहा कि, "हमारा मनोरथ तो मन में ही रह गया / देवी ने पुत्र तो क्या पुत्री को भी जन्म नहीं दिया।" यह सुनकर जय के मन में आनन्द हुआ। मन में विचारने लगा कि, "मौषधी के बिना ही व्याधि मिट * P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 38 9. गई।" परन्तु उनको जय बोला कि, "मेरे मन में तो था कि माता के पुत्र का जन्ममहोत्सव में बड़ी घूम - धाम से करूंगा।" फिर / कृत्रिम शोक दर्शा कर सैनिकों को अपने साथ ही वहां से ले गया ! सूर्यवती ने सैन्द्री से कहा कि, "जय ने कैसा दिखावा किया ? अब तू जल्दी जाकर मेरे पुत्र को लाकर मुझे आनन्दित कर ! क्षुधा से पुत्र रुदन कर रहा होगा।" सैन्द्री ने तुरंत जाकर पुष्पों के पुंज को देखा, परन्तु श्री 'श्रीचन्द्र' तो वहां कहीं भी लजर न आया / इस लिए इधर उधर उसकी खोज करने लगी परन्तु प्राप्त न होने से वह रुदन करती 2 मूछित हो गई। जब मूर्छा हटी तो फिर वहां देख कर विलाप करती हुई वापिस आगयी। सैन्द्री का रुदन दूर से ही सुन कर सूर्यवती ने कहा "मेरे पुत्र को कुशल तो है !" सैन्द्री ने गद्गद् होकर कहा कि, "यदि श्री 'श्रीचन्द्र' को कुशल हो तो फिर दुःख किस बात का है, परन्तु पुत्र कहीं भी दिखता नहीं है।" . वज़ के समान कटु वाक्य सुन कर सूर्यवती मूछित हो गयी! कैर की डालियों से हवा कर सखियों ने सूर्यवती की मूच्छी को दूर किया / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ रुदन करती हुई सखियों से युक्त गृह उद्यान में जाकर सूर्यवती ने मालन से पूछा कि, “पुत्र को कहां रखा था ?" . मालन ने वह स्थान बताकर कहा कि, ' मैंने तो यहां पुत्र को रखा था / " सूर्यवती और सखियों ने चारों तरफ शोध की परन्तु कहीं भी पुत्र प्राप्त नहीं हुआ। "क्या मनुष्य को कल्पवृक्ष आसानी से मिल सकता है ? दरिद्री के हाथ में चिन्तामणी रत्न आ भी जाये तो क्या वह वहां टिक सकता है ?" "यहां श्री श्रीचन्द का क्या हुआ होगा? कौन ले गया होगा? : अथवा किसने पुत्र रत्न का हरण किया होगा? .. "हे सखी ! अभागिनी के पास पुत्र रत्न कैसे रह सकता है ? : "हाय ! हाय ! मैं दुर्भाग्य द्वारा मारी गई हूँ।" सूर्यवती मुक्त कंठ : से रुदन करती हुई बेहोश होती जा रही थी। हाथ पकड़ कर सैन्द्री उसे महल में ले गई। सूर्यवती ने कहा कि, “हे देव ! क्या मैंने तेरा कुछ लिया है ? :: क्या मैंने तेरा विनाश किया है ? मेरे पुत्र रत्न को ले जाकर तूने : मेरी आंखों में धूल झोंक दी है। तेरी इसी प्रकार करने की इच्छा थी तो, हे विधाता। पहले इस पुत्र रत्न को क्यों दिया था ? मेरे उपर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ यह कैसा शोक बरसाया है। ... परन्तु इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? पूर्व भव में मेरे द्वारा कोई महापाप आचरण हुआ होगा जिसके दुखद परिणाम स्वरुप दुष्कर ऐसा बनाव बना है। पूर्व में की हुई हिंसा व दुष्कर्म उदय में आने से मुझे यह फल मिला / अभी मुझे जो दुःख है उसे केवली ही जान सकते हैं।" सूर्यवती के रुदन से सारी सखियां रुदन करने लगी जिससे सब जगह शोक का साम्राज्य फैल गया / स्नेह से क्यां नहीं होता? "हे वत्स ! जगत में चन्द्र समान, हे 'श्रीचन्द ! हे चन्द्र के समान निर्मल प्रगट होकर मुझे दर्शन दे। अपनी मां की सांत्वना के लिए एक बार तो बोल ! तू कहां गया है ? यह विलाप सुनकर 'राजकुल में यह क्या हुआ ?' ऐसा महान् कोलाहल उत्पन्न हो गया स्वजनों ने आकर दुःख का कारण और गर्भ का वह सर्व वृतांत जाना। उस समय स्वजन समझाने लगे कि 'हे महाराणी ! अब क्या हो सकता है ? भवितव्या टाली नहीं जा सकती। विधि के अशक्य परिहारको निवारण नहीं किा जा सकता। आपतो तत्व ज्ञान की ज्ञाता हैं। क्या श्री जिन आगम को नहीं जानती हैं ?" "प्रति शोक और विलाप का प्रब त्याग करो। बीते हुए का P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ माघमिक जनों की भक्ति होने लगी थी। याचकों को दान दिया जाने लगा / महोत्सव से चारों तरफ प्रानन्द छा गया था I E ET / लक्ष्मीदत्त ने पुत्र का नाम श्री श्रीचन्द' ही रखा / राजपुत्र पाय माता द्वारा पलते हुए वृद्धि पाने लगा। TASTE से पहले पुण्य से श्रेष्ठी लक्षाधिपति था परन्तु बाद में वह वृद्धि पाकर क्रोडाधिपति बन गया / पुण्य के प्रभाव से धन, धान्य, मणि, स्वर्ण मादि से गृह परिपूर्ण हो गया: SITE TIERE भष्ठी ने छठे दिन जागरणोत्सव हर्ष से मनाया कुलाचार भी आनन्द एवं विस्तार से मनाये / Fir IP fhig प्रतापसिंह राजा का पुत्र नाना प्रकार की क्रीड़ा को करते 2 धीरे 2 पैरों से चलने लगी sms नि भी-'श्रीचन्द्र"को बन्धु स्वजन मित्र आदि बड़े प्रेम से लेते थे / 'श्रीचन्द्र एक को गोद में से दूसरे की गोद में जाता था। सब कोई उसे दीर्घ समय पर्यत अपने ही पास रखना चाहते थे / वह सबके पास चला जाता था जिससे सबको आनन्द दिलाने वाली वनाहिस्त चक्र में कमल के समान वह सबकी प्रियं लगता था |PS FIFPTP FIR { YESोस्त के लिए श्री "श्रीचन्द कभी हठं नहीं करता था। और किसी समय भी वह क्रुद्ध नहीं होता था। क्रम से वह पाच वर्ष का हुआ। बालक होने पर भी पराक्रम में विशालथा: 2 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 42 10 पर भेजा है। वह पुण्यशाली पात्मा है, फिर भी तेरे पास रहने से कोई विघ्न उत्पन्न होता। इसलिए मैंने इस प्रकार किया है।" .. "राजा होकर श्री 'श्रीचन्द 24 वर्ष बाद तुझ से भेंट करेगा / देवी ऐसा कह कर तत्काल अन्तर्धान हो गई / तत्क्षण सूर्यवती शोक रहित हुई, विस्मय से अति हर्ष पाकर विचारने. लगी, कि "मैंने तो यह साक्षात शुभ ही देखा / " .... उसने सारा वृतान्त सन्द्री आदि सेखियों से कहा / सखियों ने कहा, "ऐसा ही हो" शोक रहित होकर हर्ष से स्वामिनी के मंगल के लिए गान गाने लगी / / ... श्री 'श्रीचन्द्र' जीवित है / और मिलाप की प्राशा से सूर्यवती सखियों सहित धर्म किया में हार्दिक आदर बहुमान पूर्वक विशेष रुप से तत्पर हो गयी। श्री जिनेश्वर देव की पूजा, श्री पंचपरमेष्ठी मंत्र का ध्यान, आवश्यक किया आदि विशेष उत्साह पूर्वक करने लगी। . कुशस्थल में लक्ष्मीदत्त नाम का एक बणिक श्रेष्ठि रहता था / उसकी लक्ष्मीवती भार्या थी / वह बेष्ठिों में श्रेष्ठ माना जाता था वह धनवान और धर्मात्मा माना जाता था परन्तु पुत्र हीन था। , श्रेष्ठी ने मध्य रात्रि के समय शुभ स्वप्न में गोत्र देवी को देखा * संस्कृत परित्र में 12 वर्ष पश्चात मिलाप लिखा हुआ है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ उस देवी ने बधाई दी कि, "हे श्रेष्ठी ! उठ, प्रभात में कल्प वृक्ष तेरे - घर पायेगा / बंधुनों को आमन्त्रित कर यथा शक्ति महोत्सव कर।" लक्ष्मीदत्त ने जाग्रित होकर विचार किया कि, "मैंने उत्तम स्वप्न के दर्शन किये हैं / " श्री नमस्कार महामन्त्र पढ़कर तत्काल उठकर लक्ष्मीवती को शुभ स्वप्न की बधाई दी / प्रभात में सर्व बन्धुओं को आमन्त्रित कर प्रेम से भोजन आदि का आयोजन किया / कुशस्थल में आवश्यकतानुसार फूल न मिलने के कारण श्रेष्ठी भेंट ले कर राजकुल में गया। जयकुमार को नमन करके भेंट अपंण करके पुष्पों की मांग की। जयकुमार की प्राज्ञा लेकर वह. राजा के. गृह उद्यान में गया। पुष्पों के पुज के पास अनेक छोटे २.सिपं होने पर भी निर्भय होकर वह स्वयं तथा उसके नौकर फूल एकत्रित करने लगे / इतने में पुष्पों के पुज में गुप्त . रहे हुए प्रतापसिंह राजा के पुत्र ने दैव योग से पैरं को हिलाया। श्रेष्ठी पुष्पों को हिलते देख कर मन में विचार करने लगा कि, “यहाँ क्या है ?" पुष्पों को हटाते ही एक अद्भुत कुमार के दर्शन हुए ; TES ... श्री 'श्रीचन्द्र' सूर्य के बिम्ब के समान तेजस्वी, चन्द्र के समान सौम्य, कल्पवृक्ष की शोभा तुल्य, रत्न कम्बल. और. आभूषणों से शृङ्गारित तथा श्री 'श्रीचन्द्र' नाम की अंगूठी से सुशोभित था। हर्षित हुए श्रेष्ठी ने एकदम उठा कर विचार किया कि "कुल देवी ने ' स्वप्न में जो कहा था,वह सत्य ही हुमा / बन देवता ने. ही पुत्र रस्न दिया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *1640 शान्ति वक व्यतीत करने लगी 1 पहले जन्म भूमि में श्री वीतराग देव के फरमाये, हुए उपदेश ज्ञानी-मुनि द्वारा श्रवण, कर,तोती तीव्र तप को करने लगी, और निर्मल सम्यक्त्व को पालने लगी.। ज्ञानी मुनि ने भावि कथन करते हुए कहा कि “तू अगले भव. में, राजपुत्री होगी।" इन वचनों को सुन कर वह उत्साह से विशेष धर्म करने लगी / सूर्यवती के रोकने पर भी हार्दिक भाव से इसने अट्ठाई तप. पूर्ण किया है। उसका प्राज पारणा है। हर्ष से सूर्यवती देवी ने तप के अनुमोदनाथ महोत्सव से चैत्य परिपाटी निकाली हैं। ! TET: तपस्विनी तोती प्रति हर्ष से श्री जिनेश्वर देव की पूजा पूर्वक फल, स्वर्ण, मोती प्रादि भेंट करके भैपना जन्म सफल कर रही है / " 'श्री श्रीचन्द हैर्ष पाकर बोला कि "अहो भाग्य ! अहो शक्ति महो वैराग्य ! 'तियं च योनि में जन्म लेने पर भी यहां शुभ कर्म के उदय से; श्रद्धा, दया भादि पुण्य सामग्री इस को प्राप्त हुई हैं / FET ': 'इस प्रकार प्रशंसा करके, चैत्य के अन्दर जाकर श्री जिनेश्व "देव को नमन करके, श्री "श्रीचन्द' तोती का निरीक्षणं ..करते हुए खड़ हो गया। .. तोती श्री. अरिहंत : भगवान की पूजा कर चोंच .. / अष्टमंगल करके विधि पूर्वक श्री जिनेश्वर देव की स्तुति कर वापस लौ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ शोक नहीं करना चाहिये तथा भावि को भी नहीं विचारना चाहिये / बुद्धिमान मनुष्य तो केवल वर्तमान का ही ध्यान करते हैं / "श्री 'श्रीचन्द्र' कहां गये हैं ? किब आयेंगे मने को अभिलषित को कहने मात्र से क्या लाभ ? जो भाग्य में लिखा होता है. वही मिलता है. * कभी-२ प्राप्त न होने योग्य भी प्राप्त हो जाता है / FETE ETT स्वजनों के इस प्रकार वचनों को सुनकर, सूर्यवती को पूर्व के स्वप्न और, दोहुद्र आदि याद आने से दुःख उमड़ पाया / . फिर उन श्रावकों के वाक्यों से हृदय में उत्पन्न हुए. दुःख को शान्त किया / जैसे वर्षा के द्वारा दावाग्निः शान्त हो जाती है बाद में स्वजन स्वस्थान पर चले गये। वस्त्र श्री नमस्कार महल का ध्यान धारण करती हुई सूर्यवती को मध्य रात्रि में क्षण वार के लिए निद्रा आ गयी / इतने में एक श्वेत वी ने सूर्यवती से कहा कि, "हे वत्से ! क्या तू जागती है.?", देवी दर्शन से, सभ्रम सूर्यवती ने कहा कि "हे माता ! दुःखी को निद्रा कहां ? मेरे पुण्य प्रताप से आपश्री ने दर्शन दिया। 'नेत्र को आनन्द देने वाली आप कौन हैं ?" 6: देवी ने कहा कि, “हे भद्रे ! मुझे कुल देवी समझ / तू सोह. का त्याग कर, वृथा ही दुःख को धारण न कर। तेरा पुत्र श्री श्रीचन्द्र' विजयी है / पुष्पों के पुज में से मैंने उसे दूसरे सुखद स्थान P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ वह बहुत ही प्रतिभाशाली था। ज्ञान और विज्ञान आदि की बातें एक बार सुने या देखे तो तुरन्त उसकी समझ में आ जाती थीं, जैसे कि पहले से ही पढ़ा हो। : . . . . एक बार रथ में प्रारुढ़ हो कर श्री 'श्रीचन्द' लक्ष्मीदत्त सेठे सहित कौतुक से क्रीड़ा करने के लिए उद्यान में गया। वहां कंकोली, नाग, पुन्नाग, चंपा, गुलाब आदि के रसदार वृक्ष थे। सुन्दर 2 बावड़ियाँ भी थीं। 'श्रीचन्द्र' घूम फिर कर यह सब देख रहे थे / .., ___ इतने में बाजों की मधुर ध्वनि सहित महादान को तो और छत्र, चामर से शोभित, हस्ती पर राणी के समान प्रारूढ़ हुई तोती के साथ, मन्त्री व नगर के श्रेष्ठ लोगों को प्राते हुए देखा। ___ समस्त नगरजन आश्चर्य को प्राप्त हुए। नगर से बाहर पाते हुए देख कर श्री 'श्रीचन्द्र' को भी आश्चर्य हुमा। . उद्यान में आकर हस्ति पर से तोती उतर कर प्रथम जिनेश्वर के मन्दिर में दर्शन करने गई। श्री 'श्रीचन्द मन में विचार करने लगा कि "क्या यह तोती मानुषी है ? या कोई विशेष ज्ञान वाली है ? उसी समय एक स्त्री पालकी में से उतर कर सेवकों को आदेश करने लगी / श्रीचन्द्र ने पिता की आज्ञा लेकर उस स्त्री से मधुर स्वर से पूछा कि, "हे सुन्दरी ! तुम कौन हो? तोती पक्षी होने पर भी मानुषी के समान किया करती है तथा श्री जिनेश्वर देव के मूल P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 47 90 मभारे में जाने का क्या उद्देश्य है : . .. .... .सुन्दरी ने कहा कि, "कुशस्थल के प्रतापसिंह राजा वर्तमान में रत्नपुर में रुके हुए हैं। उनकी सूर्यवती राणी है / मैं उसकी सहेली सैन्द्री हूं। कुल के श्रृंगार, हे कुमार ! मेरी स्वामिनी को यह तोती अति वल्लभ व प्रेम पात्र है / सुनने लायक उसका कौतुकमय वृतान्त मैं तुम्हें सुनाती हूँ / ::: : : : ___ तोती का जन्म पूर्व में करकोट द्वीप में हुआ था। समुद्र में यात्रा करने वाले एक वरिणक: ने राजा प्रतासिंह को रत्नपुर में यह भेंट भेजी। वह अपूर्व प्रिय सुभाषित और कथाओं से मनोरंजन करती थी। , ____ यहां कुशस्थल में सूर्यवती देवी को पुत्र रत्न के वियोग में जो दुःख हुआ था वह तो तुमने सुना ही होगा। .. वह हकीकत दूत द्वारा भेजे संदेश से राजा ने जानी व प्रति दुःख को प्राप्त हुए / 17 . "हा!......हा ! ... देव ने यह क्या किया? वह मुग्धा राणी * किस प्रकार रह सकेगी ?" बाद में मंत्रिों के साथ मन्त्रणा. करके, दुःख "को भुलाने के लिए मानुषी भाषा बोलतो इस तोती को जो श्री जिनेश्वर देव द्वारा फरमाये श्लोक, उपदेश और वैराग्य को जानने वाली है, जिनभक्ता रानी के सुख के लिए यहां भेज दी। / / - जब से यह तोती यहां पायी, धर्मशास्त्रीय वार्तालाप व अनेक प्रकार के ध्यान आदि क्रियाओं को करती हुई रानी सूर्यवती अपने दिन . minermanenera namrPANDR. . - - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ताजे पुष्पों के करंडिये में कुमार को गुप्त रख कर लक्ष्मीदत्त ने घर लैजाकर एकान्त में प्रिया लक्ष्मीवती को सौंपा और प्राप्ति का स्वरुप विस्तार से कहा, लक्ष्मीवली ने हर्षित होकर कहा कि "आपने बहुत अच्छा किया, कि सुन्दर पुत्ररत्न को ले आये / ": " "श्री 'श्रीचन्द' के रूप और तेजस्विता से मेरा बहुत समय का मनोरथ पूर्ण हुमा हैं। प्रहो ! आपकी बुद्धि ! अहो ! धैर्य'! अहो ! आपका साहस PR IT IFa " "वास्तव में, पूर्व के पुण्य ही मनोवांछित पूर्ण करते हैं। वह पुण्य सुख का कारण होने पर भी, यह प्राश्चर्य है कि प्राणी उस पुण्य को उपार्जित नहीं करता है।" श्रेष्ठी ने भोजन के बाद बंधुनों भौर स्वजनों से कहा किं, "मेरी पत्नी गुप्त गभं वाली थी, पुण्योदय से प्राज पुत्र रत्न का जन्म पा है।" 17 हषित हुए श्रेष्ठी ने चारों तरफ भूमि पर केसर का छिड़काव "करवा कर पुष्पों को चारों तरफ सजाया, स्वणं. मोती के स्वस्तिक किये "हार पर तेजस्वी तोरण बांधे, सारा चौकः पुष्प मालाओं तथा चन्द्रव से सुशोभित किया / सुहांगनाऐं उच्च स्वर में मंगल गीत गाने लगे तथा याचकों की मिश्र ध्वनि से चारों दिशाएं गूंज उठी। ... स्वर्ण के प्रखण्ड प्रक्षत से पूर्ण हजारों घाल घर प्राने लगे "पाजिन्त्रों का मधुर नाद व स्वरं चारों तरफ गूजने लगे | बंधुनों तर P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 46 ही रही थी कि वहां पुण्य से श्री 'श्रीचन्द' कुमार इन्द्र पर दृष्टि पड़ते ही उसकी अद्भुत रूप को देखकर फिर से जिनेश्वर देव के चरणों में नमन करके, तोती ने उच्च स्वर से विनंति की, कि "जन्मान्तर में जो पति हो तो यह राजकुमार ही मेरा पति बने / श्री जिनेश्वर मेरे देव हैं, निग्रंथ मेरे गुरु हैं और जिनेश्वर देव द्वारा प्रकाशित धर्म मुझे प्राप्त हो / " ऐसा कह कर अनशन स्वीकार कर, हर्ष से श्री जिनेश्वर देव के चरण कमल में ही बैठ गयी। श्री 'श्रीचन्द' ने कहा "कि हे पंडिते ! हा ! हा ! ऐसा नियाणा न कर / यह उचित नहीं है / श्री जिनेश्वर ने पुण्य कर्म नियाणा रहित करने के लिए फरमाया है / हे तोती ! मैंने तत्व की बात कही है इसलिए तू मोहाधीन न हो।" - - तोती ने कहा कि, "मुझे नियारणा न हो / हे कुमार ! कुस्वामी के पास रहने से धर्म की सिद्धि नहीं होती, इस बुद्धि से मैं बोली हूँ अर्थात उससे मुझे धर्म की सिद्धि होवे / " इतने में सूर्यवती आ पहुँची / सैन्द्री ने तोती का अनशन आदि वृतान्त कह सुनाया / सूर्यवती ने कहा कि, 'हे सखी ! साहस न कर ! तेरा शरीर आहार योग्य है ! अनशन दुष्कर है / पहले जिस प्रकार का तप करती थी, वैसा तप करती रहना / " तोती ने मस्तक हिलाया। तब सूर्यवती ने कहा कि, "अट्ठाई का पारणा कर महल में आकर मुझे वार्तालाप से आनन्दित करो। तुम्हारा अयुष्य कितना है। यह नहीं जानते हुए भी तुम ने अनशन कैसे कर लिया ?" . . . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 50 8. तोती ने कहा कि, "इन प्रभुजी की साक्षी में जो कुछ बोलागया है, वह अन्यथा नहीं हो सकता / ज्ञानी का वचन भी है / इसलिए मैंने अनशन स्वीकार किया है। मेरा सर्व दुष्कृत मिथ्या हो / " इस प्रकार कह कर मौन हो गई। सूर्यवती ने कहा कि, "हे सखी ! तेरे बिना मेरे दिन कैसे बीतेंगे?" फिर सूर्यवती राणी, सखियों तथा नगर के लोगों ने तोती का अनशन महोत्सव किया / तीसरे दिन तोती वीर मरण को प्राप्त हुई। तोती के देह का चन्दन की चिता में अग्नि संस्कार किया गया / शनै 2 शोक का त्याग कर सूर्यवती नित्य तोती को याद करने लगी। इधर सूर्यवती को आई हुई देख कर श्रीचन्द्र तोती की दृढ़ता की अनुमोदना करता हुआ बाहर निकला / अभिमान बिना सर्व हकीकत लक्ष्मीदत्त से कह सुनायी। सैकड़ों मित्रों से युक्त, अमृत का भंडार श्री 'श्रीचन्द' घर आकर अपनी आत्मा में अतीव आनंद का अनुभव करने लगा "जिस प्रकार आकाश में रहा चन्द्र चकोर को आनन्द दिलाता है उसी प्रकार श्री 'श्रीचन्द्र' सब को आनन्द प्राप्त कराने वाला था। कुशस्थल में एक घीधन मन्त्री था। उसके मतिराज और सुधीरराज दो पुत्र थे / मतिराज मन्त्री बना / सुधीरराज की कमला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 8 51 . पत्नी से गुणचन्द्र नामक पुत्र हुआ / गुणचन्द्र श्री 'श्रीचन्द्र' का समान वयस्क होने से उसका प्रीति भाजन हो गया / क्षीर नीर के समान दोनों की परस्पर मैत्री हो गई। गुणचन्द्र ने विवेक से, विनय से, भक्ति से, तथा अति सेवा से श्री 'श्रीचन्द्र' का मन जीत लिया था। दोनों के मन एक हो गये / श्रद्धा का स्थानभूत गुणचन्द्र सज्जनों में श्रेष्ठ श्री 'श्रीचन्द्र' के मन में बस गया। - - -a एक दिन लक्ष्मीदत्त सेठ विचारने लगा कि, "बाल्यावस्था में वस्तुतः कुमार को पढ़ाना चाहिये / उसे पढ़ाने के लिए कौन योग्य है ?" इतने में देश देशान्तर की यात्रा करते गुणंधर उपाध्याय कुशस्थल पधारे / श्री गुणंधर उपाध्याय सर्व विद्याओं में प्रवीण, वृहस्पति के समान सकल शास्त्रों के जानकार, नीति वृद्ध, पंडित, शान्त, दयावान, और स्पष्ट वाणी वाले, शस्त्र और शास्त्र के मर्म के ज्ञाता थे / -masaram उन पाठकजी को आमन्त्रित करके सेठ ने श्री 'श्रीचन्द्र' के विद्याभ्यासहेतु उनसे विनंति की / गुणंधर उपाध्याय ने पूछा कि, "आपका कुमार कहां है ?" श्रेष्ठी ने कुमार को बुलाया / पिता के आदेश से लावण्य रुपी लक्ष्मी के लतागृह जैसे, श्री 'श्रीचन्द्र' ने आकर, गुरु के चरणों में प्रणाम किया, फिर पिताजी को प्रणाम करके शान्ति से विनय पूर्वक, योग्य स्थान पर बैठ गया। पाठक भी श्री 'श्रीचन्द' को सर्व लक्षणों से युक्त विनय आदि गुणों से सर्व प्रकार से योग्य जानकर, उस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 6 52 . की भक्ति से रंजित होकर दूसरे स्थान जाने की इच्छा होने पर भी श्री 'श्रीचन्द्र' के पुण्य प्रभाव से निस्पृह उपाध्यायजी ने उसे पढ़ाना स्वीकार कर लिया। श्रेष्ठी ने उपाध्याय को धन ग्रहण करने का बड़ा आग्रह किया / गुणधर बोले कि "मैं ज्ञान को धन से बेचता नहीं हूँ। जो गुरु विनय से प्रभावित हो कर विद्या देता है, वह पुण्यात्मा है / परन्तु जो विद्यार्थी स्वयं विद्या प्राप्त करता है तथा जो गुरु धन लेकर विद्या देता है वे दोनों लोभी हैं।" इस प्रकार के वचनों को सुनकर लक्ष्मीदत्त ने मन में सोचा कि "मैं इनका अमूल्य आभूषणों से सत्कार करुंगा।" फिर सेठ ने "योग्य स्थान में व्यवस्था करें / " लक्ष्मीदत्त सेठ ने कहा कि, "राजा की आज्ञा से लक्ष्मीपुर की विशाल भूमि व महल मुझे मिले हुए हैं। आप वहां पर पधारें।" लक्ष्मीपुर का महल शास्त्र अभ्यास के लिए उपाध्यायजी को योग्य लगा। शुभ दिन, शुभ चन्द्र के योग, शुभ मुहुर्त में उपाध्याय ' को ॐ से पढ़ाने का शुभारम्भ किया / श्रेष्ठी ने सबकी उचित श्री श्रीचन्द्र उपाध्याय की अतीव भक्ति पूर्वक सेवा करता हुआ कम से सूत्र और अर्थ का अभ्यास करने लगा / विनय से श्री श्रीचन्द्र' में गुणों ' का विकास हुआ / जैसे चिल्ला चढ़ाने से धनुष झुक जाता है, परन्तु P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 53 1. हर। बांस मोड़ने से कार्य नहीं होता, उसी प्रकार विनय से ही गुणों की प्राप्ति होती है विनय विना गुण आते नहीं हैं / " उपाध्याय के पास पाठशाला में बहुत से विद्यार्थी पढ़ते थे / परन्तु उनमें से श्री 'श्रीचन्द्र' पर सभी का विशेष आकर्षण था। जैसे तारों का समूह होने पर भी आकाश में चन्द्र ही सब को प्राकर्षित करता है / 'श्रीचन्द्र' गुरु की भक्ति ने विद्या प्राप्ति हेतु नहीं परन्तु गुरु के गुणानुराग से की थी / वह गुरु का थोड़ा सा भी विरह सहन नहीं कर सकता था। धीरे 2 श्री 'श्रीचन्द्र' लक्षण शास्त्र, छंद, सर्व अलंकार, ज्योतिष गणित साहित्य आगम आदि में अत्यन्त प्रवीण हो गया / उसने सामुद्रिक शास्त्र, अश्व परीक्षा, प्रश्नोत्तर, नाड़ी चेष्ठा, रेखा चिह्न, लग्न, कालज्ञान, स्वरोदय, कल्प विद्या, रसज्ञान, मलमूत्र परीक्षा, नाटक पिंगल आदि गुरु के पास पढ़ लिये / तथा वह स्वर्ण, रत्न, हीरे को परीक्षा, हस्ति शिक्षा, लेखन सकल शास्त्र विद्या, कला में पारंगत हो गया। गुरु ने श्रेष्ठी को यह सारी सूचना दी। लक्ष्मीदत्त ने कहा कि, "क्षत्रिय के योग्य शस्त्र विद्या भी मेरे पुत्र रत्न को सिखा देवें।" गुरु ने शस्त्र विद्या, राधावेध, धनुष्य विद्या प्रादि में श्री 'श्रीचन्द्र' को प्रवीण कर दिया। गुरु कृपा से भी 'श्रीचन्द्र' . सकल विद्या में पारंगत हो गए / गुरु की सारी विद्याएं श्री 'श्रीचन्द्र' के हृदय रुपी दर्पण में जल में तेलवत् प्रतिविम्बित हो गयीं / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ नई 54 . गुरु भी जिस विषय में ज्ञाता न थे। उन विषयों में गुरु श्री 'श्रीचन्द्र' की बुद्धि से जानकार हुए। गुरु से शिप्य बढ़ कर निकला। कुमार सर्व प्रकार से कुशल हो गये। तब उपाध्याय अपने घर जाने को तैयार हुए। इससे श्री 'श्रीचन्द्र' घर में रुदन करने लगा। उसका मुख रुपी कमल दिवस में रहे चन्द्र के समान म्लान हो उठा। श्री श्रीचन्द्र की यह हालत देख कर प्रेम पूर्वक लक्ष्मीदत्त ने कहा कि, "हे वत्स ! तुझे किस बात का दुःख है ? चाहे जितनी लक्ष्मी खर्च हो जाय वह मुझे स्वीकार है परन्तु मैं तुम्हारा मुख म्लान नहीं देख सकता। मैंने कभी तुम्हारे मुख पर प्रांसु नहीं देखे हैं / अाज इस प्रकार क्यों दुःखित हो रहे हो ? क्या मैंने अथवा तुम्हारी माता या गुरु ने तुम्हें कुछ कहा है ? या किसी मित्र ने तुम्हारे साथ दुष्ट व्यवहार किया है।" __ श्रीचन्द्र कहने लगा कि "मुझे किसी ने भी कुछ नहीं कहा है / आपकी कृपा से मुझे सब प्रकार का सुख है / परन्तु गुरुजी यहां से जाना चाहते हैं ! जो गुरु हृदय रूपी नेत्र को खोलने वाले हैं, उनका विरह मुझ से सहन नहीं होगा। अव मुझे कौन बुद्धि देगा ? मेरे संशय कौन दूर करेगा ?" . इतने में पंडितों में अग्रणी, उपाध्यायजी अनुमति के लिए वहां पधार गये। श्री 'श्रीचन्द्र' की यह स्थिति देख कर बोले कि, "अहो भक्ति ! अहो स्नेह ! अहो विनय ! अहो निराभिमानता !" ऐसी वारंवार प्रशंसा करने लगे। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 55 . __ श्रेष्ठी ने कहा कि “गुरुदेव | आपश्री अपने शिष्य के संतोष के लिए थोड़े दिन और ठहरने की कृपा करें।" गुरुदेव ने स्वीकार कर लिया / महात्मा लोग दाक्षिणता से क्या नहीं करते ? गुरु की सौम्य दृष्टि से श्री 'श्रीचन्द्र' को अति आनन्द हुआ / श्रीचन्द्र काः मुरझाया हुआ हृदय रुपी सरोवर गुरु रुपी मुख चन्द्र से अति उल्लसित हो उठा। हर्ष रुपी नीर छोटे उर में नहीं समा सका। उधर प्रतापसिंह राजा समुद्र किनारे 8 वर्ष रुक कर बलपूर्वक रत्नपुर को जीत वहां अपनी आज्ञा फैला कर कुशस्थल में वापिस लौटे / प्रजा जनों ने नगरी को बहुत सजाया और बड़ी धूमधाम से विजयी राजा को लेने के लिए गये / उनमें सेठ लक्ष्मीदत्ता भी श्री 'श्रीचन्द' सहित थे। राजा के प्रागे अपूर्व भेंट अर्पण कर, पिता पुत्र ने बड़े प्रेम . पूर्वक नमस्कार किया। लक्ष्मीदत्त सेठ के साथ सर्व गुणों में श्रेष्ठ सुन्दर 'श्रीचन्द' को देखकर प्रतापसिंह राजा ने पूछा कि, 'यह कुमार कौन है ?" श्रेष्ठी ने कहा कि, 'महाराज यह मेरा पुत्र है !' श्री 'श्रीचन्द' को देख कर आन्तरिक स्नेह और हर्ष के वश राजा ने उसे कोणकोट्टपुर नगर भेंट में दे दिया / राजा ने क्रमशः सारी प्रजा के साथ बातचीत करके उदारता पूर्वक उचित दान देकर, सब को विदा किया। सर्वत्र आनन्द व्याप्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 56 * हो रहा था / गुणधर गुरु ने 'घाव को तुरन्तं ठीक करने वाली औषधि की दिव्य जड़ें श्री 'श्रीचन्द्र' को देकर अपने नगर की ओर प्रस्थानकिया / ___ कुश स्थल में 8 क्रोडाधिपति श्रेष्ठी 1- धनप्रिय, 2. धनदेव, 3- धनसार 4- धतदत्त 5. धनेश्वर 6- धनगोप 7- धनमित्र और 8- धनचन्द्र रहते थे / अनुक्रम से उनकी पत्नियां 1- कमलसेनां 2- कमलावली 3- कमलश्री 4- कमला 5- कनकावती 6- कुसमश्री 7- कनकदेवी 8- कोडिमदेवी थीं / उनके क्रमशः 1- धनवती 2. धनाई 3- धारणी 4- धारु 5- लक्ष्मी 6- लीलावती 7- लच्छी 8- लीलाई, रुप लावण्य, चातुर्य आदि से युक्त लक्ष्मीदेवी के क्रीडा के स्थानभूत - अद्भुत पुत्रियां थीं। ___ जब वे यौवनवय को प्राप्त हुई तो चन्द्र के समान सौम्य और सुन्दर श्री 'श्रीचन्द्र' को देख कर उसके साथ उन 8 कन्याओं का पाणिग्रहण करवाने की इच्छा पूर्वक उनके पिताओं ने लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी से निवेदन किया। उन्हें योग्य जानकर, महोत्सव पूर्वक श्रेष्ठी ने , श्री 'श्रीचन्द' के साथ उनका हस्त मिलाप करवाया। अब श्री 'श्रीचन्द' . आठों स्त्रियों सहित अत्यधिक शोभायमान दिखने लगे / 8 स्त्रियों के हृदय और मुख रुपी दर्पण में श्री 'श्रीचन्द' का प्रतिबिम्ब पड़ने से 16 कलाओं से जैसे चन्द्र शोभा देता है उसी प्रकार श्री 'श्रीचन्द्र'सुशोभित हो रहे थे। कवीश्वर नये 2 काव्यों की रचना कर श्री 'श्रीचन्द्र' की P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 36. 57.10 : स्तुति : करते थे। "चन्द्र तो कलंक वाला है, परन्तु श्री 'श्रीचन्द्र' : निष्कलंक है / तथापि मुख रूपी चन्द्र के चक्षुओं में कालिमा है।" - "जब चन्द्र अस्त हो जाता है तब. चन्द्र-विकासी कमल कुम्हला जाता है * परन्तु श्री 'श्रीचन्द्र' तो नित्य उदयवाले होने से लक्ष्मी भी कमल का . त्याग कर, श्री 'श्रीचन्द्र' के नाम में, तेज में तथा कर कमल में रही - - ..."जिस प्रकार रोहणगिरि रत्नों से सुन्दर दिखाई देती है उसी ' प्रकार श्री 'श्रीचन्द्र' गुणों से शोभित है।" "जैसे देवों में इन्द्र शोभायुक्त * हैं उसी प्रकार विद्वानों में श्री 'श्रीचन्द्र' शोभायमान हैं।" श्री "श्रीचन्द्र" * मनुष्य के हृदय रूपी नयनों को हर्षामृत से विकसित करने वाले हैं / " - - - - - - . . "जैसे मेरुगिरि के मध्यस्थल में गुणरत्नमय श्री जिनेश्वर / देवों के बिम्ब होने से, स्वर्णगिरि के गौरव का वर्णन नहीं किया जा * सकता .वैसे ही, अनुपम गुणों से युक्त श्री 'श्रीचन्द्र' अवर्णनीय हैं / " : इस प्रकार श्री 'श्रीचन्द्र' की सर्वत्र स्तुति हो रही थी / महान् पुण्य के __ योग से वे इच्छानुसार . लक्ष्मी का दानादि शुभ कामों में उपयोग : . करते थे / -- एक दिन श्री 'श्रीचन्द्र' अपने मित्र गुणचन्द्र के साथ क्रीड़ा के लिए उद्यान में गये वहां सरोवर के किनारे अश्वों का पड़ाव देखा। प्रश्व ऐसे सुन्दर थे जैसे कि वे मानों सूर्य के रथ से ही तो न जुड़े हुए P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 58 श्री 'श्रीचन्द्र' ने पूछा कि "हे मित्र ! इन अश्वों का क्यों मल्य है?" . ... . . / - वृद्ध व्यापारी ने कहा कि, 'हे. कल्याणी ! * मैंने बहुत से अश्व बेच डाले हैं। अब तो उत्तम जाति के केवल 16 अश्व ही बाकी रहे हैं / गुणचन्द्र ने श्रीचन्द्र से पूछा कि, 'हे स्वामिन ! कौनसे अश्व उत्तम हैं ?" श्री 'श्रीचन्द्र' ने परीक्षा करके कहा कि, "जिन अश्वों के मुख और पैर उज्वल हैं वे गंगाजल जाति के हैं। जिनके ऊपर अष्ट मंगल रेखा हैं वह ताक्ष्य जाति के हैं। जो लाल रंग का है; वह कीया जाति का है / श्याम रंग अश्व खुगार जाति का है / हल्का पीला तथा श्याम रंग के पैर वाला अश्व कुला जाति का है / जो विचित्र रंग का है वह हला जाति का है। जो अश्व घृत जैसी क्रान्ति वाला तथा निर्मल है वह सराह जाति का है / जो पीला और लाल रंग का और श्याम रंग के पैरों वाला है वह रोहनाक जाति का है जो हरे रंग का है वह हरीक जाति का है / जो श्वेत और पीले रंग के हैं वे होलक जाति के हैं। ये दोनों अश्व पंचभद्र जाति के हैं। ये प्रति उत्तम और अति वेग से चलने वाली जोड़ी है। उनकी छाती, पीठ, मुह और पसली में शुभ लक्षण हैं।" ___ इतने में जयकुमार आदि अश्व खरीदने के लिए प्राये। वे एक नहीं खरीद सके। उन्होंने कई बलिष्ठ अश्व देख कर, 25 और 5. हजार में इच्छानुसार खरीद लिये / अब केवल तीन अश्व बाकी रह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 56 गये थे / , श्री 'श्रीचन्द्र' परीक्षा करके वायुवेग और महावेग 'पंचभद्र' जाति के अति शीघ्रगामी अश्वों की जोड़ी दो लाख रुपये में खरीद कर अपने घर आये / - --- . . . . . . ... - पुण्य का अद्भुत प्रभाव है / "विश्व में प्रत्येक के शत्रु मित्र होते ही हैं / " किसी ने लक्ष्मीदत्त सेठ से कहा कि, 'हे श्रेष्ठी! तुम्हारे चतुर पुत्र ने दुबले पतले अश्व दो लाख रुपये में खरीदे हैं / जबकि जयकुमार आदि ने उनसे आधे मूल्य में कई हृष्ट पुष्ठ अश्वों को खरीदा है। दोनों में कितना अन्तर है ?" लक्ष्मीदत्त ने कहा, 'उसमें तेरे कहने की कोई आवश्यकता नहीं है, श्री 'श्रीचन्द्र' के आगमन से पहले मेरे पास कितनी लक्ष्मी थी और अब कितनी है ? मेरे पास. लाख से कोड़ की लक्ष्मी की जो वृद्धि हुई है, वह सब श्री 'श्रीचन्द्र' के पुण्य के प्रभाव से आयी है / वह लक्ष्मी पटने वाली नहीं है / दर्भ और कुएं का पानी कितना भी निकालें फिर भी क्या वह घटता है ?" - इतने में श्री 'श्रीचन्द्र' ने प्राकर कहा कि, "पिताजी ! मैंने दो लाख में ये अश्वों की जोड़ी खरीदी है / " लक्ष्मीदत्त ने कहा कि, "तुमने शुभ ही किया ! तू आनन्द को प्राप्त हो।" स्नेहपूर्वक उसने पुत्र - को गोद में बिठाया, जैसे मुकुट के मध्य में रत्न को बैठाते हैं। फिर पिता के आदेश से श्री 'श्रीचन्द्र' ने गारुडी रत्न जड़वा कर सुवेन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ नामक एक दिव्य रथ को तैयार करवाया। - वह रथ जगत के लोगों को मोहित करने वाल. / पंच भद्र अश्वों और सुवेगरथ का सारंथी उसने धनंजय को परीक्षा करके नियुक्त किया। धनजय राजा के सारथी के कुल में जन्मा था / वह स्वामी के चित्त को अनुसरण करने वाला; स्नेहीं; गंभीर हृदय वाला; भक्तिवान, और चतुर सारथी था / एक शुभ दिन पिता की आज्ञा ग्रहण कर श्री 'श्रीचन्द्र' ने पंचभद्र अंश्वों को पुचकार कर उनके सर्व अङ्गों की मालिश करायी फिर परीक्षा के लिए मित्र सहित रथ पर आरुढ़ होकर, एक दिशा में रथ को चलाने की सारथी को आज्ञा दी। ..... .. 'पंचभद्र' अश्वों ने इतने वेग से रास्ते को पार किया कि जिससे रथ में बैठे हुए उन्हें वृक्ष पर्वत आदि सर्व घूमते हुए नजर आने लगे / आधे पहर में (60 मिनिट) में तो वे 15 योजन (120 मील.) दूर पहुंच गये और कुछ देर वहां विश्राम करने के पश्चात् वापिस अपने घर लौट आये। इस प्रकार श्री 'श्रीचन्द्र' इच्छानुसार भिन्न 2 दिशाओं में मित्र के साथ रथारूढ़ होकर नगर, वन, पर्वत आदि का निरीक्षण कर रहते थे / एकदा सेठ लक्ष्मीदत्त ने पूछा कि "आज इतनी देर कहां लग मयी ?" श्री 'श्रीचन्द्र' ने कहा कि, 'पिताजी ! नगर के बाहर कोई P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ कर रहे थे / " लक्ष्मीदत्त बोले कि, "वत्स ! तुम इच्छानुसार कोड़ा, करो, परन्तु समय पर घर शीघ्र आ जाया करो / क्योंकि तुम्हारे बिना, मुझे भोजन करने की इच्छा ही नहीं होता।" यह सुनकर श्री. 'श्रीचन्द' कहने लगा कि “यह तो मेरा अहोभाग्य है कि आप पूज्यों का मेरे प्रति इतना स्नेह है।" एक बार क्रीड़ा करते हुए वे त्रिकुट पर्वत पर पहुंचे। वहां पद्मासन में भैरव योगी को देख कर श्री 'श्रीचन्द्र' ने नमस्कार किया / लक्षण और गुणों से युक्त उसे देख कर योगी ने हर्षित होकर कहा कि "कुमार ! तुम छोटे होने पर भी रत्नों के आभूषणों से सुसज्जित और स्वर्ण रथ में आरूढ़ होकर दुष्ट शेर आदि हिंसक पशुओं से भयानक इस महा अटवी में अकेले कैसे आये हो ?" श्रीचन्द्र कहने लगा कि "क्रीड़ा के लिए तथा आश्चर्य को देखते हुए नगर से यहां आ पहुँचा हूँ। प्राप के दर्शनों के प्रताप से मुझे किसी प्रकार का भय नहीं है।" "श्रीचन्द्र" को साहसिक जानकर योगी ने कहा कि, 'यदि तुम - --- की साधना कर लूगा / " श्री 'श्रीचन्द्र' ने स्वीकार कर लिया। रात्रि को योगी आहुती देने लगा। श्री 'श्रीचन्द्र' वहां निर्भयता पूर्वक अकेला * खड़ा रहा। उसकी निर्भयता को देख कर सिद्ध योगी मधुर वाणी से कहने लगा कि, भविष्य में कभी किसी . योगी का तुमने विश्वास ,न * करना / मैंने तो तुम्हारी परीक्षा की है / . तुम्हारे पुरुषार्थ से मैं : प्रसन्न हूँ / सर्व क्षुद्र जन्तुओं को अन्धा करने वाली यह जड़ी बूटी Re v RANPERIME P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 62 तुम ग्रहण करो।" श्री 'श्रीचन्द्र ने कहा कि, 'आपकी-बड़ी कृपा है / " उस 'जड़ी बूटी को विधि पूर्वक ग्रहण कर योगी की आज्ञा लेकर श्रीचन्द्र अपने घर लौट आया। . . - इस प्रकार सदैव अलग 2 स्थानों पर इच्छानुसार श्री 'श्रीचन्द्र' को मित्र के साथ रथ पर पारुढ़ होकर विविध क्रीड़ा करते हुए अनेक प्रकार की विद्या, जड़ी बूटी तथा विषहरमणी आदि सारभूत वस्तुएं प्राप्त हुई। . . . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ** दूसरा खराड .एक बार श्री 'श्रीचन्द्र'. महल के अद्भुत झरोखे में अपने मित्र गुणचन्द्र सहित झूला झूल रहे थे, कि अचानक बाजों के * मधुर नाद से दिशाए गूज उठीं। अनेक रथ, अश्व, हाथी, सैनिक सहित जयकुमार, आदि राजपुत्रों को जाते हुए देख कर 'श्रीचन्द्र' ने पूछा कि, "ये आडम्बर पूर्वक कहां जा रहे हैं ?" तब सर्व वृतांतःकी मालूम करके गुणचन्द्र ने कहा कि, "हे स्वामिन् ! पश्चिम दिशा में तिलकपुर एक सुन्दर नगरी है। वहां पर तिलक राजा और रतिप्रिया रानी के तिलक मंजरी नामक एक कन्या है। 64 कलाओं से युक्त वह कन्या विश्वश्री के तिलक तुल्य है। जब वह योवन अवस्था को प्राप्त हुई तो एक बार पिता से तिलकमंजरी ने कहा कि "राधावेध करने वाले पुरुष के अतिरिक्त दूसरे किसी भी 'व्यक्ति के साथ मेरा. पाणिग्रहण नहीं होगा / " तिलक राजा ने शास्त्रानुसार 'राधावेध' की सर्व सामग्री गुरु की देख रेख में तैयार करवा कर निमन्त्रण भेज कर राजाओं और राजकुमारों को स्वयंवर में पधारने की विनंति की है। इस स्वयंवर में अभी 17 दिन बाकी हैं वह नगर यहां से 80 योजन (640 मील) दूर है / जयकुमार आदि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ सब वहाँ ही जा रहे हैं / " इतने में ही लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी में गुणचन्द्र को बुला कर कहा कि, "तुम कौतुक प्रिय और नई 2 वस्तुओं को देखने की उत्कंठा रखने वाले अपने मित्र 'श्रीचन्द्र' को पूछ लो। वह राधावेध को जानता है / गुणचन्द्र ने कह सुनाया तब सत्वशाली और धीर वीर श्री 'श्रीचन्द्र' मौन रहा। उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया / ' सोहलवें दिन को शाम को पिता को पूछे बिना अकस्मात् श्री 'श्रीचन्द्र' ने मित्र सहित; रथ पर पारुढ होकर, सारथी को तिलकपुर चलने की आज्ञा दी। 'विशाल पर्नत, सरोवर और नगर आदि को पार करता हुआ प्रातःकाल सूर्य का आगमन होता है / रथं का त्याग कर श्री 'श्रीचन्द्र' अपने मित्र के साथ स्वयंवर मंडपं में पहुँचा। वहाँ चारों तरफ बड़ा कोलाहल हो रहा था। मंच पर राजा और राजकुमार बड़े ठाठ बाठ * से विराजमान थे। शास्त्र युक्ति से स्थापित स्थम्भ पर 8 च क उलटे सीधे घूम रहे थे। उनके ऊपर मीण की राधा की पुतली थी। स्तम्भ के पास भूमि पर तेल की कढ़ाई थी। उसमें राधा का प्रतिबिम्ब पड़ता था / स्तम्भ के आगे धनुष बाण रखा हुआ था। श्रीचन्द्र मित्र से कहने बगा कि "हे मित्र ! जो व्यक्ति ऊंची मुष्ठी से बाण को आठ चक्रों में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 65 1. से निकाल कर राधा की बायीं प्रांस को बींधेगा वह भाग्यशाली 'राधावेध' करने वाला समझा जायेगा।" इतो में अनेक बाजों की मधुर ध्वनि पूर्वक राजपरिवार सहित राजकुमारी तिलकमंजरी देदीप्यमान वर माला लिये हुए वहां प्रा पहुंची। सब को पानंदकारी वह राजकन्या स्तम्भ के दाहिना पोर खड़ी हो गयी। श्रीश्रेष, हरिषेण, आदि अनेक राजे और राजकुमार स्वयंवर मण्डप में एकत्रित हो गये थे / श्री तिलकराजा के आदेश से भाट नै उन महान् राजाओं के नाम, उनके पिता के नाम, नंश, जाति तथा देश आदि वर्णन करके उन्हें राधावेध के लिए प्रोत्साहित किया। स्तम्भ के पास आकर धनुषबाण का उन राजाओं ने क्रमशः निरीक्षण किया परन्तु उनमें में कोई भी राधावेव की कला को सिद्ध न कर सका। विपरीत क्रिया करने से वे दूसरों के हास्य पात्र बने / राधा की बायीं आंख को बींधने में अपने तीरों के निष्फल रहने से जयकुमार आदि के मुख लज्जा से म्लान हो गये। केवल नरवर्मा राजा ने एक चक्र को बीघा परन्तु उसका भी तीर टूट जाने से वह लज्जित होकर लौट गया / वामाङ्ग राजा, वरचन्द्र राजा, शुभगांग राजा तथा दीपचन्द्र राजा का दक्षकुमार तो मन में राधावेघ को दुष्कर समझ कर अपने स्थान से ही नहीं उठे / यह देख कर तिलकराजा, तिलकमंजरी और राज परिवार बड़ा उदासीन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 66 हो गया / तब भाट ने फिर ऊंचे स्वर से कहा "हे भद्र रुषों ! क्या कोई राघावेध को सिद्ध करने में समर्थ धनुर्विद्या में प्रवीण पुण्यशाली है ?" तब गुणचन्द्र ने श्री 'श्रीचन्द्र' को कहा, "देव ! राधावेध के * लिए यह शुभ अवसर है। आप राधावेध जानते हैं अतः उसे सिद्ध करने की कृपा करो।" मन्त्री की प्रार्थना पर ‘कलानिधि और तेजस्वी श्री 'श्रीचन्द्र' स्तंभ के पास गये और क्रमशः देव, गुरु, भूमि और धनुष को नमस्कार करके धनुष को तीन बार टंकारा, फिर शास्त्रोक्त विधि से अच्छी तरह निरीक्षण करके उस पुण्यात्मा ने तीर छोड़ कर राधावेध सिद्ध कर दाला। चारों ओर जय जयकार की ध्वनि गूज उठी। राजकन्या तिलकमंजरी ने अति हर्ष पूर्वक श्री 'श्रीचन्द्र' के गले में वरमाला पहना दी। सभी लोग उसके भाग्य, रूप, विद्या, बल, बुद्धि तथा कला कौशल की प्रशंसा करने लगे। राजा ने पूछा कि, "ये कौन है ? किस का पुत्र है ?" वहां बड़ा कोलाहल मच गया था। उसी समय श्री 'श्रीचन्द्र' मित्र का हाथ पकड़ कर रथ के पास पहुँचे। गुणचन्द्र ने कहा कि, 'हे कुलरत्न ! कुछ समय ठहर कर इन की मनोकामना को पूर्ण करो और राजकन्या से पाणिग्रहण कर अपने माता-पिता को आनन्दित करो।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ __ 6710 निस्पृही श्री 'श्रीचन्द्र' कहने लगा कि, "हे मित्र का तुम यह नहीं जानते हो कि हम पिताजी को पूछे बिना ही यहां आये हुए हैं, प्रतः हमें विलम्ब नहीं करना चाहिये / और शीघ्र ही घर पहुंच जाना चाहिये / " इतना कह रथ पर सवार हो कर सारथी को . भाट ने श्री 'श्रीचन्द्र' को पहचान कर सबके सामने उसका स्पष्ट वर्णन किया कि, "यह कुशस्थल के लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी का पुत्र श्री 'श्रीचन्द्र' है। आठ प्रियाओं का पति है / गुणंधर गुरु से इसने शिक्षा ग्रहण की है। इसके पास सुवेग रथ और पवनवेगी वायुवेग और महावेग घोड़ों की जोड़ी है। राजा प्रतापसिंह ने करणकोट्टपुर इसे भेंट में अर्पण किया हुआ है। तिलकराजा ने उचे स्वर से कहा कि, "हे सैनिकों ! जो कुमार जा रहा है, उसे वापिस लौटा लाओ।" अनेक सैनिक घोड़ों 'श्रीचन्द्र' के पास नहीं पहुंच सका / वह तो वायु के समान प्रतिवेग . से निकल गया। यह देख कर मन में अति आश्वर्य युक्त होकर राजा कहने लगा 'सब से दुष्कर कार्य श्री 'श्रीचन्द्र' ने किया है। अति कष्ट पूर्वक भी जो न छोड़ा जा सके वह श्री 'श्रीचन्द्र ने सणवार में त्याग कर दिया है।" सैनिक खाली हाथ वापिस लौटे / यह देख कर राजा बहुत दुःखी हुआ। कन्या तिलकमंजरी मूर्छित हो गई। शीत उपचार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 18 . करने से स्वस्थ होने पर वह विलाप करने लगी, "हे नाथ ! आप क्यों जा रहे हैं ? प्राणेश्वर ! मुझे स्वीकार करो। हे कृपा निधि ! प्राप मुझे अपने पास बुला लो! हे स्वामिन् ! मेरी ओर कृपादृष्टि करो ! पापने कठिन गधावेघ को सिद्ध कर लिया, अब सुसाध्य मेरे शरीर को क्यों सिद्ध नहीं कर रहे हो। हे विभो ! अन्य कोई तो राधा में एक भी छिद्र न कर सके परन्तु आपने तो मेरे हृदय में दो छिद्र कर डाले। प्रापके दूर चले जाने और दिखाई न देने पर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। आप दिशा रूपी चक्र को भेद कर नया वेध कर रहे हैं। हे स्वामिन् ! क्या ये उत्तम पुरुष को योग्य है ? यदि नाना ही है तो मेरे हृदय में से क्यों नहीं चले जाते" इस प्रकार विलाप करती हुई तिलकमंजरी को उसके पिता और जयकुमार आदि ने रोकने का प्रयास किया। जयकुमार ने कहा कि 'मेरे पिता ने कोणकोट्टपुर श्री 'श्रीचन्द' को योग्य जान कर ही हर्ष पूर्वक भेंट दिया है। वह हमारे नगर में गया है। इसलिए मेरे साथ आप राज-कन्या को जल्दी भेज देवें।" इससे तिलकराजा और तिलकमंजरी को संतोष हुआ। तिलकमंजरी कुशस्थल जाने को तैयार हो गयी। मन्त्री ने तिलकराजा से विनंति की कि, "महाराज ! हमारे सेवक जयकुमार के निवास पर गये थे। तब वह अपने भाइयों के साथ / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 66 10 मन्त्रणा कर रहा था कि, अपने सेवक के सेवक से हम लज्जित हुए हैं। परन्तु उसके साथ राजकुमारी का पाणिग्रहण तो नहीं हुआ / इससे अपना भाग्य स्फुरायमान दिखाई देता है, कारण कि जब कन्या कुशस्थल प्रायेगी तब, अपने सामने श्री 'श्रीचन्द्र' कन्या से कैसे विवाह करेगा। इसलिए कन्या को जयकुमार के साथ न भेजें।" तब राजा ने धीर मंत्री को आमन्त्रण देकर श्री 'श्रीचन्द्र' को लाने के लिए कुशम्थल भेज दिया। तत्पश्चात् तिलक राजा ने सर्व राजाओं और राजकुमारों का हाथी, अश्व, आभूषण आदि से सम्मान किया और वे अपने 2 नगर की ओर विदा हुए। श्री 'श्रीचन्द्र' जल्दी से कुशस्थल पहुँचे। पुत्र के वियोग से सेठ लक्ष्मीदत्त बाहर ही खड़ा देख रहा था। श्री 'श्रीचन्द्र' को द्वितीया के चन्द्र के समान देख कर वह हर्षित हुआ / श्री 'श्रीचन्द्र' ने तत्क्षण रथ में से उतर कर विनय पूर्वक पिता को प्रणाम किया। पिता ने बड़े प्यार से पूछा कि, 'हे पुत्र / आज देरी कैसे हुई ?" श्रीचन्द्र ने उत्तर दिया कि, 'पिताजी ऐसे ही क्रीड़ा करते हुए देरी हो गयी है / " मित्र ने भी हां भरी, क्यों कि श्रेष्ठ मित्र स्वामी के चित्त का अनुसरण करने वाला ही होता है / यह सुन कर श्रेष्ठी चुप हो गया। कुछ दिन पश्चात् जयकुमार आदि भी कुशस्थल वापिस मा पहुँचे। उन्होंने प्रतापसिंह राजा के समक्ष विस्तार से सारी घटना का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 70 1 वर्णन किया। प्रतापसिंह हृदय में आश्चर्य चकित हो कर कहने लगे कि, "मेरे नगर का श्रेष्ठी पुत्र भी रुप, क्रान्ति, गुण और कला में सब से अधिक रहा / पुण्य के प्रभाव से जयश्री भी श्री 'श्रीचन्द्र' ने प्राप्त की / भीचन्द्र ने महान यश को प्राप्त किया है। श्रेष्ठ राधावेध जैसी दुष्कर कला को सिद्ध कर के उसने सर्व देशों में अपने यश के साथ मेरी भी कीति और नाम को फैलाया है। ऐसे गुणी श्री 'श्रीचन्द्र' ने किस गुरु के पास और कब अभ्याय किया था ?" इस प्रकार उसके पुरुषार्थ की प्रतापसिंह ने बारम्बार प्रशंसा की / 'मतिराज मन्त्री ने पूछा कि 'हे देव ! श्रीचन्द्र कब तिलकपुर गया और कब माया ? क्योंकि मैं तो उसे शस्थल में रोज देखता हैं।" - यह सुनकर प्रतापसिंह ने हृदय में अनि विस्मृित हो कर मन्त्री को प्रामन्त्रण दे कर 'श्रीचन्द्र' और लक्ष्मीदत्त सेठ को लाने के लिये तुरन्त भेजा। दूसरी तरफ लोगों द्वारा राधावेध का वृतान्त जानवर लक्ष्मीदरा -श्रेष्ठी ने श्रीचन्द्र को गोद में बिठा कर पूछा कि, 'बारह पहर में (36 घन्टों में) तिलकपुर में तुम किस प्रकार गये और वापिस लौटे ? वह सुनने लायक पाश्चर्य को कहो।" लक्ष्मीवती भी उस चमत्कारिक वृतांत को सुनने की इच्छा मे अति हर्ष पूर्वक सामने भाकर बैठ गयो / सत्य सुधा जैसी मधुर वाणी है भी 'श्रीचन्द्र' ने कहा कि, "हे तात ! माप श्री की कृपा और पूर्व पुण्य से सुवेग रप अपवों से युक्त अद्भुत है। उस रथ द्वारा अपूर्व P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 71 110 देग से 4 पहर में (12 घन्टों में) 100 पोजन (800 मील) का सफर कर सकते हैं / " . . यह सुन कर आनन्दित माता पिता ने कहा कि "हे पंडित शिगेमणी ! यह अद्भूत् राधावेध तुमने कहां से सीखा था ? राजपुत्री जो हमारी वह है, उसे क्यों नहीं लाये हो ?" तब गुणचन्द्र ने स्वयंवर की वरमाला का सारा वृतांत कह सुनाया। हृदय में राग उत्पन्न हुअा। फिर भी श्री 'श्रीचन्द्र' कहने लगे कि 'आप पूज्यों का आदेश नहीं लिया था जिससे इस प्रकार ही हम वापिस आ गये / वह राजकन्या कुछ ही दिनों में यहां आयेगी अथवा आमन्त्रण के लिए मन्त्री आयेगा।" हर्ष युक्त माता पिता ने 'श्रीचन्द्र' की प्रशंसा करते हुए कहा वि, 'धन्य है इसकी गंभीरता ! धन्य पूज्यों की भक्ति ! धन्य अद्भुत निस्पृहता ! धन्य दो लाख में पंचभद्र अश्वों को खरीदने की इसकी निपुणता ! इस प्रकार के मित्र का कैसा सुन्दर योग मिली / सत्य बात होने पर भी अपनी प्रशंसा नहीं करता | अहो ! राजकन्या के पारिणग्रहण का भी इसे उत्साह नहीं है / " लक्ष्मीदत्त सेठ ने श्रेष्ठ महोत्सव शुरु किया / सगे सम्बन्धियों ने मक्षत वस्त्र, वर्तन आदि की भेंट अर्पण कर लक्ष्मीदत्त सेठ के घर फो = भर डाला। सेठ ने महादान देकर सब को आनंदित किया। नंदावर्त, - स्वस्तिकों तथा केले के मनोहर तोरणों से, घर शोभायमान हो गया / ITUAL P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 72 10 गीत गान और वाजिन्त्रों के नाद से सारा वातावरण गूज उठा। इन सर्व लीलानों को देखते हुये मोतियों की श्रेष्ट माला के समान पौर चन्द्र की क्रान्ति के तुल्य निर्मल 'श्रीचन्द्र' कुशस्थल के किल्ले के बाहर श्रीपुर के अपने नये महल में पहुंच गया। पूर्व को भांति मित्र सहित श्री श्रीचन्द्र' रात्रि के प्रारम्भ में रण पर. आरुढ़ होकर पश्चिम दिशा में क्रीड़ा के लिए चला गया / प्रातःकाल प्रतापसिंह राजा के प्रादेश से मंत्री हाती आदि सहित आमन्त्रण देने के लिए श्रेडी के घर माया / श्रेष्ठी ने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक मन्त्री का स्वागत किया। .. अति हर्ष से मन्त्री ने कहा कि, 'राजा प्रतापसिंह ने प्रादेश दिया है कि, लक्ष्मीदरा श्रेष्ठी और श्री 'श्रीचन्द्र' को पट्टहस्ती पर मारोहण कराके राज्य चिन्हों से युक्त उत्सव पूर्वक राज्य सभा में उपस्थित करो।" .:: : प्रसन्नचित्त से श्रेष्ठी ने पुत्र को बुलाने के लिये सेवक को भेजा। सेवक ने आकर निवेदन किया कि श्री श्रीचन्द्र' क्रीड़ा के लिए बाहर पधारे हैं / " इससे लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी राजा की प्राज्ञानुसार मन्त्री के पाथ अकेले ही भेंट लेकर राजसभा में गये / प्रतापसिंह ने 'श्रीचन्द्र' का वृतान्त पूछा / लक्ष्मीदत्त ने कहा कि, 'हे महाराज ! अश्वों के गुण और राधावेघ भादि का वृतांत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ . ** .73. ॐ लिए चले गये हैं। इसलिए मैं अकेला ही आपकी सेवा में उपस्थित हुया हूँ।" श्रेष्ठी ने सर्व बातों का विस्तार से वर्णन किया / प्रतापसिंह गजा ने कहा कि, श्री 'श्रीनन्द्र' बहुत ही पुण्यशाली है / लोकोत्तर चारित्र वाला है। जब वह वापिस आये तब उसे मेरे पास लेकर पाना। श्री 'श्रीचन्द्र' को मैं अपने पुत्र से भी बड़ा बनाऊंगा। इसमें कोई भी संदेह नहीं है " .. राजा को लक्ष्मीदत्त ने भेंट अर्पण की, भेंट स्वीकार कर राजा न. लक्ष्मीदत्त और श्री 'श्रीचन्द्र' के लिए रत्न, वस्त्र आदि भेंट दिये / श्रेष्ठी राजा को प्रणाम कर श्री श्री चन्द्र' के बहुत से गुणों को याद करते 2, जगह 2 दान देते हुए अपने घर पहुंचा। सूर्यवती का पुत्र भ्रमण करते 2 महावन में मध्य रात्रि में वृक्ष के नीचे, सारथी सहित रथ रख कर मित्र द्वारा बिछाए वस्त्र पर सुख से निद्राधीन हो गया। पास में गुणचन्द्र जानित अवस्था में थे। उस वृक्ष पर एक शुक शुकी का जोड़ा रहता था / ..... श्री 'श्रीचन्द्र' के मस्तक पर तेज प्रकाश देख कर शुकी ने शुक से कहा कि, "हे नाथ ! यह राजपुत्र बहुा पुण्य शाली है / हम इन्हें दो बिजोरे अतिथ्य सत्कार के रुप में दें। बड़ा बिजोरा जो खाएगा वह राजा होगा तथा जो छोटा बिजोरा खाएगा वह मन्त्री होगा। हम इनका इस प्रकार से आतिथ्य करेंगे तो हमें महान फल की प्राप्ति P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 74 होगी।" ऐसा कह कर वह युगल उड़कर कहीं से दो बिजोरे ले पाया / सणवार डाल पर विश्राम करके बिजोरे 'श्रीचन्द्र' और गुणचन्द्र के पास रख कर वे उड गये / बुद्धिमान गुणचन्द्र ने दोनों फलों को ग्रहण किया / जब निद्रा से श्री श्रीचन्द्र' जानित हुए तब गुणचन्द्र ने उन फलों को सम्मुख रख कर तोती तोते की बात कह सुनायी। वे फल मित्र के हाथ में देकर राजपुत्र ने रथ में आरुढ़ हो कर आगे प्रयाण किया / विशाल सुन्दर सरोवर के किनारे प्रभात में प्रातः विधि करके मित्र द्वारा दिये गये बड़े बिजोरे को काट कर 'श्रीचन्द्र' ने तथा छोटे को गुणचन्द्र ने खा लिया। फिर दोनों तृप्त होकर नजदीक के रम्य "बन में चले गये। . इधर उधर भ्रमण करते हुए उन्हें दया मूर्ति शान्तदात पौर इन्द्रियों का दमन करने वाले और क्रियाशील श्री सुव्रत मुनि के दर्शन हुए। श्री 'श्रीचन्द्र' ने मन में विचार किया कि, 'मुनि के दर्शन होवा जो अपना बड़ा पुण्योदय है। साधु तीर्थ हैं। साधु समागम तुरन्त 'ही आत्मा को पवित्र करता हैं / ' दोनों वन्दन करके समीप जाकर मैठे गये। भद्र प्रकृति के देख कर मुनि श्री ने 'धर्मलाभ' शुभाशीर्वाद दिया और धर्म देशना प्रारम्भ की "हे भद्र! मनुष्य जन्म दुर्लभ है, उसमें पानक धर्म दुर्लभ है / उसमें दीर्घायुष्य, आरोग्यता, धर्म की P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .. * 750 इच्छा धर्म पर श्रद्धा होना, इन सर्व दुर्लभ वस्तुओं को प्राप्त करके भी धर्म आचरण करना अति दुर्लभ है / अतः हे भव्य प्रात्माप्रो ! प्रमाद आदि का त्याग कर दानादि किया रुपी धर्म कार्य में विशेष अनुरक्त बनो। समकित मूल पांच अनुव्रत, तीन गुण व्रत और चार शिक्षा . व्रत-- ये श्रावक के बारह व्रत हैं / हे वत्स ! धर्म वृक्ष के जड़ समान सम्यक्त्व ग्रहण करो। तुम राजपुत्र हो, इसलिए यथा शक्ति व्रतों को ग्रहण कर सकते हो। तुम्हारे शरीर पर जो शुभ चिन्ह दिखाई देते हैं इससे मुझे महान् राजा होने के लक्षण नजर आ रहे हैं / जो छत्राकार रेखा दिखायी देती है इससे यह प्रतीत होता है कि मातापिता और स्वमस्तक पर अवश्य ही छत्र धारण होगा। लक्षणों से ऐसा प्रतीत होता है परन्तु मुझे विशेष ज्ञान नहीं है / " "समय होने पर सामायिक व्रत को जरुर धारण करना चाहिये और श्री नमस्कार महामंत्र का प्रति दिन स्मरण करना चाहिये समभाव वाला श्रावक दो घड़ी में देव आयुष्य को बांधता है और कर्मो की निर्जरा करता है। त्रस और स्थावर जीवों के प्रति समता भाव आता है इसलिये सामायिक व्रत अवश्य करना चाहिये / एक व्यक्ति नित्य प्रति एक लाख स्वर्ण मोहरों का दान करे और दूसरा एक सामायिक करे तो, वह स्वर्ण का दान करने वाला भी सामायिक करने वाले जितना पुण्य नहीं बांध सकता / श्रावक भाव से स्वर्णगिरि का दान करे तो भी उसके पुण्य में इतना सामर्थ्य नहीं होता जितना कि एक सामायिक करने वाले के पुण्य में होता है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 76 . श्री सिद्ध भगवंत, स्वर्ण के समान कान्ति वाले श्री प्राचार्य प्रियंगु जैसी कान्ति वाले श्री उपाध्याय. अंजन मरिण के समान देदीप्यमान साधु भगवंत इस प्रकार पच परमेष्ठी पदों का विधि पूर्वक व्यान करना चाहिये / इन पांचों को नमस्कार करने से सर्व तो मुखी मंगल होता है / स्वर्ग, मयं और पाताल तीनों लोकों में यह मन्त्र शाश्वत माना जाता है। पांच ऐरवत क्षेत्र, पांच भरत क्षेत्र, पांच महाविदेह क्षेत्र में भूत, भविष्य और वर्तमान काल के सव जिनेश्वर देवों को इस मन्त्र से नमस्कार होता है / महा विदेह क्षेत्र के 160 विजयों में भी जहां अनादि काल से श्री जिन धर्म है और जहां शाश्वत धर्मकाल है; इस महा मन्त्र का ही स्मरण होता है / " . . . . "श्री नमस्कार मन्त्र का स्मरण करने वाला अद्भुत फल को प्राप्त करता है। मृत्यु के समय इसका शुद्ध मन से जो ध्यान करता है वह अवश्य ही सद्गति को प्राप्त होता है जो आपत्ति में नमस्कार मंत्र का ध्यान करता है उसकी सैकड़ों आपत्तियां नष्ट हो जाती हैं / जिस प्रकार गारुड़ी मन्त्र से सर्प द्वारा काटे हुए व्यक्ति का विष उतर जाता है, उसी प्रकार श्री नमस्कार महामन्त्र सर्व पाप रूपी विष को नाश करने वाला है। वास्तव में यह महामन्त्र कामकुम्भ चिन्तामणि रत्न और P.P:AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ कल्प तरु से भी बढ़ कर है / कामघट, देवमणि, कल्पतरु एक ही जन्म में सुख के दाता हैं, परन्तु नमस्कार महामंत्र तो श्रेष्ठ स्वर्ग व मोक्ष को प्राप्ति करवाने वाला है / ___ चार कोड़ा कोड़ी सागरोपम स्थिति वाला मोहनीय कर्म है / उसकी स्थिति केवल एक कोड़ा कोड़ी की ही शेष रहे तो जीव को नमरकार महामन्त्र की प्राप्ति हो सकती है। यदि कोई परमतत्व व परम पद का कारण हो तो नवकार मन्त्र उसमें प्रथम है / परम योगी भी नमस्कार मन्त्र का ध्यान धरते हैं / / ___'ॐ ही अर्ह' यह बीज मन्त्र अपूर्व प्रभावशाली है। सवं मन्त्रों का मूल यह नवकार मन्त्र है / जो जीव विधि पूर्वक पन्द्रह लाख जिनेश्वर भगवान को नमस्कार करता है और विधि पूर्वक पूजन करता है वह भव्यात्मा तीर्थ कर नाम कर्म को बांधता है। इसमें कोई भी संदेह नहीं / जो आठ करोड़, आठ हजार, आठ सौ और पाठ नवकार गिने वह तोसरे भव में सिद्ध पद को प्राप्त होता है। हाथों के आवर्त से श्री नमस्कार मन्त्र का जाप करने वाले को पिशाच डाकिनी, वेताल, राक्षस आदि का भय नहीं रहना। श्री नवकार के प्रभाव से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। सिद्ध किया हुअा नमकार मंत्र जल और अग्नि को भी शांत कर देता है। शत्रु, राज!, चोर प्लेग आदि के भयंकर उपर्सग भी इस के ध्यान द्वारा शान्त हो जाते हैं / जंगल में, गिरि गुफा में और समुद्र में भी घ्याया हुआ नमस्कार मंत्र डर को दूर करता है। भव्य जीव द्वारा स्मरण किया हया नमस्कार सैंकड़ों जीवों का उसी प्रकार रक्षण करता है जिस प्रकार माता पुत्र का रक्षण करती है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 78 सप, ज्वर व्याधि, चोर, सिंह, हस्ति, संग्राम आदि के भय इसके स्मरण मात्र से दूर हो जाते हैं। जिस भाग्यशाली के हृदय रुपी गुफा में केसरीसिंह रूपी नमस्कार रहा हुआ है, वह पुरुष पाठ कर्म रूपी दुर्भेद गांठ का भी कुछ समय में नाश कर देता है। नवकार के एक पद को गिनने से सात सागरोपम के पाप नाश हो जाते हैं / जो मोक्ष चले गये हैं, वर्तमान में जो जा रहे हैं और भविष्य में कर्मों से मुक्त होकर जो मोक्ष जायेंगे, उन सब जिनेश्वरों का इस नमस्कार द्वारा वंदन हो जाता है। श्री जिन शासन का सार, बौदह पूर्व का उद्धार ऐसा श्री नमस्कार मंत्र जिसके चित्त में हो उसका संसार क्या बिगाड़ सकता है। यह महामन्त्र अचित्य फल को देते वाला है।" यह सुन कर मित्र गुणचन्द्र सहित श्रीचन्द्र ने सदभाव पूर्वक सम्यक्त्व मूल श्रावक धर्म को ग्रहण किया और श्री जिनेश्वर भाषित दयामूल हितकारी जन धर्म को प्राप्त करके श्रीचन्द्र अमृत के स्वाद से भी अधिक तृप्ति को प्राप्त गुरुदेव की स्तुति करते हुए श्रीचन्द्र ने कहा कि, आप धर्मरुपी नेत्र को प्रकाशित करने वाले साक्षात् जंगम तीर्थ ही हैं। प्राज भाप श्री के दर्शन करके हमने अपने जीवन को सपाल किया। भापश्री परम पूजनीय है / हितकारी धर्म तत्व को गुरु बिना बुद्धिमान भी नहीं जान सकता / रससिद्धि, कला, विद्या, धर्मतत्व यह गुरु बिना कोई प्राप्त नहीं कर सकता। माता पिता आदि तो सर्व जन्म 2 में मिल सफते हैं / परन्तु धर्म को प्राप्ति कराने वाले सद्गुरु की P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 'माप्ति पुण्य से कदाचित ही होती है। प्राप गुरु श्री के दर्शन से मैं अपना अहोभाग्य मानता हूं। मैं अपने आप को पुण्यशाली समझता हूँ। सच वास्तव में आप श्री ने मुझ पर बहुत उपकार किया है / मैं मापको बार 2 नमस्कार करता हूँ।" ___गुरु की इस प्रकार स्तुति करके और प्रात्मा की अनुमोदना करके 'श्रीचन्द्र' गुरु के गम्भीर उपदेश को विचारने लगे और परमेष्ठी महामन्त्र का नित्य जाप करने का नियम लेकर, मित्र सहित पूर्व की भांति कौतुक देखते 2 एक महा अटघी में पहुंचे। मध्याह्न के समय अत्यन्त गर्मी से तृषातुर होने के कारण मित्र ने रथ से उतर कर चारों दिशाओं में जल की खोज की। परन्तु कहीं भी जल दिखाई नहीं दिया / "अब क्या करेंगे? भावि क्या होगा" इस तरह दोनों चिन्ता में पड़ गये। स्वामी के मुख को मुरझाया हुमा देख कर गुणचन्द्र ने सारथी से कहा कि 'हे मित्र ! इस ऊंचे वृक्ष के शिखर पर चढ़ कर देखो कि कहीं जल नजर आ रहा है ?" सारथी 'ने वृक्ष पर चढ़ कर देखा कि दक्षिण दिशा में बगुले सारस आदि पक्षी "उड़ रहे हैं, इससे वहां सरोवर होगा ऐसा अनुमान मगा कर नीचें उतर कर रथ को उस दिशा में ले जाने के लिये मनुमति मांगी / तत्क्षण रथ पर मारुढ़ हो कर दोनों मित्र उस तरफ गये वहां एक छोटा सरोवर आया। उसके किनारे पान वन था। मित्र ने सरोवर से पानी लाकर 'श्रीचन्द्र' को दिया : उसका पान करके श्रीचन्द्र 'सरोवर देखने पचे। मीचन्द्र मित्र के साथ सरोवर की पाल पर बैठे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 80 * मोर वहां से मनोहर और स्फटिक के समान सरोवर को देख कर प्राश्चर्य चकित हो गये / सरोवर की पाल से प्रागे जाते हए एक धोबी को भव्य वस्त्र धोते हुए देखा। उसमें एक छोटी साड़ी को देखकर बुद्धिशाली श्रीचन्द्र ने कहा कि, ' हे गुणचन्द्र ! नुमने यहां कोई कोतुक देखा है / गुणचन्द्र ने पूछा कि 'यहां क्या आश्चर्य है ?" श्रीचन्द्र ने कहा कि, 'हे मित्र ! यह श्रेष्ठ साड़ी किसी पद्मिनी की जान पड़ती है। इस श्रेष्ठी साड़ी की गंध से उस तरफ भंवरों की श्रेणी भ्रमण कर रही है। पद्मिनी का शरीर प्रस्वेद पुष्पों की सुगंध से भी अधिक सुगन्धित होता है / पमिनी पद्म के गंध वाली होती है / हस्तिनी स्त्री मधु के गंध वाली होती है। चित्रिणी विचित्र सुगन्ध वाली तथा शखिनी मत्स्य के गंध वाली होती है।" आश्चयं पाकर गुणचन्द्र ने धोबी से पूछा कि, हे मित्र ! यह कौनसा स्थान है। यह भव्य वस्त्र किसके हैं ?" धोवी ने कहा कि "हे सद्बुद्धि ! तुम परदेशी जान पड़ते हो सुनो! यह दीपशिखा नगरी है / दीपचन्द्र राजा का मैं नल नामक धोबी हूं। यह पद्म सरोवर है। ये वस्त्र प्रदीपवती रानी के और राजा के भाई की पुत्री और उसकी पुत्री की साड़ियां हैं। गुणचन्द्र ने फिर से पूछा कि, "राजा के भाई की पुत्री कौन है ?" धोबी ने कहा कि, 'भाई की पुत्री चन्द्रवती है। वह शुभगांग P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 81 10 राजा की प्रिया है / उनके वामांग पुत्र और पुत्रियां हैं / बड़ी पुत्री : 3 शिकला और छोटी पुत्री चन्द्रकला है / शशिकला का विवाह सिंहपुर के राजा महामल्ल के साथ हुआ है और छोटी चन्द्रकला वह पद्मिनी है अति रुप, लावण्य से शोभित है। उसे उसके मामा आदर पूर्वक विवाह के लिए यहां लाये हैं / चन्द्रकला के जन्म के समय "यह पधिनी राजा की रानी होगी ऐसी हर्ष वाली मुनि की वाणी हुई हैं / नैमित्तिक ने भी कहा है कि, 'सूर्यवती के पुत्र की पटरानी होगी / परन्तु यह वाणी अभी तक फलीभूत नहीं हुई है। प्रतापसिंह राजा की राणी सूर्यवती इस नगर के राजा की पुत्री है। शुभगांग र जा को कुलदेवी ने कहा कि, 'पद्मिनी का पारिण ग्रहण सत्वर उसके मामा के घर तू कर।" इसलिये पद्मिनी, माता, भाई आदि परिवार के साथ 500-500 पांच वर्ण के अश्वों में युक्त दीपशिखा नगरी में आयी है। और भी . सामग्री माता पिता ने पद्मिनी के विवाह के लिए तैयार करवायी है / - यह सुन कर 'श्रीचन्द्र मित्र सहित दीपशिखा नगरी का निरीक्षण करने की इच्छा से युक्त रथ को वहां रख कर आगे बढ़े। सरवर के पास एक तम्बु देख कर श्रीचन्द्र ने एक सेवक से ने कहा कि "हे मित्र ! तिलक राजा के प्रादेश से, वीर मन्त्री कुशस्थल की तरफ प्रयाण करते हुए यहां रुके हैं। नायकों में अग्रसर वीणारव के साथ राजसभा में जा रहे हैं।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 824 आगे चलते हुए सुन्दर उद्यान को देख कर उसकी छटा को देखने के लिए श्रीचन्द्र ने मित्र सहित उसमें प्रवेश किया / इतने में किये / उन्हें स्वीकार कर उद्यान पालक का सत्कार करके उद्यान को 'देखने के लिए आगे बढे। - पवन से झूमते हुए वृक्ष इस प्रकार दिखाई दे रहे थे मानों कि वे उन्हें हायों से इशारा करके बुला रहे हों / वहां श्रीचन्द्र ने चपक : प्रादि वृक्षों को देखा वहीं उसी के पास एक मनोहर रुपवती कन्या देखी। जिस के हाथों को कमल समझ, गर्दन को महुआ के पुष्प समझ कर नेत्रों में नीलकमल की शंका से, अधर और हाथों को वापोरिया पुष्प समझ कर, केश और वेसी को अपनी ही जाति के जैसे काले वर्ण की स्पृद्धा से भवरे चारों तरफ मंडरा रहे थे। उसे देख कर लज्जा से श्रीचन्द्र मित्र सहित तरक्षण उद्यान से बाहर निकल गये / श्री 'श्रीचन्द्र' के रुप से मोहित होकर, पद्मिनी ने भी विचार किया कि, मेरे पूर्व भव के पति यही प्रतीत होते हैं। कारण कि स्त्री को अपने पति को देखते ही जो चेष्टाएं होनी चाहिये वे सब मेरे अंग में हो रहा हैं। चतुर पद्मिनी ने सखी से कहा कि, "मेरे चित्त को हरने वाला वह पुरुष कौन है ? जो सर्व लक्षणों से युक्त है / रुप और लावण्य का निधि है। क्या नाम है ? इनका पिता कौन होगा 1 क्या कुल होगा? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 83, 26 कहां रहते हैं ? जल्दी जाकर इनके मित्र से पूछ !" ... उसी समय सखी ने जाकर नमस्कार कर के पूछा कि, 'हे . स्वामी, हे कृपानाथ मेरी नम्र विनति स्वीकार करा। मेरी स्वामिनी चन्द्रकला राजकन्या रुपलक्ष्मी की सुरांगना है। __ मैं उसकी प्रेम पात्र चतुरा सखी हूँ ! मेरी स्वामिना ने आप दोनों के . नाम आदि पूछवाये है / अतः कृपा करके आपश्री मुझे वताए / .... हषं से गुण चन्द्र कहने ही लगा कि श्रीचन्द्र ने वलात् दूर ले जा... कर उसे कहने से रोक दिया / और कहने लगा कि "नाम कुल आदि . पूछने का क्या प्रयोजन है ?" ऐसा कह कर श्रीचन्द्र मित्र के साथ तालाब दुकान आदि देखते 2 नगर में प्रवेश कर गये। .. चतुरा ने आकर वहां जैसा बनाव वना था उसको कह सुनाया। चन्द्रकला ने कहा कि, हे सखी / ये ही मेरे पति हों। इसलिए अब ... तुझे इस विषय में चारों तरफ से प्रयत्न करना पडेगा / वे किसी राजा मन्त्री या श्रेष्ठी के पुत्र होंगे ! किमी के भी हों इस विकल्प से क्या ? जिसे मैंने मन से वर लिया वही मेरे पति हैं ? परन्तु नाम कुल आदि . मैं नहीं जान सकी / वे नगर में कहां गये हैं ? . यह सर्व हकीकत माता को बताने के लिये कोविदा सखी को तुरन्त भेजा / राजकुमारी भी राज वाहन में बैठ कर श्रीचन्द्र के पीछे 2: शहर में गई। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1490 नगर के मध्य भाग में जिनेश्रर देवाघि देव के मन्दिर में विधि पूर्वक वन्दन करने की भावना से श्रीचन्द्र ने मित्र सहित वहां प्रवेश कर प्रत्येक प्रभुजी को वन्दन करके भाव पूर्वक स्तुति की बाद में बाहर : रंगमंडप में पाये / वहां सिंह, तोते, हाथी, कमल पुतलियों आदि के / सुन्दर चित्र थे। . . .. .. निरीक्षण करते और मित्र को दिखाते हुए द्वार के पास प्राये तब गुणचन्द्र ने विनति की कि, 'हे स्वामिन् यहां थोड़ी देर विश्राम करें, मित्र की प्रेरणा से श्रीचन्द्र वहां बैठे। उसी समय पद्मिनी ने मन्दिर में प्रवेश किया। . पद्मिनी को देख कर श्रीचन्द्र सोचने लगे कि, "कितना सुन्दर कमल के समान मुख है, कितने सुन्दर नयन हैं, होठ शरीर और प्रकृति मादि कितनी सुन्दर हैं।" ___पद्मिनी का अद्भुत रुप देख कर फिर हृदय में सोचने लगे कि, मैंने अनेकों स्त्रियां देखी परन्तु इस पद्मिनी जैसी रुपवती नहीं देखी / श्रीचन्द्र को पद्मिनी को स्नेह युक्त दृष्टि से देखते हुए देख कर गुणचन्द्र को अति हर्ष हुआ / वह मन में प्रार्थना करने लगा कि इन दोनों का मनोरथ पूर्ण हो / . . अपने मित्र गुण चन्द्र को श्रीचन्द्र ने कहा कि 'इस संसार में मन को जीतना बड़ा ही कठिन है / दृष्टि के समक्ष जिनेश्वर देव के होने पर भी मूर्ख मैंने विलास की पटरानी के कटाक्ष, छाती, मुख पारि में ध्यान किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ नौ 85 कहा है कि, जब तक सुन्दर स्त्री के कमल नयन कटाक्षों का ' वह अपनी इन्द्रियों को वशीभूत कर सकता है। उसके लज्जा, धैर्य, विनय आदि गुण स्थिर रह सकते हैं / "यहां स्त्रियां आती हैं। इसलिये यहां बैठना योग्य नहीं है 'ऐसा कह कर श्रीचन्द्र जिनेश्वर देव के पास जाकर स्तुति करने / लगे / समीप में बैठी हुई पद्मिनी ने श्री अरिहंत भगवान् की स्तुति ... करते श्रीचन्द्र के रुप को एकाग्र दृष्टि से देखा / / सुन्दर शीलवान गुणचन्द्र ने भी सिंहावलोकन दृष्टि से पद्मिनी को देखा / राजकन्या ने भृकुटी संज्ञा से स्वामी का नाम नगर अ.दि पूछा। बुद्धिमान गुणचन्द्र ने हस्त संज्ञा से अपने स्वामी का नाम प्रादि : बताया / पद्मिनी ने भी अपने भाव बताये और हस्त संज्ञा से कुछः / विलम्ब करने के लिए कहा। पद्मिनी ने माता को "श्रीचन्द्र नाम के श्रेष्ठी पुत्र कुशस्थल से प्राये हैं" इस प्रकार की जानकारी दी / श्रीचन्द्र दर्शन करके तत्काल बाहर आये / कुछ ठहरने के हेतु गुणचन्द्र ने कहा चलो हम राजा का पद्भुत महल देख कर पावें / परन्तु अपने मन के भाव छुपा कर "देर हो रही है इसलिये अब हमें जल्दी चलना चाहिये" ऐसा कह कर श्रीचन्द्र रथ की तरफ रवाना हुए। गुणचन्द्र ने चारों ओर दृष्टि डाली परन्तु कहीं भी पद्मिनी या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 86.. 2. उसकी दासी दिखाई नहीं दीं / विलम्ब का कारण भी समझ में नहीं आया। इतने में वाजिन्त्रों के मधुर स्व' को सुन कर हर्षित हो कर . गुणचन्द्र ने कहा कि, "हे . स्वामी ! इस मधुर संगीत को सुनना चा,िये।" ... मित्र के प्राग्रह से श्रीचन्द्र संगीत वाले स्थान पर पाये / इतने में तो श्री 'श्रीचन्द्र' के नाम का श्रीराग में ध्रुपद में गाते हुए संगीत नृत्य / प्रादि देखा और सुना और विचारने लगे कि श्रीचन्द्र तो बहुत से हैं यह : पुत्र 'श्रीचन्द्र' जय को प्राप्त हो। - यह सुनकर श्रीचन्द्र ने कहा कि, 'हे मित्र ! यह किसका घर : पर वरदत्त श्रेष्ठी को देख कर श्रीचन्द्र ने कहा कि "यह तो वरदत्त / श्रेष्ठी जो कि पितानी के मित्र हैं उनका घर है.। ये पिता के पास व्यापार के काम से आते हैं / " यदि वे मुझे देख लेंगे तो अवश्य रोकेंगे / इसलिये चलो आगे चलें। " कह दिया / वरदत्त श्रेष्ठी ने सोचा कि 'यह श्रेष्ठी पुत्र कौन होगा? : लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी का पुत्र अचानक कहां खे आ गया है ? वह श्रीचन्द्र तो हजारों सैनिकों अश्वों आदि का स्वामी है / अतः यह कौन होगा ?" . यह जानने के लिये वरदत्त श्रेष्ठी तत्काल पीछे 2 गये / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 8740 - श्रीचन्द्र को मिलकर श्रेष्ठी ने कहा कि, 'अाज तो मेघ बिना हो वृष्टि हुई। मेरा जन्म सफल हुा / आज यह भूमि भाग्यवती हुई / जो कि आपश्री का मेरे यहां आगमन हुआ ! धन्य भाग्य ! धन्य धड़ी! कृपा करके मेरे घर पधारो / आज बालक को पाठशाला में भेजने के कारण उत्सव हो रहा है।" वरदत्त श्रेष्ठी के आग्रह से श्री चन्द्र को वहां जाना ही पड़ा। इस प्रकार से विलम्ब होने पर हर्षित होकर बुद्धिशाली गुणचन्द्र ने कहा कि, 'नगर के बाहर हमारा रथ है उसे मंगवाना है / " श्रेष्ठी ने उसे मंगवा लिया। श्रीष्ठी के आंगन में श्रीचन्द्र ऐसे ६.ोभने लगे जैसे आकाश में सूर्य शोभता है अथवा तारों में चन्द्रमा शोभायमान होता है। श्रेष्ठी की पत्नी ने अक्षत से वधामणी की विवेकी श्री 'श्रीचन्द्र' सर्व व्यक्तियों को प्रणाम करके उनके समक्ष बैठ ये। / दीपचन्द राजा मन्त्रियों सामन्तों व प्रजा जनों के साथ राजसभा में बैठे थे। उस समय गंधर्व गायक ने वीणा बांसुरी आदि बनाने वाले कलाकारों के साथ, मनोहर सुधा समान नव रसों से युक्त मुधुर भाष; से शोभित और विविध रागादि द्वारा श्रवण इन्द्रियों को आनन्ददायक श्री श्रीचन्द्र' का चरित्र रास हर्ष उल्लास से गाना आरम्भ किया, उस में सर्वजन प्रानन्द मग्न हो गये / परदे के पीछे चंद्रवती व प्रदीपवती राणी प्रादि भी यह सुन रही थी। इतने में कोविदा सखी ने आकर पद्मिनी चन्द्रकला के उद्यान में जाने आदि की सारी हकीकत कह सुनायी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 88310 रानी ने कहा कि, 'तेजस्वी और रूपवान् 'श्रीचन्द्र' पद्मिनी के लिए योग्य तो है परन्तु वह कोई श्रेष्ठी पुत्र है। उसके कुल की वह जानकारी न होने से उसे कन्या कैसे दे सकते हैं ? फिर भी मैं दीपचन्द राजा को इस बात की जानकारी देती हूँ।" चंद्रावती ने सर्व हकीकत दीपचन्द राजा से कही। दीपचन्द राजा ने हंस कर कहा, 'हे बुद्धिशालिनी ! यह तुम क्या कह रही हो / यह कोई बालक के धूल का घर तो नहीं है। पद्मिनी कन्या वणिक के साथ किस तरह व्याही जा सकती है ? इसमें अपनी क्या इज्जत रहेगी शुभगांग राजा के समक्ष यह बात किस प्रकार कही जावे ? वैसे तो चन्द्रकला भी दक्ष है / पहले तो वह सूर्यवती के पुत्र के साथ विवाह के लिए उत्साह वाली थी, परन्तु उसका वह मनोरथ तो सब हृदय में ही रह गये / मेरे विचार में तो चन्द्रकला स्वयंवर द्वारा जिस राजा को पसन्द करे उसके साथ उसका विवाह कर दिया जाय / " - उधर चन्द्रकला ने चैत्य के समीप खडी अपनी सखी को कहा 'कि, 'हे सखी! तुम शीघ्र जाओ और आर्य पुत्र कहां है, इसकी जानकारी करो।" मुझ आदेशानुसार सखी ने दोनों मार्गो द्वारा किल्ले के द्वार तक अच्छी तरह देखा परन्तु उसे कहीं भी "श्रीचन्द्र", नजर नहीं आये / तब वह वापिस आकर कहने लगी कि, "सर्वत्र तलाश करने पर भी श्री 'श्रीचन्द्र' कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुए।" वियोग से दुःखी चन्द्रकला ने दीघं निश्वास लेते हुए कहा कि, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 631 सर्वया योग्य हो यह मैं जानती हैं। अतः हमारे सामने 'मैं वणिक हूँ' इम प्रका कयों बोलते हो ? यदि तुम वगिक हो तो भी यह तुम्हारे धर का कार्य करेगी, ऐसा जानकर हम आपको इस समर्पित कर' प्रदीपवती ने श्रीचन्द्र से कहा कि, नैमित्तिक ने पहले कहा था कि, "इस पद्मिनी का दस्त स्पर्श करने वाला बहुत राज कन्याओं से विवाह करेगा और राज्य को प्राप्त करेगा। इसमें सशय नहीं है / प्रापका नाम. कुल नगर आदि नहीं जानते हुए केवल आपके दर्शन मात्र से जिसकी बुद्धि पवित्र हुई है उसने आपको मन से वर लिया है। ... इसमें पूर्व भव का स्नेह निमित्त मात्र है। ऐसा आप समझें / आमु. . बहानी इस कन्या को छोड़ना उचित नहीं। श्री जिनेश्वर देव की नित्य पूजा करने वाली और सिद्धान्त में कहे हुए तत्त्वों की ज्ञाता इस पद्मिनी काहृदय सम्गक्त्व से पवित्र है / वह रात दिन परमेष्ठी महामन्त्र का ध्यान धरती है। ऐसी सुशीला सती वास्तव में जिसे मन से वर चुकी है, उमे इन्द्र भी अन्यथा करने में समर्थ नहीं हैं / अतः इसे स्वीकार कर पाप सब को प्रसन्न करें।"... ..:.:: .' श्री श्रीचन्द्र' पद्मिनी के प्रति स्नेह के कारण, महाराणी .. के प्राग्रह भरे शब्दों का उत्तर देने में असमर्थ हो गये / प्रदीपवती रानी ने इसे कुमार की सम्मति मान कर अति हर्ष से चन्द्रकला को बुला कर कहा "हे पद्मिनी ! इष्ट वर श्री 'श्रीचन्द्र' के गले में वरमाला पहनामो ... ........::: ::: : P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 649 - मानन्द पूर्वक चन्द्रकला श्रीचन्द्र के मुख झपी चन्द्र को निरखती हुई, नत्क्षण उसके गले में वरमाला पहना कर और पानी दृष्टि श्री चन्द्र पर स्थापित कर लज्जा से माता के पीछे पाकर खड़ी हो गई / सर्वत्र प्रति मानन्द से विवाह उत्सव मनाया गया। कुछ विचार कर श्रीचन्द्र बहाना निकाल कर नीचे गये / गुणचन्द्र ने रग्नी से कहा कि रथारुढ़ होकर श्रीचन्द्र अभी कुशस्थल को प्रस्थान की सोच रहे हैं। . यह सुनकर तुरन्त ही वामांग. चतुरा आदि सखियां श्रीचन्द्र को रथ से वापिस लेकर आयीं / चन्द्रवती राणी ने पुत्री से कहा कि "कुछ, प्रश्न पूछो जिससे विद्याभ्यास आदि की जानकारी हो।" . चन्द्रकला ने चतुरा सखी द्वारा "पान का बीड़ा क्या है ?" यह पुछवाया / श्रीचन्द्र ने उत्तर में कहा कि "सत्य वचन रुपी पान का बीड़ा है। सम्यकत्व रुपी सुपारी है, स्वाध्याय रूपी कपूर है, शुभ तत्व रुपी मसाला है और वह शिवसुख का कारण भूत है।" फिर स्नान के गुणों को पूछा, उत्तर में श्रीचन्द्र ने कहा, "स्नान मन को प्रसन्न करने वाला है, दुःस्वप्न का नाश करने वाला, सौभाग्य का गृह, मल को दूर करने वाला, मस्तक को सुखकारी, काम अग्नि को जागृत करने वाला, स्त्रिीनों के काम के अस्त्र रुप श्रम को हरने वाला है।" पान का बीड़ा देकर श्रीचन्द्र ने पूछा कि "हे चतुश! पान P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 95 * के कितने गुण हैं ?" विकसित रोमांच पाली चन्द्रकला ने सखी द्वारा पान का बीड़ा ग्रहण कर मधुर स्वर से बोली कि "पान कड़वा, तीखा, गरम, मधुर और कषायरस से युक्त, वायु तथा कृमि को हरने वाला, मुख के अलंकार रुप, मुख विशुद्धि करने वाला, काम अग्नि प्रदीप्त करने वाले ऐसे पान के बीड़े की आपश्री ने प्रसादी दी है। श्रीचन्द्र कहने लगे कि इसके प्रांतरिक, गुणों को कहो, तब वह बोली प्रिय वचन रुपी पान, प्रेम रुपी सुपारी सद्विवेक रुपी मसाला है। संतोष रुपी कपूर है / ऐसा पान का बीड़ा आपने मुझे दिया है।' ___ पद्मिनी ने खिचड़ी के प्रांतरिक गुणों को पूछा, भीचन्द्र ने कहा कि "गुण रुपी अक्षत, समंत्री रुपी दाल है, सम्यकत्व रुपी संपूर्ण घृत से युक्त खीचड़ी का सेवन करना चाहिये / " श्रीचन्द्र ने कहा कि लापसी का वर्णन करो। चन्द्रकला ने कहा कि, 'सुक्ष्म गेहूं का दलिया, घी, गुड़, श्रीफल : के टुकड़े, दाख, खजूर, सूठ, काली मिर्च से युक्त, सुन्दर तांबे की कड़ाई में मन्द अग्नि पर सिकी हुई, प्रचुर घृत से युक्त, उत्तम हेमन्त ऋतु में ऐसी लापसी बहुत ही गुणकारी होती है। . चन्द्रकला द्वारा भृकुटी संज्ञा करने पर कोविदा सखी ने लापसी * के प्रांतरिक स्वरुप को पूछा। श्रीचन्द्र ने कहा कि, "चित्त की भक्ति से शोभित ऐसी, तीन प्रकार की भक्ति रुपी लापसी, भोजन करते समय हमेशा शोभा की वृद्धि करती है। पद्मिनी ने बड़े का स्वरुप पूछा / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .. . ...श्रीचन्द्र ने कहा कि "हींग, मिर्च, जीरा और गंध से युक्त, जा बड़ा दांत के बीच में रखा हुआ तुरन्त ही झुक 2 . शब्द की अावाज करता हश्रा, प्रेमाल पत्नी द्वारा प्रेम पूर्वक दिया हुआ सुन्दर बड़ा . भाग्यशाली पुरषों के मुख में प्रवेश करता है / ... इस प्रकार श्रीचन्द्र और चन्द्रकला परस्पर बातचीत कर रहे थे। तब चंद्रकला को वामांग व चतुग ने विनंति की कि आप श्राचन्द्र के नाम का वर्णन करें। अति आग्रह करने पा पमिनी ने कहा कि, 'लक्ष्मी के क्रीड़ा करने का सरोवर, अट्टहास्य का समूह, दिशा रुपी ललना के मुख दर्शन का काच, रात्रि रुपी श्यामलता का .. पुष्प, प्राकाश रुपी समुंद्र का कमल, तारा रुपी कामधेनु का समूह, रति का गृह, कामदेवरुपी- सुधा कोः बावड़ी जो लक्ष्मी से युक्त है, ऐसे :: श्रीचन्द्र हमेशा विजय को प्राप्त हों सभी ने आग्रह पूर्वक श्री श्रीचन्द्र से कहा कि 'हे" कुल में चन्द्रमा के समान ! चन्द्रकला के नाम का आप श्री भी वर्णन करें।" श्रीचन्द्र ने कहा कि "कामरुपी बाह्मण का ॐ कार तारा रुपी मोतियों की सीप, अंधकार रुपी हस्तियों का अंकुश, श्रृंगार रुपी ताले की चाबी विरहणी के मान को काटने के लिए कैची और चन्द्र सम्बन्धी कला समान, ऐसी यह चन्द्रकला सुशोभित हो रही है।'' - श्रीचन्द्र के तत्वज्ञान, कला और विद्वत्ता से आश्चर्य को प्राप्त हुए सब लोगों ने हंसते 2 कहा कि, चन्द्रः और चद्रिका का वास्तव में उत्तम योग मिला है। स्तुति करते 2 प्रातःकाल. सब 'श्रीचन्द्र को राजमहल में ले जाने को तैयार हुए तब श्रेष्ठी ने कहा कि, “इस प्रकार - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ "अभी तक माता आदि भी नहीं पायीं / / अब मैं निर्भागी क्या . इतने में चतुरा ने आकर माता तथा राजा ने जो कुछ कहा था उसकी सर्व हकीकत . चन्द्रकला को कह सुनायी। इससे दुःखी / होकर पद्मिनी चन्द्रकला मूछित हो गई। शीत उपचार करने से वह संचेत हुई। प्रियवंदा द्वारा चन्द्रकला के स्वरुप को जानकर तत्क्षण माता वहां आयी। पद्मिनी की ऐसी स्थिति देख कर, उसे अपनी गोदी में .लेकर कहने लगी:- . .. .. ! .. / . / ' 'हे वत्से ! तुझे इतना दुःख क्यों हुआ है ? तू अपने चित्त 'को शान्त कर ' सर्व शुभ ही होगा / हूं तत्व ज्ञान की ज्ञाता और धीर है अत: इस प्रकार दुःख को धारण करना उचित नहीं है / तेरे विवाह के लिए स्वयंवर' रचने की हमारी इच्छा है।" ::. : ., पद्मिनी ने कहा कि "हे माता ! मैं तेरी कुक्षि में उत्पन्न हुई हूं। मैंने मन से जिसे वर लिया उसे छोड़ कर मैं दुसरे किसी भी पुरुष के साथ विवाह नहीं करूंगी। स्वयंवर में अब, क्या सार ? .श्रीचन्द्र ही मेरे पति होंगे / अन्यथा मुझे अग्नि की शरण लेनी पड़ेगी" कन्या का यह निश्चय जान कर चन्द्रवतो ने कहा कि "हे सैनिको !! दीपचन्द्र राजा से कहो कि श्रीचन्द्र की तलाश करावें / " .... - चन्द्रकला की सर्व वार्ता चन्द्र वती ने दीपचन्द्र राजा से कही। राजा तत्क्षण सभा विसजित करके, वीणारव गायक और अमात्य के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 901 साथ जिनेश्वर देव के मन्दिर में पाये / इतने में चन्द्रकला की दाहिनी प्रांख फड़कने लगी। उसो समय लोगों ने 'श्रीचन्द्र' के समाचार राजा से आकर कहे / दीपचन्द्र राजा वरदत्त श्रेष्ठी के घर पाये / श्रीचन्द्र का देदीप्यमान रुप लावण्य पौर कान्ति प्रादि देख कर राजा बहुत आश्चर्य चकित हुए / श्रेर्छ। द्वारा स्थापित सिंहासन पर दीपचन्द्र राजा विराजमान हुए / श्रीचन्द्र के नमस्कार करते ही राजा दीपचन्द्र ने उसे अपनी गोद में ठिा कर दोहते के समान हर्ष का अनुभव किया। वरदत्त श्रेष्ठी ने श्रीचन्द्र का सव वृतान्त राजा से निवेदन किया। इतने में वीणारव ने श्री 'श्रीचन्द्र' को देख कर कहा, "हे राजन् ! जिन 'श्रीचन्द्र' का अभी मैंने रास गाया था वे ये ही गुणसागर हैं। राधावेघ को करने वाले, तिलक जरी के पति, याचकों की आशा पूर्ण करने वाले, कल्पवृक्ष के समान श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। सर्व राजाओं के गर्व को हरने वाले अद्वितीय वीर को जय हो।" इतने में तो प्रदीपवती राणी प्रादि सब राज परिवार वहां आ पहुँचा। सब लोग श्रीचन्द्र के दर्शन कर प्रति प्रसन्न हुए। परदत्त श्रेष्ठी ने श्री 'श्रीचन्द्र' को कहा कि "हे गुण सागर ! पद्मिनी के साथ तुम्हारा पाणिग्रहण करना सर्वथा योग्य है / 'दूध और शक्कर' के समान आपका पद्मिनी से संयोग अद्भूत होगा। इसलिए हे गुणशील ! आप सब की आशा को पूर्ण करो।" श्रीचन्द्र ने कहा कि, "हे पूज्य ! आपका कहना ठीक है परन्तु यह कार्य मैं अभी नहीं कर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 61 9. सकता हूँ क्योंकि मैं क्रीड़ा का आदेश लेकर इस देश में आया हूँ / माता पिता को पूछे बिना मैं विवाह कर लू तो यह मेरी अशिष्टता मानी जायगी। वहां जाकर मैं उन्हें क्या कहूँगा?" चन्द्रवती राणी ने कहा कि "श्रीचन्द्र जो कुछ कह रहा है यह सर्वथा उनित है परन्तु पहले भी राजा, मन्त्री, श्रेष्ठी पुत्र प्रादि अनेक लोगों ने अपने भाग्य की परीक्षा के लिए पृथ्वी पर स्थान 2 पर भ्रमण किया था और उन्होंने पिता के आदेश बिना क्या राज्यादि को ग्रहण नहीं किया ? उसी प्रकार उन्होंने क्या पाणिग्रहण आदि भी नहीं किया ? वस्तु की प्राप्ति में, भाग्य ही योग्य सम्पदा होती है। पिता अपनी स्थिति में रहता है और पुत्र राज्य लक्ष्मी भोगता है। पूर्व के पुण्य और पाप कर्म सबके अलग होते हैं इसलिए हे श्रीचन्द्र ! प . शास्त्र के जानकार हैं अतः विवाह निषेध न करिये / " - श्रचन्द्र ने विचार किया कि माता तुल्य इस रानी को मैं क्या उत्तर दू? इतने में वामांग ने साहस से कहा कि, 'लग्न करने में आपको . क्या कठिनाई है ? हमें तो कोई कहता ही नहीं, हम तो तुरन्त ही मान लेवें। कौन गृहस्थ, लग्न, धन, राज्य मादि को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता?" . . वरदत्त श्रेष्ठी ने कहा कि, "संसार इसी कारण से तो विचित्र कहलाता है / जो लघुकर्मी होता है, उसमें बहुत धैर्य होता है। अतः प्रति आग्रह से ही श्रीचन्द्र विवाह करेंगे। विवेक यह जीव का जीवत्व है। मान यह.बड़ा धन है / विवेक रूपी रत्न तो श्रीचन्द्र के हृदय का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *. 62 अलंकार है / हे पुत्र !! * तुम दीपचन्द्र राजा के वचनों को हृदय में धारण करो।" . : : :: . . श्रीचन्द्र ने कहा कि, "वणिक के घर पर स्त्री को सभी कार्य करने पड़ते हैं जिससे वणिक के घर में वणिक कन्या ही योग्य होती है / दैवयोग से रांजपुत्री वणिक के घर पाये तो यह कमल के पत्तों को कूटने के समान होगा। कहाँ वरिणकं गृह की कार्य लीला, कहां राज महल की आनन्द लीला? आपकी बातें मेरे चित्त में बैठती नहीं हैं / अभी तो आप सब एक हो कर कह रहे हैं। पर तु विवाह के पश्चात् पत्थर के नीचे अंगुली के समान सहन तो उसे ही करना पडेगा, वह किस प्रकार सहन करेगी ? आप सब मिलकर विचार करें कि वणिक कुल में कन्या किस प्रकार सुखी रह सकेगी ? राज कन्या वणिक कुल में न जाय ऐसा विचार कर पहले भी एक राजकन्या के साथ मैंने विवाह नहीं क्तिया / फिर दुसरी को किस प्रकार स्वीकार करू ? यदि राज कन्या मेरे साथ विवाह करने योग्य होती तो विधाता मेरा जन्म गजकुल में क्यों नहीं करते ? विधाता ने मेरा जन्म वणिक कुल में किसलिए किया 1" यह वचन सुनकर सब चुप हो गये। . .. - श्रीचन्द्र के गुणों द्वारा मोहित पद्मिनी पर्दे के पीछे बैठी आंसू बहाने लगी / यह वात चंन्द्रवती रानी को चतुरा ने कही ! चन्द्रवती ने पद्मिनी को गोद में बिठाया / प्रदीपवती ने श्रीचन्द्र से कहा 'श्रीचन्द्र / तुम कला आदि में प्रवीण हो / अपूर्व लावण्य, क़ाति प्रादि से देदीप्यमान हो, तुम्हारे अंग में क्षत्रिय का तेज़ स्फुरायमान है. / गुणों आदि से तुम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 971 श्रीचन्द नहीं आएंगे क्योंकि वे हमेशा अपने घर श्री जिनेश्वर देव की पूजा आदि करते हैं / " फिर चन्द्रकला को ले कर सर्व राज महल में गये दीपचन्द्र राजा ने विवाह के लिए शुभ मुहूर्त देखने का आदेश दिया। ज्योतिषी ने अच्छी तरह देख कर कहा कि कल ही शुभन से शोभित, अति शुभ मुहूर्त है। दीपचन्द्र राजा ने कहा कि "शुभगांग राजा किस प्रकार कल तक यहां पहुँच सकेंगे।" ज्योतिषी ने कहा कि "कल बैशाख शुक्ला पंचमी का लग्न अति उत्तम है। बहुत सी रेखाओं से शोभित है ऐसा यह लग्न अवश्य ही साध लेना चाहिये / " दीपचन्द्र राजा ने तत्काल विवाह की सर्व सामग्री तैयार कराई। नगर का श्री 'श्रीचन्द्र' है, इससे वह सूर्यवती का पुत्र ही कहलाएगा। भतः मुझे उसके पास रह कर ही विवाह महोत्सव करना चाहिये / " सात मंजिल के महल में विवाह की सर्व सामग्री तैयार करवा कर प्रदीपवती ने अपने मुकुट, कुडल. हार प्रादि से श्री 'श्रीचन्द्र" को पलंकृत किया / . परन्तुं श्रीचन्द्र देदीप्यमान कान्ति वाले होने से अपने ही प्राभूषणों से शोभित थे। दूसरे दिन अनि श्रेष्ठ लग्न में ज्योतिषी ने विधि को प्रारम्भ किया / कुल: स्त्रियां गीत गा रही थीं। वाजिन्नों के मधुर नाद से दिशाएं गूज उठी थी। चारों तरफ से चतुरपी सेना P.P.AC.Gunratnasuri M.S.
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________________ 98 द्वारा धिरे हुए श्री श्री चन्द्र' हस्ति पर प्रारुढ होकर, लग्न मंडप में माये / उत्तम लग्नांश के समय ज्योतिषी ने पमिनी चन्द्रकला के साप भी चन्द्र का हस्तमिलाप करवाया। दीपचन्द्र राजा ने अश्व, हाथी, रथ आदि चतुरंगी सेना, छत्र, चामर आभूषण आदि सर्व हस्त मिलाप के समय हर्ष पूर्वक दिये / चन्द्रवती रानी ने घरणेन्द्र द्वारा प्रदान किया हुआ देवी हार, भी 'श्रीचन्द्र, को दिया / चन्द्रकला के भाई वामांग ने सिंहपुर से लायी हुई वस्तुए-पांच वर्ण के 500-500 अश्व आदि बड़े उत्साह से समर्पित किए। श्री 'श्रीचन्द्र' को 16 नवबद्ध नाटक चतुरा कोविदा नंदा आदि 72 सखियों, छत्र चामर आदि राज्य के सवं चिन्ह भी भेंट किये। प्रातःकाल होने पर मुकुट पारि से सुशोभित होकर श्री 'श्रीचन्द्र' वे हस्ति पर प्रारुढ़ होकर दीपशिखा नगरी में सर्वत्र भ्रमण किया / इस समय स्थान 2 पर गीत नृत्य हो रहे थे। सर्वत्र जनता उनके रुप बावण्य की मुक्त कण्ठ से स्तुति कर ही थी। / कनकदत्त श्रेष्ठी की लघु पुत्री ने श्रीचन्द्र पर अनुरक्त होकर पिता से कहा कि 'ये श्रीचन्द्र ही मेरे पति हों। कनकदत्त श्रेष्ठी ने कहा "क्या तू मूढ़ तो नहीं हो गयी ! श्री चन्द्र को पद्मिनी के हस्तग्रहण के लिए दीपचन्द्र राजा ने छः पहर तक P.P.AC.Gunratnasuri M.S.A Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ समझाया तब कहीं वह तयार हए। तुम्हारे हदे किस प्रकार विवाह करेंगे / श्रेष्ठी पत्री ने भोज पर पर लोकलित कर उस पर पुष्प माला लपेट कर झरोखे में खड़ी हो गयी। जब हागे नीचे पाया तब श्रीचन्द्र के उपर वह माला डालो। एप माला को शानी देख श्रीचन्द्र ने उपर दृष्टि कर अनुरान्सिी कन्या को देखा। भोजपत्र खोल कर पढ़ा कि "जिस कमलिनी ने चन्द्र को देखा नहीं उसका जन्म निरर्थक है, और जो चन्न अपनी किरणों से कमालनी को विकसित नहीं करता, उस च की उत्पति भी निरर्थक है।" वह भोज पत्र श्रीचन्द्र ने चन्द्रकला को मार दिया। इधर उधर देखते 2, स्थान 2 प. दान देते श्रीचन्द्र व चन्द्रकला अपने महल में वापिस लौटे। राजा ने नगरजनों का सम्मान करके उन्हें भोजन कराके विदा किया। कनकदत अंटी को कन्या ने दासी द्वारा चन्द्र कला से भोजपत्र का उत्तर मगा? पधिनी में कहलाया कि "अभी अवसर नहीं है !" तिलकमंजरी के हस्त ग्रहण के लिए तिलकपुर नगर पधारने की श्रीचन्द्र से धीर मन्त्री ने अति बारह भरी विनंति को / कमल के समान मुख वाले भीचन्द्र ने कहा कि "पाणिग्रहण के सम्बन्ध में मैं कुछ वहीं जानता इन सब बातों का नामोदन श्रेष्ठी ही उतार दे यक। III चाहते थे, परन्तु श्रीचन्द्र नहीं ठहरे। दूसरे ही दिन सबकी अनुमति लेकर हस्तियों के अलावा सर्व वस्तुओं पे युल कुमार को न प्रस्थान किया। कुछ आगे बाने पर श्री श्रीचन्द पद गमा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 1009 व सर्व लोगों को नमस्कार किया। और सबसे विदा मांगी। / कन्या को यथा योग्य शिक्षा देकर अश्रु युक्त नेत्रों वाले लोग वापिस लौटे। चन्द्रकला को प्रदीपवती राणी तथा माता चन्द्रावती राणी ने कुलांगना के योग्य हित शिक्षाए दी कि शास्त्र में कुल वधु का धर्म हस प्रकार बताया है कि "हे पुत्री ! गुरु और पति के आगमन के समय खड़े होकर स्वागत करें। सदैव नम्रता पूर्वक वार्तालाप करें।" इस प्रकार हितशिक्षा देकर सजल नयनों वाली दोनों महाराणियां बापिस लौटीं / कुशस्थल जाने को इच्छुक श्रीचन्द्र ने परिवार सहित पद्मिनी को समझा कर, उन्हें तथा मित्र गुणचन्द्र और सैन्य प्रादि को पीछे छोड कर स्वयं रथ पर प्रारुढ़ होकर वेग से उसी रात्रि श्रीपुर में पहुंच गया / रथ को वहां छोड़ कर वह कुशस्थल जाकर माता पिता के चरणों में उसने नमस्कार किया। लक्ष्मीदत्त व लक्ष्मीवती उसे देख कर खिल उठे और कहने लगे कि "हे पुत्र ! तेरे वियोग के दुःख से हमारे पांच दिन इस प्रकार बीते कि मानो पांच वर्ष व्यतीत हो गये हों। इतने दिन तू सुख को भोगता हुआ कहां रहा ? क्या तू अपनी इच्छा से रुका या किसी ने तुम्हें बल पूर्वक रोक लिया था।" श्रीचन्द्र ने कहा, "आपश्री की कृपा से सर्वत्र जय, सौख्य और सम्मान प्राप्त होता है / में किसी स्थल पर सुख पूर्वक क्रीड़ा कर रहा था। वहां वरदत्त श्रेष्ठ मुझे जबरदस्ती से अपने घर ले गये और वहां बड़ा महोत्सव हुमा / आज प्रातः मैं उनकी प्राज्ञा लेकर आया हूं।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *015 लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी ने कहा कि "तेरा अद्भुत चारित्र जान कर राजा ने तुझे रत्नपुर नगर भेंट में दिया है। आज शुभ दिन तुम प्रता सिंह राजा से भेंट करो।" "पूज्यों का आदेश शिरोधार्य हो।" कह कर श्रीचन्द्र मौन हो गये। लक्ष्मीवती श्रीचन्द्र के शरीर और वस्त्रों पर से रज को हटा रही थी तो वहां हाथ के ऊपर मोंढला बांधा हुआ देखा / हर्षित होकर उसने लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी से कहा "अपने पुत्र के हाथ में विवाह सूचक कुछ बंधा हुआ दिखाई देता है।" लक्ष्मीदत्त ने कहा कि, "हे वत्स ! हमें प्रानन्द होवे ऐसी कोई वधाई दो।" श्री 'श्रीचन्द्र' ने कहा कि मेरे हाथ में ज्योतिषी ने मलम्य लाभ प्राप्त कराने वाली प्रभावशाली कोई वस्तु बांधी है / क्रीड़ा में आसक्त श्रीचन्द्र कभी अपने घर रहते, कभी श्रीपुर में और किसी समय उद्यान में घूमने के लिए चले जाते थे।... , एक दिन श्रीचन्द्र तो अपने महल के ऊपर झरोखे में बैठे और श्रेष्ठी लक्ष्मीदत्त नीचे थे कि इतने में बाजिन्त्रों का मधुर नाद सुनाई * दिया। पद्मिनी गुणचन्द्र आदि सभी लोग पद्मिनी चन्द्रकला. आदि को देखकर आश्चर्यचकित हो रहे थे। वे पूछने लगे कि "ये कहां जा रहे हैं ?" जव वे सब श्रेष्ठी लक्ष्मीदत्त के घर के पास आये तो कोलाहल सुनकर श्रेष्ठी ने पूछा कि "यह क्या है ? बोहर आकर सेना को देख कर श्रेष्ठी व्याकुल हो उठे।" : . . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .1021 इतने में तो गुणचन्द्र ने वंदन करके कहा कि, 'हे पूज्य ! यह पद्मिनी चन्द्रकला प्रापश्री की पुत्र वधु है।" विवाह आदि की सवं हकीकत कह कर चन्द्रकला से कहा कि "आपके पति यहीं हैं। अपने ससुर को प्रणाम करो।" महाआश्चर्य म युक्त श्रेष्ठी ने, सखियों से घिरी हुई पद्मिनी को देखा / अनि उत्कंठा से सर्व हकीकत पत्नी से कही। र गुणचन्द्र ने कहा कि, हे पूज्य ! इन रथों, अश्वों प्रादि को कहां रखना है ?" लक्ष्मीदत्त ने कहा कि "भाग्यशाली श्रीचन्द्र से पूछो, से वह कहे वैसे करो" झरोखे में विराजमान श्रीचन्द्र को विनंति की। श्रीचन्द्र ने सैनिकों प्रादि को आदर पूर्वक बुलाक़र यथास्थान जाने की माज्ञा दी। रथों और प्रश्वों प्रादि को श्रीपुर में रखा। श्रेष्ठी ने श्रीचन्द्र से कहा, "हे वत्स ! यह सब उत्कृष्ठ कार्य तो हू'ने किये परन्तु हमारी आज्ञा भी नहीं ली ? तुम्हारी धीरता, निरभिमानता प्रादि अत्यंत आश्चर्यकारी है। हमें प्रवेश महोत्सव करने का भी हर्ष प्राप्त नहीं हुआ।" - सातवीं मंजिल में श्रीचन्द्र के निवास में पद्मिनी सखियों से मुक्त पायी। पति के साप वार्तालाप विनोद प्रादि को करती सुख पूर्वक रहने लगी। श्रेष्ठी के घर मन्त्री, श्रेष्ठी आदि आनन्द से आये / महान महोत्सव, गीत दान प्रादि से घर प्रति शोभा को प्राप्त हुआ। दहेज प्रादि देख कर सब को बहुत मानन्द हुआ। . .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #.103 10 कई लोग श्रीचन्द्र के पुण्य मौभाग्य का वर्णन कर रहे थे। पौर कई पद्मिनी के मुख कमल की प्रशंसा कर रहे थे / सर्वत्र हर्षोल्लास छा गया। न जयकुमार ने धीर मन्त्री को बीणारव के पाथ, जानकर * गायक वीणा रब को जल्दी से बुलाकर कहा कि, “तू ने जो श्रीचन्द्र का रास रचा है / वह उसे सुनाना / जब श्रीचन्द्र तुम पर संतुष्ट होकर मन इच्छित मांगने का कर. तब उसके रथ के दो अश्वों में से एक अश्व को तुम मांग लेना। यदि तू ऐसा करेगा तो हम तुझे बहुत इनाम देंगे / मेरा यह कार्य तुझे अवश्य क ना होगा।" राजकुमारों के भय व दाक्षिण्यता से वीणारव ने उनकी बात स्वीकार करली। यह कपट जाल श्रीचन्द्र के रथ की अपूर्व गति को रोकने के लिए जयकुमार ने रचा था। जैसे भवितव्यता होती है उसी प्रकार की बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। दूसरे दिन श्रेष्ठी द्वारा चतुराई से अनुमति लेकर वीणारव गाने के लिए तैयार हुआ। उस रास को सुनने के लिए मन्त्री, श्रेष्ठी, स्वजन प्रादि सर्व प्रानन्द पूर्वक आये थे / पुत्र वधुओं से युक्त लक्ष्मीवती भी उत्कंठा पूर्वक बैठी थी / परिवार से युक्त धीर मंत्री और अनेक नगर के लोग बैठे थे। गायक वीणारव ने प्रथम राधावेध के समय का वर्णन किया / राजा महाराजा और राजपुत्रों के नाम, कुल, नगर आदि राधावेध साधने में निष्फल, सर्व के समक्ष श्याम मुख वाले हुए, हास्यरस की जिंस प्रकार उत्पत्ति हुई, तिलकमंजरी तिलकराजा आदि को दुःख हुआ, तब श्रीचन्द्र का आगमन, P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ राधावेध की साधना साध कर तिलकमंजरी द्वारा वरमाला पहनाये जाने पर मित्र सहित रथ पर आरुढ़ होकर कुशस्थल पाना, राजा द्वारा धीर मंत्री को प्रामन्त्रण के लिए भेजना वह सब विस्तार से गाने लगा। वह संगीत कानों को अत्यन्त प्रानंदकारी था स्थान 2 पर अंष्ठि आदि गायक को धन देने लगे। - वीणारव ने काव्य के अन्त में अति हर्ष से श्रीचन्द्र के गुण गान के अनेक श्लोक बोले वे कहने लगा: 'हे श्री 'श्रीचन्द्र' ! तुम्हारे चित्त में विशुद्ध बुद्धि है ! मुख में सुन्दर वाणी है ! ललाट में भाग्योदय है ! गृह में लक्ष्मी है ! भुजाओं में वीरता भरी है, वाणी में सत्य रहा हुआ है, हस्त में दान रहा हुआ है, शरीर में कान्ति प्रकाशित हो रही है, हृदय में अरिहंत परमात्मा विराजमान हैं, क्रिया में दया भरी हुई है, इससे आपकी कीर्ति को रहने के लिए आपमें स्थान न मिलने पर वह कीति दशों दिशामों में फैल गई है। .. . ____ हे श्रीचन्द्र ! तुम्हारे मुख में कमल बुद्धि से, हृदय में गंभीर समुद्र की शंका से नाभि में पद्मद्रह की शंका से, दोनों नयनों में खिले हुए कमल की शंका से, शरीर में कल्प वृक्ष की शंका से लक्ष्मी ने निवास किया हुआ है। हे श्रीचन्द्र ! समुद्रः खास है, चन्द्रः कलक से दुषित है, सूर्य इष्म कान्ति वाला है, कल्पतरु लकड़ी, है, चिन्तामणी; पत्थर है, कामधेनु पशु है, मेरु धन के ढेर से अदृश्य है; अमृत शेषनाग द्वारा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *1051 घिरा हुआ है, इस कारण से इन सब को भी आपके साथ तुलना नहीं की जा सकती।" - तब सन्तुष्ट होकर श्रीचन्द्र ने कहा कि "हे वीणारव ! इच्छानुसार रथ, अश्व, धन, वस्त्र गांव आदि मांग लो।" / मूढ़, मंद बुद्धि वाले वीणारव ने वायुवेग अश्व को मांगा। अल्प पुण्य वाले को विवेक कहां? क्योंकि कर्म के अनुसार ही बुद्धि होती है। श्रीचन्द्र ने कहा कि "यह तुमने क्या मांगा ? अच्छा" कह कर गुणचन्द्र को कहा कि, "श्रीपुर से रथ को लाकर वायुवेग अश्व दे दो भौर दूसरे महावेग को यहीं रख दो। . गुणचन्द्र रथ ले कर पा गया, तब श्रीचन्द्र ने कहा, 'हे वीणारव ! एक प्रश्व से तेरी कार्य सिद्धि नहीं होगी अतः महा बलवान. वायुवेग, पोर महावेग प्रश्वों से युक्त यह रत्न जडित सुवेग रथ तुम ने लो।" इसके अलावा और भी बहुत सा धन देकर उसका सम्मान, किया। "चिरंजीव रहो" इस प्रकार की जयजयकार गूंज उठी। / / .. तपश्चात् श्रीचन्द्र ने गौरव पूर्वक महाजनों, कवियों आदि को भोजन करवा कर वस्त्र और स्वर्ण से सब का सन्मान किया / उसकी उत्कृष्ठ उदारता देख कर सबने आश्चर्य चकित हो कर कहा कि "अहो भाग्य ! राजा तथा राजकुमार भी इतना दान देने में उदार नहीं है / यह श्रेष्ठी पुत्र होने पर भी याचना करने से कई गुणा अधिक देता है।": नगर के नर नारी सुन्दर वस्त्रों और अलंकारों से शोभते हुए नगर के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ नर नारी अपने 2 घरों को रवाना हुए / अश्वों से आनंदपूर्वक वीणारव * प्रश्वों से युक्त रथ लेकर अपने स्थान पर गया। 1. दूसरी तरफ लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी ने सेवकों के साथ : विचार किया कि "पंचभद्र अश्व दुबारा पुष्कल द्रव्य व्यय करने पर भी श्रीचन्द्र को प्राप्त नहीं हो सकेंगे। प्रति उदारता के कारण ऐसे उत्तम दोनों अश्न दान में दे दिये हैं प्रश्वों का कितना भी मूल्य क्यों न देना पड़े। परन्तु मन्हें वापिस ले लेना चाहिये।".. . ... लक्ष्मीदत्त ने श्रीचन्द्र से कहा. कि "तुमने दान दिया यह तो: मच्छा किया परन्तु वह दान राजा के दान से भी अधिक है / जयकुमार द्वेष से तेरे छिद्र देखता है। ऐसा धीर मन्त्री ने कहा था क्या यह तुझे मालुम नहीं है ? जिस रथ की सहायता से इतनी दूर 2 को तुमने भूमि देखी / ऐसे उत्तम अश्वों को जैसे-तैस किस प्रकार दे सकते हैं / प्रश्वों और रथ को वापिस मंगवा लो। और इनका उचित मूल्य में दो। राजा को पता चलेगा तो वह नाराज होगा।" क्योंकि ऐसे मश्वों का आनन्दं राजा ने भी नहीं भोगी :: :: : : :: मन में कुछ विचार कर विनयः पूर्वक श्रीचन्द्र ने कहा कि, पिताजी.! इस अपराध को क्षमा करो। दान दिया हुआ वापिस . जो मैं हलके में भी हलका मनुष्य कहलाऊंगा। वह रथ किसका ? बे: अश्व किसके ?. धन प्राभूषण, प्रादि: किसके? वे सब तो अपय 'और' भाग्य से मिले हैं और मिलेंगे।": ऐसा कहकर श्रीचन्द्र अपने महल में . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S, Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 10714. ' चित्रा में श्रीचन्द्र ने विचार किया कि "मेरी परतंत्रता कों धिक्कार हो। मैंने दिया ही क्या है ? परन्तु यहां पर उसका भी विचार हो रही है। . : . . . ..... .. अब मेरे लिए यहां रहना ऐसा है जैसे चारपाई में खटमल आदर: रहित रहने से क्या लाभ ?. साहस स कौनसी सिद्धि नहीं मिलती। सुविद्या वाले को विदेश क्या है ? - समर्थ के लिए कौनसी चीज भारी है। पृथ्वी भ्रमण से विविध चरित्र को जाना जा सकता है / आत्मा; के समय यहां से प्रयाणं कर दूंगा। पिता को जानकारी दिये बिना ही मुझे प्रस्थान करना चाहिये तथा गुणचन्द्र 'जानेगा तो वह मुझे जबरदस्ती से रोंक लेगा अथवा मेरे साथ आयेगा तो उसके माता-पिता का उससे मेरे कारण वियोग होगा। अत: उसे बताने से भी क्या लाभ होगा। पद्मिनी को तो जानकारी देनी चाहिये नहीं तो मेरे वियोग से वह अति दुःखी होगी / वह मेरे बिना कैसे रहेगी। मर लिए उसने माता, पिता, मामा और राज्य का भी त्याग किया। राजकन्या: का. मेरे प्रति कितना स्नेह है, फिर मैं उसे हरिणी: की तरह यहां से. और वहां से कैसे वियोगी कर / उसे सर्व वृतान्त: कह कर सर्व शिक्षादि देकर विदा ग्रहणं करूंगा।" * उसी समय : गुणचन्द्र ने प्राकर वितंति किः "हे मित्र...सेक लक्ष्मीदत्तजी के विचार जानकर बुद्धिशाली वीणारंवं ने मेरे द्वारा . मापश्री को विनंति की है कि, जयकुमाररामादि के कहने पर.: मैंने प्रश्नों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 10810 की मांगनी की थी। परन्तु अपनी इच्छा से नहीं की। अब मैं राजपुत्र के पास नहीं जाऊंगा। अतः मुझे उचित स्वर्ण देकर अश्वों से युक्त रथ ले लें। आपश्री का चक्रवती दान पणा मैं जानता हूँ। अश्वों से युक्त रथ के दान का फल विशाल है। मणि, मुक्ताफल, धन, वस्त्र आदि के दान से हे वीर ! आपने हमें खरीद लिया है। प्रापश्री के इन गुणों से, हम बांधे गये हैं / आप श्री ने जो दिया है वह दूसरा कौन दे सकता है ? अतः कृपा करके इन अश्वों से युक्त रथ ग्रहण कर मेरे दाहिने हाथ को मुक्त करें।" - श्रीचन्द्र ने कहा कि, 'हे मित्र ! वीणारव से कहना कि, 'इन / हाथों से दिये हुए दान को अब मुझे कोई प्रयोजन नहीं / क्योंकि सज्जन के मुख में एक जीभ होती है। ब्रह्मा की चार, अग्नि की सात, कार्तिक स्वामी की छः, रावण की दस, शेष नाग की दो हजार और दुर्जन को लाखों और कोड़ों से भी अधिक जीमें होती हैं। अभी भी जाते हुए मित्र को अागामी विरह की स्मृति से, आद्रं नयन से / श्रीचन्द्र ने कहा "मेरी जो कीर्ति सम्पत्ति आदि है वे सब तेरे द्वारा ही प्राप्त हुई है, इसलिए हे मित्र ! तुम अपनी इच्छानुसार करो।" इतने में धनंजय सारथी ने प्राकर नमस्कार करके कहा कि, 'हे स्वामिन् !' आपश्री के दोनों उत्तम अश्व श्रीपुर से भागे जाते ही नहीं। वीणारव ने बहुत प्रेरणा की परन्तु श्रीपुर से तो वे आगे पांव ही नहीं उठाते / ' तत्क्षण श्रीचन्द्र मित्र मश्वों और सैनिकों से युक्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #.106 10 श्रीपुर में प्राये अपने स्वामी को देखकर दोनों अश्वों ने जोर से हिनहिना कर हर्ष व्यक्त किया। श्रीचन्द्र के नयनों में प्रांसु आ गये / जब स्नेह से प्रश्वों को थपथपा रहे थे तो अश्वों के भी प्रांसू बह गये / दोनों अश्वों का सन्मान करके, उनके गुणों की प्रशंसा करके कहा कि, "हे भद्रो ! तुम दोनो मेरे हस्त समान हो / मेरे चित्त नेत्र और हस्त से कभी भी अलग नहीं होते, तो भी मेरा ऐसा समय पाया है। मैं वरदान से देवदार हूं। अतः तुम गायक के साथ जाओ।" वे 'पंचभद्र' अश्व श्रीचन्द्र के चित्त को अनुसरण कर आगे बड़े उन अश्वों के गुणों को याद करके श्रीचन्द्र का हृदय भर गया। उन्होंने गुणचन्द्र को सर्वाधिकारी नियुक्त किया। धनंजय को सेनापति नियुक्त किया। दूसरों को भी योग्य स्थलों का अधिकारी नियुक्त किया किले और महल में कार्य करने वाले सेवकों को यथा योग्य स्वर्ण धन, दान आदि देकर यथा योग्य हित शिक्षा देकर श्रीपुर को स्वर्ग के समान बना कर, परदेश जाने की इच्छा वाले श्रीचन्द्र राजा के समान सर्व हस्तियों प्रश्वों, 15 हजार अंग रक्षकों, पांच सो बन्दीजनों, से युक्त शीघ्र ही . कुशस्थल में अपने महल में पधारे। .. धीर मंत्री ने श्री 'श्रीचन्द्र' को नमस्कार करके गुणचन्द्र के साथ लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी के पास आकर विनंती की। श्रेष्ठी ने कहा कि "हे धीर मन्त्री ! दो दिन की राह देखो श्रीचन्द्र प्रतापसिंह राजा से भेंट करेंगे तब भाप भी जाना और राजा से विनंति करना / सभी कार्य राजा के. पादेशानुसार ही होगा।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 11010 .... शाम के समय भोजन गृह में आकर श्रीचन्द्र ने कि; माताजी ! लड्ड दो " लक्ष्मीवती ने बहुत से लड्डु दिये / भाव पूर्वक लड्डुओं के टुकडे, करके पत्नियो और सखियों आदि सर्व के पास भेज दिये / बुद्धिशाली ने बाद में संध्या का भोजन श्रेष्ठी के साथ किया / बाद में अपने महल में आकर कोणकोट्ट से आये हुए मन्त्रियों के साथ हिसाब करने के लिए गुणचन्द्र को भेज कर तथा दूसरों को भी भिन्न 2 कार्य सौंप कर रात्रि के प्रारम्भ में पद्मिनी के महल में आये ......... . प्रफुल्लित हृदय से पटरानी चन्द्रकला ने अति हर्ष से मन वचन" और काया से.श्रीचन्द्र की अद्भुत सेवा की। श्रीचन्द्र ने पिता के साथ हुई सर्व बात पद्मिनी से कही। यदि पिता इस प्रकार कहे तो इसे कैसे सहन किया जा सकता है. ?. इतना अल्पदान भी पिता को योग्य नहीं लगा। तो मन की इच्छानुसार किस प्रकार दान दिया जा सकता है ? मैंने किसी दिन भी पिता की आज्ञा को भंग नहीं किया। आज पहली बार.ही मैंने उनको आज्ञा का उल्लंघन किया। मूल्य देकर अश्वों को वापिस लेने की भी मेरी: विल्कुल इच्छा नहीं है सुधासिन्धु से भी मधिक. ऐसे माता पिता और गुरु की आज्ञा जो नहीं मानता वह दुष्ट बुद्धि वाला मृतक समान है यह बात मैं मन में जानता था फिर भी हे वल्लभा / मैंने यह प्राज्ञा नहीं पाली इससे में पुण्यहीन और कंदांग्रही चंद्रकला सोचने लगी.कि."अहो इनकी कितनी नम्रता, गुरुभक्ति : दान घिया और चित्त गम्भीरता है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 11110 फिर वह कहने लगी कि "हे नाथ ! आपश्री का मन अनुत्तर है। जिससे दान पुण्य के अनुसार आपश्री की बुद्धि है। कुटुम्ब में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न 2 होता है। अपने तो सुखपूर्वक रहेंगे / " शकुन की गांठ बांध कर श्रीचन्द्र ने कहा "हे प्रिये ! यह तो पिताजी बाने। मेरे स्वाधीन में कुछ भी नहीं है। मैं तो पिता के समक्ष किम प्रकार जाऊं? अतः मैं देशाटन के लिए अल्प समय के लिए जा रहा हूं। .... ... .... :: . .. यदि मेरे शुभ भाग्य का उदय होगा तो मैं कौतुक, देखने की इच्छा स पृथ्वी पर भ्रमण करके थोड़े ही दिनों में वापिस लौट आऊँगा।" मानो बज्र का प्रहार हुआ हो घसी पद्मिनी हृदयः. के दुाख से रुदन; करतो 2 बोली कि, "हे देव ! इस प्रकार आप. क्या कह रहे हैं। पतिः / सास, ससुर आदि. को दुख उद्वःग आदि की कारणभूत क्या अभी ही मैं विषः / कन्या हो गई हूं ? हे नाथ ! आप श्री यहीं रहो आपश्री के पास किस बात : की कमी है। हाथी, अश्व, रथ, सेनिक, स्वर्ण रत्न आदि विशाल सामग्री: है / आप श्री अपने पुण्य की लीला.दिखा रहे हैं और भविष्य में भी देखेंगे / आपका पुण्य प्रबल है. इसमें कोई भी शंका का स्थान नहीं है / "., : .. . .... . .... 1 श्रीचन्द्र ने कहा कि, "हे चित्त को जानने वाली ! तुम धैय . धारण करौं / हे कल्याणी ! रुदंन करने से क्या ? यह तो अमंगल है। हे अबले ! तुम समझदार हो अतः दुःष को धारण न करो। मुझे सास , सपुर से जो मिला है। वह मुझे रुचता नहीं है.! परन्तु जो, मैं भुज बल से करु उसमें मेरी शोभा है। मेरा तेरे प्रति विशेष स्नेह है / प्रतः P.P.AC. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .112 10 मैंने केवल तुझे ही यह बातें कही हैं। मैंने माता पिता मोर मित्र से भी नहीं कहा / अतः हे भद्रे ! मुझे जाने के लिए अनुमति दो। इससे स्वामिन ! प्रापको बुद्धि वचनातीत है। हे नाथ ! मुझे भी साथ ले चलें। क्या पत्नी पति के साथ विदेश नहीं जाती ? मैं माता पिता के वियोग को सहन करने में समर्थ हूं। परन्तु हे स्वामिन आपके वियोग को क्षणवार भी सहन करने में मैं समर्थ नही हूं। मुझे क्षणवार भी प्रापका वियोग नो हो। बहुत सी सखियों में भी आपके बिना मैं अकेली ही हूँ। मेरे प्राण आपके आधीन है आप सुखी तो मैं भी सुखी हूं / पूर्व के पुण्य से यहां मुझे हमेशा दुःख होगा / हे स्वामिन् / मुझे साथ ले जाने से मार्ग में आपको कोई भी तकलीफ नहीं होगी। आपके शरीर की छाया की तरह मैं साथ पाऊंगी। मुझे आज्ञा प्रदान करें" श्रीचन्द्र ने कहा कि, 'हे बुद्धिशाली पद्मिनी ! तुम अपने कुल के उचित ही कह रही है परन्तु प्रवास में कहां तो ग्रीष्म ऋतु की कर्कशता और कहां तुम्हारे अंग की सुकोमलता ! कहां क्षुधा तृष्णा का कष्ट आर कहां तूं राजपुत्री ! कहां तो सूर्य की उग्र किरणों से तपा हुअा मागे मौर कहां तेरे सुकोमल चरण ! कभी सर्दी कभी गर्मी। पग-पग पर तुझे मार्ग में अति कष्ट होगा। हे स्नेह वाली। तेरे साथ मुझे भी * दुःख सहन करना पड़ेगा। प्रतः स्वयं विचार करो। अतः मेरे· मादेश से तुम यहां अपने घर पर ही रह कर आनन्द पूर्वक देवाधि देव की पूजा आदि धर्माचरण करती रहो तुम्हारी धर्माराधना और शील के प्रभाव से मैं भी प्रवास में सुखी रहूंगा।" P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1131 अपने वस्त्र के किनारे से श्रीचन्द्र ने चन्द्रकला के प्रांसु पूछे और उसे पुनः हित शिक्षा दी / विदुषी पद्मिनी ने पति के प्रवास का निश्चय जानकर उनके शुभ की कामना करती हुई गद्गद् कण्ठ होकर बोली "प्राणनाथ ! 'जाओ' यदि ऐसा कहूँ, तो मुझ में स्नेह नहीं, 'न जाओ' ऐसा कहूं तो अमंगल होता है, 'रहो' ऐसा कहूं तो स्वामी को आज्ञादेने वाली कहलाती हूँ, 'रुचि के अनुसार को ऐसा कहूं, तो उदासीनता कही जाती है, साथ ही पाऊंगी' ऐसा कहूँ तो, कदाग्रह होता है, 'साथ नहीं पाऊ' ऐसा कहूँ तो वाणी की तुच्छता कहलाती है / हे नाथ ! प्रयाण के समय मैं क्या कहूं यह समझती नहीं हूं। हे स्वामिन् ! मैं तो आपश्री को गुरु महाराज द्वारा दिये हुए प्रात्म रक्षा का महामंत्र के लिए आह्वान करती हूँ। यह महामंत्र मस्तक और मुख का रक्षण करता हैं, काया का कवच रुप है, पांच पदों द्वारा हमेशा पात्मारक्षा करनी चाहिये, तुलिका से भूमि वज़मय शिला बन जाती है, चौथी चूलिका से कोट के ऊपर वज्रमय मंडप रचता है। इस महामन्त्र से माप बाहय शरीर की रक्षा करें। - इस मन्त्राधिराज के प्रभाव से शत्रु चोर, शेर, ताल आदि के सर्व भय दूर हो जाते हैं / मन्त्र के ध्यान से और स्मरण से पंग 2 पर संपदाएं उत्पन्न होती है। महामन्त्र के ध्यान से आपश्री का . मार्ग मंगलमय हो। हे नर रत्न ! मापश्री का कल्याण हो और तुरन्त आपश्री का शुभागमन हो। आपश्री को मागं में सर्वत्र मनोवांछित प्राप्त हों।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ....चन्द्रकला के शुभ. वचन ग्रहण कर के, स्नेह वार्ता करके शकुन के लिए फल स्वीकार कर द्रव्य से युक्त नित्य के वेष में नगर से बाहर निकल कर श्री 'श्रीचन्द्र' ने जिस दिशा में शुभ पक्षिों ने शकुन किये थे उस दिशा में विशुद्ध हृदय से प्रयाण किया / .... - प्रभात के समय श्रीचन्द्र ने एक प्रवधूत को देखा। उसे उचित मूल्य देकर श्रीचन्द्र ने उसका वेष ले लिया और अपना वेष छुपा कर उस प्रवधूत के वेष में ही उत्तर दिशा की ओर प्रयाण किया। ग्राम, नगर, उद्यान, नदी, सरोवर, गिरी आदि में भ्रमण करते हुए उन्होंने स्थान 2 पर श्रीचन्द्र का रास सुना। कहीं राधावेघ का रास सुनने को मिला,कहीं तिलक मंजरी का दिया उपालम्भ सुना, कभी वार्ता काव्य गीत और सुवेम महावेग अश्वों तथा पद्मिनी चन्द्रकला मादि के वर्णन का श्रवण किया / स्थान 2 पर अपने गुणों को सुनते हुए वे आगे बढ़ते गये। प्रतापसिंह राजा के समभ राजसभा में धीर मन्त्री युक्ति पूर्वक विवाह के लिए श्रीचन्द्र को ले जाने के लिए उनका आदेश मांगा। वहां तो दीपचन्द्र राजा का सेनापति जो चन्द्रकला को छोड़ने के लिए माया हुना था, उसने चन्द्रकला की सर्व हकीकत प्रतापसिंह राजा से निवेदित की। वह सर्व हकीकत प्रतापसिंह ने पटरानो सूर्यवती को कही। हर्ष से सूर्यवती ने कहा कि, "चन्द्रकला ! मेरी ही बहिन की पुत्री चन्द्रकला है, राजा की आज्ञा लेकर सूर्यवती महोत्सव पूर्वक श्रीचन्द्र के महल में आयी। - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #.11510 सूर्यवती ने हर्ष पूर्वक चन्द्रकला से मिल कर उसे गले लगाया और पूछा कि, 'दीपशिखा नगरी में सर्व कुशलं हैं ?" हस्तमिलाप में मिली सर्व वस्तुओं को देखकर प्रौर चन्द्रकला को लेकर प्रतापसिंह राजा के पास पायी। तब प्रतापसिंह ने पूछा कि, श्री 'श्रीचन्द्र' कहां हैं ?" चन्द्रकला मौन रही। सूर्यवती ने पूछा कि 'हे चन्द्रकला ! स्वयवर विना तुमने कैसे लग्न किया ? चन्द्र कला ने सर्व वृतान्त सविस्तार कह दिया / बाद में वह अपने घर लौट आयी। - श्रेष्ठी लक्ष्मीदत्त, मित्र गुणचन्द्र और सैनिकों ने श्रीचन्द्र की बहुत खोज की, परन्तु उनका कहीं भी पता नहीं लगा। इससे सब दुःखी हुए। जैसे अल्प जल में मछली तड़फती है उसी प्रकार गुचचन्द्र को कहीं भी चेन नं पड़ने से, श्रेष्ठी ने कहा कि, "मैं ही कदाग्रह किया। जिससे दुःखी होकर धीचन्द्र कहीं चले गये है।" , : लक्ष्मीवती ने कहा, 'किसी भी समय अपने मुख से कोई चीज नहीं मांगी थी, परन्तु कल ही उसने लड्ड मांगे और अपने हाथ से तोड़ कर सबके पास भेजे। परन्तु मैं समझ न सकी कि कल श्रीचन्द्र जाने वाले हैं / " श्रीचन्द्र के जाने की बात तत्क्षण नगर में सर्वत्र फैल गई। . .. ....... अतिशय दुःखी और रुंदन करते गुणचन्द्र ने चन्द्रकला के पास माकर पूछा कि "हे स्वामिनी ! मेरे मित्र कहां गये हैं ? यह जानती P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ n. 1164 हो तो कहो, "सतियों में शिरोमणी पद्मिनी ने सस्मित कहा कि, "प्रापक मित्र का गूढ़ मन और गमन यह दोनों कोई भी जान नहीं सकता।" ____ कुशस्थल से सर्व दिशाओं में जाने के मार्गों में सैनिकों द्वारा प्रतापसिंह राजा ने सर्वत्र खोज करवाई, परन्तु कही भी पता नहीं मगा। तीन दिन तक किसी ने भी व्यापार, विलास आदि कुछ भी कार्य नहीं किया। श्रेष्ठी के घर तो भोजन भी नही बना / अच्छी तरह कोई वार्तालाप भी नहीं करता। सर्वत्र शोक छा गया / श्रीचन्द्र के जाने के चौथे ही दिन बाद कुशस्थल में ज्ञानी गुरु महाराज पधारे। प्रतापसिंह राजा, सूर्यवती पटराणी, लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठा मादि सर्व नरनारी वन्दन करने गये। सब यथा योग्य स्थान पर बैठे / महा नपस्वी गुरु महाराज ने धर्मलाभ का आशीर्वाद देकर धर्म देशना दी। .... देशना के अन्त में सूर्यवती ने प्रश्न किया, "हे भगवन् ! जय के भय से मैने उद्यान में पुष्पों के ढगले में पुत्र को छुपाया था, उसके बाद मेरे पुत्र का क्या हुभा ?" ज्ञान से जानकर गुरु महाराज ने कहा, "हे भद्रे ! महा पुण्य निधान, तुम्हारे पुत्र 'श्रीचन्द्र' को सुरक्षित रखने के लिए गोत्रदेवी ने स्वप्न में सूचित कर लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी को अर्पण किया था। श्रीचन्द्र के पुण्य से लक्ष्मीदरा लक्षाधिपति से कोड़ाधिपति बना / लक्ष्मीदत्त पौर लक्ष्मीवती ने भी उसे पति हर्ष से अपने पुत्र के समान रखा। उसके जन्म से पहले तुमने श्रीचन्द्र नाम निश्चित करके इस नाम की अंगूठी तैयार कराई थी। उस अंगूठी के नाम के अनुसार श्रेष्ठी ने उसका वही नाम रखा था। P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 1. 117 110 हे राजन् ! तुमने पहले जब इसे गोद में बिठाया था तब दृष्टि में मोह से क्या पुत्र प्रेम उत्पन्न नहीं हुआ था ? श्रेष्ठी के मुख से दूसरी ख्याति सुनकर क्या तुम्हें प्रानन्द नहीं हुआ ? दानेश्वरों में भी अग्रणी श्रीचन्द्र देशान्तर गया है। इस वर्ष के अन्त में राजा होकर प्रापसे मिलेगा।" राजा प्रतापसिंह और सूर्यवती तो लक्ष्मीदत्त और लक्ष्मीवती की प्रति प्रशंसा करने लगे। श्रीचन्द्र ही सूर्यवती का पुत्र है। इस प्रकार हर्ष को प्रकाशित करती वाणी निकली। विशेषतः चन्द्रकला और मन्त्रीपुत्र गुणचन्द्र को अति आनन्द हुआ। ____कवियों ने कहा कि, 'नरसिंह राजा के कुल में सूर्य समान प्रतापसिंह राजा की सूर्यवती पटराणी का पुत्र 'श्रीचन्द्र' जगत में जय को पायें।" गुरु महाराज को सब लोग वन्दन कर अपने 2 घर गये / "अपना पुत्र श्री चन्द्र है" इस बोध के निमित्त से प्रतापसिंह राजा ने नगर में सर्वत्र महोत्सव किया / पद्मिनी चन्द्रकला किसी समय सूर्यवती के महल में, किसी समय श्रेष्ठी के महल में और किसी समय श्रीपुर में रह कर धर्माचरण करने लगी। "इस ससार में धर्म ही श्रेष्ठ बन्धु है। वह धर्म प्रिय को धर्म साधन, सामग्री प्रादि देता है, धन प्रिय को धन देता है, सौभाग्य के अर्थी को सौभाग्य देता है, पुत्रार्थी को पुत्र देता है, राज्य के भर्थी को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 118310 राज्य देता है / वस्तुतः धर्म क्या नहीं देता ?" धर्म इन सब के अतिरिक्त स्वर्ग और मोक्ष की सम्पदानों को प्राप्त कराने वाला है / " // यतो धर्मस्ततो जयः " *=* द्वितीय खण्ड समाप्त *=* P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ // श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः // . श्री गौतम स्वामिने नमः . . .. . पू. आ. देव श्री सिद्धर्षि गणि कृत श्री श्रीचन्द्र' केवलि चरित्र : द्वितीय भाग मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमः प्रभुः / मंगलं स्थूलभद्राद्या, ' जैनो धर्मोऽस्तु मंगलम् // . . [ तृतीय खराड ] ... . . चन्द्र के समान कान्तिवान प्रतापसिंह राजा का पुत्र श्री 'श्रीचन्द्र' घूमते हुए तथा देखने वालों को आनन्द देते हुए कभी घोड़े पर, कभी गाड़ी पर, किसी जगह पैदल, कभी दिन में, कभी रात में, श्री परमेष्ठी महामन्त्र के पद के ध्यान से पूर्व पुण्य के प्रताप से और गुरु की दी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ हुई औषधी के कारण सब जगह विजयी हुआ / एक समय एक वनिक को सौनी, मोहर दी और उसके यहां भोजन करके बाकी पैसे लिये बिना रवाना हो गए। हमेशा 5-7 मनुष्यों के साथ ही भोजन किया करते थे। अकेले कभी भोजन नहीं करते, जंगल में भूले भटके मुसाफिरों को धन की मदद देते थे / एक पार श्री 'श्रीचन्द्र'। वृक्ष पर बैठे हुए होते हैं, उसी समय चन्द्रमा के प्रकाश में एक मनुष्य की छाया 'दिखाई देती है परन्तु मनुष्य कोई नजर नहीं आता। श्री 'श्रीचन्द्र' ने सोचा कि यह जो पुरुष है वह पंजन गोली से सिद्ध हुप्रा लगता है और वह किसी भारी वस्तु को ले जाता हुक्म नजर आ रहा है, यह कौन है ? : उसे देखने की इच्छा से बुद्धिशाली 'श्रीचन्द्र' वृक्ष से नीचे उतर कर उस छाया के पीछे 2 चलने लगे / आगे जाकर बहुत वृक्षों का छाया में वह छाया अदृश्य हो गई / 'श्रीचन्द्र' वहां कुछ क्षण रुके पौर। सूर्य के. उदय होने पर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उस छायावाले मनुष्य के पद चिन्ह खोज निकाले। उन पद चिन्हों के अनुसार चलने पर एक बहुत बड़े विशाल पर्वत में एक ऊंची शिला को देखा। उसके बीच के भाग में प्रवेश करते हुए और बाहर निकलते हुए मनुष्य के पद चिन्ह देखे / बाद मैं नजदीक में जो जल कुण्ड था उसकी खोखल में फल पोर जल से तृप्त होकर गुफा की मोर एक टक देखते ही रहे। . तीसरे पहर में गुफा प्रके मध्य भाग में से शिला को उठा कर एक पुरुष बाहर आया वह बादली रंग के वस्त्रों से सुशोभित, शस्त्र से F- 71. 51. RT 1 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ सज्जित और पान चबा रहा था। उसने जलकुण्ड के पास जाकर पानी पीया और जल लेकर गुफा में चला गया और वहां जल रखकर पहले की तरह बाहर आया और गुफा के आगे शिला रखकर बावड़ी के जल से मुह को साफ करके मुह में अद्भुत गोली रखते ही वह न्यक्ति अदृश्य होगया पहले ही की तरह धूप में उस मनुष्य की छाया दिखाई दी। छाया दूर गई ऐसा जानकर श्रीचन्द्र' गुफा के प्राये से भारी शिला को उठा कर अन्दर प्रवेश कर गये। ..., TET : REP 16. " "गुफा के अन्दर कंचन और रत्नों से भरपूर एक महल के बीच में प्रौढ़ उम्र की स्त्री को देखा और नमस्कार करके कहने लगा, 'हे बहन ! तुम यहां अकेली कौन हो ?' प्रांखों में प्रांसू लाती हुई वह कहने लगी, 'हे उत्तम पुरुष ! नायक नगर में ब्राह्मण सार्थवाह लोग रहते हैं। वहां का राजा भी ब्राह्मण है और. रविदत्त मंत्री भी झाह्मण है, उसी. की. मैं शिवमती नाम की पत्नि हूँ / राज्य के रक्षा के लिये पूरा बंदोबस्त होते हुए भी हमेशा चोरिये, हुआ करती थीं। जिससे नगर के लोगों ने राजा से कहा कि अगर प्रापसे राज्य : को रक्षा नहीं हो सकती हो तो.. हम कुश स्थल के राजा से रक्षा के लिए प्रार्थना कर!' : TET : : .. रोजा ने कुछ भय से व्याकुल होकर लोगों का सम्मान करके कोतवाल को बुलाकर 'गुस्से से उपालम्भ दिया। कोतवाल ने कहा 'राजन् कोई सिद्ध चोर है ऐसा दिखता है, प्राज रात मैं उसे खोज निकालूगा। कोतवाल ने रात को बहुत छान बीन की परन्तु चोर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ तो मिला ही नहीं / चोर ने जब यह बात जानी तो उसने कोतवाल के घर ही उस रात चोरी की। इस प्रकार जो कोई भी उसे पकड़ने की प्रतिज्ञा करता उसके घर ही चोर चोरी करने जाता। एक बार रविदत्त मन्त्री ने भी अपने घर को खाली करा कर चोर को पकड़ने की प्रतिज्ञा की। तथा रात्रि को सब जगह चोर की खोज करने लगा परन्तु चोर का कोई पता नहीं चला। . . * चोर जब मंत्री के घर गया और वहां उसे कुछ भी नहीं मिला जिससे वह क्रोधित होकर मेरे मुह तथा हाथों को बांधा और कंधे पर डाल कर अपने यहां ले आया। फिर कहने लगा हे भद्रे ! मैं रत्लखुर घोर हूं। मैंने कहा कि भैया मैं तो कुछ भी नहीं जानती हूं। . . : इस प्रकार प्रतिदिन किसी समय दृश्य और किसी समय अदृश्य 'होकर इस समय रोज आता है और कुछ रात्रि रहती है तब लौट जाता है। तीन दिन होगये हैं मैं अपने छोटे पुत्र के वियोग में बहुत दुःखी हूँ। तुम कौन हो ? क्या मेरा भाग्य ही तुम्हें यहां ले भाया है ? श्रीचन्द्र ने कहा कि "मैं अवधूत हूं" तब शिवमती ने कहा कि हे भद्र। अगर तुम इस पापी के पंजे से मुझे मुक्त करोगे तो मेरी मुक्ति का और मुझे पुत्र मिलाप कराने का इस प्रकार दोनों ही दानों का फल तुम्हें प्राप्त होगा। . . .. ; 'श्रीचन्द्र' शिवमती को गुफा के बाहर ले माया और उसे उसके घर पहुंचा पाया / विदत्त मंत्री ने भी 'श्रीचन्द्र' की बहुत प्रशंसा की और शिवमती ने भी यथा योग्य सन्मान कर कुछ भेंट दी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ परन्तु 'श्रीचन्द्र' ने वस्त्र और धन लेने से इन्कार कर दिया तब शिव. मती ने अपनी यादगार रूप में एक अंगूठी जबरदस्ती भेंट की / बाद में सूक्ष्म दृष्टि वाले 'श्रीचन्द्र' चोर के पद चिन्हों के अनुसार गुफा के पास एक वृक्ष पर बैठ गये। इतने में ही कुछ मनुष्यों और उस चोर को प्राते हुए देखा / चोर ने आकर 'श्रीचन्द्र' से उसका नाम पूछा। श्रीचन्द्र' ने कहा 'मेरा नाम लक्ष्मीचन्द है।' चोर ने कहा 'मेरा नाम रत्नाकर है / ' 'श्रीचन्द्र' ने मन में ऐसा सोचा कि अगर चोर कहे कि में गुफा के द्वार को खोलू फिर पूछने लगा कि हे मित्र ! तुम प्राज चितातुर क्यों दिखाई दे रहे हो ? चोर कुछ सोच कर कहने लगा था इतने में ही दुसरे और पांच मुसाफिर आकर उसी वृक्ष की छाया में बैठकर परस्पर बातचीत करने लगे। . .. सूक्ष्म बुद्धि से यह जानकर कि चोर के सिर पर जो पगड़ी है उसके पल्ले पर अदृश्यकारिणी गोली बंधी हुई है इसलिये 'श्रीचन्द्र ने पांचों मनुष्यों की साक्षी में शतं लगाई कि दोनों की पगड़ी शिला के नीचे रख दें जो अपने दोनों में से शिला के नीचे से पगड़ी निकालेगा उसे पगड़ियों के पल्लों में जो कुछ बंधा हुआ है सब कुछ मिलेगा / धन के लालच में चोर ने शर्त स्वीकार कर ली पौर पगड़ी को निकालने के लिये भरसक प्रयत्न किया लेकिन शिला टस से मस नहीं हुई। . . . बाद में श्रीचन्द्र ने अपनी लीला से दोनों पगड़ियों को निकाल लिया और जीत की खुशी के उपलक्ष में आम लेकर थोड़ा २.सबको बांट दिया। चोर सोचने लगा कि 'यह लक्ष्मीचंद तो गुफा के द्वार को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ भी खोल सकता है ? इतने में तो नायकपुर नगर की तरफ बाजों की मावाज गूजने लगी। चोर यह सोच कर कि यह राजा की सेना है सबसे पहले भाग खड़ा हुमा और बाद में दुसरे पांच व्यक्ति भी भाग छूटे / 10- F i in ... .." .... .. .TH. - चोर की पगड़ी में से श्रीचन्द्र ने गोली निकाली और मुंह में रखकर अदृश्य हो वृक्ष पर बैठ गये। इतने में रविदत्त मंत्री पद चिन्हों के जानकारों को साथ लेकर आया / उन लोगों ने एकाग्र चित्त से चिन्हों का निरीक्षण किया। वहां पद चिन्ह तो दिखाई देते थे परन्तु कोई मनुष्य दिखाई नहीं देता था। जिससे उन्होंने मन्त्री से कहा कि हे स्वामी ! क्या यहां कुछ संभव है ऐसी कोनसी शक्तिशाली मात्मा यहां भाई होगी? उसकी सैनिकों द्वारा खोज कराइये / चारों तरफ से सेना ने श्वान बीन की लेकिन वापिस खाली हाथः रात्रि को नगर में लौट भाई। बाद में श्रीचन्द्र ने अपने इच्छित स्थल की ओर भयारण किया। का... Fits:: iranti : " ISI FF 5.51 .. .... . .: . पूर्वे पुण्य के प्रताप से श्रीचन्द्र को चारों तरफ जहां जाते हैं संपत्ति ही प्राप्त होती है। यात्रा में उन्हें स्वर्ण पुरुष प्राप्त हुआ / पदृश्य होने वाली गुटिका के कारण श्रीचन्द्र बहुत प्रभावशाली बन पये। रास्ते में एक कुटिया में बहुत से मनुष्यों को बातें करते सुना कि कुशस्थल के राजा प्रतापसिंह और सूर्यवती पट्टराणी के पुत्र कुल में चन्द्रमा के सदृश्य ऐसे थी 'श्रीचन्द्र' जय को प्राप्त हों।. . fit, सिंहपुर के श्रेष्ठ सुभगांग राजा की पुत्री पद्मिनी : चन्द्रकला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ नई GK जिसने 'पूर्व भव के स्नेह के कारण श्रीचन्द्र से विवाह किया वे श्रीचन्द्र जय को प्रोत' हों।" इत्योदितरह २'की बातें कर रहे थे। किसी में केहो कि श्रीचन्द्र तो सेठ पुत्र हैं परन्तु तुम" राजपुत्र कैसे कह रहे हों पर दुसरे ने ' कहा कि मैं जब कुशस्थल" में "था तब पद्मिनी चन्द्रकला का नगर प्रवेश हुआ, श्रीचन्द्र ने वीणारव' को दान दिया 'सबको"बड़े मादर से भोजन करवाया। उसके बाद दूसरे दिन बिना किसी को कहें। विदेश चले गये। कुछ ही दिनों में 'ज्ञानी'महाराज' वहां पाये उन्होंने अपने मुखाविन्द से फरमाया कि श्रीचन्द्र प्रतापसिंह और सूर्यवती के पुत्र हैं और वह विदेश भ्रमण के लिये गये हैं।" एक वर्ष बाद राजा और रानी से मिलेंगे। ऐसा जानकर राजामौर रानी मादि सवको जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। सबकवि भाट भी इसी प्रकार से स्तवना करते हैं। : : :: :: ' #1 " इन सब बातों को सुनकर श्रीचन्द्र बहुत आनन्दित हुए। मौर सोचने लगे ये सब बातें ज्ञानी महाराज ही जान सकते हैं। 'उस शुभे" संदेश सुनाने वाले को बहुत सा दान दिया तथा दूसरों को घी और गुई देकर उसी वेश में आगे के लिये रवाना हो गये। किसी जगह दृश्यमान होकर और कही "अदृश्य होकर चलते हुए एक भयंकर जंगल में पहुंचे। रात्रि व्यतीत करने के लिये एक बड़े वृक्ष के नीचे अपनी डेरा डाल दिया। उसे वृक्ष पर तोतों को स्थाने ' यारात्रि शुरु होते ही सब दाना चुग 2 करें"बागये। वे सब पापस में हंसी खुशी से तरह 2 की बातें करने लगे। उनमें से एक ने पूछा अच्छा यह बतायो .कि.कौन, 2, कहां.,२ गया, था। उनमें से एक वृद्ध तोता जो है, 11. TE:-in 1-75T 101 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ दिन बाद आया वह बोला-'हे वत्स ! पूर्व दिशा में महेन्द्रपुर नगर में त्रिलोचन राजा राज्य करता है उसके गुणसुन्दरी नाम की एक सुशीला रानी है। उनके रूप और गुणों से सुशोभित सुलोचना नाम की एक पुत्री है, परन्तु वह जन्म से अन्धी है। चौसठ कलाओं से युक्त पुवावस्था को प्राप्त हुई वह राजकुमारी हृदय रूपी दृष्टि से नाम श्लोक मादि लिख लेती है। त्रिलोचन राजा ने मन्त्रियों की सलाह से पटह बज़वाया है कि जो कोई भी सुलोचना को देखती करेगा उसे प्राधा राज्य तथा कन्या दे दुगा / इस पटह को बजते आज पांच महिने हो गये हैं अब पता नहीं सुलोचना के भाग्य में क्या लिखा है। ..... . . छोटे 2 तोतों ने पूछा 'पिताजी वह अन्धी पुत्री देखती हो जाये ऐसी औषधी कहां मिलेगी।' बूढ़े तोते ने कहा कि 'किसी बड़े वन में हो सकती है।' तब उन्होंने कहा कि 'क्या इस बन में है ?' बूढ़े तोते ने कहा कि . होसकती है परन्तु यह बात गुप्त रखने योग्य है इसलिये रात्रि को नहीं कही जा प्रभावशाली बेलें हैं / एक विशाल पान की अमृत संजीवनी बेल अन्धे को देखता करती है और दूसरी घाव हरणी गोल पान की बेल है जो घाव को तुरन्त भर देती है।' उस वार्तालाप को सुनकर परोपकारी राजकुमार ने हर्ष से दोनों औषधियों की बेलें ली और पूर्व दिशा की: पोर रवाना होगया / तीन दिन चलने के पश्चात् एक सुनसान देश में पहुँचा। वहां एक शून्य नगर था / उसमें बाग, सरोवर, बावड़ी और वृक्ष भी थे, चे 2 किल्लों, महलों से और मोहल्लों से वह शहर बहुत सुन्दर दिखाई दे रहा था परन्तु सबसे बड़ी कमी यह थी कि वह बिना राजा का था। अन्दर बाहर सब जगह सुनसान थी / राजकुमार को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 61 बहुत आश्चर्य हुआ, श्रीचन्द्र उस नगर में प्रवेश करने ही वाला था इतने में एक तोती उड़ती हुई घबराई हुई सी वहां आई और कहने लगी, हे मुसाफिर 1 इस नगर में मत जायो। इस नगर में जाने वाले को विघ्न आता है। श्रीचन्द्र ने पूछा कि 'इस नगर और यहां के राजा का क्या नाम है ? यह नगर शून्य किस तरह हो गया है ? यहां किसका डर है ?' तोती बोली कि 'कुन्डलाचल देश में प्रसिद्ध कुन्डलपुर नाम का यह नगर है यहां अर्जुन नाम का राजा राज्य करता था। उसके पांच रानियां थीं। मुख्य रानी का नाम सुरसुन्दरी था। कुन्डलपुर में 6-7 दिन में एक चोरी हो जाया करती थी। कोतवाल आदि चोर की खोज करते पर चोर पकड़ में नहीं आता था / एक रात राजा चोर को पकड़ने निकला। रास्ते में राजा ने किसी को घुमते हुए देखा, राजा ने चुपचाप उसका पीछा किया। चोर समझ गया कि राजा उसका पीछा कर रहा है / चोर ने नगर के बाहर आकर राजा की नजर से बचकर किसी एक मठ के अन्दर जाकर चोरी किया हुआ रत्नों का डिब्बा सोये हुए परिव्राजक के पास रखकर परिव्राजक का वेश पहन क अदृश्य हो गया। जब प्रातःकाल हुआ तब अर्जुन राजा ने उस परिव्राजक को चोर समझकर पकड़ लिया और उसे मरवा डाला / वह मृत्यु के बाद राक्षस हुभा / " .. 'बदला लेने की भावना से उस राक्षस ने यहां के राजा को मार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ दिया। नगर के सारे लोग राक्षस के डर से सब कुछ छोड़ कर भाग गए। पांचों रानियों का अंतपुर में रक्षण करता है, उनमें से गुणवती रानी सगर्भा थी, उसके पुत्र होगा तो उसको मैं मार डालूगा ऐसी राक्षस की इच्छा थी। दैवयोग से पुत्री का जन्म हुआ। उसका नाम चन्द्रमुखी रखा, अब उसका भविष्य क्या है यह मैं नहीं जानती / नो कोई भी नगर में प्रवेश करता है उसको राक्षस मार डालता है / ' तोती के मुख से साग वृतांत सुनकर श्री श्रीचन्द्र' नगर में गए / राजकुमार ने सारे राजमहल को देखा, बाद में राज-सभा में आकर कोमल वस्त्र से ढ़के हुये तथा घूमते हुये पलंग को देखकर अनुमान लगाया कि यह राक्षस का ही पलंग होगा, अपनी शरीर की थकान को दूर करने के लिये श्रीचन्द्र यात्म रक्षक नमस्कार मंत्र से शरीर की रक्षा कर पलंग पर निर्भयता से सो गये। नगर में मनुष्य के पद चिन्हों को देख कर राक्षस बहुत क्रोधित हुआ। उसी समय महल में आया, पलंग में आराम से सोते हुये श्रीचन्द्र को देखकर मन में सोचने लगा 'अद्भुत वीररस से युक्त और अत्यन्त तेजस्वी यह कौन है ? बडे घेर्य से मेरी शैया पर कौन सो रहा है ? यहां कैसे पाया होगा ? किस प्रकार सो गया होगा ? क्या इसको उठा कर समुद्र में फेंक दूं ? या तलवार से टुकडे 2 कर दूं या दंड से पलंग सहित इसका चूरा कर दूं? केसरीसिंह की जगह सियाल किस प्रकार रह सकता है ? 'हे दुष्टात्मा ! तू जल्दी से खड़ा हो जा, तू मेरे से डरता क्यों नहीं ?' . राक्षस की धमकी से श्रीचन्द्र ने जागृत होकर कहा कि 'तुझे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 11 10 क्या काम है ? नकली आडंबर युक्त तू कौन है ? क्या तेरे पुरुषार्थ का तुझे गर्व है ? अपना विशाल पेट और अपनी भयंकर आंखें किसे दिखा रहा है ? तुझे अपने क्रूर कर्मो से अभी भी तृप्ति नहीं हुई है ? पलंग पर मैं अपनी शक्ति तथा सत्व से बैठा हूँ। जैसे-तसे बोलते हुये तेरे में सज्जनता नहीं दिखाई देती। सदाचारी सुशीला रानियों को तूने कैद कर रखा है, अगर तुझे ठीक तरह रहना हो तो रह नहीं तो इसी क्षण रवाना होजा / तू शस्त्र से युक्त है और मैं शस्त्र विना का हूँ। तू मनुष्य नहीं है इसलिये तुझे मारता नहीं हूँ।' श्रीचन्द्र के अचित्य प्रभाव से अपना तेज खतम हो गया है ऐस जानकर राक्षस ने शांत होकर कहा कि, "मैं तेरे साहस पर तुझ से सन्तुष्ट हुआ हूँ, इसलिये तू कुछ भी मांग / ' श्रीचन्द्र ने मजाक से कहा कि, 'मेरे नेत्रों की शान्ति के लिये मेरे पैर के तलुवों की दोनों हाथों स मालिश कर / ' सर्व लक्षण संपन्न जानकर राक्षस ने चरण स्पर्श किये ही थे कि जल्दी से राक्षस के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले बड़े विनय से श्रीचन्द्र ने नमस्कार किया। राक्षस श्रीचन्द्र के चरणों में मुक पड़ा। उन्होंने आपस में जो कुछ कहा था उसके लिये क्षमायाचना की और बहुत प्रसन्नता अनुभव करने लगे / - श्रीचन्द्र ने राक्षस से कहा कि, अगर तुम सचमुच मुझ पर = प्रसन्न हो तो आज से प्राणी वध के पाप को छोड़ दो और धर्म बुद्धि को / प्रहण करो। राक्षस ने अति हर्ष से यह बात स्वीकार की। धर्म का दान करने वाले परम उपकारी जानकर सविशेष संतुष्ट होकर राक्षस ने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ कहा कि 'हे धीर पुरुष ! इस राज्य का तुम उद्धार करो। राक्षस ने रानियों से कहा कि, 'हे रानियों ! तुम्हारे और मेरे भाग्य से कोई पुण्यात्मा यहां आयी है। प्राज से तुम मेरी बहनों के समान हो, मेरे दुष्ट वचनों को जो कि मैं पहले बोल चुका हूं उसे तुम क्षमा करदो। मैंने इस व्यक्ति को महात्मा, धीर तथा गंभीर पुरुष जानकर यह राज्य इन्हें अर्षित कर दिया है। ____तब श्रीचन्द्र ने कहा कि 'हे माताओं ! आपके कुल में इस राष्य को संभाल सकने वाला कोई है ?' रानियों ने कहा कि 'हे वत्स ! जो कुछ राक्षस ने कहा है उसमें हम सहमत हैं / ' गुणवती रानी ने कहा कि मेरी पुत्री चन्द्रमुखी को तुम ग्रहण करो। श्रीचन्द्र ने कहा कि 'आप लोग अज्ञात कुल शील वाले को कन्या क्यों सौंप रहे हैं।' इतने में राक्षस ने अपनी शक्ति द्वारा हाथियों, घोड़ों तथा सेना लोगों आदि को वहां प्रगट कर दिया तथा कन्या को भी ले आया। श्रीचन्द्र ने कहा कि हे राक्षस राज ! मुझे कन्या क्यों सौंप रहे हो? तुम्हें योग्य जानकर ही कन्या दी है, ऐसा राक्षस ने जवाब दिया। श्रीचन्द्र ने अपनी अंगूठी बतायी, नाम जानकर सबको बहुत खुशी हुई। राक्षस ने श्रीचन्द्र का नगर में राज्याभिषेक करके उसकी प्राज्ञा का विस्तार करके कहा, जिस पापी ने मेरे पास चोरी का माल रख कर मुझे मरवाया था उस वज्रखुर चोर को मैंने मार दिया है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 13 * "हे राजन् ! कुडलगिरि के मुख्य शिखर के मध्य में रत्न और सुवणं से भरपूर उसका महल है उसे तुम ग्रहण करो। राक्षस के वचन को स्वीकार कर श्रीचन्द्र ने वहां जाकर सब वस्तुत्रों को ग्रहण करलीं / उस महल के स्थान पर देवलोक से भी अद्भुत चन्द्रपुर नाम का एक नया नगर बसाया। उसके मध्य भाग में राक्षस के मन्दिर में चोर के शरीर के ऊपर राक्षस की प्रतिमा को स्थापित कर उसका नाम नरवाहन रखा। उसके बाद कुन्डलपुर नगर में आकर कुन्डलेश्वर कुछ दिन ठहर कर सास, पत्नि, सेनापति, सैनिकों आदियों को हित शिक्षा देकर अपनी पादुका सिंहासन पर स्थापित कर श्रीचन्द्र जिस छिपे वेश में आये थे उसी वेश में रात्रि के प्रथम पहर में आगे के लिये प्रयाण कर गये। अनुक्र म से महेन्द्रपुर के पास पार वहां रात्रि व्यतीत करने के लिये किसी वृक्ष के नीचे निद्राधीन हो गए, इतने में जिसने अवस्वापिनी विद्या से लोगों को निद्राधीन किया है ऐसा लोहखुर चोर चोरी करके भार से व्याकुल हुअा वहां प्रांया और कहने लगा 'हे अवदूत ! इस भार को तू उठा ले मैं तुझे जमदरी दे दूंगा। सघवानों में सिंह के समान श्रीचन्द्र उस भार को उठा कर चोर के पीछे 2 चले / लोहखुर न एक गुफा में प्रवेश किया / गुफा के अन्दर भूमि में दीपों से देदीप्यमान रत्न और एक स्त्री थी। उस स्त्री को लोहखुप ने कहा इस पुरुष का तू धादर सत्कार कर। स्त्री ने कहा हे स्वामिन ! भोजन आदि करके मेरे साथ खेलो। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 14 * आश्चर्य से इन सब बातों को कपट जाल समझ कर श्रीचन्द्र ने उस स्त्री को बाहर खेंचा और क्रोधित होकर पूछा, "यह कौन है, और तू कौन 'स्त्री ने भयभीत होकर कहा यह लोहखुर चोर है और मैं इसके संकेत से इसकी पुत्री हूँ। लोहखुर को शिक्षा देकर और बाद में खुश होकर उस स्त्री को छुड़ा कर चोर को छोड़ दिया और रात्रि कहीं और जाकर . व्यतीत की। ... प्रातःकाल अरिहंत भगवान का स्मरण करके महेन्द्रपुर नगर में प्रवेश किया। नगर में जाकर किसी सेठ की दुकान पर बैठ गये / उसी समय पटह बजने की आवाज सुनाई दी। इस पटह को बजते 6 महिने में 6 दिन कम है जो कोई व्यक्ति राजकन्या को देखती करेगा उसे निश्चय ही कन्या और राज्य मिलेगा। जिस प्रकार तोता रटी हुई बात बोलता रहता है उसी प्रकार सब बातें वह पटह वाला बोल गया। श्रीचन्द्र ने उसी समय पटह को स्पर्श किया पटह वाले ने यह हकीकत राजा से कही / राजा ने बड़ी खुशी से अवदत को छत्र, चामर, हाथी आदि सहित ले पाने का आदेश दिया। ... राजमहल में आकर राजा के दिये हुए आसन पर अवधूत बैठा त्रिलोचन राजा ने पूछा हे भद्र ! तुम कहां के रहने वाले हो ? श्रीचन्द्र ने कहा महाराज मैं कुशस्थल में रहता हूं। राजा ने कहा आपके चरण कमल आज मेरे नगर में पडे हैं मेरा अहो भाग्य है / पटह के अनुसार कन्या को देखती करके प्राधा राज्य स्वीकार करो / श्रीचन्द्र ने कहा यह तो ठीक है गुरुदेवों के प्रताप से मेरे पास विद्या, मंत्र और कुछ औषधियां हैं परन्तु कन्या को दिखाओ तब कुछ हो सके। . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 15 340 -.. - राजा ने कन्या को बुलवाया। अवदूत ने कहा सभा को चारों तरफ से पवित्र करो ! बाद में कन्या को पर्दे के पीछे बिठा कर विज्ञान चिकित्सा करके कन्या के नेत्रों में अमृत संजीविनी वेल का रस डाल कर तथा और भी किया कान्ड करके वहीं अपना असली वेश धारण कर नमस्कार महामन्त्र का ध्यान करने के लिये बैठ गये / जब तक रस सूखे तब तक पूजा आदि क्रिया करते रहे / अमृत संजीवी औषधि के प्रभाव से कन्या के नंत्र कमल जैसे हो गये / कुमार इन्द्र की तरह पूजा कर रहा था। अलौकिक प्राभूषणों से भूषित, सूर्य के समान तेजस्वी कुमार के मस्तिष्क को देखकर कन्या श्री अरिहंत भगवान को नमस्कार करके बहुत ही खुश हुई। श्रीचन्द्र ने कहा हे भद्रे ! तुझे अच्छी तरह दिखाई दे रहा है ? मेरी अंगूठी में क्या नाम है पढ़ / . उसे पढ़कर बड़ी प्रसन्नता से सुलोचना ने श्रीचन्द्र की प्रशंसा करते हुए कहा कि 'हे प्राण जीवन ! पहले मुझे पिताजी ने आपको दी थी, अब मैं हृदय से प्रापका वरण करती हूँ। अंगूठी से नाम की जानकारी हुई तथा आचार से कुल पहचान गई हूँ।' उसके बाद श्रीचन्द्र ने अद्भुत रूप बदल कर अपना पुराना अवदूत का वेष पहन, भस्म आदि लगाकर बाहर राजा के पास आए / राजा ने पूछा, नेत्र ठीक हो गये हैं ? राजकुमार ने कहा हां नेत्र बहुत सुन्दर हो गये हैं अब राजकुमारी सचमुच सुलोचना है। त्रिलोचन राजा ने सुलोचना को अपनी गोदी में बिठाया, सब को बहुत प्रानन्द हुा / राजा ने पुत्र जन्म जैसा महान महोत्सव किया / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #. 16 1 बाद में अंतपुर में खबर भिजवाई। सुलोचना को देखकर सबको प्रानन्द हुआ। अवदूत को बड़े अादर सत्कार से भोजन करने महल में भेजा जहां छत्तीस प्रकार का स्वादिष्ट भोजन बनाया गया था / बाद में राजा ने मंत्रियों को बुलाकर सलाह दी कि हम अगर प्रवद्त को कन्या देते हैं परन्तु इसका कुल आदि तो हम जानते नहीं / तब मंत्री जहां अवदत को ठहराया था वहां गये और पूछने लग 'हे भद्र ! आपका नाम, कुल आदि क्या है यह तो बतायो। श्रीचन्द्र ने हंसकर कहा कि आप लोगों ने पूछा वह तो ठीक है परन्तु आपने तो पानी पीकर घर पूछने वाली कहावत को सत्य कर दिखाया। फिर भी सुनिये 'मैं कुशस्थल में रहने वाले लक्ष्मीदत्त सेठ का पुत्र हूं / व्यसनी पोर हठवाला होने से पिताजी की गुप्त रीति से बहुत लक्ष्मी लेकर दूसरों को दे देता था, जिससे पिताजी ने मुझे बहुत समझाया पर में अपनी आदत से हटा नहीं। इसलिये उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया / उसके बाद पृथ्वी घूमते हुए मुझे एक सिद्ध पुरुष मिले जिनकी मैंने बहुत सेवा की। उन्होंने सेवा से सन्तुष्ट होकर मुझे मन्त्र प्रादि दिये। उनको अब छोड़कर मैं यहां आया हूं। धन के बिना जुमा खेला नहीं जा सकता इसलिये मैंने पटह को स्पर्श किया। सारी बात मन्त्रियों ने राजा से कही / यह भी कहने लगे कि सारा धन उसकी इंग्छानुसार जुए में जायेगा इससे हमें तो बहुत चिन्ता होने लगी है / राजा भी चिन्तातुर हो गया। कहने लगे कि ऐसे जुआरी को कन्या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 1. 17* कैसे दें। अगर कन्या न दें तो मेरा वचन जाता है और वचन के सामने धन, राज्य और प्राण भी तुच्छ है / बाद में जिस अंतःपुर में नृत्य, गान प्रादि हो रहे हैं वहां राजा आया। सुलोचना ने पिता को देखकर कहा कि आपके चेहरे पर हर्ष के स्थान पर विषाद क्यों ? राजा ने सारी हकीकत रानी आदि से कही सब चिंतातुर हो गये, तब सुलोचना ने हस कर कहा कि वह पुरुष ऐसा नहीं है, यह तो वाणी की विचित्रता है। जो रूप उसने पर्दे के पीछे देखा था उसका वर्णन किया ओर जो अंगूठी पर नाम पढ़ा या वह बताया। कुल और पिता का नाम बताया। तब तो राजा को बहुत खुशी हुई। राजा ने राजसभा में जाकर ज्योतिषी को बुलवाकर लग्न मुहूर्त निकलवाया / .. राजा ने श्रीचन्द्र को खुलवाने जितनी देर में भेजा उतने समय - में तो श्रीचन्द्र वहां से रवाना हो गये थे। मंत्री ने आकर कहा कि महाराज श्रीचन्द्र तो कहीं भी दिखाई नहीं दिये। बाद में व्याकुले राजा ने अंतःपुर, महल, नगर प्रादि सब जगह खोज करवायी पर श्रीचन्द्र तो कहीं नहीं मिले। जिससे सुलोचना मूछित हो गई / शीत उपाय करने से होश आया राजकुमारी रुदन करती तथा दूसरों को रुलाती हुई रात्रि व्यतीत करती है। वह न बोलती है, न खाती है, न पीती है। उसके दुःख के कारण दूसरे लोग भी भोजन नहीं करते / मंत्रियों की समझ में भी नहीं आता कि अब क्या किया जाय / एक वार राजा ने कुशस्थल से आने वाले यात्रियों से श्रीचन्द्र के समाचार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 18 10 पूछे उन्होंने कहा कि लक्ष्मीदत्त सेठ के पुत्र श्रीचन्द्र बहुत गुणवान तथा * रूपवान हैं। हमारे सेठ के जमाई भी हैं उनकी अंगुली में उनके नाम की हीरे की अंगूठी पहनी हुई है। धन सेठ की पुत्री धनवती के पति है, मैं उन्हीं सेठ का नौकर हूँ। जब ये सारी बातें सुलोचना ने सुनी वो कहने लगी कि वही श्रीचन्द्र थे। त्रिलोचन राजा ने कहा पुत्री वही तेरे पति हैं मैं अभी कुशस्थल के राजा प्रतापसिंह के पास मंत्रियों को भेजता है कि वे श्रीचन्द्र को भेजें / तब सुलोचना ने भोजन किया / सूक्ष्म बुद्धि वाले चतुर श्रीचन्द्र ने अवदूत का वेष तो किसी को दे दिया और बटोही का वेष पहन कर घुमते घामते किसी बड़े वन में पहुंचे। कमलों से युक्त निर्मल पानी वाले, चक्रवाक आदि पक्षियों से भरपूर एक बड़े सरोवर को देखकर वहां सूर्यवती रानी के | पुत्र ने स्नान किया, स्नान करके श्रीचन्द्र बाहर प्राकर कुड की पाल से मा रहे थे कि दूसरी तरह एक उद्यान दिखाई दिया / उसमें एक तरफ आश्रम था, दूसरी तरफ घोड़े, हाथी और कितने ही स्त्री पुरुषों को देखा। कितनों को आश्चर्यकारी वेष पहने हुए देखकर सोचने लगे कि ये लोग अवधूत, तापस हैं या योगी हैं। सोचने के बजाय वहां | बाकर ही पूछू। माम्रवन में प्रवेश करके, बीच में अद्भुत कान्ति वाले, तरह 2 के वेष धारण किये हुये तापस कुमारों को देखा। चारों तरफ चन्द्रमा के समान देदीप्यमान मोर के पंखों की पादुकायें पड़ी थीं। पास ही में सले पर झूलती हुयी एक कन्या जो कि पुरुष वेष में थी, देखी। सुवर्ण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 19 * के प्राभूषणों से जिसका अंग विभूषित है। जिसका मुख कोमल है एसी दुसरी कन्या को उसके आस पास घूमते देखा। श्रीचन्द्र को आये हुये देखकर तापसकुमार ने कहा, हे सखी ! तेरे सौन्दर्य से आकर्षित यह पुरुष पाया इसका फल फूल देकर आदर करो। सखी ने आदर पूर्वक कहा, 'हे बटुक इस रायण वृक्ष के नीचे और पूछने लगा तुम कौन हो और यह कौन है ? इतने में एक सुन्दर गला गाती हुई आयी, सर्व कलाओं से युक्त चन्द्रकला राजकन्या ने जिसे स्वयं परख कर स्वीकार किया है ऐसे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों / ऐसा सुन कर श्रीचन्द्र पूछने लगे, ये क्या बोलती है ? वह कौन है ? और यह कौनसा स्थान है ? इतने में ही एक श्वेत वस्त्रधारी विधवा वृद्धा ने उस पुरुष वेषधारी कन्या को स्त्री वेश दिया। वृद्ध स्त्री ने बटुक से पूछा, 'हे भद्र ! तुम कहां से आये हो ? बटुक ने कहा, 'मैं कुशस्थल से आया हूँ।' यह सुनकर सबको बहुत मानन्द हुा / उन लोगों ने यह समाचार दूसरों को भी पहुंचा दिया, जिससे दुसरे सारे लोग बटुक के चारों ओर आकर बैठ गये। भ्रान्ति से वाला ने पूछा चन्द्रकला का पति कौन हुआ ? उसका वर्णन करो। श्रीचन्द्र ने कहा वह बाला गाती 2 आयी है वह सत्य है, लक्ष्मीदत्त श्रेष्ठी के पुत्र से शादी हुई है।' कुशल बुद्धि वाले श्रीचन्द्र ने फिर उस वृद्धा से पूछा कि हे माता ! आप यहां कैसे आयी हुयीं हैं मारि वृतान्त कहने योग्य हो तो कहो। .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 2010 2. वृद्ध स्त्री ने कहा, 'हे वत्स !' वसतपुर में वीरसेन राजा था / उसके वीरमती और वीरप्रभा दो रानियां थीं। हम दो बहनें थीं / पहली जयश्री जो प्रतापसिंह राजा की रानी है और दूसरी मैं हूँ। मेरा दुसरा नाम विजयवती है / वीरसेन राजा के सदामति मंत्रि है, वह मेरा चाचो लगता है। वीरप्रभा के नरवर्मा पुत्र हुआ। वह शस्त्र और शास्त्र में प्रवीण हुआ / वह बहुत ही बलवान हुा / बहुत समय पश्चात् चन्द्र के रुप को भी मात करके ऐसी चन्द्रलेखा नाम की मेरे पुत्री हुई / उसकी यह सखियें हैं / बाद में मुझे वीरवर्मा नामका पुत्र हुआ। वह पांच वर्ष का हुआ, उसके बाद राजा को बहुत भयंकर कालज्वर हो गया। वीरसेन ने वीरवर्मा को सदामति की गोद में विठा कर कहा, मेरा राज्य इस कुमार को देना, बाद में राजा की मृत्यु हो गयी / नरवर्मा ने बल पूर्वक राज्य को अपने हाथ में ले हमें वहां से निकाल दिया / . हम लोग अपने पिता के नगर को जा रहे थे तो रास्ते में किसी नगर के उद्यान में ठहरे / सदामति मंत्री ने देखा कि नगर से कोई ज्योतिषी पा रहा है, उसे मान पूर्वक मेरे पास ले आया / उसकी गोदी में चन्द्रलेखा को बिठा कर मैंने सारी हकीकत कही और पूछा कि पुत्री का पति कौन होगा और कब प्रायेगा? कुछ क्षण सोच कर ज्योतिषी ने कहा कि, चन्द्रलेखा का एक महान पति होगा, राजा प्रतापसिंह का पुत्र जो चन्द्रकला से ब्याहा है, वह ही तुम्हारी पुत्री का पति होगा। एक श्लोक लिख कर दिया और कहा कि, 'तुम खादिखन में जाओ, वहां रायणा वृक्ष है जिस पर दुध भराये बस उसी को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 21 10 तुम चन्द्रलेखा का पति मानना श्लोक पत्र लेकर उसका सत्कार कर हम यहां आये हैं। चन्द्रलेखा कभी अपने वेष में कभी पुरुष वेष में सखियों के साथ तरह 2 क्रीड़ा करती हुई रहती है। श्रीचन्द्र ने सोचा मुझे यहां नहीं रहना चाहिये / ऐसा सोचकर ज्योंही खड़े हुये त्योही रायण वृक्ष में से दुध झरने लगा। जिस प्रकार बहत समय पश्चात् पुत्र मिलने पर माता के नेत्रों में से अश्रुधारा बहने लगती है वही हाल उन सब लोगों का हुआ और उन्होंने बड़े प्रानन्द से कहा कि, चन्द्रलेखा को पति प्राप्त हो गया / ' लज्जा से चन्द्रलेखा का सिर झुक गया। माता के आदेश से पति को पुष्पों की माला पहना कर, अनेक प्रकार के फलों से भक्ति की। बाद में श्रीचन्द्र ने अपने नाम की अंगूठी दिखलाई। .. . चन्द्रलेखा के हस्तमिलाप के समय सास ने विष को हरने वाली मणी दी। रानी वीरमती ने अपने पुत्र को श्रीचन्द्र की गोद में बैठा कर कहा कि इस कुमार को भी अपने जैसा उदार, वीरों में शिरोमणी बनाना / सास के वचन को स्वीकार कर प्रतापसिंह राजा के पुत्र ने कहा कि 'हे माता ! उसी प्रकार का होगा, धीरज रखो। भविष्य में जो होगा अच्छा ही होगा। आप मंत्री सहित कुण्डलपुर जाकर सुख से रहो। .. मुझे अभी आगे जाने की चिन्ता है इसलिये मुझे आज्ञा दीजिये। ऐसा कहकर कुन्डलपुर के मन्त्री के नाम पत्र लिखकर सदामती मंत्री . को दिया ! कुछ दिन वहां ठहर कर पहले के ही वेष में प्रागे प्रयाण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 22 10 कर गये / वीरमती पुत्र, मंत्री आदि सहित कुन्डलपुर नगर जाते हुए क्रमशः महेन्द्रपुर नगर में आई। वहां के राजा ने जब सुना तो उन सबको राज सभा में बुलाकर उनसे सारा वृतांत सुना / सुलोचना पौर चन्द्रलेखा दोनों के सम्बन्ध बहनों जैसे हो गये / सब को बहुत मानन्द हुआ। इतने में ही एक भाट कुन्डलपुर नगर की तरफ से होकर आया था, वह श्रीचन्द्र के गुण गाने लगा। 'जिसने राधावेघ में विजय प्राप्त की, तिलकमंजरी ने जिसे परमाला पहनाई, सिंहपुर के राजा की पद्मिनी पुत्री से जिसकी शादी हुई जो प्रतापसिंह गजा का पुत्र है जिसका कुंडलपुर में वास स्थान है इत्यादि तरह 2 के उसने श्लोक बोले / राजा के पुत्र ऐसे श्रीचन्द्र ने आग्रह पूर्वक वीरमती को यहीं रहने का कहलाया परन्तु वे नहीं रहे और कुन्डलपुर के लिये प्रस्थान कर गये। उघर मागे जाते हुए श्रीचन्द्र ने नगर के बाहर तंबू, घोड़े, हाथी, रथ तथा सुन्दर 2 वेष वाले सैनिकों को देखा / वहां दान दिया बाते देख श्रीचन्द्र ने किसी व्यक्ति से पूछा 'ये सब क्या हो रहा है ?' उसने कहा हे बटुक ! यह कपिलपुर नगर है। यहां के राजा का नाम जितशत्रु है उसके प्रीतिमती नाम की पटरानी है और वह रतिरानी की बहन होती है / उनका पुत्र कनकरथ मित्रों के साथ अभी राधावेध का अनुकरण कर रहा है। एक समय गायकों में शिरोमणी वीणारव ने कभी भी नहीं सुना हुआ श्रीचन्द्र राजा का चरित्र सुनाया / यह सुनकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 8 23 * जितशत्रु राजा ने उसे खुश होकर बहुत इनाम देना चाहा परन्तु वोणारव ने कहा कि मेरे हाथ श्रीचन्द्र राजा के दान से बंध गये हैं, जिससे अब मैं दान नहीं ले सकता।' उसके जाने के बाद रतिरानी की पुत्री तिलकमंजरी का जिस प्रकार राधावेव हुआ था ये लोग उसी प्रकार से नाटक कर रहे हैं / पिंगल भाट ने कहा 'लौकिक मिथ्यात्व दो प्रकार के हैं, देवगत और गुरुगत / लोकोत्तर मिथ्यात्व भी देव और गुरु दो प्रकार का है / इस प्रकार चारों प्रकार के मिथ्यात्व का जिसने भी सुव्रत मुनि के मधुर वचनों को सुनकर त्याग किया ऐसे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों / नाटक देखकर कनकवती हर्ष को प्राप्त हुई। श्रीचन्द्र पर मोहित हुई राजपुत्री ने घायमाता से कहा कि यह श्रीचन्द्र की आकृति चित्त को हरने वाली है तो वे साक्षात कैसे अद्भुत महिमा वाले होंगे / इससे श्रीचन्द्र ही मेरे पति हों। उसकी तीन सखिये मत्री की पुत्री प्रेमवती, सार्थवाह की पुत्री धनवती, सेठ पुत्री हेम श्री ने भी श्रीचन्द्र को ही अपना पति धारण कर लिया। धायभाता ने सारा हाल राजा से निवेदित किया जिससे राजा ने मत्री को कुशस्थल भेजा है। पृथ्वी के इन्द्र श्रीचन्द्र ने इन सब बातों को सुनकर सोचा कि मेरे यहां रहने से मुझे यहां के लोग पहचान जायेंगे इस कारण अब मैं नगर को देखते हुए शीन ही आगे के लिये रवाना हो जाऊं। ऐसा विचार कर नगर को देखते हुए वे बहुत दूर निकल गये / / - आगे जाकर यक्ष के मंदिर में एक पुरुष को चिंतातुर बैठा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 24 110 पाया। उसे देखकर श्रीचन्द्र ने पूछा यह कौनसी नगरी है ? तुम्हें क्या चिन्ता है? निश्वास डालकर वह बोला हे मुसाफिर ! यह कान्ति नामक नगरी है। इसमें नरसिंह राजा के चौसठ कला युक्त सुन्दर प्रियंगुमंजरी पुत्री है। उसे प्राप्त करने की मुझे चिन्ता है / मैं कौन हूँ, अब यह सुनो। नैऋत्य दिशा में हेमपुर नगर में है वहां मकरध्वज राजा के मदनपाल नामक पुत्र था। युवावस्था को प्राप्त हुआ वह राजकुमार एक बार गवाक्ष में बैठा हुआ था। उसने रास्ते में जाती हुई एक योगिनी को. देखा और अपने पास बुलाकर पूछने लगा आप कुशल तो हैं ? कहां से आई हैं और कहां जा रही हैं ? कोई अद्भुत घटना हो तो सुनाओ। योगिनी ने कहा 'जरा के आगमन से यौवन नष्ट हो जाता है / दिन प्रतिदिन कान्ति घटती जाती है। इसलिए हे भद्रिक ! कुछ न पूछो बुढ़ापा जब आता है तो यौवन स्वप्न मात्र रह जाता है। प्रति क्षण हानि, बहुत ही हानि हो रही है / जब तक काल राजा का आगमन नहीं होता तभी तक यौवन शोभा देता है। इसलिए हे भद्रिक ! कुशल न पूछ / कोई एक घड़ी और कोई दो पहर खुशी के मानता है तो मूर्ख है। जब तक जीव यमराज को भूला हुआ और उस पर दृष्टि नहीं रखता तब तक ही जीव खुश हैं। बुढ़ापा सवको आकर पकड़ बेता है। जो पूर्ण रुप से सुखी होते हैं वे जन्मते ही नहीं। जो जन्मते हैं .. वो मृत्यु को अवश्य प्राप्त होंगे। हम भी मृत्यु के मुख में बैठे हुए हैं / जब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 25 1 तक यह मुह बन्द नहीं होता तब तक ही हम हैं / जब मृत्यु पानी है तब सुख किस बात का। चार गतियों में चौरासी लाख योनियों में घूमते 2 यहां आए हैं। जो जहां जन्म लेता है वहीं पर मन को वश में करे या करने का प्रयत्न करे तो वो मोक्ष को प्राप्त करता है / जो व्यक्ति प्रात्मा के अन्दर रहे हए गुणों का विचार करना है वह अद्धभुत वस्तु को प्राप्त करता है बह अद्धभूत वस्तु को प्राप्त करता है / लडकपन, यावन, बुढ़ापा आता है बाद में शरीर के अंग प्रत्यंग नाश को प्राप्त होते हैं। . स्वामी सेवक बन जाता है तो उसका स्वामित्व नष्ट हो जाता है। इस प्रकार बाह्य और अंतर की बातें करके, मैं श्री जिनेश्वर परमात्मा की कृपा से कुशल हूँ / मैं कान्तिपुर से आई हूँ और कुशस्थल को जा रही हूं। यह मेरे पास जो चित्र है उसे देखो ऐसा योगिनी ने कहा / चित्र में एक अपूर्व, अद्धभुत रुप को देखकर मदनपाल ने पूछा कि यह किसने अद्धभुत स्त्री का चित्र चित्रण किया है ? यौगिनी ने कहा | कि, “कान्तिपुर के नरसिंह राजा की पुत्री प्रियंगुमंजरी राजकुमारी के चित्र का चित्रण किया गया है / " . प्रियंगुमंजरी गुणधर पाठक के मुख से श्रीचन्द्र के रुप का | वर्णन सुनकर उनपर आसक्त हो गई हैं। उसी का यह चित्रपट वहां | देने के लिए मैं जा रही हैं। मदनपाल ने चित्र को लेने के लिए बहुत मेहनत की परन्तु उसने दिया नहीं और योगिनी जल्दी से निकल गई। मदनपाल कामज्वर से पीड़ित हो गया और दिन-प्रतिदिन उसके शरीर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 26 . की कान्ति नष्ट होने लगी। मित्र ने यह हकीकत राजा को बताई जिससे राजा ने नरसिंह राजा से कन्या की मांगनी की परन्तु नरसिंह राजा ने यह बात स्वीकार नहीं की। मदनपाल से पिता ने कहा धर्य रखो, इस कन्या से भी अधिक रुपवाली कन्या से मैं तुम्हारी शादी करुंगा। वही मैं मदनपाल पिता से छुपकर यहां आया हूँ। मेरा मन प्रियंगुमंजरी के रुप से आकर्षित है। जिस प्रकार केतकी की सुगंध स भ्रमर आकर्षित होता है उसी प्रकार मुझे वहां शान्ति नहीं मिला इस लिए मैं यहां पाया। पहले मैं राजा के बगीचे के आरामगृह में रहा था, तब मैंने मालिन से कहा था कि, हे भद्र ! राजकन्या को मेरा संदेशा कहो कि हेमपुर राजा का पुत्र तुम्हारा चित्र देखकर तुम्हारे पर मोहित हुआ है और तुम्हारे शहर में आया है। मेरा रूप, कला आदि सबका वर्णन राजकुमारी से करना और प्रत्यन्त सुख वाली राजकुमारी मुझ पर अनुराग वाली हो ऐसा प्रयत्न करना इस प्रकार समझा कर मालिन को मैंने बहुत धन देकर भेजा। प्रियंगुमंजरी ने कहा उसको बुद्धि को परीक्षा तो करें। बाद में विचार कर कनेर के पुष्पों के र में से लाल रंग का फूल लेकर कान पर रखकर मालिन को देखते हुए फेंका। बाद में कमल को लेकर वुमम से रंग कर, उसे बड़े प्रेम से देखकर, हृदय पर धारण करके कहा कि, हे मुग्धे ! उसके पास जा और उससे उत्तर ला। मालिन ने सारा वृतांत मुझे सुनाया, परन्तु मैं उसका उत्तर: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 27 10 नहीं दे सका, इसलिये अब मैं क्या करूं? कहां जाऊ? इसकी चिन्ता में हूँ। प्रियंगुमंजरी हमेशा इस कामदेव के मंदिर में आती है। यहां रहने से किसी समय मिलाप हो सकता है, प्ररन्तु प्रतिहारिये मुझे मारकर बाहर निकाल देती हैं। हे सुन्दर ! यह दुख है मुझे। ये सुनकर श्रीचन्द्र मदनपाल के ऊपर दया लाकर सोचने लगे कि गुणंधर गुरु पहले यहां आये थे, अहो ! यह कन्या कितनी बुद्धिमति है। फूल द्वारा अपने भाव प्रदर्शित किये हैं, 'लाल पुष्प से तू स्वयं रक्त है ऐसा मैंने कान से सुना है, परंतु मैं देख भी नहीं सकती और स्थान भी नहीं दे सकती इसलिये तू अपना प्रयत्न छोड़ दे ऐसा दर्शाया है / श्वेत कमल दिखा कर उसने यह दर्शाया है कि विरक्त को मैंने रक्त किया है, मैंने कान से सुनकर हृदय में स्थापित कर लिया है ऐसा बताया है। परन्तु अपने आपको पंडित मानता हआ यह इतना भी नहीं जान सका। श्रीचन्द्र ने कहा अब तू क्या करेगा ? मदनपाल ने कहा, मैंने प्रियंगुमंजरी को देखा है, परन्तु उसने मुझे नहीं देखा। हे मित्र ! मेरा कार्य किस प्रकार सिद्ध होगा? आप परोपकारी लगते हैं इसलिये प्राप वतावें कि मैं क्या करु? इतने में तो शंख ध्वनि सुन कर, इसलिये यहां से चले चलो, मदनपाल ने कहा / दोनों ने उद्यान में से राजकुमारी को सखियों से युक्त कामदेव के मंदिर में प्रवेश करते हुये देखा वहां वे सब मृदंग, वीणा, नृत्य गीत आदि में मस्त हो गई। . कुछ समय बाद वहां एक स्त्री ने जिसके कपड़े धूल से भरे हुए P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 28 4. थे, मंदिर में प्रवेश किया, उसी क्षण नृत्य, संगीत आदि बंद हो गया, क्षण में रोने की आवाज आने लगी और रुदन करती हुई सखिये वाहर भायीं। एक सखी से मदनपाल ने पूछा कि भद्रे ! गीत के स्थान पर रुदन क्यों शुरु होगया ये तो बतायो / सखी ने कहा मुझे समय नहीं है / किसी की तो दाढ़ी जल रही है और कोई दीपक जला रहा है / इतन में दूसरी सखी ने कहा कि हे .बहन जल्दी केले के पत्ते लामो, स्वामिना मूर्तित हो गई हैं। बुद्धिशाली सखी ने कहा कि पहले अपनी स्वामिनी ने कुशस्थल एक सखी को श्रीचन्द्र का अपने ऊपर कितना प्रेम है यह जानने के लिये भेजा था, परन्तु श्रीचन्द्र वहां हैं नहीं जिससे हमारा कार्य सिद्ध नहीं हुआ। उस दुःख से राजकुमारी विलाप करती मूर्छित हो गई है / अब क्या होगा पता नहीं। ऐसा कहकर अन्दर चली गई / बाद में सब लोग नगर में चले गये। - - सूर्यवती के पुत्र श्रीचन्द्र ने विवाह की इच्छा वाले मदनपाल को कहा कि फालतू में तुम अपना राज्य छोड़ घूम रहे हो / अगर इसके बिना तूं नहीं रह सकता है तो जैसे मैं कहूँ वैसा कर, परन्तु तेरे कार्य की सिद्धि घन द्वारा होगी, धन बिना सब निष्फल है / अब किस प्रकार से तेरा कार्य सिद्ध हो सकता है उसे सुन / सखी ने अभी कहा कि कुशस्थल से श्रीचन्द्र देशान्तर गए हुए हैं, तो उसके प्राधार एक प्रपंच करें। तू तो श्रीचन्द्र बन और मैं तेरा सेवक बनता हूं। नगर में जाकर किसी को द्रव्य देकर एक मकान खरीद कर वहां गरीबों को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 29 110. दान देना जिससे तेरी प्रसिद्धि हो जायेगी। ... . IMILIA उसके बाद जो योग्य होगा मैं करूंगा / जिससे राजा को खबर पहुंचेगी कि कुशस्थल से गुप्त रीति से श्रीचन्द्र आए हैं बाद में तो कर्म की शक्ति बलवान है। यह सुनकर तो मदनपाल बहुत ही हर्पित हुआ। इस प्रकार दोनों ने निश्चय किया। ऊपर की मंजिल पर मदनपाल श्रीचन्द्र बन कर रहता है और द्वार पर श्रीचन्द्र जो योग्य समझता है करता है। उसके बाद एक दिन राजा को समाचार मिले कि श्रीचन्द्र यहां आए हए है तव राजा बहुत खुश हुआ। श्रीचन्द्र ने मदनपाल से कहा कि अब तू मुनि की तरह मौन रहना। उसके बाद श्रीचन्द्र ने अपने चातुर्य से राजा कन्या और मंत्रि को खुश किया। राजा ने बहुत ही मुश्किल से उसे शादी के लिये मनवाय शादी में देर नहीं करनी चाहिये / दुसरे ही दिन गोधुलिक समय / लग्न पक्का हुआ / दोनों जगह शादी की तैयारियां होने लगीं। श्रीचन्द्र माये हैं ऐसा जानकर लोगों ने नगर को बहुत सुन्दर ढंग से सजाया / शादी के दिन मदनपाल एक झरोखे में बैठा है उसी समय मार्ग से जाती हुई पनिहारियों की बातचीत उसने सुनी, हे बहन तू आज जल्दी 2 क्यों जा रही है ? जवाब मिला कि हे सखी क्या तू नहीं जानती? प्रियंगुमंजरी और श्रीचन्द्र दोनों गुणधर पाठक से पढ़े हैं। राजकुमारी पद्मिनी के लक्षणों की गोष्ठी करके फिर शादी करेगी, वहां बहुत आनन्द प्रायेगा। यह सुनकर मदनपाल को चिंता हुई। वह श्रीचन्द्र से पूछने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 30 * स्त्री के चार भेद मैं जानता हूँ इसलिये तू लिख कर उन्हें याद कर ले निष्फल हो जायेगा। मदनपाल ने कहा कि अब पढ़ने का टाइम ही लिये बहुत मेहनत की है परन्तु मैं अभागी हूँ। अब मैं बताऊ वसा करो / तुम मेरे से छोटे लगते हो परन्तु रूप में मेरे ही समान हो और अब तुम आभूषण पहनोगे तो बहुत सुन्दर लगोगे इसलिये तुम मेरा वेष पहन कर कन्या से शादी करके मुझे सौंप देना / जो काम तुम्हें भविष्य में करना था वह अभी कर लो / परोपकारी पुरुष याचना का मंग नहीं करते। . श्रीचन्द्र ने कहा अच्छा तुम्हारे कहे अनुसार करता है। बाद में वेष बदल कर मदनपाल अपने रूप में और श्रीचन्द्र अपने वेष में शोभायमान होने लगे। वे दूसरों के वेष से नहीं अपने वेष से शोभ रहे थे / उनके सारे मांगलिक रीति रिवाज राज्य की स्त्रियों ने ही किये। श्रीचन्द्र ने स्वर्ण रत्नों से जड़ित मुकट धारण किया, कानो पर कुडल। व हाथ में अपने नाम की अंगूठी पहनी / देदिप्यमान राजा की भांति वे हाथी पर सवार हुए, ऊपर छत्र व दोनों तरफ चामर डुलने लगे और बाजे बजाने वाले प्रागे चलने लगे। अनेक सैनिकों आदि के साथ वह जुलूस सारे शहर में फिरता हुआ राज्य सभा में पाया / भाट ने श्रीचन्द्र की जय जयकार की और कहा धनवती आदि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 31 1 माठ कन्याओं के साथ विवाह करने वाले श्रीचन्द्र की जय हो / राजा - तारक भाट को बहुत दान दिया। नरसिंह राजा ने श्रीचन्द्र को गोदी में बिठाया व अपनी पुत्री को चरणों के पास बिठाकर दोनों को परिचित करवाया। उसी समय प्रियंगुभंजरी ने कहा 'हे राजाओं के इन्द्र स्त्रियों के भेद लक्षण आदि बतायो / श्री 'श्रीचन्द्र' ने कहा हे भद्रे ! स्त्री के 4 भेद हैं 1 पद्मिनी 2 हस्तिनी 3 चित्रिणी 4 शंखिनी। प्रत्येक के 4-4 भाग होते हैं इस प्रकार 16 भेद हुए। 1 कमल के गंध वाली 2 हाथी के मद समान गंध वाली 3 चित्र विचित्र गंध वाली और 4 मगरमच्छ के गंध वाली होती है। 1 शोभायमान मुंह वाली 2 जिसकी चाल सुन्दर हो / 3 सुन्दर साथल वाली और सुन्दर स्तन वाली होती है / 1 हंस के जसी चाल वाली 2 हथिनी की जैसी चाल वाली 3 हिरणं जैसी चाल वाली 4 गधी की जसी चाल वाली होती है / 1 कोमल सुन्दर.. दांत वाली 2 मोटे दांत वाली 3 छोटे दांत वाली 4 लम्वे दांत. वाली होती है। 1 चिकने, बारीक बालों वाली 2 मोटे बालों वाली 3 छोटे बालों वाली 4 वर छट बालों वाली होती है। 1. विशाल नेत्रों वाली 2. छोटी प्रांखों वाली 3. अणीदार नेत्रों वाली 4 पीले नेत्रों वाली होती है। 1. विशाल स्तन वाली 2. छोटे स्तन वाली 3 ऊंचा स्तन वाली 4. लम्बे स्तन वाली होती है 1. अल्प निद्रा वाली 2. भारी निद्रा वाली 3 थोड़ी निद्रा वाली 4. खूब निद्रा वाली होती है। 1. अल्प काम वासना वाली 2. गाढ़ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ काम वासना वाली 3. चित्रविचित्र काम वासना वाली 4. अतिशय कामवासना वाली होती है। 1. अल्प प्रस्वेद वाली 2. बहुत प्रस्वेद वाली 3. मध्यम प्रस्वेद वाली और 4. अतिशय प्रस्वेद वाली होती है। 1. अल्प क्रोधी 2. अतिशय क्रोधी 3. विचित्र क्रोधी 4. लम्बे क्रोध वाली होती है। 1. पुष्पों का समूह प्रिय होता है 2. मोती प्रिय होत हैं 3. विभूषा प्रिय होती है 4 कलह प्रिय होता है 1. अल्प आहार वाली 2. ज्यादा आहार वाली 3. कम आहार वाली 4. अतिशय माहार वाली होती है / 1. कमल के समान सुन्दर हाथ वाली 2. शंख के समान हाथों वाली 3. मगर के समान हाथों वाली 4. मत्स्म्य के समान हाथों वाली होती है। . . . स्त्रियों के शुभ और अशुभ दो प्रकार के लक्षण होते हैं / पूर्ण चन्द्र के समान मख वाली, बाल सर्य जैसी कान्ति वाली. विशाल मुख वाली और लाल होठ वाली शुभ कन्या कहलाती है / अंकुश, कुन्डल मौर चक्र जिसके हाथ में हो वो पुत्र को जन्म देती है व उसका पति राजा बनता है / जिसके हाथ की हथेली पर तोरन होता है, व दासी के कुल में जन्मी हो तो भी राजा की पत्नी बनती है। जिसके हाथ में मंदिर, कमल, चक्र, तौरन, छत्र और पूर्ण कुभ होता है व राजपत्लि बनती है और उसके बहुत पुत्र जन्मते हैं। जो स्त्री कोमल अंग वाली; हिरण के समान नैत्रों वाली, पतली गर्दन वाली और पेट वाली, जिसकी चाल हंस की तरह हो वह राज पत्नि बनती है। जिस स्त्री के छोटे बाल जो गोल मुख वाली और / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 33 250 दक्षिणावर्त वाली हो तो वह प्रेम की भाजन बनती है / जिसके अंगुलियां लवी और बाल लंबे हों वह दीर्घ आयुष्य वाली होती है और धन्ध धान्य स वृद्धि को पाती है। जो स्त्री कृष्ण के जैसी श्याम, चम्पक जैसी प्रभावाली, गौरी ओर निग्ध अग वानी हो वह भी सुख को प्राप्त होती है। नील कमल के द न जैसी कांति वाली, पीनी कांति वाली हो तो वह समस्त संग प्रत्यंग पर अलंकार धाररग करेगी। जिस स्मो के ललाट पर स्वस्तिक हो वह हजार जहाजों के आधिपति का वरण करती है। जिस स्त्री के दांयें तरफ गले पर, स्तन पर लांछन तिल या मसा अगर हो तो वह पहले पुत्र को जन्म देती है / जिस स्त्री के प्रस्वेद, रोन, निदा और भोजन अल्प हों तो वह उत्तम लक्षणों वाली होती है। जिस स्त्री की साथल हथिनी की सूढ जैसी भरावदार हो, योनि पीपल के पत्ते जैसी और रोम बिना की हो, कमर, ललाट और पेट कछुओं जैसा उन्नत हो और मणिबंध गूढ़ हो तो वह विपुल लक्ष्मी को प्राप्त करती है। 'जो स्त्री की जंघा रोम वाली हो, स्तन और हाथ पर अगर रोम हों तो वह तत्काल विधवा हो जाती है। जिस स्त्री का साथल मोटा हो, पैर चपटे हो वह विधवा और दारिद्रय के दुख को प्राप्त होती है। जिसके पीछे प्रावर्त हो वह पति को मारती है, जिसके हृदय पर प्रांवर्त हो वह पतिव्रता होती है, जिसके कमर पर प्रावर्त हो वह स्वच्छन्दी होती है। जिसकी तीनों ललाट, पेट और यौनि लम्बी हो ता वह ससुर, देवर और पति का नाश करती है। जिसकी जीभ काली P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #. 341 हो, होठ लम्बे हों. नेत्र पीने दो आवाज मोटी (घोघरा) हो, अतिश्वेत, अतिश्याम यह 6 प्रकार की स्त्रिये त्यागने योग्य हैं / जिसके गालों पर खड्डे पड़ते हों वह पति के घर स्थिर हो कर नहीं रहती और स्वच्छंद प्राचार वाली होती है। पैर के अंगूठे की पास वाली पहली अंगूली अंगूठे से बड़ी हो तो वह अच्छी नहीं होती। दूसरी अंगूली यानि बीच की अंगूली अंगूठे से बड़ी हो तो वह स्त्रा दुर्भागा होगी और पति को छोड़ देगी। पैर की तीसरी अंगुली ऊंची न हो और जमीन से स्पर्श न करती हो तो वह कुमारी अवस्था में जार के साथ खेलती है। जिसकी सबसे छोटी अंगुली जमीन से स्पर्श न कर तो वह यौवन वय में जार के साथ क्रीड़ा करे इस में कोई संशय नहीं / जैसा मुख वैसा ही गुप्त भाग, जैसी चक्षु हो वैसी कमर हो, जसा हाथ हो वैसे ही पैर हों, जैसी भुजायें हों वैसी जंघा हो, जिसको कौए के मावाज जैसी वाणी हो, कौए जैसी जंघा और पीठ रोम वाला हा, मोटे दांत वाली हो वह दस महीने में पति का नाश करती है / जिसकी अंगुलियों में छेद पड़ते हों, जिसकी अंगुलिये विषम हों वह वेर को बढाने वाली होती है ऐसा सामुद्रिक कहते हैं। इसमें शंका नहीं है अति दीर्घ, प्रति छोटी, अति मोटी, अति पतली, अति श्याम और अति काली योनि वाली स्त्री दुर्भागा कहलाती है। विवाद करने वाली, अस्थिर आश पर बैठने वाली शूरातन वाली, दूसरों के अनुकूल पौर दूसरों की प्राश्रय से खिली हुई, प्रति आक्रोश को करने वाली, पौर शून्य घर में बैठने वाली, जिसकी दस पुत्र पुत्री हो भी तूं उस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 35 * भार्या को छोड़ दे। गाल में जिसके खड्ड पड़ते हों, गधे जैसी आवाज वाली, मोटी जघा वाली, खड़े बालों वाली, लम्बे होठ वाली, मोटे मुख वाली, अलग 2 दांतों वाली, काले दांत, होठ और जीभ वाली, सुके हुये अंगों वाली, विषम भृकुटि और स्तन वाली, नाक, मुह चपटा हो तो वह स्त्री त्यागने योग्य है / ऐसी स्त्री सुख से रहित और भ्रष्ट शाल वाली होती है। कछुए जैसी पीठ वाली, हाथी जैसे स्कन्ध वाली, कमल के पत्र जैसे पुष्ट साथल वाली, पुष्ट गाल वाली, छोटे और एक समान दांतों वाली, अच्छी तरह से गुप्त, अति उष्ण और गोलाकार वाली, इस प्रकार की 6 योनियें मच्छी मानी गयी हैं / दक्षिणवर्त्त नाभि, स्निग्ध अंग वाली, सुन्दर भृकुटि खुली कमर वाली और खुले जधन, अच्छे सुन्दर बालों वाल कच्छुए जैसी पीठ वाली, ठंडी, दांत जिसके एक समान है, जिसके | के भाग खुले हैं, सुन्दर गोल कमल जैसे नेत्र वाली सुव्रता, सारे ही गुर से युक्त ऐसी स्त्री विवाह के योग्य है। इस प्रकार बहुत समय तक श्रीचन्द्र ने प्रियंगुमंजरी के साथ वार्तालाप करने के पश्चात् प्रियंगुमंजरी ने श्रीचन्द्र के कंठ में वरमाला पहनाई। बाद में मंडप के द्वार में पांखण आदि सारी विधि के बाद श्रीचन्द्र राज प्रांगन में आए वहां सारी क्रिया होने के बाद कन्या से युक्त हरे बांस की बनी हुई बड़ी चोरी में आए / अग्नि के चारों तरफ फेरी फिरते, चौथे मंगल फेरे में नरसिंह राजा ने जमाई को चतुरंग सेना मादि सौंपी और कहा यह सब तुम्हारे साथ भेजूंगा। श्रीचन्द्र प्रियंगु P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 36 9. मंजरी से रक्त श्रष्ठ वाहन में बैठ कर अपने महल की तरफ गए / रास्ते में स्थान 2 पर लोगों के मुख से अद्धभुत वाणी सुनते हुए कि 'रूप, विद्या, कुल, चतुर बुद्धि, अनुत्तर कांति, मुख्य गुणों और रूप में अनुत्तर, जिस प्रकार इन्द्र और इन्द्राणी का योग, चन्द्र और रोहिणी का योग, सूर्य और रहनादेवी का योग हुमा वैसा ही विधि ने (प्रकृति) यह योग बनाया है। श्रीचन्द्र ने अपने महल में प्रवेश किया / मंगल पूर्वक सव वस्तुओं को उचित स्थान पर रखकर यथा योग्य दान देकर * वास गृह में पाए / हंसते हुए मुख वालो प्रियं गुमंजरी सखियों से युक्त पलंग पर बैठे हुए पति के पास बैठकर काव्य गोष्ठी करने लगी। इतने में मदनपाल ने भू संज्ञा से "अपने वचन को याद कर" ऐसा संकेत किया श्रीचन्द्र शंका के बहाने बाहर निकने तब प्रियंगुमंजरी पानी लेके इनके पीछे गई। तब श्रीचन्द्र ने कहा तुम यहीं रहो वहाँ बहुत पानी है। ऐसा कह कर नीचे आकर ससुर के पास से प्राप्त की हुई सब वस्तुएं मदनपाल को देकर और अपने कुन्डल नाम की अंगुठी और सपुर की अंगुठी लेकर अपना वेश ग्रहण करके कहा कि हे मदनपाल ! तेरे मन को संतोष होगया ? अब मैं जाता हूं। मदनपाल ने कहा कि तुमने बहुत ही सुन्दर किया अब तुम्हें जैसा सुन्दर लगे वैसा करो / प्रानंद से प्रांख में अंजन डाल कर श्रीचन्द्र की वेशभूषा को पहन कर मदनपाल जिसके चेहरे पर कोई तेज नहीं है, नंदे हाथ पैर वाला वास गृह में जाकर बैठ गया। उसको इस प्रकार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #. 3710 का देखकर प्रियंगुमंजरी उसी क्षण बाहर निकली और सखी से कहने लगी कि "पति का वेश लेकर कोई और व्यक्ति अाया है'। सखी ने कहा यहां ऐसा कौन है जिसने तेरे पति का वेश धारण किया है / तू व्यामूढ हो गई है / राजकुमारी ने कहा हे सखी ! अगर तू नहीं मानती तो तू स्वयं जाकर उछ पहले के प्रेम वाक्यों और कथा वार्तालाप अब वह किस प्रकार कर रहा है और उसे देख / सखी ने उसी तरह किया तो वह पहले की बजाय उल्टा ही बोला। उससे सखी ने कहा कि ये श्रीचन्द्र नहीं है परन्तु वेष तो उन्हीं का पहन कर कोई और ही आया है / प्रियंगुमंजरी ने कहा तू द्वारपाल से पूछ / सखी ने जब द्वारपाल से पूछा तो द्वारपाल ने कहा कि मैंने तो किसी दूसरे को आते नहीं देखा है। बाद में सखियों को वहां छोड़कर प्रियंगुमंजरी अपनी मा के पास गई। माता ने पूछा तुम इस समय स्वयं कैसे आई हो ? कुशल तो है ? दुख से भरी हुई कन्या ने जो घटना घटित हुई वे सारी कह सुनाई / रानी ने सारी बातें राजा से कही / राजा व्याकुल हो उठा ये कैसा षड़यंत्र है ? प्रातःकाल होते ही मदनपाल को बुला भेजा, सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करके और दूसरों के कहने से यह विश्वास हो गया कि ये श्रीचन्द्र नहीं है। . राजा ने पूछा हे वत्स ! वह अंगूठी कुन्डल आदि कहां हैं ? मदनपाल ने दूसरे दिखा दिये / राजा सोचने लगा इस समय कैसी मजीब घटना घटी है। पुनः राजा ने मदनपाल से पद्मिनी आदि स्त्रियों के गुण पूछे / परन्तु मदनपाल तो जानता ही नहीं था इसलिये P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 38 . चुप रहा / इससे राजा ने पूछा तू कौन है सत्य क्यों नहीं कहता / तो भी मदनपाल मौन रहा तब राजा ने कहा कि इसको तो चाबुक की फटकारों की सजा होनी चाहिये / सजा से घबराकर वह बोला में मदनपाल हूँ और अपना चरित्र कह सुनाया और कहने लगा यह बुद्धि बटुक की है उसने मेरे ही कहने से शादी भी की जिससे उससे द्वेष करना योग्य नहीं। उस उपकारी के उपकार का बदला किस प्रकार चुका सकूगा। वह सब कुछ मुझे दे गया। वह यहां है या कहीं और इसका मुझे कुछ पता नहीं है। वह श्रीचन्द्र है या कोई अोर ये भी मैं नहीं जानता। तब राजा ने और लोगों ने कहा कि बटुक ही श्रीचन्द्र थे। तारक भाट ने कहा कि वे श्रीचन्द्र ही थे / इसमें कोई भी संशय नहीं है उनको बहुत खोज करवाई लेकिन श्रीचन्द्र का कोई पता नहीं लगा / / / विलाप करती पुत्री को राजा ने कहा कि तू रुदन न कर, तेरा पति तुझे मिलेगा परन्तु क्या तू उसे पहचान सकेगो ? प्रियंगुमंजरी ने कहा मेरे बायें अंग फड़कने पर मैं शुभ शकुन से स्वयं जान लूंगी। अब तक मेरे पति मुझे नहीं मिलते उन्होंने मुझे अपनी छोटी अंगुली की पंगूठी दी है मैं उसी की प्रादर से पूजा करूंगी। मदनपाल से सब पाभूषण हाथी आदि सर्व वस्तुएं मंत्री ने राजा के कहने से अपने पधिकार में रख ली। रानीजी की दी हुई अंगूठी उसमें नहीं थी, मदनपाल से उसके लिये पूछा गया तब उसने उत्तर दिया वह तो बटुक मे गया है। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 36 * राजा कहने लगे ग्रहो ! देखो उसका परोपकारीपन, धर्य, मति और बुद्धि ! यहां जाना जाता है कि कन्या कितनी भाग्यवान है / राजा ने बहुत सा धन देकर मदनपाल को मुक्त किया / राजा ने चारों तरफ खोज करवाई लेकिन श्रीचन्द्र का कहीं पता नहीं लगा। तब राजा ने कहा किसी शुभ दिन मंत्रियों को श्रीचन्द्र को बुलाने के लिये भेजेगे। चन्द्र के समान गोल मुख वाले श्रीचन्द्र क्षत्रिय के वेष में चलते। फिरते एक बहुत बड़े जंगल में पहुंचे / अति तृषा लगने से ऊंची बगह चढ़कर जल की खोज करने लगे, इतने में कुछ दूर सूर्य की कान्ति का भी तिरस्कार करता हो ऐसी कान्ति का एक पुंज देखा / वहां पास में जाकर देखा तो वह चन्द्रहास खडग है ऐसा जानकर सोचने लगे कि यह खडग किसका होगा ? पृथ्वी पर रहे हुए पुरुष का है या किसी प्राकाश में विचरण करते हुए विद्यावर का है? परन्तु इसका स्वामी भी यहां दिखाई नहीं देता, शायद कोई यहां भूल गया होगा। इस प्रकार सोचते हुए बुद्धिशाली श्रीचन्द्र ने कल्याण के लिये उसे ग्रहण किया। उस खडग की धार की परीक्षा के लिये पास ही जो झाड़ी.. पी उस पर उन्होंने वार किया, क्षणवार में उसके दो टुकडे हो गये। पौर उसके मध्य में रहे हुए पुरुष के भी दो टुकडे हो गये / ये देखकर श्रीचन्द्र बोले हा...हा...अहो मेरी प्रज्ञानता और मूढ़पने से मैंने बहुत बड़ा पाप किया है जिससे अब तो मुझे नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा। अब मेरा क्या होगा। ऐसे स्वनिन्दा करते हुए वह पुरुष कुछ P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ होश में था उसके हाथ में खडग देकर कहने लगे मुझे मार डालो में अपगधी हूँ। बोलने में अशक ऐसे उस पुरुष ने श्रीचन्द्र को खडम मर्पित कर ऐसा संकेत किया कि यहां अगर जल है तो मुझे पिलादो / जल पिलाकर श्रीचन्द्र बार 2 उससे क्षमा याचना करने लगे। थोड़ी ही देर में वह पुरुष मृत्यु को प्राप्त हुआ। कुछ क्षण वहां ठहर कर दुखिन हृदय वाले श्रीचन्द्र जलपान किये बिना खडग सहित वहाँ से रवाना हो गये / उसी रात्रि को किसी वन में पहुंचे / वहां एक वृक्ष की डाल पर दर्भ का विस्तर बिछा हुआ देख वह सोचने लगे कि इसके कार कोई मुसाफिर सोया होगा। तो भी उसे उठाकर चारों त·फ देखने लगे / उसी समय उनकी नजर एक खोसल पर पड़ी जिसे लकड से बंध किया हुआ था उसे आगे खिसका कर वीर पुरुष ने उसमें प्रवेश किया / गुफा के मुंह पर कुछ क्षण ठहर कर वहां जो बड़ी शिला यो उसे उठाया तो क्या देखते हैं कि नीचे की तरफ रास्ता जा रहा है। उस रास्ते से नीचे उतरे तो वहां पाताल महल देखा। रल के दीपकों से भी तेजस्वी दो मंजिल महल को देखकर पहले तो नीचे वाली मंजिल का निरीक्षण किया फिर ऊपर वाली मंजिल पर गये। वहां मणिनों से जड़ित सिंहासन था, उस पर बैठ कर श्रीचन्द्र ने उसे सार्थक किया। बाद में कुतुहल वश सामने एक कमरा था उसे खोला तो देखते क्या हैं वहां कमरे में रत्नों के पलंग पर एक बंदरी बैठी है। बंदरी पहले तो श्रीचन्द्र के पर पड़ी, बाद वस्त्र के किनारे को पकड़ कर पलंग पर बिठाया। श्रीचन्द्र कहने लगे तू P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ वेष्टा से तो मनुष्य प्रतीत होती है परन्त दिखने में बंदरी इसका क्या कारण है मैं जानना चाहता हूँ / . . . . . . . . रुदन करती बंदरी ने दीवार में एक आला था वह बताया और बार बार अपने नेत्र दिखाने लगी। उसके इशारे से उठ कर उस तरफ गये वहां अंजन से भरी हुयी दो डिबियें देखी, एक श्याम रंग की थीं दूसरी सफेद बंदरी के संकेत से, काले रंग का मंजन श्रीचन्द्र ने उसके नेत्रों में डाला / उसके अद्भुत प्रभाव से बंदरी दिव्य वेश तथा अलंकार पहनी हुई कन्या के रुप में बदल गई। इस कौतुक को देखकर श्रीचन्द्र बोले 'हे भद्रे तू कौन हैं ? यह स्थान कौनसा है और तुझे बंदरी किसने - बनाया है। . . ! .. . / .. . हर्ष और लज्जा युक्त कन्या ने कहा, 'हे नाथ ! हेमपुर में बाकरध्वज राजा के मदनावली रानी है उनकी पुत्री मैं मदनसुन्दरी हूँ। मैं मदनपाल की छोटी बहिन, माता पिता को प्रिय ऐसी मैं अनुक्रम से योवनावस्था को प्राप्त हुयी / मैं पुरुष के 3.2 लक्षणों को जानती हूँ। / मैने प्रतिज्ञा की कि मैं बत्तीस लक्षणों से युक्त मनुष्य से शादी करु गी। एक दिन राजसभा में एक याचक ने प्रतापसिंह के पुत्र के गुण-गान गाये को 'दान रुपी पंखे से उत्पन्न हुन्ना श्रीचन्द्र का यश रुपी पवन, नये अर्थी रुपी रज को सन्मुख लाता है। राजा ने उसका सन्मान कर उसके साथ विवाह की मंत्रणा की। . . !- 14/ .. .. . एक दिन मैं सखियों सहित उद्यान में क्रीड़ा के लिये गुई, वहां पुष्पों के क्रीडा गृह में से किसी विद्याधर ने मुझे उठा लिया, परन्तु P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 4. 42 90 स्वस्त्रो के भय स मुझे इस महल में रखा है। प्राज पाचवां दिन! मैं रुदन करती थी जिससे वह बोला कि रुदन क्या करती है ? में वताठय पर्वत पर रहने वाला रत्नचूड़ नामक विद्याधर है। अभी हमारा गोत्र के ही एक राजा ने मेरा मरिणभषण नगर अपने कब्जे में कर लिया है जिसमे मैं अपने परिवार सहित बाहिर रहता हूं। एक दिन पृथ्वी पर घूमते हुये मैं कुशस्थन गया। वहां उद्यान में अश्वों, रथा मोर हाथियों से युक्त विशाल सेना को देखा। ___वहां एक सुवर्ण के पलंग पर पुष्पों से क्रीड़ा करती हुयी, सखियों से युक्त, सुसराल से पिता के घर जाती हुई पद्मिनी को देख कर मुझे अतिशय प्रेम उत्पन्न हुआ। मनोहर सुभंग अंग वाली उसको हरण करने के लिये एक दिन मैं वहां अदृश्य पण में रहा। मैंने अपने दो रुप / करने का यत्न किया। परन्तु पद्मिनी पति से रक्षित थी और स्वशान / की रक्षा वाली थी, जिस कारण मेरे दो रुप नहीं हुये / बाद में उसा के समान रुप वाली स्त्री की मैं खोज में था। पृथ्वी पर निरीक्षण ! करते हुये मिली है अब मैं तुझ से शादी करुंगा। ऐसा कह कर सफेद मंजन डाल कर मुझे बंदरी बना दिया, तीसरे दिन वापिस माकर श्याम भजन डाल कर सुन्दरी बनाकर कहने लगा, हे सुन्दरी लह ग्रहण करो, मैं लग्न देखकर पाया हूँ। 'गुरुवार के मध्यान्ह समय शुभ लग्न है / ये सारी सामग्री दूं रख, में विद्या साधने जाता है बुधवार की रात को या गुरुवार प्रातकाल में में बाउंगा। मैंने कहा कि, 'हे विद्याधर ! मूर्ख है ? या जर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ है ? तू तो पिता के समान है, तो तू मुझ से किस तरह शादी करेगा ? वह हंस कर मुझे बदरी बना गया है। आज बुधवार की रात्रि है आप कौन हैं ? हे साहसिक शिरोमणी आप यहां किस तरह आये हो ? यहां से मुझे निकाल कर उस दुष्ट के पंजे में से निकाल कर मेरा पदार करें। चन्द्रकला के पति श्रीचन्द्र सोचने लगे, 'कल जो व्यक्ति मेरे द्वारा मारा गया था, वही रत्नचूड होगा।' ऐसा सोचकर निगर्वी राजकुमार ने कहा कि, 'मैं मुसाफिर हूं, दरिद्रता के कारण कुशस्थल को धन प्राप्त करने की इच्छा से घूमता हा जा रहा था, इस अटवी में वृक्ष पर सोने के लिये चढ़ा, वहां खोखल का मुह अन्दर की ओर जाते हुये देख मैं उस + प्रदर प्रवेश कर गया यहां मैं पाताल महल को देख कर उस पर चढ़ पाया यहां तुम्हें बंदरी पन में देखा। अब हे कृश पेट वाली / तूं दुःख क्यों सहन करती है ? तू कुमारी है तो उस विद्याधर के साथ विवाह करने से विद्याधरी बनेगी, उसमें तुझे बुरा क्या लगता है ? 'हे नाथ ! आप मेरे भाग्य से आये हैं, जिससे आज मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई है। प्राप संपूर्ण लक्षणों से महान हो। कहा है कि, 'पांच लम्वे, चार छोटे, पांच सूक्ष्म, सात लाल, तीन ऊचे, तीन चौडे, तीन गहरे, और 2 श्याम ये पुरुष के 32 लक्षण कहे गये हैं। दो हाय,दोनेत्र, मंगुली, जीभ और नाक ये पांच लम्बी अच्छी हैं / वांसो, कंठ, पुरुष. चिन्ह और जंघा ये चार छोटी अच्छी हैं। दांत, चमड़ी, नख और केश ये चार सूक्ष्म अच्छे हैं। पेट, कन्धे, मस्तक और पैर चार उन्नत शुभ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *444. है। हाथ और पैर के तलुवे, तालव, नेत्रों के कोने, जीभ, नख और होठ ये सात लाल अच्छे हैं / ललाट, छाती और मुख ये तीन चौडे अच्छे हैं / नाभि स्वर और सत्व ये तीन गहरे अच्छे हैं / आंख की कीकी और बाल ये दोनों काले शुभ माने गये हैं। इस प्रकार बत्तीस लक्षणों से माप युक्त हैं यह निश्चित है। _ 'मुख को पाघा शरीर कहा गया है अथवा मुख सारा शरीर भी कहलाता है। मुख में नाक श्रेष्ठ है, उससे श्रेष्ठ चक्षु हैं, : उनसे कान्ति श्रेष्ठ है. उससे श्रेष्ठ स्नेह है, उससे भी श्रेष्ठ स्वर है और उनसे श्रेष्ठ सत्व है / सत्व में सब वस्तुओं रही हुयी हैं।' चन्द्रहास खड्ग किसी साधारण हाथ में नहीं होता। आप मेरे प्राण हैं / मैंने तो आपको ही वरण किया है, मेरे जीवन आप हो / स्वामी आप अकेले हो। प्रभात होते। ही वह दुष्ट.आयेगा, उससे पहले ही हम कहीं निकल चलें जिससे वह हमें देख नहीं सके / फिर माज दोपहर को इस लग्न सामग्री से हे प्रभु! / गांधर्व विवाह से आप मुझे स्वीकार करो। .. - श्रीचन्द्र ने कहा 'हे भीरु ! तू सुख से यहां रह / डरो नहीं। वह भायेगा तब मैं उसे देख लूगा वह किस तरह का है / परन्तु यहाँ / दोपहर के समय का पता कैसे चलेगा ?" मदनसुन्दरी ने कहा 'हे देव ! इस गुफा के नीचे विशाल बड़ का वृक्ष है, उसके नजदीक एक खोखल के छोटे द्वार में से दिन और रात्रि को 'मध्ये भाग दिखाई देता है। उसके बाद प्रातःकाल में मदनसुन्दरी सहित श्रीचन्द्र ने पारणा किया / मध्यान्ह समय में शुभ लग्न में दोनों ने गांधर्व विधि से विवाह किया। मदनसुन्दरी ने कहा हे स्वामिन !. वह विद्याधर क्यों नहीं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 45 4 प्राया ? तब श्रीचन्द्र ने जो घटना घटी थी वह यथास्थित कह सुनाई। खराब मन्त्री से राजा पीड़ित होता है, फल अवधि पर पकता है ताप लम्बे अरसे में टीक होता है और पापी पाप से पीड़ित होता है / उस दिन वहीं रहकर पत्नी सहित सारभूत रत्न और अंजन के दोनों कुप्पों को लेकर जिस रास्ते से. आये थे उसी रास्ते से बाहर निकल कर शिला से गुफा के द्वार को बन्द कर पृथ्वी में बहुत सा धन गाड़ कर जिसके हाथ में चन्द्रहास खड्ग उल्लसित है ऐसे श्रीचन्द्र सिंह की तरह अटवी को पार कर एक गांव के नजदीक पाये / सरोवर की पाल पर रुक कर उन्होंने कहा हे प्रिया ! यहां उपवन में ठहर कर रसोई बनाकर भोजन करते हैं। मदनसुन्दरी ने कहा 'पाप सामग्री ले आइये / में खाना बनाऊगी। सारी सामग्री माली से लेकर मदनसुन्दरी ने प्रति घी वाले घेवर, पूरी प्रादि वस्तुयें बनाई / प्रतापसिंह के पुत्र ने स्नान करके आभूषणों से भूषित होकर उत्तम तीर्थ की तरफ मुह करके देववदन की। तब अंगूठी पर. नाम देखकर मदनसुन्दरी को पति का नाम मालून हुप्रा / पहले भाट स सुना था कि 'कुशस्थल राजा के पुत्र रूप, स्फूर्ति बल और कला से युक्त श्रीचन्द्र हैं। वही ये श्रीचन्द्र हैं ऐसा जानकर अति आनन्दित होती हुई उनके प्रौदार्य आदि गुणों से अति हर्षित हुई राजकुमारी ने कहा 'हे विभो ! भोजन के लिये पधारो। ..... श्रीचन्द्र ने कहा कि 'हे भद्रे / आज प्रिया के हाथ से बना हुआ भोजन पहली बार तैयार हुआ है इसलिये मुनि महाराज को बहराकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * * फिर भोजन करते हैं / वे सरोवर की पाल पर ज्यों ही पाते हैं तो क्या देखते हैं कि दो मुनि बड़ी शान्त मुद्रा वाले उस तरफ ही मारहे पति हर्ष से दोनों ने घी और शक्कर से युक्त घेवर नादि बहाये / माद में बहुत लोगों को साथ लेकर भोजन किया। बाद में पत्नी के साथ उनके पास जाकर उन्हें नमस्कार कर वहां बैठे। वच्छ मुनि श्री ने धर्म लाभ पूर्वक कहा कि 'चित्त, वित्त और सुपात्र का योग, हे भद्र ! बहुत दुर्लभ है। कहा है कि 'समये सुपात्र दान और सम्यक्त्व से विशुद्ध ऐसा बोधि लाभ और अन्त समय में समाधि मरण अभव्य जीव नहीं प्राप्त कर सकता। उत्तम पात्र साधु पाध्वी, मध्यम पात्र श्रावक श्राविका और जघन्य पात्र अविरति सम्यग दृष्टि जीव होते हैं। इस प्रकार से देशना सुनकर श्रीचन्द्र ने विनती की कि 'हे मुनि श्रेष्ठ पापी ऐसे मेरे से अज्ञानतावश उत्तम विद्याधर मारा गया है, उसका मुझे प्रायश्चित दो। वह पाप शल्य की तरह मुझे मुनिश्री ने कहा कि 'हे पुण्यात्मा ! तेरी पाप भीरुता भव्य है, पश्चाताप और दान से तेरी शुद्धि हो गई है। तो भी इस विधि से मरिहंत भगवान प्रादि को नमस्कार करके, नमस्कार मंत्र का जाप करो। संयोग प्राप्त होने पर अरिहंत भगवान का मन्दिर बनवा देना / सिद्धान्त में इस प्रकार कहा है तो उसे सुनो। महाप्रारम्भ, महा. परिग्रह, मांस का आहार करने और पंचेन्द्रिय के वष से जीव नरक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 47 10 को आयुष्य बांधता है। श्री गौतम स्वामी ने पूछा हे वीर ! किस प्रकार जीव शुभ और दीर्घ आयुष्य को प्राप्त होता है ? भगवान श्री वर्षमान स्वामी ने कहा 'हे गौतम ! जीव हिंसा न करे, मृषावाद का सेवन न करे, 27 गुणों से युक्त साधुनों को वन्दन करे और दूसरी रोति से मन को प्रिय ऐसा आहार पानी, खादिम और स्वादिम बहराये। इस प्रकार करने से सचमुच जीव शुभ दीर्घ आयुष्य को बांधता है। किये हुए कर्म का क्षय पश्चाताप से या तपश्चर्या से हो सकता है। कर्म को नाश कर देने से ही शान्ति प्राप्त होती है / 'तुम्हारी छात्राकार की रेखा से, तुम्हारे ललाट और लक्षणों से तुम भविष्य में महान राजा होने वाले हो ऐसा प्रतीत होता है / इसलिये तुम स्थिर रीति से सम्यक्त्व की प्राराधना करो जिस तरह गिरी में मेरु, देवों में इन्द्र, ग्रहों में चन्द्र, देव में श्री जिनेश्वर देव हैं वैसे ही कर्म में मुख्य सम्यक्त्व हैं। जीव ने प्रायः अनंत मन्दिर तथा जिन प्रतिमाएं भरायीं। परन्तु ये सब भाव बिना से करवाई हुई हैं जिससे दर्शन शुद्धि (शुद्ध श्रद्धा) की एक अंश भर प्राप्ति नहीं हुई। जो भाग्यशाली सम्यक्त्व को अन्तमहत में भी एक बार स्पर्श करे तो वह जीव संसार में ज्यादा से ज्यादा अचं पुद्गल परावतं ही संसार में रहता है। जो दर्शन से भ्रष्ट है वह भ्रष्ट ही कहलाता है उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। चारित्र रहित हो तो उसे तो सिद्ध गति प्राप्त हो सकती है परन्तु दर्शन (सम्यक्त्व) बिना जीव की मुक्ति नहीं होती। _ 'सम्यक्त्व परम देव है, सम्यस्त्व परम गुरु है, सम्यक्त्व परम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *4* मिंत्र है, सम्यक्त्व परम पद है, सम्यक्त्व परम ध्यान है, सम्यक्त्व श्रेष्ठ सारथी है, सम्यक्त्व श्रेष्ठ बन्धु है, सम्यक्त्व की मती भूषण है, सम्यक्त्व परम दान है, सम्यक्त्व परम शील है, सम्यक्त्व श्रेष्ठ भावना है ! चिंतामणी, कल्पतरु, निधि, कामधेनु, नरेन्द्र या इन्द्र पण ये सब इहलौकिक फल देने वाली वस्तुए किसी भी उपाय से इस भव में प्राप्त हो सकती हैं परन्तु सम्यक्त्व प्राप्त करना दुष्कर है / उसे प्राप्त कर जो उसे खो देता है वह अनन्त काल तक संसार में भवभ्रमण करता है ! इसलिये सम्यग्दर्शन रूपी रत्न की हमेशा रक्षण करना चाहिये / ___ 'अगर शीलव्रत का सुन्दर नववाडों से रक्षण होता हो तो वह अच्छी तरह पाला जा सकता है। सागर के बीच नाव में छोटा सा छेद हो जाय तो वह चल नहीं सकती उसी प्रकार क्रियारूपी जीव सम्यक्त्व बिना भव समुद्र से पार नहीं हो सकता / जिस प्रकार महावड़ के वृक्ष का सिर्फ मूल ही उखाड़ा जाय तो भी सारा वृक्ष नाश को प्राप्त होता है उसी प्रकार सम्यक्त्व रूपी मूल अगर नष्ट हो जाय तो शेष चारित्र प्रादि तुरन्त ही नाश को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार स्वामी के मर जाने से या पकड़े जाने से चतुरंगी सेना भाग छूटती है उसी प्रकार सम्यक्त्व के नष्ट होने पर दान, शील, तप और भाव रूप धर्म नाश को प्राप्त होते हैं। ... ' / जिस प्रकार कार्तिक मास के जाने से कमल कान्ति रहित हो विनाश को प्राप्त होता है उसी प्रकार सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर तो क्रिया फल बिना की होकर धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 25 46* सुन्दर महल की अगर नींव ना हो जाय तो वह विशाल महल भी तुरन्त नष्ट हो जाता है उसी प्रकार दर्शन के जाने के बाद सब तत्व नाश को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार सारथी विना का रथ, रण मैदान में शस्त्र बिना का पुरुष और ईधन विना की अग्नि नाश को प्राप्त होती है सम्यक्त्व बिना के जीव की क्रिया धार पर लोपने जैसी है / अनाज प्राप्त करने के लिये फूतरों को कूटने जैसा है / सम्यक्त्व विना बाह्य क्रिया करने वाला अंधेरे में नाचना ऐमा करता है। जिस प्रकार मरे हुए देह का पोषण करना व्यर्थ है उसी प्रकार सम्यस्व बिना सब अनुष्ठान व्यर्थ हैं। . : सम्यवस्व प्राप्त होने के पश्चात आत्मा के नरक और तिर्य च गति के द्वार बन्द हो जाते हैं / देव और मनुष्य के उत्तम सुख तथा मोक्ष सुख स्वाधीन बन जाते हैं। अगर पहले आयुष्य न बांधा हो तो. सम्यक्त्व को प्रात हुअा जीव वैमानिक देव सिवाय दुसरी गति के आयुष्य को भी नहीं बांधता / श्री जिनेश्वर भगवान के सर्व वचनः अन्यथा नहीं होते, उनकी कथित सब बातें सच्ची हैं ऐसी जिसकी बुद्धि. है उसका सम्यक्त्व निश्चल है। इस प्रकार गुरु के वचनों को सुनकर श्रीचन्द्र ने उन्हें नमस्कार कर प्रायश्चित ग्रहण कर प्रिया सहित आगे को प्रयाण किया। .. क्रम से चलते हुए कल्याणपुर में आये वहाँ गुण विभ्रम राजा राज्य करता है उस नगर के मध्य भाग में बने हुए मन्दिर के दर्शन कर" जब रह दम्पत्ति बाहर आये तो बहुत नर नारी कदम 2 पर उन्हें P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ , 5.* निनिमेष दृष्टि से देखने लगे। उन दोनों की अद्भुत आकृति देखकर नगर की कोई स्त्री मदनसुन्दरी का, कोई उसके वस्त्र का, कोई उसकी चाल का, कोई उसके मुख का, कोई उसके रूप का, कोई कुन्डल का, कोई श्रीचन्द्र का, कोई उनकी प्रांखों का और कोई उनके आभूषणों की मापस में बातें करने लगे / बाहर उद्यान में पहले की तरह प्रिया के द्वारा तैयार किया हुआ भोजन करके सरोवर की पाल पर बैठे हैं और पनि जितने में पति के आदेश से भोजन करती है इतने में एक योगी वहां आया / 32 लक्षणों से युक्त श्रीचन्द्र को देखकर विचार करने लगा कि इस पुरुष द्वारा मेरा कार्य सिद्ध हो सकता है गुण विभ्रम राजा का देह भी ऐसे लक्षणों वाला नहीं है। ऐसा सोचकर योगी उनके पास आकर बोलने लगा कि कोई बिरले पुरुष अपने गुण और दोष जानते हैं, कुछ ही मनुष्य दूसरों के कार्य में सहायता करने वाले होते हैं, चन्द मनुष्य दुसरों के दुःख से दुःखी होते हैं / यह सुनकर श्रीचन्द्र ने कहा 'तुम कौन हो ? और ऐसा क्यों बोल रहे हो ?' योगी ने कहा कि मैं त्रिपुर नामका योगी खर्पर का छोटा भाई हूं। गुरु के पास से प्राप्त हुई विद्या से परोपकार के लिये सुवर्ण सिद्धि के लिये भ्रमण करता हुआ मैं यहां पाया हूं। ___ मेरा उत्तर साधक हो ऐसा कोई पुरुष मुझे मिला नहीं है / परन्तु तुम आकृति मौर शरीर की कान्ति से परोपकारी दिखाई देते हो। देखो! 'चन्दन के वृक्ष को विधाता ने फल और पत्तों से रहित बनाया है तो भी वह अपनी देह से लोकों का उपकार करता है / तो अगर तुम आज रात अगर मेरे उत्तर साधक बनो तो मेरा कार्य सिद्ध P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 51 10 हो सकता है। कहा है कि हे माता ! दूसरे की प्रार्थना को नहीं स्वीकारने वाले पुरुष को तू जन्म देती नहीं प्रौर जिसके द्वारा प्रार्थना का भंग होता हो उसे तो उदर में भी धारण नहीं करती। श्रीचन्द्र ने पूछा कि क्या तत्व है ? तेरे क्या कार्य हैं ? तुझे क्या चाहिये ? सुवर्ण सिद्धि किस तरह होती है ?' योगो ने कहा कि 'रात्रि को श्मशान में श्रेष्ठ पुरुष के मुर्दे से और सत्वशाली पुरुष के सानिध्य से वह सुवर्ण सिद्धि होती है / दूसरी सामग्री सुलभ है / श्रीचन्द्र ने कहा कि हे योगीन्द्र ! तुम वहां जाकर सब सामग्री तयार करो मैं निश्चय वहां आऊंगा।' जब वह गया तब पत्नी ने पूछा कि हे राजाओं के इन्द्र ! योगी ने क्या कहा था ? श्रीचन्द्र ने योगी का कहा हुआ सारा वृतान्त कह सुनाया / कापते हुए अंग वाली मदनसुन्दरी ने कहा कि 'हे नाथ ! यह आप क्या कह रहे हैं ?' ये योगी तो हमेशा कूट आचरण वाले और निर्दयी होते हैं / मैं आपको यहां से कहीं भी नहीं जाने दूंगी / इस प्रकार विवाद करते रात्रि शुरु हुई, मदनसुन्दरी ने श्रीचन्द्र के वस्त्र को पकड़ा हुआ है छोड़ती नहीं है। श्रीचन्द्र ने कहा कि हे प्रिये ! उज्जवल आत्मा का भविष्य उज्जवल होता है जिसके मन, वचन और काया शुद्ध है उसे कदम 2 पर संपदा प्राप्त.होती है / ___ 'जिसका अन्तर मलीन होता है उसे स्वप्न में भी सुख दुर्लभ है। इसलिये तू दुखी क्यों होती है ! श्री नमस्कार महामंत्र के प्रभाव से जो होगा शुभ ही होगा / तू बन्दरी होकर वृक्ष पर चढ़कर निर्भय हो जा तुझे दुख है परन्तु योगी को कहा हुआ यह कार्य तो करना ही चाहिये / इस प्रकार कहकर मंजन से मदनसुन्दरी को बन्दरी बनाकर P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 52 उसे वृक्ष पर चढ़ा कर हाथ में चन्द्रहास खड़ग लेकर बुद्धिशालियों में अग्रसर श्रीचन्द्र योगी के पास गये / श्मशान में कुन्ड की अग्नि से सत को देखते हुए कुड के नजदीक योगी के पास श्रीचन्द्र खड़े हैं तब योगी ने कहा कि हे वीर पुरुष ! मेरी रक्षा करने वाले बनो / श्रीचन्द्र ने कहा कि 'तुम निर्भयता से अपनी इच्छानुसार साधना करो।' विधि अनुसार प्राप होम आदि विधि करके जब प्रधं गत्रि व्यतीत हुई तर राजा के पुत्र से योगी ने कहा कि 'हे वीर | इस दिशा में प्रसिद्ध महावड़ की शाखा परएक चोर का शव है वह तुम निर्भय होकर लाओ। वह कार्य जब तक नहीं होवे तब तक तुम्हें एक बार भी नहीं बोलना है' श्री चन्द्र उस वड़ पर चढ़कर चन्द्रहास से शव के बन्धनों को काटकर उसे पृथ्वी पर पटक कर नीचे उतरे उतने ही में शव को फिर शाखा पर लटकते देखा / साहसिक होकर फिर से बंधन छेदकर शव को कभी कन्धे पर, कभी हाथ में लेकर साहस पूर्वक रास्ते के पास आये इतने में शव अट्टहास्य पूर्वक बोला कि 'हे प्रवीण ! तू राजा का पुत्र भी है और राजा भी है तो मेरी कथा सुनो / परन्तु राजा के पुत्र के चुप रहने से शव फिर से बोला कि 'तुम हुँकार तो दो।' . / . क्षिति प्रतिष्ठित नगर का राजपुत्र गुणसुन्दर है। सुबुद्धि वहां के मन्त्री का पुत्र है। वह दोनों घोड़ों के योग से एक महा अटवी में जा पहुंचे तृषा से पीड़ित वह दोनों विशाल सरोवर के पास यक्ष का मन्दिर था वहां बैठे सुबुद्धि पानी पीकर अश्वों की देखभाल करने लगा। गुणसुन्दर उस सरोवर में कीड़ा करते सामने किनारे पर गया / वहाँ , उद्यान में कोई कन्या कमल हाथ में लेकर कमल से पैर को, दांतों को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
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________________ #. .53 10 और काम को अनुक्रम से स्पर्श कर वेग से अपने स्थान को चली गई। परन्तु गुणसुन्दर उसके भाव को समझा नहीं। इसका क्या मतलब होगा? ऐसा मित्र से पूछा। मित्र ने कहा कि, पद्मावती कन्या दन्त नानका नगर और कर्ण देव राजा की पुत्री तेरे पर अनुराग वालो हुई है। कुमार मित्र के साथ उस नगर में गया। माली के घर ठहर.कर पूछताछ कर मालण द्वारा गुणसुन्दर ने कहलाया कि 'सरोवर के किनारे जिन्हें देखा था वो आये हैं।' . ..: पद्मावती ने चन्दन से गीले हाथ से गुस्से से मालण के मस्तक पर मार कर उसे निकाल दिया। मालण ने सारा वृतान्त गुरणसुन्दर से कहा / राजपुत्र ने विलक्ष होकर मित्र से कहा / सुबुद्धि ने कहा कि 'शुद पंचमी को पाने का कहा है इसलिये तुम अब प्रसन्न होजाओ। दोनों मित्र किराया देकर अलग जगह रह / 'ह मित्र ! शुद पंचमी तुमने किस तरह जाणी ? कुमार ने पूछा। मित्र ने कहा कि 'मालण के मस्तक पर लगे हुए सफेद पांच अंगुलियों से जाना।' पंचमी के दिन उन्होंने मालन को बहुत धन देकर फिर भेजा और पुछवाया कि वे किस मार्ग से आये ? पद्मावती ने कुकुम से रंगे हुए हाथ से गले से पकड़ कर कहा कि 'तू ऐसा बोलती है ? सखियों द्वारा अपमान करवा कर घर के पिछले दरवाजे से दूसरे मंजिल से रस्सी के द्वारा नीचे उतारा। मालण ने आकर कहा कि मैं जी वित आई ये ही मैरा भाग्य / ' ऐसा सुनकर मित्र ने कहा 'अभी ठहरो'। .. . . .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 54 1 'चार अंगुलियों से गले को पकड़ा इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह रजस्वला है जिससे नवमी की रात्रि को उस तरह पीछे के द्वार से आने के लिये कहा है / ' मित्र के कहे अनुसार गुण पुन्दर वही गया / उसे देखकर हर्ष को पायी हुई राजकुमारी ने क्रीड़ा करके पूछा है प्रभु ! मेरे हृदय के भाव आपने किस तरह जाने ? कुमार ने मुग्ध भाव से कहा कि मैंने अपने मित्र द्वारा जाने / अच्छी तरह भोजन करवा कर विष युक्त लड्डु देवर के लिये दिये / लड्डू देख कर सुबुद्धि न कहा कि मेरा नाम क्यों बताया ? प्रभात में लड्डू नजदीक रखकर शौच क्रिया से निपट कर आता है तो देखता है उस पर मक्खियां मरी हुई हैं, लड्ड को वहीं जमीन में दबा दिया। सुबुद्धि ने कुमार से कहा कि रात को अच्छी / तरह से क्रीड़ा करके जब वह सो जाये गे उसकी जंघा पर तीन रेखा, बनाकर एक झांझर निकाल लेना। इस प्रकार करके वह प्राया। बाद में दोनों योगी बनकर श्मशान में गये। सुबुद्धि गुरु और गुणसुन्दर चेला बना। चेले ने किसी सोनी की दुकान पर जाकर झांझर बेचनी चाही। सोनी ने झांझर पर राजा का नाम देखकर झांझर राजा को लेजाकर दिखाई। नाम से अपनी जानकर राजा ने सोनी से पूछा यह झांझर तुम कहां से लाये हो ? उसने कहा एक योगी लाया है जो दुकान पर बैठा है। राजा ने योगी को बुलवा कर पूछा तो उसने कहा कि ये तो मेरा गुरु जाने मुझे नहीं मालूम / गुरु को बुलाकर पूछा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ # 55 * ये झांझर कहां से आई ? गुरु ने कहा कि आज मैं ममान में बैठा था तो वहां एक उत्कृष्ट शक्ति पाई, मैंने उसका पर पकड़ कर जंघा पर तीन रेखा कर झांझर निकाल ली इतने में वह पलायन होगई / राजा ने कन्या को सभा में बुलाया। राजा ने गुरु से पूछा तुम कोई विद्या जानते हो? उसने कहा हां मैं जानता है। राजा कहने लगे अगर तुम मन्त्र जानते हो तो इसको शक्ति के दोष से वर्जित करो / गुरु ने कहा E है राजा ! आज रात्रि को मेरे द्वारा मंत्रित वस्त्र से कन्या का मुख और - नेत्रों को बाँधकर पूर्व दिशा में देश के आखिरी किनारे पर हाथ बांध कर छोड़ देना / जो छोड़ने जाय उसको पीछे नहीं देखना होगा / आठ पहर के बाद ये कन्या बिना दोष की हो जायेगी। गुरु चेले स्वस्थान पर गये / राजा ने कन्या को योगी के कहे अनुसार रास्ते में रखवा दी। वे दोनों अश्वों पर चढ़कर वहां पहुंचे बंधन खोल कर स्वदेश ले गये। कन्या ने कहा देवरजी ! ऐसा काम क्यों किया ? सुबुद्धि ने कहा कि ये मेरी लड्डु ओं का कार्य है मेरा नहीं। आठ पहर व्यतीत होने पर राजा वहां पहूँचा परन्तु पुत्री वहां मिली नहीं जिससे राजा का हृदय फट गया / ये पाप किसे लगेगा ? कन्या को कुमार को, राजा को या मित्र को ? जानते हुए भी नहीं बोले तो वह पाप तुम्हें लगेगा / थोड़ी देर ठहर कर प्रतापसिंह राजा के पुत्र ने कहा कि 'ये पाप राजा को लगे क्योंकि उसने कुमारी कन्या का इतनी बड़ी उमर तक ब्याह नहीं किया इस लिये गजा कारण भूत है / दूसरी तरह से देखें तो चारों को लगता है क्योंकि चारों उसमें कारणभूत हैं / कुमार के बोलते ही शव वापस शाखा पर चिपट गया / इस प्रकार तीन बार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ हुा / चौथी बार बड़ ऊपर से शव को लेकर चले तो शव ने कहा कि, 'हे राजाधिराज ! तुम योगी के पास किस तरह पाये हो ? यह बहुत धूर्त है। तुमसे साधना सिद्ध कर तुम्हे मार देगा।' उसके वचन सुन श्रीचन्द्र विचारने लग गये। .... ... / इतने में ही मध्यमवय वाली एक स्त्री आई / श्रीचन्द्र ने पूछा तुम कौन हो? वह रुदन करती हुई बोली मैं नन्द गांव में रहती हूँ। ये मेरा पति है, किसी समय चोरी करता था जिससे राजा ने इसे मार कर पेड़ पर लटकाया है / मैं उसे देखने आई हूं। वह स्त्री जितने में उस चन्दन लगाती है उतने में ही शव ने उसकी नाक काट ली। वह स्त्री ता. गांव में चली गई। श्रीचन्द्र शव को योगी के पास लाये / योगी ने स्नान करा कर उसकी पुष्पों से पूजा कर मांडले में कुन्ड के पास रखा / 2. शव के हाथ में तलवार देकर उसके पैर के पास श्रीचन्द्र को दूसरी तरफ देखते हुये खड़े रखकर कहा कि ऐसा चितवन करो किमेरा कार्य सिद्ध हो पीछे की ओर मुड़कर देखना नहीं।' श्रीचन्द्र ने नवकार. मन्त्र से शरीर की रक्षा कर, तिरछी दृष्टि से शव पर ध्यान रखा / योगी ने उड़द के दाने मंत्रित करके शव पर डाल कर हुंकार: किया ! शव थोड़ा खड़ा हुआ चारों तरफ देखकर शान्त होगया / योगी ने श्रीचन्द्र से पूछा 'क्या सोच रहे हो ? जसा. मन, वैसा ही वचन और . वचन जैसा वर्तन हो उसका कार्य सिद्ध हो ऐसा श्रीचन्द्र ने कहा / तत्र योगी बोला: ऐसा कहो कि योगी का कार्य सिद्ध हो / योगी ने मन्त्रित : फिर दानेशव पर डाले और हूँकार किया। लाल 2 आंखें कर शव खड़ा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 57 हुआ और कहने ल IT 'अरे दुष्ट ! मुझे शल्य वाले शव में उतारता है ? उसका फल तुझे अभी चखाता हूँ। ऐसा कहकर योगी को उठा कर अग्नि कुण्ड में होम दिया। श्रीचन्द्र मना करते रहे। योगी सुवर्ण पुरुष होगया। सुवर्ण पुरुष को कहीं दवाकर प्रभात में बंदरी के पास जाकर उसे अंजन से मदनसुन्दरी बनाकर उसे सारा हाल कह सुनाया। ये सुनकर आश्चर्य से प्रिया बोली 'हे नाथ ! सुवर्ण पुरुष का क्या प्रभाव है और उससे क्या होता है ? श्राचन्द्र ने कहा कि सुवर्ण पुरुष की विधि से पूजा कर उसके चार अंगों को ग्रहण करके वस्त्र से ढक देने से प्रभात में वह सुवर्ण पुरुष फिर से प्रखंड अंगों वाला हो जाता है। इस प्रकार हमेशा करने से वह मनुष्य उसके प्रताप से दाता, भोक्ता और लक्ष्मीवान बनता है।' परन्तु सुवर्ण पुरुष पर मेरा मन नहीं है कारण कि अन्याय से उत्पन्न हुआ धन होने से, हिंसा से बने होने से, प्रथम व्रत के खंडन से इसका भोग करना दयालु आत्माओं को योग्य नहीं है / इस प्रकार बातें करते हुए दोनों प्रागे के लिये रवाना हुए। इतने में गुणविभ्रम राजा क्रीड़ा के लिये वहां पाया उसने तालाब की गल पर दोनों को देखा / जितने समय में आन वृक्ष की छाया में बैठने को होता है उतने ही समय में परदेश से आया हुया भाट- बोला, 'परस्त्री सहोदर, अनाथ की लक्ष्मी के सामने दृष्टि भी नहीं रखने वाले, अथियों के लिये कामधेनु ऐसे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। -- - P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ मैं. 580 जिस श्रीचन्द्र ने शून्य नगर को देखकर, नगर में जाकर राक्षस को पर मसलने वाला सेवक बनाया, कुण्डलपुर का राज्य प्राप्त कर चन्द्रमुखी को ब्याहे, स्वनाम से चन्द्रपुर नगर जिसने बसाया, जो राधावेध और धनुर्विद्या में विशारद है। जगत में अजोड़ ऐसे जगत के राजा श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। प्रतापसिंह राजा के पुत्र श्रीचन्द्र मय को प्राप्त हों। महेन्द्रनगर में त्रिलोचन राजा की जन्म से अन्ध पुत्री की श्रेष्ठ कमल के पत्र जैसी प्रांखें जिसने की वे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हो।। विद्याधर वन में जिनके मस्तक पर रायण वृक्ष ने दूध बहाया और चन्द्रलेखा को ब्याहे ऐसे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। कान्ति नगरी में मदनपाल के लिये अपने बहाने से प्रियं गुमंजरी से परणे सकल स्त्रियों के लक्षणों के जानकार श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। वह सारी श्रीचन्द्र की कीर्ति सुनकर विस्मित होकर गुणविभ्रम राजा ने पूछा 'हे बारोट / तुम कहां से आये हो ? वह बोला 'मैं कुण्डलपुर नगर से पाया हूँ, मब में अपने भाई के पास वीणापुर नगर को जा रहा हूं। . मदनसुन्दरी भाट के वचन सुनकर बहुत हर्षित हुई और कहने लगी हे नाथ ! आज आपका चरित्र सुना है, उससे पहले ही मेरा चित्त आप पर अनुरागित था / श्रीचन्द्र ने प्रिया से कहा 'श्रीचन्द्र नामके अनेक मनुष्य होते हैं।' मदनसुन्दरी ने कहा 'हे नाथ ! अभी भी आप अपनी मात्मा को प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं ? उसका उत्तर उन्होंने हास्य से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #. 56 . दिया। उसके बाद राजा अपने नगर में चला गया। बाद में राजकन्या ने अर्थी को सुवर्ण मुद्रिका दी / वीणापुर के रास्ते में जाने हुए एक कोतवाल भटक गया। श्रीचन्द्र को देखकर प्राश्चर्य से कहने लगा तू कौन है ? यह खड्ग किसका है ? ये मुझे दे दे। श्रीचन्द्र कहने लगे अगर खड्ग की इच्छा हो तो अपने खड्ग को तैयार कर तो खड्ग भी बताऊं और दे सकू। उन तेजस्वी वचनों को सुनकर वह अधम नगर में गया, राजा की आज्ञा से सेनापति के साथ जल्दी वापस आया। सेना को आता देख चकित हो कहने लगी 'हे प्रभु | पीछे से क्या विशाल सेना पा रही है ?' युद्ध में समर्थ श्रीचन्द्र ने हंस कर कहा 'तुम घबराओ नहीं, मेरे आगे खड़ी हो जानो / उसे भागे करके खड्ग को दृढ़ता से पकड़ कर श्रीचन्द्र खड़े रहे / 'त्री और खड्ग के चोर तू कहां जाता है ? तू अभी मर जायेगा। मारो 2 ऐसा कहते हुए सेना वहां पाई। . - इतने में तो सिंहनाद पूर्वक श्रीचन्द्र 'सम्मुख होकर सिंह की तरह संग्राम करने लगे। उनके सिंहनाद से भयभीत होकर गजा के हाथी, रथ, अश्व एक दूसरे पर गिरने लगे। कितने ही तो मृत्यु को प्राप्त हो गये / कितने अधमुए हो गए, वे भागते हुए कहने लगे कि हम तो व्यर्थ में ही मारे गये ये तो कोई विद्याधर है / ये दृष्टि से भी दिखाई महीं देता। जिसकी दोनों भुजायें प्रिया द्वारा पूजित हैं ऐसे श्रीचन्द्र किसी समय जल्दी से कभी धीरे 2 चलते पत्नी सहित चलते हुए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 50 * सिद्धपुर में आये। वहां उन्होंने सुना कि यहां जिन चैत्य है, उसकी बहुत ही महिमा है, वहां अनेक देशों से लोग यात्रा के लिये प्राकर पक्षत, वस्त्र, फल और नैवेद्य आदि अनेक प्रकार से पूजा करते हैं / __संघ के जाने के बाद वणिक आदि वहां के लोग देव के द्रव्य को विभाजित कर हमेशा ले लेते थे / उस कारण देव द्रव्य के भक्षण से वे लोग दिन प्रतिदिन निधन हो गये / वुलक्षय होगये, जिससे सिद्धपुर नगर छाया बिना का होगया। उनका ये स्वरूप जानकर श्रीचन्द्र ने प्रिया सहित श्री जिनेश्वरदेव को नमस्कार कर प्रिया से कहने लगे कि, 'इन लोगों के घर देव द्रव्य का भक्षण होता है इसलिये यहां का अन्न पानी लेना योग्य नहीं है। बाद में वृद्ध लोगों से कहा कि 'ये जिन मन्दिर जीणं क्यों दिखाई दे रहा है ? यह तो बहुत खराब बात है अथवा यह अशुभ की निशानी है। "किसी भी प्रकार का कर्ज अशुभ माना गया है, उसमें भी देव द्रव्य का कर्ज विशेष प्रकार से अशुभ है . देव द्रव्य से स्वधन की वृद्धि करनी, उस द्रव्य से प्राप्त हुप्रा धन, वह धन कुल को नाश कर देता है / मृत्यु के बाद वह जीव नर्क में जाता है / प्रागमों में कहा है कि जिन प्रवचन की वृद्धि करने वाला, ज्ञान दर्शन का प्रभावक और देव द्रव्य का रक्षण करने वाला तीर्थ कर पद को प्राप्त करता है / ' .. 'देव द्रव्य के भक्षण से और परस्त्री गमन से जीव सातमी नरक में सात बार जाता है / जो श्रावक देव द्रव्य का भक्षण करता है और उसकी उपेक्षा करता है वह प्रज्ञाहीन बनता है / कम से लिप्त हो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 61 जाता है। इसलिये तुम लोग ऐसा कोई उपाय करो जिससे पाप से मुक्ति हो / इस प्रकार कह कर दूसरे ग्राम में जाकर उन्होंने भोजन किया। वहां से आगे चलते हुए दूसरे दिन वन में से जाते हुए दिन के अस्त होने के कुछ समय पहले मदन पुन्दरी थक गई / .. जिससे श्रीचन्द्र कहने लगे कि 'प्रिये ! गांव तो अभी दूर है, तुम्हारे पैर थक गये हैं इसलिये इस बड़ वृक्ष के नीचे ही यहां रात्रि व्यतीत करते हैं, झोपड़ी की कोई जरुरत नहीं है। वहां ही संथारा करके दोनों लेट गये / प्रथम दो पहर व्यतीत होने पर रास्ते की थकावट के कारण मदनसुन्दरी को तो नींद प्रागई / श्रीचन्द्र जाग रहे थे, चारों तरफ निरीक्षण की दृष्टि से देख रहे थे इतने ही में दक्षिण दिशा की तरफ रत्न जैसे तेज को देखकर कुतूहल वश वहां गये / वह तेज दौड़ता हुआ कभी दूर तथा कभी पास दिखाई देता था। इस प्रकार देखते हुए बहत दूर निकल गये, इतने समय में तेज बन्द होता दिखाई दिया / ये इन्द्र जाल है ऐसा मानकर जिस रास्ते से गये थे उसी रास्ते से वापस आगये। __ आकर संथारे पर बैठ कर प्रिया से कहने लगे 'हे प्रियतमे / कमल की श्रेणियों से सुगन्ध पाने लगी है / पृथ्वी पर कूकड़ बोलने लगे हैं ठंडक होने से अब तुम अच्छी तरह से चल सकोगी, रात्रि व्यतीत होने पर है इसलिये उठो। प्रिया ने कोई जवाब नहीं दिया कुछ क्षण ठहर कर फिर बोले कि 'हिरनियें घास खाने के लिये जा रही हैं, तेजस्वी सूर्य उदयाचल के शिखर को स्पर्श करने की तैयारी में हैं, हे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *. 62 110 प्रिया उठो, उत्तर न मिलने से मदनसुन्दरी के संथारे पर हाथ फेरत हैं वहां तो मदन पुन्दरी नहीं था। वियोग से दुखी श्रीचन्द्र चारों दिशाओं में निरीक्षण करते हैं परन्तु प्रातःकाल में कहीं पर भी मदन. सुन्दरी के पैर के निशान दिखाई नहीं देते। उन्होंने विचार किया कि मुझे तेज के बहाने भ्रमित पोर मुग्ध करके किसी ने प्रिया का हरण किया है परन्तु वह वहां किस प्रकार रह सकेगी? कोई भी मनुष्य जिसे मन में भी नहीं ला सकता पौर जहां कवि की कल्पना भी नहीं पहुंच सकती वह कार्य पूर्व कृत कम रूपी विधि करती है। अघटित को घटित करती है और सुन्दर वस्तु को बिगाड़ देती है। इस प्रकार विधाता मनुष्यों ने कभी जो सोच। भी / न हो वह कर देता है। जो भाग्य में लिखा हो वही लोगों के सामने : माता है फिर वैसी ही सूझ उत्पन्न होती है। इन सब बातों को सोचकर धीर पुरुष दुख में घबराते नहीं। इस प्रकार उत्सुक चित्त पाले उपाय सोचने लगे। . .... . किसके मनोरथ नहीं टूटते ? सब मनोरथ किसके फले हैं / किसे इस लोक में सम्पूर्ण सुख है ? कौन भाग्य द्वारा खंडित नहीं हुआ ? धूतं लोग भी स्खलना को पा जाते हैं / तत्व को जानने वाले श्रीचन्द्र ने इस प्रकार सोचकर आगे को प्रयाण किया / चलते 2 कनकपुर नगर के पास माये वहां थोड़ी देर के लिये सरोवर की पाल पर वड़ वृक्ष के नीचे थकान मिटाने के लिये सो गये। उसी समय उस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 8 63 1. नगर का राजा कनकध्वज दैवयोग से अपुत्रिया ही मृत्यु को प्राप्त हो गया मन्त्रियो ने राज्य की अधिष्ठायिक देवी की आराधना की। वह आई तब उससे पूछा कि राज्य पर किसे स्थापित करें। देवी ने कहा कि 'पंचदिव्य को अधिवासित करो। जिसके मस्तक पर हथिनी अभिषेक करे उसे तुम राजा बना दो। पंचदिव्य तीन दिन नगर में भ्रमण करके नगर के बाहर आये। पांच दिव्यों ने श्रीचन्द्र पर अभिषेक किया। हथिनी ने श्रीचन्द्र पर कलश से अभिषेक किया / प्रश्व स्वयं हिनहिनाने लगा, छत्र मस्तक पर अपने आप आगया, चामर अपने आप दोनों तरफ झूमने लगे / श्री चन्द्र सोचने लगे क्या बात है ? मंत्री ने कहा कि 'हे नाथ ! नवलखा देश का राज्य स्वीकार करो।. .... . . .. 'इस मगर का कनकध्वज राजा मृत्यु को प्राप्त हुआ है, उनके नवलखा देश में हमारे भाग्य से पाप राजा हुए हो, राजा की कनकावली नाम की पुत्री है उसके साथ पाणिग्रहण करो। लक्षमण प्रादि मंत्री बहुत ही प्रसन्न हुए। चन्द्रहास खड्ग से देदीप्यमान अंग वाले, कुन्डल मादि से विभूषित और नाम की अंगूठी से श्रीचन्द्र इस प्रकार का अद्भुत , नाम जानकर, देखकर हर्ष से विधि पूर्वक श्रीचन्द्र को राज्य पर स्थापित किया। कनकावली को बायीं मोर उत्सव पूर्वक अभिषेक करके बैठाई। राज्याभिषेक का महोत्सव नगर के लोगों ने बड़े ठाठ से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *. 641 मनाया। बन्दीखाने से बन्दीजनों की मुक्ति, करमोचन, देव पूजा, गीत मृत्य आदि से श्रीचन्द्र राजा का विशाल महोत्सव हुआ। लक्षमण मन्त्री ने राजा से विनती की कि 'हे देव ! आप श्री के सदाचार से स्वयं प्रापश्री की उत्तमता मालूम हो गई है / ' कहा है कि 'माचार कुल को प्रदर्शित करता है, संम्रम स्नेह को बताता है मोर रूप से भोजन का वर्णन हो जाता है फिर भी आदर से गाते हुए लोग आपश्री के वंश और माता पिता के नाम को जानने की इच्छा करते हैं / यह सुनकर राजा ने सारी सभा के समक्ष बताया कि जब हरिबल माछीमार विशाला नगरी में गया तब क्या नगर के लोगों ने माना पिता और कुल को जाना था ? इसलिये हे भाग्यवान पुरुषों ! तुम्हें कुल आदि का नाम जान कर क्या करना है ? आप लोगों को तो गुण वाहिये दूसरी चीजों से क्या प्रयोजन है ? यह जवाब सुनकर लोग मौन हो गये। एक बार उस नगर में मनोहर आवाज वाला गायक वीणापुर राजा की पुत्री के स्वयंवर में जाता हुआ वहां आया और राजमार्ग में श्रीचन्द्र के प्रबन्ध को गाने लगा।' 'कुशस्थल के राजा प्रतापसिंह की रानी सूर्यवती ने अोरमान पुत्र के भय से पुष्पों के समूह में पुत्र को रखा था वह श्रेष्ठी के घर वृद्धि को प्राप्त हुआ उसका नाम श्रीचन्द्र / ऐसा प्रसिद्ध हुआ। बाद में राधावेध, पद्मिनी से पाणिग्रहण वीणारव को दान देना और विदेश गमन आदि बातें सुनकर नगर के लोगों ने इच्छित दान देकर पूछा कि तुमने 'श्री' श्रीचन्द्र को देखा है ? बड़े P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ #. 65 * गायक ने कहा कि 'मेरे पिता ने देखा था और दान प्राप्त किया था / उनकी बहुत सी कवितायें हैं परन्तु मुझे नहीं पातीं। दूसरे दिन प्रातःकाल मंत्री राज्य सभा में गये तो राजा ने पूछा कल रात को आप क्यों नहीं आये ? मंत्रियों ने जो सुना था कह सुनाया, कुछ हसकर राजा अवनत मुख होकर मौन रहे / लक्ष्मण मंत्री सोचने लगा ये वे ही होने चाहिये / मंत्री को विचाराधीन देख, राजा चतुरंग सना सहित वन में गये / अश्वों द्वारा बहुत क्रीड़ा करके विश्रान्ति के लिये आम्र वृक्ष के नीचे बैठे और जाति के अनुसार अलग 2 तरह के घोड़े निकालते हैं, इतने में पश्चिम दिशा की तरफ से जिसके कन्धे पर लकड़ी और हाथ में जल पात्र है ऐसे देदीप्यमान गोल मुख वाले और ऊंचे कपाल वाले, एक मुसाफिर को दूर देश से आया हुआ जानकर सैनिकों द्वारा बुलाया। वे जितने में राजा के पास पाता है दूर से ही पीचन्द्र गजा को . देखकर हर्ष के आंसुओं सहित उसने कहो कि 'अहो आज बादल बिना वृष्टि अहो ! पुष्प बिना फल, अहो मेरा पुण्य, मैंने अपने स्वामी को देख लिया / ' उसको श्रेष्ठ गुणचन्द्र जानकर राजा ने तत्काल आलिंगन किया। श्रीचन्द्र के चरण कमलों में मस्तक को भ्रमर की तरह बहुत लम्बे समय तक झुका कर नमस्कार करके उचित ग्रासन पर बैठा / राजा के मित्र को मन्त्रियों ने और नगर के लोगो ने बड़े आदर से नमस्कार किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ राजा ने पूछा 'हे मंत्रि पुत्र ! तुम अकेले कैसे पाये ? किस 2 मार्ग से होकर आये हो ? तुमने कुशस्थल को कब छोड़ा ? माता पिता कुशल हैं ?. तुम्हारी भाभी कहां है ? मेरे प्रयाण के बाद वहां क्या 2 हुआ ? ये सब बातें कहो / ' सब कुछ सुनकर मंत्री पुत्र ने कहा 'आपक आदेश से मैंने खजांची से हिसाब लिया, परन्तु मेरे शरीर में बार 2 आलस पाने के कारण प्रभात होते ही आपके घर आया, वहां आपको न देखकर चन्द्रकला भाभी को चिन्तातुर देखकर मैंने पूछा 'हे स्वामिनी ! स्वामी कहां है ? आप जानती होंगी ? मैंने बहुत बार पूछा तब उन्होंने गद् गद् कंठ से मूल से आखिर तक का वृतान्त कह सुनाया / जिसस मैं बहुत दुखी हुआ। मैंने पूछा मेरे बिना स्वामी कैसे चले गये ? तब स्वामिनी ने कहा कि 'तुम्हें पिता का वियोग न हो इसलिये तुम्हे छोड़ कर देशाटन गये हैं। जैसे तैसे भी तुम पति के मित्र होने से तुम्हारे सिवाय और किसी को कहने की मनाई की है / आपके वियोग से सारी रात्रियें दुख में व्यतीत हुई / मैं भाभी को दुखी देखकर बार 2 उनके पास जाता था। 'आपके माता पिता के पास रही हुई चन्द्रकला को चेन न पड़ने के कारण बड़े लोगों के कहने से पद्मिनी राजमहल में गई / महेन्द्रपुर का मन्त्री सुन्दर वहां पाया / उससे आपकी वहां तक की हकीकत का जानकारी हुई। कुडलपुर से मन्त्री विशारद आया जो घटना घटी थी कह सुनाई / आपकी बुद्धि से सूर्यवती रानी बहुत ही हर्षित हुई, आपका मिलाप न हों तब तक वेवर, लड्डु, घृत आदि के त्याग का अभिग्रह किया है वे सभा होने के कारण ज्यादा दुखी हो रही हैं / आपश्री के स्वजन P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 674 . राजा, श्रेष्ठी आदि सब कुशल मंगल में हैं सिर्फ आपके ही वियोग का : दुख है। प्रभु की दिशा जानकर प्रतापसिंह राजा ने बहुत से सैनिक भेजे हुए हैं। मैं भी प्रापके स्नेहवश सब धनंजय को सौंप कर बहुत सैनिकों के साथ निकला था। कुन्डलपुर में चन्द्रलेखा और चन्द्रमुखी से प्रापकी सारी हकीकत : जानी महेन्द्रनगर में जाकर सुलोचना राजकुमारी को नमस्कार कर हेमपुर के स्वरूप को प्राप्त कर कान्तिपुर में आया, प्रियं गुमंजरी बहुत हर्षित हुई उन्हें नमस्कार कर इस दिशा की तरफ आया / मार्ग में दूसरे रास्ते भी निकलते थे उन रास्तों पर सैनिकों को भेजा नगर, गांव, वन , इस तरह सब जगह आपकी खोज करते इस नगर में श्रीचन्द्र राजा हैं ऐसा सुनकर हर्ष से जल्दी में इस तरफ आया मार्ग में अश्व मृत्यु को प्राप्त हुआ जिससे पैदल चलकर अकेला पाया हूं। प्राज प्रापश्री को देखकर कृत्य 2 होगया हूं मुझे जो दुख था अब वह सुख रूप में बदल गया है / ....., मन्त्री सामन्तों आदि ने गुणचन्द्र से अपने राजा के माता पिता ... और कुल जानकर हर्षित होते हुये अपने 2 घर गये / मित्र को महान् .. अमात्य पद पर स्थापित किया। इस प्रकार किये पूर्व तप के प्रभाव से .. श्रीचन्द्र राजा विशाल राज्यको मित्र सहित चला रहे हैं / कहा है कि धर्म के : प्राधार पर ही जगत है, वही धर्म सत्पुरुषों के उपयोग में स्थिर स्वरूप :- वाला है वे सत्पुरुष जो सत्यनिष्ठ होते हैं वे सत्य सुख रूप सन्तोष को धारण करते हैं अर्थात् सुख रूप सन्तोष उत्पन्न करता है और वह सन्तोष उन्मत्त विषयों के विजय से उपार्जित जय वाला है और वह जय तप से ही साध्य है अर्थात् . यह सारी तप की ही महिमा है सारांश यह है कि .: उपरोक्त सद्गुण उत्तरोत्तर संबंधित है। ... . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 689 [ चतुर्थ खण्ड ] कुछ समय व्यतीत होने पर श्री वन्द्र राजा को मदनसुन्दरी याद आई / लक्ष्मण मंत्री को अच्छी तरह समझा कर मित्र सहित दो उत्तम अश्वों पर बैठ कर थोड़ी ही देर में भयंकर अटवी में आये / वहां वृक्ष __ पास एक योगी को प्रतिसार रोग से पीड़ित देखकर श्रीचन्द्र योगी की अनेक प्रकार से सेवा करने लगे और दूर रहे हुए भिल्लंपति के गांव से पथ्य औषध प्रादि लाकर अनेक प्रकार से उपचार किया / राजा ने तेल आदि मसल कर स्नान कराकर योगी को स्वस्थ बनाया / जिससे योगी ने अति हर्पित होते हुए कहा 'हे पुण्यात्मा ! मेरा अभी भी भाग्य उदय में है ऐसी दुर्दशा में भी तुम जैसा बुद्धिशाली मिला। यह अति दुर्लभ पारसमणी तुम ग्रहण करो इसके स्पर्श से सब घातुए' सुवर्ण के रूप में बदल जाती है। तुम भाग्यशाली हो जिससे मैं तुम्हें यह समर्पित करता हूँ / पृथ्वी को अनृणी करना, जिनालय बनवाना मेरी मृत्यु के पश्चात इस स्थान पर एक मठ बनवाना / इस प्रकार कह कर श्रीचन्द्र के मना करने पर भी जबरदस्ती पारसमणी उन्हें दे दी। श्रीचन्द्र राजा ने योगी के वचन स्वीकार किये / उस योगी के मर जाने पर उसके कहे अनुसार वहां मठ बनवाया। वहां से मित्र के साथ राजा प्रयाण करते हुए एक वन के मध्य भाग में आये / वहां बांस की जाली में 108 पर्व वाला एक बांस पका हुआ और सीघा शास्त्र लक्षणों से युक्त जानकर उसे काट लिया / उसे काट कर उसके बीच में से एक मोती के जोडे को निकाला। मित्र को श्रीचन्द्र ने कहा जो बड़ा है वह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 66 * नर है और जो छोटा है वह मादा है। बुद्धिशालियों को यत्न पूर्वक नारी का रक्षण करना चाहिये। नारी जहां है वहां स्वयं नर रात्रि को आता है परन्तु दूसरों को छलने का कारण होने से इससे उत्पन्न हुआ धन दुष्ट कहलाता है। आगे जाकर जहां वन खतम होता था वहां श्रीगिरी को देखकर श्रीचन्द्र मोहित होगये / वहां गुफागों को देखते हुए प्यास से व्याकुल हो उठे। कुछ ही क्षणों पश्चात् किसी स्त्री के रोने को प्रावाज सुनाई दी उसका दुख दूर करने के लिये भयंकर आश्रम में जाकर उससे पूछने लगे कि 'तुम क्यों रो रही हो ?' पानी कहां है क्या तुम जानती हो ? दो महापुरुषों को आया देख गुफा के अन्दर से उसने जल पूर्ण कुम्भ लाकर दिया / परन्तु वह जल उन्होंने नहीं पीया / इसलिये जहां जल था वह जगह वताई वहां जल में स्नान करके वे दोनों स्वस्थ हुए। भीलड़ी ने कहा 'ये महान् श्री पर्वत है, नजदीक़ में वीणापुर नगर में पद्मनाभ राजा है उसका एक गांव यहां भी है / उसके स्वामी का स्वर्ण कुभ चोर चुरा कर ले गये / उनके पैरों के चिन्ह यहां तक आये, परन्तु चोर तो कोई और है और वे लोग मेरे स्वामी को पकड़ कर ले गये हैं उसके पास से स्वर्ण कुम्भ मांगते हैं, उस दुख के कारण मैं रुदन करती थी। श्रीचन्द्र कहने लगे 'हे भद्रे ! तुम लोहे का कुम्भ खाली करके ले पात्रो, वह लोहे का कुम्भ ले पाई, पारसमणी के योग से उस कुम्भ को अग्नि की सहायता से सुवर्ण का करके, दूसरों के दुख को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 70 40 दूर करने वाले श्रीचन्द्र ने वह भीलड़ी को दिया / उसको लेकर वह जल्दी से गांव को गई। वीणापुर नगर में सूर्यवती के पुत्र श्रीचन्द्र किल्लों मोहल्लों को : देखते हुए * मित्र के साथ पवन को खाते हुए प्रानन्द का अनुभव करते * हुए किसी स्थान पर विश्रान्ति लेते हैं इतने में पूर्व भव में जिस तोती ने अनशन किया था इस भव में वह पद्मनाभ राजा की पुत्री पद्मश्री हुई है वह मंत्री की पुत्री कमलश्री के साथ नगर के बाहर कीड़ा करके वापिस जारही थी वहां उसने श्रीचन्द्र को देखा और उन पर मोहित हो गई। उसने चंदन का कटोरा भरकर सखी द्वारा बुद्धि की परीक्षा के लिये भेंट भेजा, उसे देखकर राजा ने पूछा 'ये क्या है ? सखी ने कहा * 'पद्मनाभ राजा की रानी पद्मावती की पुत्री पद्मश्री ने आपको यह भेट * भेजी है उसे सफल कीजिये। यह सुनकर राजा ने सोचा 'यह कटोरा भोग के लिये नहीं भेजा गया है अपितु मेरी बुद्धि की परीक्षा के लिये भेजा है। उन्होंने चन्दन के कटोरे के मध्य अपनी छोटी अंगुली. की मंगूठी रखकर सखी को कचोले सहित वापिस भेजा / फिर से पद्मश्री ते खुले पुष्प भेजे / राजा ने पुष्पों की माला बनाकर वापस भेजी / तब गुणचन्द्र अमात्य ने पूछा ऐसा आपने क्यों किया ? राजा ने उसके अपना भभिप्राय कह सुनाया, पद्मश्री ने अद्भुत बुद्धि से मेरी परीक्षा ली है / इस चन्दन के कटोरे की तरह यह नगर पहले भी उत्तम पुरुषः से भरा हुआ है उसमें इस अंगूठी की तरह मेरा स्थान अपने पाप हो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 71 10 जायेगा / पुष्पों की तरह हम अकेले हैं और गुण बिना के हैं परन पुष्प माला की तरह इकठ्ठ होकर सुगुण वाले बनकर इष्ट वस्तु को प्रार कर लेंगे। पद्मश्री के हृदय के भाव को जानने वाले पूर्व भव के इच्छित रूप में सूर्य समान ऐसे तेजस्वी श्रीचन्द्र को पद्मश्री ने मन में पति धारण कर लिया और मन्त्री की पुत्री कमलश्री ने अमात्य गुणचंद्र को पति धारण कर लिया। दोनों कन्यायें उत्तम वरों को बड़े प्रेम से देखने लगीं / वह दोनों कुमारिकायें अपने 2 माता पिता को बताने स्वस्थान पर गयीं। सुवर्णकुम्भ देकर छुड़ाये गये भील को भीलड़ी ने जब सारा वृतान्त सुनाया तो वह भील राजा को नमस्कार करके उन्हें अपने स्थान पर ले गया। प्रभात में पके हुए मधुर प्रानफल उन्हें भेंट किये / फलों से दोनों ने अपनी क्ष धा मिटा कर पूछा कि हेमंत ऋतु में पाम्रफल कैसे ? भील ने कहा इस गिरि के पांच शिखर हैं उन सब में जो उच्च शिखर ईशान दिशा की तरफ है वहां श्रीगिरि की अधिष्ठनायिका विजयादेवी का मन्दिर है वहां पर हमेशा फल देने वाला आम का देवी वृक्ष है, उसमें से मैं प्रतिदिन प्रानफल लाता हूँ / यह पर्वत बहुत ऊंचा और विशाल है चारों तरफ में सिर्फ एक ही मार्ग है, मेरे सिवाय ऊपर 'जाने में और कोई समर्थ महीं है, वृद्धों के कहे अनुसार मैं गाऊ आदि ...जानता हूँ। आइये पधारिये ऊपर जाकर पर्वत की सुन्दरता को देखकर हम आनन्द मनायें। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S: Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 72 .. मित्र और भील सहित राजा श्रीगिरि पर गुफा, वन, शिखर आदि हर्ष से देखने लगे। बाद में ऐसे तालाब में जहां निर्मल जल में कमल खिले हुये थे उसमें श्रम को दूर करने के लिये स्नान किया उतने में भील सदाफल देने वाले उद्यान में से अमृत जैसी पकी हुई अधपकी द्राक्ष, पके हुए अाम्रफल, रायण, केले, खजूर, जामुन, जंबीर, अमृत जैसे बीजोरे, नारंगी, दाड़म, आमली, (इमली), पीलू, फणस, गुन्दे, बोर, खरबूजे, पकी हुई इमली, कितने ही प्रकार के पानी, श्रीफल का पाणी, नागरबेल का पान, इलायची, लविंग, भवली के फल श्रादि उनके खाने के लिये ले प्राया। ___ कमल के समूह, खिले हुए चंपक, केतकी, मालती, मल्लिका, कुन्द, फूल प्रादि सब वस्तुएं उपभोग के लिये ले आया। उन सबको राजा ने सफल किया / श्रीगिरी के चारों तरफ सुन्दरता को देखकर राजा सोचने लगा कि देवी के आदेश से समय आने पर सुन्दर नगर स्थापन होगा और उस नगर के मध्य के शिखर पर विधि पूर्वक श्री अरिहन्त परमात्मा का मन्दिर बनवाऊंगा। कुछ समय वहां ठहर कर भील को उचित उपदेश देकर अश्वों पर बैठ कर प्रयाण किया / ताप से व्याकुल होने के कारण वह सरोवर की पाल पर रुके / वहां एक प्रवासी आया उसके हाथ में पोपट और पोपटी का पिंजरा था, शास्त्र युक्ति से उनको बुलाकर बहुत हर्षित हुये। . ... . राजा ने पूछा 'इन्हें कहां से प्राप्त किया है ? क्या इन्हें बेचना है ? वह बोला 'नंदीपुर नगर के हरिषेण राजा की पुत्री तारालोचना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ र ये तोता तोती हैं, मेरी मार्फत वीणापुर में पद्मश्री सखी को भेजे हैं, तारालोचना ने कहलाया है कि तेरे स्वयंवर पर अनेक राजा पायेंगे, तो उस समय मैं जरूर पाऊंगी। वीणापुर में स्वयंवर के लिये मंडप तैयार हो रहा है, उसे देखने राजा मित्र सहित वीणापुर गये / वहां राजा, मंत्रा, सामन्त प्रादि अनेक प्रकार के लोग आये थे। ...... __उन सबको प्राश्चयं युक्त करते हुए श्रीचन्द्र राजा मंडप में पाए। हार भाट ने उन्हें देखकर कहा 'पात्र में दिया हुआ दान पुण्य को उपाजन करवाता है। गरीव को दिया हुअा दान दया को दर्शाता है, मित्र को दिया हुआ दान प्रीति की वृद्धि करता है शत्र को दिया हुमा दान बैर का नाश करता है, भाट को दिया हुअा दान यश की प्राप्ति करवाता है, राजा को दिया हुआ दान सन्मान दिलाता है और सेवक को दिया हुआ दान भक्ति उत्पन्न करता है / तो हे श्रीचन्द्र राजा ! आपका दिया हुआ दान किसी भी स्थान पर फल बिना का नहीं होता। .... : परनारी सहोदर, दूसरों के दुख देखने में कायर, दूसरों के उपकार के लिये तत्पर, अर्थी के लिये कल्पतरू जैसे श्रीचन्द्रः हैं / इत्यादि भाट ने कहा इतने में राजा ने कहा तुम्हारी इच्छा फले ऐसा कह कर भाट को उचित दान दिया / श्रीचन्द्र राजा ने अपने मित्र से कहा कि यहां रहने पर हम लोग पहचाने जायेंगे। ऐसा कहकर श्रीचन्द्र राजा रात्रि में ही उत्तर दिशा की तरफ प्रस्थान कर गये।। ... ..' वहां किसी यक्ष के मन्दिर में आकर सो गये, प्रातःकाल जागने . पर गत्रि में जो स्वप्न आया था वह मित्र को बताने लगे कि मेरु गिरीपर. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 74 110 कल्पवृक्ष की छाया में कोई अद्भुत देवी लक्ष्मी, कुलदेवी या ब्राह्मी ने मुझे गोद में लिया है इस प्रकार का अद्भुत स्वप्न मैंने अभी देखा है जिससे मुझे महान् लाभ होना चाहिये इसमें कोई संशय नहीं है / इतने में अटवी में से कोई चकित लोचन वाली देदीप्यमान प्राभूषणों से युक्त 'लाल फटे हुये वस्त्र वाली सगर्भा सधवा स्त्री अति वेग से प्रारही थी। अमृत के मंजन वाली दृष्टि है जिसकी ऐसी माता को देखकर श्रीचन्द्र एक दम उठकर सन्मुख गये और दोनों चरणों में नमस्कार करके कहने लगे, हे माता ! दुख और मन का खेद अब गया समझो, भय भी गया अब जाणो, मेरे भाग्य से तुम यहां किस तरह आई ? श्रीचन्द्र के वचन सुनकर और उसे देखकर हर्ष से जितने में मन्दिर में जाने लगती है इतने में श्रीचन्द्र के नाम वाली अंगूठी देखकर पहचान कर अति हर्षे . के कारण उसके स्तनों से दूध झरने लगा। ललाट को देखकर पूछन लगी कि क्या तुम लक्ष्मीदत्त सेठ के घर प्रसिद्धि पाये हुए श्रीचन्द्र हो ? राजा ने ऊं कहकर हां कही। पुत्र जानकर हर्ष से आंसू बहाती हुई गोद में लेकर प्रांसुओं से नहलाती हुई गाढ़ स्वर से रुदन करती हुई कहने लगी 'हे वत्स ! मैं तेरी मां सूर्यवती हूं। तू मेरा पुत्र है, प्राज हे पुत्र ! बारह वर्ष बाद दृष्टि से मिला है। (हस्तलिखित रास में 24 वर्ष लिखा है) ऐसा कह कर दृढ़ आलिंगन कर हर्ष से पागल जैसी होगई / श्रीचन्द्र को भी अपनी मां जावकर बहुत खुशी हुई और कहने लगे हे माता ! तुम माता कैसे हो ? लाल वस्त्र वाली किस लिये ? यह कहो / सूर्यवती ने स्वचरित्र, विवाह आदि, नैमित्तिक की वाणी, स्वप्न, चन्द्र P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 75 80 का पान, नाम मुद्रा, पुष्पों के समूह में रखना, देवी का वचन, ज्ञानी मुनि प्रादि के वचनों को कह सुनाया। ___ 'मैं गर्भवती होने के कारण मुझे विषम प्रकार का दोहद उत्पन्न हुप्रा कि 'मैं रक्त की नदी में कीड़ा करू" राजा ने मंत्री की बुद्धि से लाख के रस पूर्ण बावड़ी बनवाई उसमें मैं क्रीड़ा कर रही थी, चारों तरफ सैनिकों का पहरा था बहुत समय तक पानी में कीड़ा करके मैं तौर पर आई, मेरे लाल गीले वस्त्रों के कारण मांस की भ्रांति से भारण्ड पक्षी मुझे आकाश में ले गया, भ्रमण करता हुआ भारण्ड पक्षी आखिरकार 'नमो अरिहंताण' ऊंची आवाज में बोलने के कारण मुझे शिला पर रखकर एकदम चला गया। गुफा में रात्रि व्यतीत कर प्रातःकाल होते ही मैं इस दिशा की ओर रवाना हुई, दुष्ट पक्षियों के भय से डरती हुई दैवयोग से यहां आ पहुँची हूं। तुझे देखकर हे पुत्र ! मैं हर्ष को प्राप्त हुई हूँ और आज मेरे सारे अभिग्रह पूर्ण हुए हैं / मेरे और तेरे वियोग से तेरे पिता बहुत दुखी होंगे / - श्रीचन्द्र माता की स्तुति करने लगे / हे माता मेरा पुण्य वृक्ष आज. फला जिस कारण आप मिलीं, मैं धन्य और कृतकृत्य हुआ हूं, कृत पुण्य हुआ हूँ। आज तो मुझ पर बादल बिना की वृष्टि हुई है आज मुझे कैसे मां दिखाई दे गई। जिसने गर्भ को वहन किया जन्म बेला की उग्र पीड़ा को सहन की, फिर जिसके द्वारा पथ्य आहार, स्नान, स्तनपान, आदि प्रयत्न पूर्वक करवाया गया, विष्टा, मूत्र आदि मलिन कार्य कठिनता से करके पुत्र को जल्दी रक्षण करवाया उस मां की स्तुति में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 761 ., श दों से करू ? बाद में श्रीचन्द्र का सारा चरित्र गुणचन्द्र ने मां को कह सुनाया उसे सुनकर सूर्यवती रानी बहुत ही हर्षित हुई। पदचिन्हों के जानकार पुरुष पद चिन्हों के अनुसार वहां आये और कहने लगे हे मंत्रीश्वर ! दोनों जने ये बैठे हैं / बुद्धिसागर मंत्री ने देदीप्यमान ललाट से युक्त श्रीचन्द्र राजा को नमस्कार किया और विनती की कि हे देव ! पहले आपको देखकर पद्मश्री प्राप पर मोहित हो गई है मेरी पुत्री अमात्य गुणचन्द्र पर मोहित हैं ऐसा जानकर राजा . ने मुझे आपकी शोध के लिये भेजा है और कहलाया है कि वे स्वयंवर में आयें तो पहचान कर वरमाला पहनाना। इतने में नन्दीपुर के हरिषेण राजा की पुत्री तारालोचना द्वारा भेज़ा हुआ तोता तोती का युगल वीणापुर के राजा के पास पहुंचा। राजा की गोद में बैठी हुई राजकुमारी पद्मश्री उन्हें देखकर बेहोश हो . गई हवा प्रादि उपचारों के द्वारा उसे होश आया / राजा के पूछने पर पद्मश्री ने कहो हे तात ! मुझे पूर्व भव का स्मरण हो आया है / . कर्कोट द्वीप में मैं तोती थी वहां से मैं कुशस्थल में सूर्यवतो. रानी के पास आई वहां प्रथम जिनेश्वर के मन्दिर में जिस वर को देख कर मैंने अनशन किया था वे यहां आये हुए हैं उनके साथ ही मैं ब्याह करूंगी ऐसा कहकर उसने भोजन लेना छोड़ दिया। इतने में हरि भाट ने प्राकर कहा कि स्वयंवर मंडप में मैंने श्रीचन्द्र को मित्र सहित देखा है। रात्रि में ही सेना तथा भाट सहित आपकी खोज करने भेजा है मेरे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ + 77 1. भाग्य से आप मुझे यहां मिले हैं। हे देव ! आप यहां पधारो हरि भाट न सूर्यवती रानी को पहिचान लिया। रानी और पुत्र सहित वहां का राजा वहां प्राया, सब आपस . म मिलकर हर्षित हुए। नगर में ठाठ से प्रवेश किया। हरि भाट श्रीचन्द्र के इस प्रकार गुण गाने लगा 'कुशस्थल में प्रथम जिनेश्वर के पास तोतो ने जिन्हें देखा और यह कहा कि अगले भव में ये ही मेरे पति हों और अब राजकुमारी ने उन्हें ही वरण किया है वे श्रीचन्द्र.. जय को प्राप्त हों। गुरुवचन से अनशन करके तोती इस भव में पद्मश्री राजपुत्री बनी, प्रथम दृष्टि में जिन्हें वर धारण किया और जाति स्मरण ज्ञान से जिन्हें पहचान लिया वे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। गर्भ में वीर पुत्र हो तब रक्त में खेलने का बेहद उत्पन्न होता है उस प्रकार से जिन्हें भारण्ड पक्षी दबोच कर श्रीगिरि के नजदीक उन्हें रख गया वह सूर्यवती माता जिन्हें बारह वर्ष बाद मिली वे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। कनकपुर के कनकध्वज राजा की पुत्री कनकावती सहित जो राज्य का पोषण करते हैं और देवी सुवर्ण के नवलखा हार से श्रेष्ठ शोभा वाले नवलखा देश के स्वामी जय को प्राप्त हों इत्यादि बोलते हुए भाट को सूर्यवती आदि ने बहुत दान दिया। माता के प्राग्रह से पद्मश्री भोर तारालोचना श्रीचन्द्र को व्याही और कमलश्री गुणचन्द्र को व्याही / श्रेणिक राजा ने श्री वर्धमान स्वामी से पूछा कि पूर्व भव के स्नेह के कारण पद्मश्री ने श्रीचन्द्र को वरण किया, उसी तरह कमलश्री का पूर्व P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 78 10 भव में गुणचन्द्र के साथ क्या स्नेह था ? भगवान श्री वर्धमान स्वामी ने फर्माया 'पूर्व भव में जो धरण था वह श्री शत्रुजय गिरि पर छठ्ठ. अट्टम के तप और श्री परमेष्ठी मंत्र के ध्यान से दो हत्या के पाप से क्षणवार में मुक्त हो गया जो सिंहपुर में श्रीदेवी थी वह दूसरे भव में मानन्दपुर में सुन्दर श्रेष्ठी की जिनदत्ता पुत्री हुई। वह जिनेश्वर भगवान की धर्म क्रिया में रत थी, अनुक्रम से यौवन को प्राप्त हुई / हृदय में पति की इच्छा वाली कुमारी पिता के साथ संघ लेकर यात्रा के लिये श्री सिद्धाचल तीर्थ पर गई / धरण को तीर्थ की सेवा करते देख जाति स्मरण ज्ञान से पूर्व भव के ज्ञान होने से उसका चरित्र और पूर्व भव का योग जान कर धरण ने उसके साथ क्षमापना कर अनशन लिया। बाल ब्रह्मचारिणी ने संलेखना तप किया, धरण उस तीर्थ की महिमा से गुणचन्द्र हुआ, जिनदत्ता यहां कमलश्री बनी। बाद में बडे ठाठ से विवाह हुआ। वहां दान शालाएं आदि खुलवा कर श्रीचन्द्र वहां के राजा बने / बुद्धिसागर मन्त्री को बहुत ऊंटनियों सहित कुशस्थल प्रतापसिंह रोजा के पास भेजा / और उसे कहा कि कनकपुर में लक्ष्मण मन्त्री का समाचार कह कर कुशस्थल जाना और सारा वृतान्त कह सुनाना / श्रीगिरि में भील ने श्रीचन्द्र राजा को सुवर्ण की खान बतलाई वहां राजा ने श्रीचन्द्रपुर नामक एक विशाल नगर बसाया / श्रीगिरि के बीच के शिखर पर चार द्वार वाला श्रीचन्द्र प्रभु स्वामी का विशाल . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 76 . दरासर बनाया इस प्रकार उन्होंने श्रेष्ठ नगरा वसायी / नगरी के चारों तरफ भयंकर जंगल था। / / पूर्व पुण्य के प्रभाव से चिंतामणी रत्न से और सुवर्ण की खान द्वारा श्रीचन्द्र राजा ने पुण्य महोत्सव, जन मन्दिय, दानशालायें, प्याऊ, आश्रम और आराम गृहों से सारी पृथ्वी को सुशोभित बना दिया। दानशाला में एक दिन एक मुसाफिर आया था / उसको राजा ने पूछा, तुम कहां से आये हो ? उसने कहा कि मैं कल्याणपुर से कनकपुर होता हुआ पाया हूं। उस देश का राजा कहीं बाहर गया है, उसके राज्य को लेने के लिये 6. राजा चढ़ आये हैं परन्तु वहां के राज्य का गुणी मन्त्री लक्ष्मण चतुरंग सेना से युक्त होकर लड़ाई के मैदान में सामने खड़ा हुआ है। .. तत्काल राजा ने मन्त्रणा करके शत्रु पर गुरणचन्द्र आदि सैन्य सहित पद्मनाभ राजा को भेजा / राजा श्रीचन्द्र सैन्य को उत्साहित करने के लिये थोड़ी दूर तक उनके साथ गये, फिर सूर्य अस्त होने से पहले वापस कुछ सेना साथ लेकर लौट आए / श्रीगिरी का चारों श्रीर से निरीक्षण कर किसी रास्ते के छोटे गांव में ठहरे। वहां एक पास की एक शांत झोंपड़ी के पास प्राये वहां एक मुसाफिर ने कहा कि कल कुन्तलपुर नगर में सुधन सेठ के घर जबरदस्ती से मैं वहां सोया था / वह सेठ कंजूस है उसके चार पुत्र हैं / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 804 मध्य रात्रि में उनकी चारों बहुए स्नान करके, शृंगार आदि करके वड़ के वृक्ष पर बैठ कर कहीं गई। मैं डरता हुआ वहां रहा। :: रात्रि के अन्तिम पहर में बाहिर घूम कर बापस आई / वहाँ से निकल कर मैं पंच योजन दूर यहां माया हूं। यह सुनकर श्रीगिरि के राजा श्रीचन्द्र वहां सेना को छोड़ कर अकेले आगे के लिये निकले / ,अदृश्य गोली के प्रभाव से संध्या समय सुघन श्रेष्ठी के घर पाराम के लिये ठहरे। मध्य रात्रि में बहुए स्नान आदि कर शृंगार आदि से सुशोभित होकर घर के बाग में गई / राजा भी उनके पीछे चल पड़ा। शमी वृक्ष पर चढकर परस्पर बातें करने लगी कि कहां चले ? एक ने कहा कि मैंने कर्कोट द्वीप की बातें सुनी हैं इसलिये वहां चलें / श्रीचन्द्र राजा शमी वृक्ष के मूल को पकड कर बैठ गये / बहुए बोलीं, योगिनीनों में मुख्य खर्परा, जो विद्या को देने वाली है उसे हमारा नमस्कार हो। ऐसा कहने पर मन्त्र द्वारा वृक्ष प्राकाश में उड़ने लगा वह कुछ ही क्षणों में कर्कोट द्वीप में पहुंच गया। नगर के नजदीक किसी अच्छे स्थान पर वृक्ष को खड़ा करके, कुतूहल से नगर के अन्दर गयीं, उनके पीछे 2 राजा भी कीड़ा करते हुये आये वे आगे गयीं इसलिये गाजा ने कुतूहल से उस नगर के मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश किया। - विविध जाति के चंदण्वों से युक्त आश्चर्यकारी विशाल मंडप में दीपकों की लाइनें थीं। वहां एक सिंहासन रखा हुआ था प्रागे भाग P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ में मणी और मतियों से जड़ित पाद पीठ वाले सिंहासन को देखा। श्रीचन्द्र कौतुकवश कुछ सोचकर उस पर बैठ गये मोर मुह में से भदृश्यकारिणी गोली निकाल ली। जिसके हाथ में तलवार है ऐसे श्रीचन्द्र निर्भय होकर बैठ गये नजदीक में जो थाल पड़ा था 'उसमें से तीवुल ग्रहण कर ज्योंही दर्पण में मुख देखने लगते हैं उतने ही में दूसरे पद के पीछे रहे हए सेवकों ने तत्काल प्राकर. कहा 'हे वीर, आप जय को प्राप्त हों।' वाजिन प्रादि साज बजने लगे | गीत, नृत्य, करते हुए उन्होंने कहा कि आज सबका भाग्य फल गया है। इतने ही में नगर का राजा सेना सहित वहां पाया / श्रीचन्द्र ने उसको नमस्कार करके पूछा 'यहां क्या है ? राजा ने सिंहासन पर वठकर श्रीचन्द्र को गोदी में बैठा कर कहा, तुम हमारे भाग्य से यहां आये हो / कर्कोट द्वीप के आभास नगर में मैं रविप्रभा राजा हूँ / मेरे 9 पुत्रिय हैं। कनकसेना, कनकसुन्दरी, कनकमंजरी, कनकप्रभा, कनक आभा, कनक माला, कनकरमा, कनकचूला और मनोरमा पुत्रियों के योवन प्राप्त होते ही मैं चिंतातुर हुआ / एक बार एक निमित्तक आया, उससे मैंने पूछा कि इन कन्याओं के प्रति अलग होंगे या एक ही पति होगा ? कुछ विचार कर उसने कहा कि इन सबका एक ही भर्तार होगा। वह परद्वीप में होने से मेरा ज्ञान, वहां तक पहुंच नहीं सकता, जिससे नाम, कूल, स्थल आदि बता सकू। परन्तु आज से दसवें दिन मध्य रात्रि के बाद वह पायेगा। ...: ... __ तब से सारी सामग्री तैयार करवाके रखी है, वह शुभ दिन - माज ही है सब कुछ सत्य निकला। इसलिये अब पाप कन्यामों के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 82 10 साथ पाणिग्रहण करो। राजा के आग्रह से श्रीचन्द्र ने 6 कन्याओं से विवाह किया। वहां के नगर के लोग और वे चार बहुएं भी देखने आई और कहने लगीं यह योग अद्भुत रूप से हुआ। उन्हें देखकर श्रीचन्द्र विचारने लगे ये चली जायेंगी तब मेरा क्या होगा ? तो मैं भी इन्हीं के साथ जाऊं। / - ऐसा सोच कर बुद्धिशाली ने विवाह की विधि के बाद ऊपर महल में आकर लग्न वस्त्र पर कुकुम से 'प्रतापसिंह का पुत्र श्रीचन्द्र कुशस्थल मैं हूँ इस प्रकार लिखकर अल्प रात्रि शेष रही तब स्ववेष धारण कर अपनी अंगूठी कनकसेना को देकर और उसकी अंगूठी लेकर शरीर चिंता के बहाने वहां से बाहर निकले / राजा जल्दी 2 चलकर वृक्ष के पास पहुंचे। वहां 6 स्त्रिये पहले से ही खड़ी थीं। उनमें मुख्य खर्परा, दुसरी उमा और चार वहुए थीं। खर्परा ने कहा हे उमा ! ये बहुएं अपने घर बहुत दुःखी थी। इनके घर में भिक्षा के लिये गई थी इन्होंने बड़े आदर से मुझे उत्तम भिक्षा दी, जिससे मैंने सन्तुष्ट होकर इन्हें विद्या दी / खर्परा ने फिर कहा, हे भद्रे ! उमा मेरी शिष्या है। इसके पति के गुम हो जाने पर इसने दूसरा पति कर लिया है। यहां हम आश्चर्य देखने इकट्ठी हुई हैं अब. कौतुक देखने कुशस्थल हम चल रही हैं। चारों बहुओं ने पछा वहां क्या कोतक है? खर्परा ने कहा प्रतापसिंह राजा . के सूर्यवती राण। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S: Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 83 1. है वह राणी रक्त की बावड़ी में स्नान करके किनारे पर बैठी थीं उसी समय भारण्ड पक्षी ने वहां से उठाकर उनका हरण कर लिया। उसके वियोग से दुखी होकर राजा काष्ट भक्षण के लिये तैयार हुआ है। उसके मंत्रियों ने बड़ी कठिनता से आज प्रभात होने तक रुकने का कहा है / प्रतापसिंह ने मन्त्रियों से कहा कि राज्य सूर्यवती के पुत्र को देना / आज प्रभात में अब राजा काष्ट भक्षण करेंगे। खर्परा उमा सहित वृक्ष पर गई। श्रीचन्द्र ने सोचा मेरे पुण्य से आज मुझे यह वृक्ष मिला है, सचमुच किसी उपाय से पिता को बचाना चाहिये / ऐसा सोचकर अदृश्य पणे में खर्परा के वृक्ष के मूल में दृढ़ता से उसे पकड़ कर वठ गये। कुछ ही क्षणो में कुशस्यल पहुंच गये / वहां क्या देखते हैं कि सैकड़ों लोगों से राजा व्याप्त हैं और काष्ट भक्षण की तैयारी में हैं। श्रीचन्द्र अवधूत का वेश बनाकर वहां जाकर वोले' ठहरो, कुछ क्षणों के लिये ठहरो। राजा ने कहा तुम क्या जानते हो ? श्रीचन्द्र चिन्तन करते हों ऐसी मुद्रा बना कर बोले तुम दुख को छोड़ दो, सूर्यवती पुत्र सहित आपको थोड़े ही दिनों में मिलेगी। क्षेम कुशल के. समाचार आठ दिन के अन्दर मिलेंगे। ___ मन्त्रियों ने हर्षित होकर कहा हे देव ! यह सत्यवादी दिखाई देता है, इसलिये एक सप्ताह और ठहर जाइये / गोत्र देवी ही इन्हें यहां ले पाई है। इनके वचन सत्य होंगे / चिता को ठण्डी करके, देवी की स्तुति कर आनन्दित होते हुये राजा ने अवदूत सहित नगर में प्रवेश किया। छुपते हुए श्रीचन्द्र दोनों वृक्षों को देखने गये परन्तु वे दिखे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ नही। दोपहर में भूखे राजा तथा प्रवदूत ने भोजन किया / राजा ने / पूछा इस छोटी उम्र में आप योगी कैसे बने / श्रीचन्द्र कहने जिस मनुष्य का पेट भरा हुआ हो तो उसके शरीर में स्नेह, स्वर में मधुरता, बुद्धि, लावण्य, लज्जा, बल, काम, वायु की समानता, क्रोध का प्रभाव, विलास, धर्म शास्त्र, पवित्रता, माचार की चिन्ता, और देवगुरु नमस्कार ये सब बातें संभवित होती हैं। योग की साधना के लिये, गुदे के मूल में चार दल वाला प्राधार चक्र, चार अक्षर लिखने मध्य में 'ह' अधिष्ठान चक्र 6 कोने वाला; ब-भ-म-य-र-ल नाभि में मरिण पूरक चक्र दश दल में दस अक्षर, 'क से '. तक के कंठ में विशिद्धी सोला चक्र के सोला स्वर,ललाट में प्राज्ञा चक्र ह और स इस प्रकार योग की साधना की जाती है। जिसमें सकल संसार के हित के करने की शक्ति है, वर्ण रूप है जिसका ऐसे ब्रह्म वीज को नमस्कार करता हूं। . राजा इस प्रकार दिन और रात अवदत से चर्चा करते रहते हैं। परन्तु अपना पुत्र हैं यह नहीं जानते / अवदुत सारे राज्य का निरीक्षण करता है / किस समय वह अन्तपुर में गये होते हैं वहां जय पादि भाइयों ने मंत्रणा की कि राजा की प्रिया के दुख से मृत्यु होने वाली थी, परन्तु अवदूत ने आकर रोक दिया अब हमें राज्य किस तरह मिलेगा? एक ने कहा कि चार दिन में लाख का महल बनवावें वास्तु मूहुर्त के बाहने बीच के कमरे में शाजा को बैठाकर द्वार बंधकर उसे बला देवें / इस षडयंत्र को 'श्रीचन्द्र' ने अदृश्य रुप से सुन लियो / , P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 850 श्रीचन्द्र सुनकर जल्दी से अपने उतारे पर आये और वहां से उस लाख के महल तक की सुरग वनवा दी / गुप्त रीति से यह कार्य हो गया। 2. पांचवे दिन जय आदि के आग्रह से राजा ने अवद्त सहित महल में प्रवेश किया। बाद में द्वार बन्ध कर राजकुमारों ने आग लगा दी / राजा ने अवदूत से पूछा, ऐसा कैसे हो गया ? 'श्रीचन्द्र' ने कहा, राज्यलुब्ध तुम्हारे पुत्रों ने राज्य लेने के लिये षड़यंत्र रचा है। यह लाख का महल आपको और मुझे मारने के लिये बनाया है। कुमारों को धिक्कार है, लोभ वश. पिता को भी मारने के लिये तैयाय, हो गये। राजा ने कहा अब क्या करें ?. तत्क्षण अवदूत ने पैर के प्रहार से सुरंग को खोल कर उस गुप्त सुरंग में प्रवेश किया, इतने में तो महल जल कर गिर गया / .. . . . .... राजा सोचने लगे, यह विध्न किस प्रकार टल गया? अवदतः की बार 2 प्रशंसा करते राजा उसके उतारे पर पहुँचे / राजा को मरा हुआ मानकर, जय भाइयों सहित राज्यसभा में छत्र स्थापन करने लगा, लोग व्याकुल हो उठे, मंत्री, लोग बुद्धि हीन हो गयेः। अवदत राजा से कहने लगा, सजन नगर बरबाद हो जायगा, लुटेरे राज्य और भन्डार को लूटने लगेंगे / राजा ने उसी समय अपने अंग रक्षको को. बुलाया, वे माये औरः राजा को जीवित देख कर, हपित होकर, राजा की आज्ञा से सैनिकों ने जय प्रादि चारों भाइयों को लकडी के पिंजरे में बन्द कर दिया। .... .. ... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 86 . प्रतापसिंह राजा छत्र, चामर और प्रवदुत सहित सुशोभित हो रहे थे / राजा सुवर्ण, रत्न आदि अवदूत को देते हैं परन्तु वह लेता नहीं है / वे कहने लगे, कार्य सिद्ध होने के बाद लूगा / राजा ने कहा, तुमने मुझे दो बार मरने से बचाया है, इससे भी बढ़कर कोई कार्य सिद्ध होने वाला है ? इसलिये हे भद्र ! तुम प्राधा राज्य ग्रहण कर मुझे ऋण मुक्त करो। इस प्रकार राजा प्रतिदिन कहते हैं परन्तु वह लेता नहीं है / परोपकारी पुरुर्षों को संपदामें हर कदम पर प्राप्त होती हैं / सातवें दिन बुद्धि सागर मंत्री कुशस्थल पहुंचा, उसने द्वारपाल द्वारा कहलाया / राजा के आदेश से मत्री ने राजसभा में प्रवेश किया, उसे देखकर 'श्रीचन्द्र' हर्षित हुये। : राजा के समीप पत्रिका रखकर. मंत्री ने कहा हे देव ! वीणापुर में सूर्यवती रानी पुत्र सहित कुशल मंगल में हैं / गुणचन्द्र सहित श्रीचन्द्र राजा जय को प्राप्त हो रहे हैं / मैं कनकपुर में लक्ष्मण मंत्री को समाचार कह कर यहां आया हूं। मैं आपके पुत्र का मंत्री हूँ, वहां उनके साथ जो घटनायें ही घटी थीं कह सुनायीं / राजा ने श्रेष्ठी आदियों को पत्र उन्हें देकर अपने पुत्र के पत्र को हषं से पढ़ने लगे। मंत्री के साथ प्राया हुआ हरिभाट सविशेष पद हर्ष से गाने लगा / पुत्र और प्रिया के शुभ समाचार को सुनकर हर्ष के अश्रु ओं से पूर्ण नेत्रों से नगर में विशाल महोत्सव कराया। 'श्रीचन्द्र' ने मंत्री द्वारा कहलायां था उसी अनुसार धनंजय सेनापति ने चन्द्रकला पद्मिनी को उनके पिता के घर से लेकर बुद्धिशाली राजा सहित श्रीगिरि पर जाने के लिये P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 87 0 प्रयाण किया। सब वाजिंत्रों के नाद, से जयकलश हाथी मद से उद्दत होकर, स्थंभ को उखाड़ कर, महावत को मार कर, नगर में घरों, दुकानों, आदि को गिराता हुआ सारी नगरी को परेशान करने लगा। तब लोग पीड़ित होते हुये शोर करने लगे। उसे सुनकर प्रतापसिंह राजा ने क्या 2 हैं ? ऐसे कहते हुये महल पर चढ़कर हाथी को देखा / सैनिकों को आदेश दिया, दौड़ो 2 जल्दी पकड़ो, छल से हाथी पर चढ़कर उसे अकुश द्वारा खड़ा करो। मद से परवश बना हुप्रा हाथी सैनिकों को देखकर ओर बिगड़ा, अश्वों, रथों, हाथियों, नर-नारियों को कुचलता हुप्रा, कुशस्थल को बिलोने की तरह मथता हुप्रा, राजद्वार के नजदीक माया हुआ देखकर राजा आकुल व्याकुल हो उठा / राजा ने सपरिवार जीने की प्राशा छोड़ दी, / परन्तु ज्योंही हाथी राज द्वार के पास आया त्योही प्रवद्त ने अंकुश युक्त होकर वहां आया / . प्रतापसिंह राजा के मना करने पर तथा लोगों के हा हाकार मचाने पर भी, गज-शिक्षा में दक्ष श्रीचन्द्र स्ववस्त्र से जयकलश को कोपायमान करके, सब लोगों के भय से देखते हुये, उसके मर्म को जानने वाले ऐसे श्रीचन्द्र उसे अपने कब्जे में कर, जयकलश के कंधे पर चड़ वैठे / श्रीचन्द्र को गिराने की कोशिश कराता, डराता हुआ तथा क्रीड़ा को करता हुअा हाथी बड़े वेग से विशाल अटवी में आया, बहुत जल्दी ही अपने देश को छोड़कर वन में आ पहुंचे / तीसरा दिन था निर्मंद होकर जयकलश हाथी ने पर्वत के नजदीक स्वयं खड़े रहकर . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 88 * अपनी सूढ से राजा को पानी पीने के लिये उतारा / स्नान करके, पानी पीकर स्ववेष को धारण करके जयकलश को आवाज दी यहाँ पाओ, और फिर हाथी पर प्रारुढ़ हो गये / कुशस्थल के राजा ने सेना सहित जयकलश का पीछा किया, रात्रि तक सब जगह खोज करवायी, सब सैनिक खाली हाथ वापिस लोटे / राजा निराश होते हुये बोले 'हस्तिरत्न गया उसके लिये मेरा मन उतना दुखी नहीं, उससे अधिक दुख, जीवन रुपी रत्न को बचाने वाले, सत्य को बोलने वाला अवदूत गया उससे हो रहा है / उसका उपकार मैं कुछ भी नहीं चुका सका। उसके उपकार से दवे हुये राजा ने उसकी बड़ी प्रशंसा की / इधर जयकलश पर बैठे हुये श्रीचन्द्र राजा ने लीला करते हुए दूसरे वन में प्रवेश किया। वहां भीलों ने हस्तिरत्न छीनने के लिये कहा कि तुम कहां जा रहे हो ? चारों तरफ बाणों से भीलों को सज्ज देखकर, श्रीचन्द्र राजा स्थिर होकर, प्राते हुये बाणों का नाश करने लगे / हस्तिरत्न को श्रीचन्द्र ने इशारा किया, आज्ञा होते ही वृक्ष की शाखा को धारण कर, पत्थरों आदि के टुकड़ों से उस बलवान राजा ने भीलों को जीता / सब भीलों को दूर कर, वृक्ष के नीचे वे महान क्रान्ति वाले राजा बहुत सुन्दर दिखाई दे रहे थे / भीलों को किसने हटाया ये देखने के लिये वहां भीलनियें पायी। भील राजा की पुत्री मोहिनी श्रीचन्द्र को देखकर मोहित हो पिता से कहने लगी मेरे तो यही पति होंगे दूसरा कोई मेरा पति नहीं / जिससे भीलों के राजा ने बड़े वेग से आकर दो हाथ जोड़कर कह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ मर ..अ.राध क्षमा करिये अाप कोई मान्. तेजस्वी-पुरुष हैं, यह मेरी, पुत्री के सिवाय किसी से विवाह करना नहीं रहती, तो आप इसे महण करो / राजा ने कहा हे भीलों के राजा ! ये कन्या, भीलनी है, मैं .. क्षत्रिय हूं मेरे कुल को कलक लगेगा। Fi... मोहिनी ने कहा 'हे प्रभु ! मापका वस्त्र दो उसे मैं वरण करू।। जब वस्त्र नहीं मिला तो कहने लगी कि अपनी पादुका दे दीजिये, मैं: पादुका लेकर हृदय में धारण कर अपने जन्म को सफल करूंगी. हे :नाथ ! आपकी सेविका बनकर महल के बाहर हमेशा कार्य करूंगी; ' अगर अाप नहीं देंगे तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगी। यह सुनकर : राजा ने पादुका दी वहां बड़ा भारी उत्सव मनाया गया / भील राजा. ने कहा कि जो वस्तुएं मैंने मोहिनी के लिये तैयार करवाई. हैं उन्हें ग्रहण करो। अश्व, हाथी, रथ, रत्न, मोती,तरह 2 के कीमती वस्त्र, सेवक आदि. श्रीचन्द्र राजा के पास लाकर रखे। .... उन में अपने पंचभद्र अश्वों को सुवेग 4 से युक्त देखकर राजा हपित हुए। उन दोनों अश्वा ने प्राकर राजा को नमस्कार किया,... हर्ष से हेपाख नृत्य करने लगे, उन्हें अपने हाथों से स्पर्श कर स्वीकार , करते हुए कहा कि अहो / ये अद्भुत प्रदव कहां से पाए ? भील राजा ने कहा हे देव ! भील लोग एक बार डाका डालने गये थे.तब रास्ते में उन्होंने एक गायक से रथ और अश्व ले लिये, गायक भाग गया। उन भीलों ने अश्वः और रथ मुझे दिये हैं। उस दिन से ही ये अश्व बहुत दुखी थे प्रो र सारी रात इनकी आंखों में से प्रांसू बहते थे। इनकी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 0* सेवा में मोहिनी और सेवक हमेशा तत्पर है। मैंने यह सब मोहिनी के हस्त मेलाप के लिये करवाया है। यह प्रश्न पत्र इतने प्रानन्दित क्यों हो रहे हैं ? प्राप ही बताइये। राजा ने कहा हे भीलों के राजा ! मेरे हृदय के जीवन समान वायुवेग और महावेग अश्व और सुवेग रय को मैं अभी ग्रहण करता हूं। बाको सब बाद में / सैनिकों में से कुजर नाम के क्षत्रिय को रथ का सारथी बनाया / श्रीचन्द्र ने कहा इस जयकलश हाथी को कुशस्थल या कुडलपुर भिजवा देना, मैं अभी कनकपुर जा रहा हूँ / इस अंगूठी से मेरा नाम जान लो / श्रीचन्द्र राजा ने कहा, हिंसा का त्याग करना, चार पर्वो में आरम्भ न करना / भगवती सूत्र में कहा है, 8.14-15 और .)) पर्व होते हैं / महीने में 6 पर्व होते हैं, एक पक्ष में तीन पर्व आते हैं / विष्णु पुराग में कहा है, ८-१४और 15 पर्व हैं। रवि संक्रान्ति भी पर्व है / हे राजेन्द्र ! तेल, मांस और सी का भोग जो इन पर्वो में करता है वह नरक में जाता है, ज / विष्टा-मूत्र ही भोजन है / मनुस्मृति में कहा है, 8-14.15 और .)) पर्व हैं, जो ब्रह्मचारी हो वह स्नातक द्विज कहलाता है, किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करनी चाहिये। महाभारत में कहा है, घातक, अनुमोदना करने वाला, भक्षण' करने वाला, लेने वाला, बेचने वाला, हे युधिष्ठिर ! प्राणी के घातक कहलाते हैं / पशु के अवयवों में जितने रोम रूपी कुए हैं, उतने हजार वर्ष पशु घातक को राधा जाता है। विष्णु भरत शान्ति पर्व के पहले / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ +61 * बाद में कहा है, हे भगत ! प्राणि वध में अगर धर्म हो और उससे वग मिलता हो तो हम ससार को छुड़ाने वाले किस तरह स्वर्ग जायगे ! पशुओं को मार कर, यज्ञ करके, रक्त वहाकर मगर स्वर्ग - का रास्ता खुलता हो तो नरक में कोण जायेगा? माकड पुराण में कहा हैं जीवों का रक्षण करना श्रेष्ठ है, सब जाव जीने की इच्छा रखते हैं। इसलिये सब दानों में अभयदान प्रशस्त माना गया है / पहेला पुष्प अहिंसा, दूसरा पुप्प इन्द्रियों का निग्रह, तीसरा पुष्प जीव मात्र पर दया है, चौथा विशेष पुष्प क्षमा करना, - पाचवां पुष्प ध्यान, छट्ठा तप सातवां पुष्प ज्ञान, माटवां पुष्प सत्य, जिससे देवता भी तुष्टमान होते हैं / इसलिये हमें हमेशा सब जगह जीवों की रक्षा करनी चाहिये। . . कि महाभारत में कहा है, जू, खटमल आदि जन्तुओं को जो नहीं * मारता तथा उनकी पुत्र की तरह रक्षा करता है वह स्वर्गगामी जीव . माना जाता है / 20 आंगुल चौड़ा और 30 प्रांगुल लम्बा वस्त्र से जो छान कर पानी पीता है और उस वस्त्र में रहे हुये जीवों को फिर से पानी में डाल देता है वह जीव परमगति को प्राप्त होता है / सात गांव जलाने से जितना पाप लगता है, उतना एक दिन पानी छाने बिना पीने ' से लगता है। कसाई को एक वर्ष में जितना पाप लगे, उतना एक दिन छाने बिना पानी संग्रह करने वाले को लगता है। जो मनुष्य वस्त्र से छाने हुये पानी से सारा कार्य करता है, वह मुनि, महासाधु, योगी पौर महाव्रती है। . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 24 .. इतिहास पुराण में कहा है अदिसा यह परम धर्म है / अहिसा यह परम तप है, अहिंमा परम ज्ञान है, पहिंसा परम सुख है अहिंसा परम दान है, अहिंसा परम दम है, अहिंगा परम यज्ञ है, अहिंमा परम शुभ है। जो महात्मा अहिंसा के उत्तम धर्म का प्रापरण करते हैं, वे महात्मा विष्णु लोक में जाते हैं / ............ नग्यडल. ग्रन्थ में लिखा है, सब अभक्ष्य त्यागने योग्य हैं / मद्यपान में मस्त लोग, प्रकार्य में मस्त, हमेशा उन्हें न शौच, न तप, न जान, न बुद्धिन पुरषार्थ / मद्यपान से मति भ्रष्ट होती है / उनको द्या, ध्यान, धर्म और सत् क्रिया तो होती नहीं / मद्यमान करने वाले को क्रोध, मान, लोभ, मोह उत्पन्न हो जाता है। किसी पर किसी समय राग तो किसी समय द्वीप होता है। गंदेवचन निकलने लगते हैं / मनुष्यं मद्य पोकर मांस की इच्छा रखता है। उसके लिये जीव को मारता हैं / वांद में जब इच्छा बढ़ जाती है तो जीवों के समुदाय "मारने में भी हिचकिचाहट'नहीं करता / मद्य, मांस, और छाछ से बाहर निकले हुये मक्खन में अनेक सूक्ष्म जीवों की राशी उत्पन्न हो 'जाती है .. . .. .. . : : 'आगम में भी इन वस्तुओं में अनंत जीव उत्पन्न हो जाते हैं ऐसा कहा है। महाभारत के मास अधिकार में कहा है कि मांस हिंसा वर्धक है मांस दुख-वर्धक और दुख को उत्पन्न करने वाला है / इसलिये मांस भक्षण नहीं करना चाहिये / तिल और सरसों जितना भी मांस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 3 . " भक्षण कता है / वह घोर नरक में यावत् चन्द्र दिवाकर जव तक है तब तक जाता है। - मनु स्मृति में , भी मद्य का निषेध है। अग्नि से सात गांव बलाने से जितना पाप लगता है वह मद्यपान के एक बिन्दु मान इतिहास पुराण में कहा है, श्राद्ध में धर्म इच्छा से मोहित हुआ मध को दे तो वह लपट खाने व.लों के साथ घोर नरक में जाता है / -ौंगणा, कालिंगा और मूला के भक्षक हे. प्रिया काल में मेरा स्मरण नहीं करता, जिस घर में अन्न के लिये मूलिये लता है, वह घर श्मशानतुल्य हैं और माता-पिता से वजित होता 9. भ पुराण में उड़द, मूग के साथ कच्चा दही, छाछ खाये तो हे युधिष्ठिर वह मांस समान है ऐसा कहा है। रात्रि भोजन भी नहीं करना चाहिये / ... ..... ......... . . - मार्कड पुराण में कहा है, जब सूर्य अस्त हो जाता है तब पानी . वन समान है और अन्न मांस के समान है। स्मृति में कहा है, ब्राह्मण जाति को सुबह और सांयकाल भोजन करने का कहा है, मध्य में नहीं, पग्नि होम करने वालों की यह विधि है / इत्य:दि ऐसा कहकर श्रीचन्द्र राजा ने भील से कहा कि जब मैं कुशस्थल रहूंगा, तब यह सैनिक आदि स्वीकार करुंगा। ऐसी शिक्षा देकर, सुवेग रथ पर पारुढ होकर कुजर सारथी सहित स्वनगर की रफ वेग से प्रयाण करते हुये संध्या समय P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .* * कुडलपुर नगर के बाहर उद्यान में रथ रखकर, नगर. में गये। उस नगर का निरीक्षण कर श्रीचन्द्र को नगर के बाहर यक्ष के ५.मन्दिर सोते अभी थोड़ी ही देर ही हुकी थी इतने में राजा की पुत्री सरस्. वती विवाह की सामग्री से युक्त आयी, उसने बीच में सोये हुये को देखकर कहा, हे श्रीदत्त मंत्रिपुत्र ! तू उठ / और इस कन्या से शादी कर / श्रीचन्द्र उठे। बलात्कार पूर्वक सरस्वती ने उनसे विवाह किया / / बाद में सरस्वती ने कहा, बाहर उ टड़ी है, चलो हम उस पर ' बैठ कर कहीं दूर चलें / श्रीचन्द्र ने कहा उटडी हांकना मैं नहीं जानता "तो रात्रि में पैदल भी चलना मुश्किल है, इसलिये प्रातःकाल चलेंगे। उनके आवाज से, यह कोई ओर है ऐसा प्रतीत होने से रत्नदीप से अच्छी तरह देखा और कहने लगी, हे नाथ ! प्रापका ललाट चंदन से लिप्त नहीं है, पाप कहां से आये हैं ? राजा ने कहा, मैं मुसाफिर हूं। कुशस्थल से पाया हूँ, तुम यहां इस तरह क्यों आयीं ? तुम कौन हो ? : तुम्हें किसका भय है ? मुझ से किसलिये विवाह किया ? सुनामिका :: और सुरुपा सखियों में से एक ने कहा, हे स्वामी ! इस नगर के अरिमदंन गजा की पुत्री सरस्वती हमेशा इस यक्ष की पूजा करती है, एक बार राजा ने अपनी गोद में बैठी हुयी पुत्री को देखकर नैमित्तिक से . पूछा कि इसके लायक वर कहां मिलेगा। वह बोला कुशस्थल के प्रतापसिंह राजा का पुत्र जिसे सेठ ने बड़ा किया है वह श्रीचन्द्र महा-त्यागी, रोषायमान हुये यहां आयेंगे / राजा मौन रहे। . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 65 110 'सरस्वती को रात्रि में स्वप्न में यक्ष ने कहा मैं तुम्हारे पति की लग्न समय में अपने मन्दिर में ग्राज से पांचवे दिन ले ग्राऊंगा / रूप से वह स्वप्न प्रातःकाल होने पर सखी से कहा / इस नगर में मत्री पुत्र श्रीदत्त सरस्वती का प्रेमी था, परन्तु सरस्वती को उस पर कोई श्रम नहीं था। श्रीदत्त ने लोभ से मुझे वश कर लिया, मैंने उसे राजकुमारी का स्वप्न बताया। उसके कहे अनुसार मैंने स्वामिनी से कहा कि श्रीदत्त को भी इसी प्रकार स्वान पाया है / सरस्वती ने कहा कि पर यक्ष के वचन इस प्रकार है तो ठीक है, वह सामग्री साहत आन वाला था, परन्तु उसके पिता ने उसे आने नहीं दिया होगा जिससे वह आ नही सका। - सरस्वती ने कहा, हे देव ! यक्ष के वचन अन्यथा कैसे हो सकते है। श्रीदत्त ने मुझे ठगा था, मेरा भाग्य अच्छा है कि मेरा वर सावा ण पुरुष नहीं हुआ, यक्ष के दिये हये आप ही मेरे पति हो, मेरा परम साभाग्य है परन्तु हम अगर यहां रहेंगे तो मेरे पिता अनर्थ करेंगे। पाचन्द्र ने कहा प्रिये ! मैं और वे मनुष्य हैं फिर डरने का क्या काम ? तुम डर क्यों रही हो ? देखते हैं उनमें कितना बल है। प्रातःकाल जब श्र' चन्द्र ने मुह घोया तो उनके सूर्य रुपी भाल को देखक र सरस्वती बहुत प्रसन्न हुई / पूजारी ने उनको देखकर जल्दी . सेराजा क * सारी बात कह सुनायी राजा के आदेश से बलवान / सेनापति वहां आया। उसे देखकर, प्रिया के अंग को कांपता देख श्रीचन्द्र बोले, हे भद्रे ! तू डर नहीं / यह गरीब बेचारा क्या करेगा? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ सनिक बाहर खड़े रहे हैं अदर नहीं पाते / सेनापति ने नाम प्रादि पूछा, परन्तु श्रीचन्द्र तो कुछ भी नहीं बोलतेः / श्रीचन्द्र ने एक बार सिंहनादः वि या जिससे सब संनिक भाग खड़े हुये / यह देख, राजा स्वयं प्राया। सरस्वती कहने लगी, हे स्वामिन ! पिता यहां आये हैं अब क्या होगा।' सरस्वती की श्रीचन्द्र ने अपनी अंगूठी दिखा कर, हर्ष से सार रत्न , ग्रहण कर, कान में कुछ कहकरं, अदभुत अजन से बंदरी बना कर, राजा के पास जाकर, आस पास हे हुये सैनिको को पछाड़ कर, उस गजा के. हाथो पर कूद कर, राजा से तलवार छीन, उसे बांध कर चले गये / उन्हें , पहचान कर भाट कहने लगा, जिन्होंने चोर की गुफा में से बालपुत्र के वियोग , से दुखी ब्राह्मण मंत्री प्रिया को उसके पति के साथ मिलाया और जिन्होंने श्री चन्द्रपुर नगर बसाया, उस कुडलपुर. के अधिपति प्रता सिंह. राजा के पुत्र श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। जिनके पैर के तलुवों को राक्षस ने : भक्ति पूर्वक स्पर्श किया, ऐसे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों / उसे बहुत : लक्ष्मी देकर वन में रथ पर पारुढ़ होकर वेग से प्रयाण किया / . . : मंत्री ने अरिमर्दन राजा के बन्धन खोलें श्रीचन्द्र के शौर्य और दान को देखकर हर्ष युक्त बोले 'ग्रहों वह धीर सरस्वती का पति जा रहा है. उन्हें वापस लायो / सैनिक दौड़े परन्तु उस उत्तम. को कोई प्राप्त न कर सका / वंदरी को आंसू बहाती देख गजा ने सखी के पास . से सारी हकीकत सुन कर उनकी कला की और उनकी प्रशंसा करते. कहाँ ! हे वत्से ! प्रतापसिंह का पुत्र ही तेर। पति है, हाथियों, अश्वों सहित मैं तुझे कुशस्थल लेकर चलूगा / इस प्रकार कह कर भाट को.. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 974 उचित दान देव.र नगर में विशाल महोत्सव किया / - शुभ शकुन द्वारा प्रेरित अटवी में आकर रात्रि में वड़ वृक्ष के नीचे श्रीचन्द्र आसन पर लेट गये / कुजर सारथी को नींद प्रगई और राजा जाग रहे हैं। वहां ढोलक के मधुर स्वर को सुनकर सारथी को कहकर प्रतापसिंह के पुत्र उस दिशा की तरफ गये / किसी गिरि के * मध्य में यक्ष के मन्दिर में द्वार बन्द करके श्रीचन्द्र के दोहे सुन्दरिये गा रही थीं। ये अद्भुत क्या है ? उसे देखने के लिये दरवाजे के छेद.में से देखते हैं कि मदनसुन्दरी आठ कन्याओं को गीत नत्य प्रादि सिखा रही है / हर्ष को प्राप्त.हो विचारने लगे, मेरी प्रिया प्राप्त हो गई। , गोली से अदृश्य होकर प्रभात में जब कन्यायें जाने लगी तो उनके पोछे हो लिये। एक गुफा में प्रवेश कर दुसरे दरवाजे से मणि के दीपकों से प्रकाशित पाताल महल में पाये / महल पर चढ़ कर मदनसुन्दरी कहने लगी मेरा बांया अंग और नेत्र बार 2 स्फुरायमान हो रहा है, इसलिये आज मेरे पति या उनषा सन्देश आता चाहिये / उन कन्यानों में मुख्य रत्नचूला ने कहा मुझे भी ऐसा ही प्रतीत होता है प्राप पायीं हैं उसी दिन से तप आयंबिल मादि कर रही हैं उसके प्रभाव से आज आने ही चाहिये / रत्नवेगा ने आकर कहा कि माताजी ने भोजन के लिये सबको बुलाया है / मदनसुन्दरी . कहने लगी मुझे अभी भूख नहीं है तुम जाकर भोजन करलो। : मदनसुन्दरी के बिना दूसरी कन्यायें भी भोजन के लिये नही जाती। इतने में मा ने आकर कहा हे पुत्री ! आज तू भोजन क्यों P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * Ek नहीं कर रही है ? मदनसुन्दरी ने कहा, हे माता प्राज मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं लगी है / उस विद्याधारी ने कहा तेरे पति को ही मेरी कन्यामों ने वरण किया है, नैमित्तक के वचनानुसार भी उन्हीं के द्वारा हमें फिर राज्य प्राप्त होगा / हे पुत्री ! मैं बहुत दुखी और अभागिन हूं। स्थान से भ्रष्ट हुई है और भतीर वन में मृत्यु को प्राप्त हुआ है। देवर और पुत्र सुरगिरि पर विद्या की साधना कर रहे हैं / मैं भाई हूं तब तक कुशस्थल से कोई समाचार नहीं आये / हे बुद्धिशालिनी इतना जानते हुए भी तू इतना प्राग्रह करवाती है हमें भी अन्तराय न कर और भोजन के लिये चल / .... . 1 मदनसुन्दी भोजन नहीं करती। विद्याधरी मदनसुन्दरी को छाती से लगा लेती है, दुख से रोने लगती है / राजा सोचने लगे जिस विद्याधर को मैंने भूल से मार दिया था, उसी की पत्नि मुझ पर कितना स्नेह रख रही है। ऐसा सोचकर महल के दरवाजे पर दृश्य पन में प्रगट होकर द्वारपाल को अंगूठी अन्दर दिखाने के लिये कहा, द्वारपाल अन्दर गया। मणिवेगा ने प्राकर सुन्दर रूप और प्राकार वाले को देखकर कहा तुम कौन हो ? इतने में मदनसुन्दरी कन्याओं के साथ आई, पति को देखकर हर्षित होती हुई माता से कहने लगी हे माता ! जिनकी आप हमेशा इच्छा करती थीं वे आपके जमाई आए हैं / हषं से विद्याधरी बाहर आकर प्रशंसा करती हुई अन्दर ले गई और कहने लगी प्रतापसिंह के पुत्र ! तुम हमारे ही भाग्य से आये हो / ऐसा कहकर कन्याओं को आदेश दिया कि श्रीचन्द्र के कण्ठ में वरमाला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 66K पहनायो। हषं से उन्होंने मालायें पहनाई। श्रीचन्द्र राजा ने कहा हे विद्याधर रानी! यह कौन हैं ? और ऐसी परिस्थिती आप लोगों की कसे हो गई ? विद्याधरी ने कहा हे वीर शिरोमणि / वैताढय गिरि पर मणिनूषण नगर में रत्नचूड़ राजा और उनका छोटा भाई मणिचूड़ युवराज था। उनके रत्नवेगा और महावेगा स्त्रियां थीं। उनकी रत्नचूला और मणिचूला आदि चार पुत्रियें और रत्नकान्ता भानजी है। गोत्री विद्याधरों सहित आकाश में विचरते उत्तर श्रेणी के नाथ सुग्रीव राजा ने उन्हें जीता, जिससे सहकुटुम्ब धनादि लेकर इस पाताल नगरी में रहें। स्वदेश प्राप्त करने के लिये रत्नचूड़ अटवी में खड़ग के पास विधिपूर्वक उल्टे मस्तक से विद्या को साधने लगे इतने में तो किसी ने उन्हें मार दिया। हम प्रभात में जब पूजा और उपहारादि की वस्तुएं लेकर गये तो वे वहां मरे हुए थे . उनकी मृत्यु क्रिया कर हम अपने स्थान वापस पाई। ... रत्नचूड़ का पुत्र रत्नध्वज पिता की मृत्यु से व्याकुल अटवी में गया वहां उद्योत के भ्रम से मदनसुन्दरी को पति से अलग करके यहां ले आया। मैंने अपनी सुशीला पुत्री की तरह उसे रखा / ये हमेशा पति के गुण गाती थी, यह सुनकर प्रेरणा से पाठकन्याओं ने, वे ही पति वरण करने का निश्चय किया। मणिचूड़ ने नेमित्तिक से पूछा, तब उसने कहा जिस वर को इन कन्यानों ने चुना है वही महासात्विक पुरष तुम्हारा गया हुमा राज्य तुम्हें वापिस दिलाएगा / मणिचूड़ और - रत्नध्वज ने. बस्ती बिना के पवित्र मेरुगिरि के नन्दनवन में विद्या की P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 100 साधना शुरु की है उन्हें चार महिने हो गये हैं और दो महिने बाकी हैं / हमारे भाग्य से आप पाए हैं तो अब आप इनसे पाणिग्रहण करो। "चन्द्र के जैसी कान्ति वाली और यश वानी कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कियां / प्राग्रह से भोजन आदि कराके महावेगादि ने पहेरामणी देकर पूछा हे राजा ! आप अकेले कैसे ? उन्होंने यथायोग्य चरित्र कह सुनाया। रत्नवेगा ने जब तक मणिचूड़ रत्नध्वज प्रावे तत्र तक माप यहां सुख से रहो। आपके रहने से भविष्य में हमारा हित होगा। श्रीचन्द्र ने कहा हे माता ! मुझे बहुत कार्य है, जिससे मैं विलम्ब नहीं कर सकता कनकपुर नगर मुझे तत्काल पहुँचना है। विद्यावरों की विद्या सिद्ध करके आने में दो महिने की देर है कुशस्थल मार लोग आ जाए आपका मिलाप हुआ सो बहुत अच्छा रहा। विद्याधरी ने कहा मदनसुन्दरी का मुझे विरह न हो इतना स्वीकार करो। मुझे इसके साथ स्नेह है। श्री चन्द्र ने कहा माता ! विवाह आदि आपके स्वाधीन है आपके राज्य मिलने पर ही विवाह होगा अभी नहीं / बड़ी कठिनता से प्राज्ञा लेकर रवाना होने लगते हैं तो रत्नचूला कहने लगी प्रापका विरह हमें दुखित करेगा, फिर मदनसुन्दरी भी यहां नहीं होगी तो हमारी गति क्या होगी ? राजा ने स्नेह से मंदनसुन्दरी को वहां रहने के लिये कहा परन्तु वह वहां रहने में समर्थ नहीं। प्रिय से सती प्रब अलग कैसे रहे / बाद में अवधि का निश्चय कर जबरदस्ती वह त रहने का कहते हैं परन्तु मदनसुन्दरी वहां P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *1010 नहीं रही। मदनसुन्दरी सहित वन में आकर, रथ पर आरूढ़ होकर परस्पर अपनी 2 बातें करते कनकपुर की तरफ प्रयाण किया / क्रम से रुद्रपल्ली उपवन में आये। वहां उस नगर के राजा को हाथी प्रौर घोड़ो सहित खड़े हुये देखा, एक तरफ अग्नि बिना की चिता थी दूसरी तरफ अति दुखी कोमल अंग वाली स्त्री को राजा रोकते हुए दिखाई दिये / तीसरी तरफ कोटवाल द्वारा बांधे हुए अद्भुत पुरुष को देखकर श्रीचन्द्र राजा रथ में से उतर कर वृक्ष के नीचे खड़े हो गये और वनपाल से पूछने लगे ये सब क्या है ? उसने कहा हे सज्जनों में मुगट समान ! यह रुद्रपल्ली नगरी है, व्रजसिंह राजा और उनकी क्षेमवती नामकी रानी है उनकी यह हसावली पुत्री है / इतने में रथ और राजा को देखकर वहां के राजा ने प्राश्चर्य से मन्त्री और वहां के मुख्य लोगों को वहां भेजा। . . . . हरि भाट के भतीजे अंगद ने पहचान कर कहा कि 'कनकपुर में कनकध्वज का राज्य कनकावली पुत्री और देवों का अपित किया हुमा देवी हार का सुख जा भोग रहे हैं वे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों / वीणापुर में पद्मश्री और तारालोचना को जाति स्मरण से विवाहा वे माता सहित श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों। श्रीगिरि में विजयादेवी के सानिध्य से सदाफल उद्यान. सुवर्ण की खान, मध्य शिखर पर जिन मन्दिर, दो किल्ले भील की सहायता से मिले वे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों / श्रीगिरि पर विजया देवी के आदेश से, जिसके हृदय पर नया वस्त्र स्थापित किया वे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हों / श्रीचन्द्रपुर नगर के मध्य में प्रथम जिनेश्वर देव का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 102 10 चार द्वार वाला मनोहर चैत्य जिसने बनवाया वे श्रीचन्द्र जय को प्राप्त हो। . मन्त्रियों ने वहां जाकर पूछा और वापस आकर साग हाल राजा को कह सुनाया / हंसावली सहित राजा को आते देख, श्रीचन्द्र भी सामने गये और परस्पर नमस्कार करके एक स्थान पर बैठे। श्रीचन्द्र ने मदन सुन्दरी को उचित स्थान पर बैठा कर, राजा से पूछने लगे कि राजकुमारी के दुख का क्या कारण है ? राजा ने कहा, हे नवलक्षेश ! मेरी पुत्री हंसावली और कनकावली दोनो सखियें हैं, कनकावली अकस्मात् पाप से ब्याही, उसे और पिता के राज्य को भोगते हुये, बहुत भाग्यशाली जानकर और आपके गुणों को सुनकर हंसावली ने सर्व साक्षी से कहा, कनकावली के जो पति हैं वे ही मेरे पति हैं / इस प्रकार का विशेष पत्र कनकपुर भेजा। . लक्ष्मण मंत्री के पास से प्रापके परदेश जाने के समाचार जाने / तब से ही अन्तर से दुखी हंसावली आपका नित्य स्मरण करती है / कुडील नगर का राजपुत्र चन्द्रसेन जो हंसावली पर अनुरुक्त था, उसने हंसावली की प्रतिज्ञा को सुनकर, दुष्ट कर्म के योग से, दुष्ट बुद्धि उत्पन्न हुई / मित्र आदि से पूछे बिना, रात्रि को चन्द्रसेन ने * प्रयाण करके कनकपुर में भापकी सारी हकीकत जानी, दुष्ट बुद्धि से प्रपंच से प्रापका वेष लेकर एक मनुष्य सहित यहां आया, उसके कपट को हम पहचान नहीं सके / हमने इसे श्रीचन्द्र मानकर हर्ष से विवाह / उत्सव मनाया / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *1031 किसी एक व्यापारी ने इस दुष्ट को पहचान कर उसको बांध कर खूब मारा तब वह वोला कि में श्रीच द्र नहीं हूँ बल्कि कुडलेश राजा का पुत्र हूं / अति दुखी हुये हमें यह विवाह बड़ा विषम पड़ गया मन्त्री चिन्तातुर हो गये / इतने में प्रगद आया, उसके पास, मे आपके गुणों को सुना / उस दुख से दुखी हंसावली ममा करने पर भी काष्टभक्षण के लिये उत्सुक हुई है / जिसका मुख भी देखने योग्य नहीं ऐसे चन्द्रसेन को यहां लाया गया है / अहो? देखो उनका विश्वासघातीपन / अहो उसका छल-कपट,अहो उसका प्रदीर्घदर्शापन, अहो कुकृत्यपन अहो हमारा प्रज्ञान हमने पहले कुछ भी सोचा समझा नही / बहुत जल्दी की। श्रीचन्द्र राजा ने कहा कि इसमें आपका दोष नहीं परन्तु यह तो कर्म राजा की योजना है / जीव ने पूर्व में अनेक प्रकार के कर्म बांधे हुये होते हैं, उसी प्रकार से बुद्धि उत्पन्न होती है फिर वैसी भावना तथा वैसी योजना बनती है। जैसी भवितव्यता होती है। वैसे ही बनाव बनते हैं / दूसरों के दुख को न देख सकने वाले ऐसे श्रीचन्द्र ने उस राजा के पुत्र को छुड़ाया, पास में बैठाकर उसे कहने लगे तूं ने सत्कुल में जन्म लिया फिर इस प्रकार एक स्त्री के लिये ऐसा कपट कैसे किया। . बाद में राजकुमारी से कहने लगे, हे भद्रे ! दुख क्यों करती है ? ऐसा अकार्य न कर / मात्म हत्या करके मनुष्य जन्म को क्यों गंवा रही हो ? मन और वचन से स्वीकृत पति नहीं हो सकता, परन्तु जिसके साथ पाणिग्रहण होता है वही पति मावा जाता है, ऐसी रीति P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *1044 है / दूसरे को दी हुई कन्या किसी दूसरे से विवाहित की जा सकती है परन्तु विवाहित स्त्री दूसरे की पत्नी नहीं बन सकती। काष्ठ की थाली में आग एक बार ही रखी जाती है, कनक में पानी एक बार ही रोपा जाता है वैसे ही कन्या भी. एक बार ही ब्याही जाती है। . हंसावली ने कहा कुल स्त्री का यह धर्म है ! और 'सत्य है' जिसे मन में धारण किया उसके सिवाय वह दूसरे को वरती नहीं / मैं मन, . वचन और काया से विवाहित और फिर गीत, नृत्य नाम अादि जिसका लिया और जिसका ध्यान किया वही मेरा पति है उसके सिवाय मैं किसी ओर को कैसे सेवू ? विपर्यास से ग्रहण किया हुने धन को क्या पंडित पुरुष त्याग नहीं करते ? आपकी भ्रान्ति से हस्त स्पर्श किये हुने का भी उसी प्रकार त्याग किया जा सकता है। मन से वरण किये हुये वर के सिवाय सती स्त्री दूसरे को किस तरह स्वीकार करे ? आपने जो रुठो कहीं है; उस चोथे मंगल फेरे में लोक की स्त्रियें चित्त से * जिसे स्वीकार करती हैं वही पति होता है / मन मे धारण किया हुआ और कहा हुआ कार्य ही फलदायी होता है / और भी कहा 'मन मनुष्य के बघ और मोक्ष का कारण है / जिस तरह बहन और स्त्री को प्रालिंगन दिया जाता है परन्तु उसमें सिर्फ मन में फेर होता है / श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है जो मन सातवीं नरक ले जा सकता है .. वही भन मोक्ष में भी ले जाता है। - ''- 'उस सति को श्रीचन्द्र ने कहा, है सदाचारिणी ! वस्तु का . वास्तव में परिवर्तन हो सकता है, मणि सुवर्ण : प्रादि / परन्तु विवाहित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1050 स्त्री का फेर फार नहीं हो सकता, बुद्धि की भूल से डाला हुआ नमक अन्यथा नहीं होता, परन्तु खारा ही होता है / मीठे पानी से मन से भाटा गूधा हुआ, खारे पानी से गूधा हुआ आटा मोठा नहीं होता . परन्तु जैसा होता है वैसा ही दिखता है / जिसके साथ हस्तमिलाप हुया है वही भर्तार है वह स्त्री दूसरे के लये परस्त्री होती है / हंसावली ने कहा, मेरे चित्त में तो आप ही पति हो, इसके साथ व्याही हूँ पर इसे अपना पति मानती नहीं इसलिये मैं सती हूँ या असती यह तो केवली भगवान जानें / मुझे जो आप पर स्त्री मानते हों तो मुझे अग्नि या तपस्या का ही शरण लेना होगा परन्तु दुसरी कोई गति नहीं / पहले किये हुये कर्म के अन्तराय से तूटे ? हसावली के शील की दृढ़ता को देखकर श्रीचन्द्र राजा और राजा के पुत्र ने उसी की प्रशंसा की। . श्रीचन्द्र कहने लगे, हे राजा ! प्राणी विषय से किस प्रकार पीड़ित होते हैं / जीव धन के लिये, जीवित के लिये. अतृप्त हुये हैं, होते हैं और होंगे / बीच में तीन रेखा है, वे तीन मार्ग हैं, विशाल स्तनरुपी बजार है, स्त्रियों की चपल दृष्टि में, मदन पिशाच, स्खलना पाये हुये मनुष्य को छलता है, दारू तीन प्रकार का है, आटे का मद्य और गुड़ का / तोसरा दारू स्त्री है / जिससे जगत मोह को प्राप्त हुआ है, दारू पीने से नशा चढ़ता है, परन्तु स्त्री को देखने मात्र से नशा चढ़ता है जिससे नारी दृष्टिमदा कहलाती है उसे तो देखना भी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ नहीं चाहिये / अति संकट हो वहां जाना नहीं, विषम पंथ पर जाना नहीं, महापंथ पर जाना नहीं, संम पंथ पर जाना / परस्त्री संकट है, विधवा विषम है, वेश्या महापंथ है और स्वस्त्री पंथ है / मल्प रुप वाली परस्त्री को मन में नहीं विचारना क्योंकि वह अपथ्य है, वह रूप के रोग का कारण होती है, शरीर को क्षीण करती है / इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय, कर्म में मोहनीय कर्म व्रत में ब्रह्मचर्य व्रत मोर गुप्तियों में मनोगुप्ति कठिनता से जीती जा सकती है। पुष्प, फल का रस, दारू, मांस और स्त्री के रस को जिसने पहचान कर त्याग दिया उन महापुरुषों को मैं वन्दन करता हूँ / देव विमान मिलना सुलभ है परन्तु जीवों को श्री जिनेन्द्र का शासन और बोधि बीज दुर्लभ है / इन धर्मवचनों को सुनकर राजा, मंत्री और कन्या प्रादि ने प्रभावित होकर श्रीचन्द्र को प्रणाम किया / __ चन्द्रसेन ने कहा हे स्वामिन् ! आप मुझे प्राण देने वाले हो मैं आपका सेवक हूँ। हंसावली ने प्रतिबोध पाकर कहा, हे वर ! आपने कामदेव को त्यागा हुआ है। आपके धर्म उपदेश से पाप जीव और धर्म देने वाले हो। अापके कहे अनुसार श्री अरिहंत परमात्मा मेरे देव हैं, उनका फरमाया हुआ, दया मूल धर्म है मौर आप गुरु हैं, सर्व रत्नों में मुख्य शील रत्न मेरे शरीर का प्राभूषण हो जिससे मैं शील वृति P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *107* वाली होऊ / व्रजसिंह राजा ने कहा, हे वीर कोटीर ! हमारा यह मनोरथ है कि आप चन्द्रावली को वरो। हंसावली और मदनसुन्दरी के प्राग्रह से उसकी छोटी बहन से श्रीचन्द्र विस्तार से ब्याहे / रति और प्रीति से युक्त कामदेव की तरह श्रीचन्द्र दो पत्नियों से सुशोभित इन्द्र की तरह, अनेक प्रकार के बाजों से दिशायें गूज उठी हैं, हाथियों, घोड़ों, रथों सैनिकों आदि सहित नवलक्षेश देश की सरहद पर पहोंचे / स्वसमाचार पद्मनाभ, गुणवन्द्र आदि को पहुँचाये / स्वनाथ पधारे हैं जानकर हर्ष से सन्सुख आकर स्तुति कर परस्पर सारा वृतान्त सुनाया / गुणचन्द्र ने कहा हे देव ! दुर्जय गुणविभ्रम राजा अभी तक जीता नहीं गया। पहले से दस गुणा दन्ड तरीके मांगता है, वह 6 राजाओं से युक्त है। हम दन्ड स्वीकार कर रहे थे इतने में हमारे भाग्य से आप आ गये / जैसे बादल बिन बरसात हुई है। चन्द्रहास खडग की कान्ति वाले श्रीचन्द्र रूपी सूर्य सैन्य रूपी उदयाचल गिरि पर उदित हुये, प्रताप और देदीप्यमान देह वाले ऐसे श्रीचन्द्र सुशोभित होने लगे / प्रतापसिंह के पुत्र सिंह को पाया जान कर, शत्रु सेना जसे पक्षी कांपते है, कम्पित होने लगी। सारी ही सेना दुखित हो उठी / श्रीचन्द्र राजा ने गुण विभ्रम राजा को कहलाया कि कनकपुर के राजा के पास से जितना दन्ड लिया है उसका सौ गुणा करके वापस दो, नहीं तो युद्ध के लिये तैयार हो जाओ मैं आया हूं। इन गर्व भरे वचनों को सुनकर अन्दर से तो राजा द्रवित हो उठा पर P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 10810 बाहिर से दृढ़ होकर सैनिकों सहित रणक्षेत्र में पाया / उसे देख श्रीचन्द्र ने भी अपनी सेना को आदेश दे दिया / बहुत ही भयंकर युद्ध होने लगा, उस समय जय लक्ष्मी घन्टे के * दन्ड की तरह इधर उधर फिरने लगी / गुण विभ्रम राजा ने श्रीनगर के सैन्य को तो भगा दिया, पद्मनाभ राजा, ब्रजसिंह राजा लक्ष्मण मंत्री हरिषेण आदि को बाणों द्वारा विंदते हुये देकर श्रीचन्द्र हस्ति पर आरूढ़ हो, चन्द्रहास से शोभित हो गुण विभ्रम राजा के सन्मुख अाकर सैनिकों को भगाते हुये कहने लगे, तुम उम्न में मेरे से बड़े होने से, मुझे झुककर चले जाओ, वर्ना लड़ना हो तो पहले वार करो। .. गुण विभ्रम राजा ने कहा, तू बालक है यह क्यों नहीं सोचता? तूंजा क्यों नहीं रहा ? ऐसा कहकर तलवार से प्रहार किया / स्वमस्तक पर पाते हुये देख, कुशाग्रबुद्धि वाले श्रीचन्द्र ने चन्द्रहास खडग से उसके हाथ पर प्रहार किया / कवच होने से हाथ तो नहीं कटा परन्तु तलवार के 100 टुकड़े हो गये / यह देख कर राजाधीश ऐसे श्रीचन्द्र ने गुण विभ्रम को गले में धनुष की डोरी डालकर नीचे पटक दिया / उसके हाथी. पर से गिरते ही श्रीचन्द्र के सैनिकों ने उसे बांध लिया और लकड़ी के पिंजरे में कैद कर दिया। चारों तरफ श्रीचन्द्रकी जयजयकार होने लगी। चारों दिशाओं में जिनके गुणगान हो रहे हैं ऐसे श्रीचन्द्र कल्याणपुर में स्वाज्ञा और सात देशों में अपनी प्राज्ञा मंत्रियों द्वारा पलाते हुये क्रमशः कनकपुर में 6 राजाओं के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 106 साथ जय लक्ष्मी रुपी माला प्राभूषण की तरह जिनके गले में सुशोभित हो रही है ऐसे श्रीचन्द्र नगर में प्रवेश करते अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे। मार्ग में चलते हुये श्री. गिरि पर्वत पर जब उन्होंने सुना कि माता सूर्यवरी ने पुत्र का जन्म दिया है तो हर्ष से दान देकर महोत्सव किया और जेल में से कैदियों को मुक्त कर दिया / सब जगह मनोहर गीत, नृत्य, जगह.२ तोरण बांधे गये और सब जगह हर्ष का साम्राज्य फल गया। उस समय गुण विभ्रम राजा को मुक्त करके उसका संगान किया / यह देख गुण विभ्रम राजा श्रीचन्द्र के चरणों में गिर कर कहने लगा मेरे अपराध क्षमा करो, मैं आपका किंकर हूं। उसे पादर से अपने पास प्रासन दिया। कुडलेश ने श्रीचन्द्रपुर नगर में जाकर अति हर्ष पूर्वक सूर्यवती माता को नमस्कार किया / सब बहुओं, मन्त्रियों, राजाओं ने भी सूर्यवती रानी को नमस्कार किया। माता ने सारा वृतान्त सुनाकर छोटे भाई को श्रीचन्द्र की गोद में दिया, गोद में लेकर उसके प्रसन्नवदन चेहरे को देखकर श्रीचन्द्र ने उसका नाम एकांगवीर रखा। बाद में सब जगह समाचार लिख भेजे जिससे अनेक राजा श्रीचन्द्र की सेवा में भेटनाओं, कन्याओं को लेकर उपस्थित हुये / सब जगह आनन्द मंगल की ध्व. नियां होने लगी। - कुछ ही समयः बाद पद्मिनी, चन्द्रकला, वामांग, वरचन्द्र, सुधीर, धनंजय, विशाल सैन्य से युक्त तथा सवं समृद्धि सहित वहां आ पहूँचे जिससे चारों ओर ज्यादा खुशियां छा गई P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 110 सूर्य के समान तेजस्वी श्रीचन्द्र ने सबको अलग 2 काम सौंपे / अपने मामा और वामांग को सारे कार्यों की देखभाल धनंजय को सेनापति नियुक्त किया, बाकी के लोगों को अपने अंग रक्षक आदि अलग 2 कार्य सौंपे / पद्मिनी चन्द्रकला को पट्टराणी पद पर स्थापन किया / कुजर, मल्ल, और भील को शिक्षा देकर श्रीगिरि पर रख कर श्रीचन्द्र राजा ने सब राजाओं सहित श्री जिनेश्वरदेव को नमस्कार करके माता, भाई, प्रियाओं तथा मित्र सहित वु शस्थल की तरफ प्रयाण किया। श्रीचन्द्र हाथियों, घोड़ों, रथों, गायों, बलदों, ऊंटों, महाभटो पालकियों और विशाल सैन्य के साथ बडे ठाठ बाट से आगे प्रयाण कर रहे थे। प्रयाण से विश्व व्याकुल हो उठा, शेषनाग डगमगाने लगा, कछुआ खेद को प्राप्त होने लगी, पृथ्वी डूबने लगा, समुद्र चंचल हो उठा, पर्वत गिरने लगे दिंग हस्ति माक्रन्दन करने लगे / आकाश लुप्त हो उठा दिशाएं अदृश्य होगई, सूर्य धूल के कारण ढ़क गया इस प्रकार इतनी बड़ी सेना परिवारों के साथ श्रीचन्द्र प्रागे बढ़ रहे थे / रास्ते में श्रीचन्द्र स्थान 2 पर मन्दिर, पाठशालायें मठ, प्याऊ आदि स्थापित करते हुये क्रमशः कनकपुर कुछ दिन ठहर कर फिर वहां से प्रयाण कर कल्याणपुर नगर में आये। वहां गुणविभ्रम राजा ने अपनी पुत्री गुणवती का विशाल महोत्सव पूर्वक श्रीचन्द्र से विवाह किया / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1111 आगे आकर मदनसुन्दरी ने वहां के सुर्वण पुरुष का वर्णन कह . सुनाया जिससे माता राजा आदि सब पाश्चर्य को प्राप्त हुये / उस जगल में से सुवर्ण पुरुष को लेकर, बड़ वृक्ष के नीचे भोयरे में से पाताल महेल में आये / उसमें से सार रत्नों को ग्रहण कर क्रमशः रत्नचूड़ के मृत्यु स्थान पर श्री जिनेश्वर देव का मन्दिर बनवाया / जब आगे आये तो नरसिंह राजा ने आनन्दपूर्वक क्रान्ति नगरी में प्रवेश करवाया / नजदीक में बड़गांव में रहते गुणधर पाठक को प्रियाओं से युक्त जाकर नमस्कार किया / गुरुपत्नी को नमस्कार कर अपूर्व भेंट दी। ___ वहां से प्रियंगुमंजरी रानी और नरसिंह राजा सहित श्रीचन्द्र है मपुर नगर पाये / वहां मदनसुन्दरी का वृतान्त जान मकरध्वज राजा अति हर्षित हुप्रा / वहां से फिर कंपिलपुर आये वहां जितशत्रु राजा ने महान प्रवेश महोत्सव किया। माता के आग्रह से वहां कनकवती प्रेमवती, धनवती और हेमश्री को श्रीचन्द्र बड़े ठाठ से ब्याहे / श्रीचन्द्र को प्राये जान वीणारव भी अपने नगर से आनंदित होता हुआ वहां आया और बड़ी सुन्दर ढंग से अपना श्रीचन्द्र काव्य मधुर स्वर में जाकर सुनाने लगा। विशाल अश्वों से पृथ्वी खुद गई है, मद से भरे हुये हाथियों के कुभ में मोती झर रहे हैं, मोती के कनियों को लेकर खडग बीज की श्रेणी बो रही है / हे कुडलपति / तीनों लोकों में तुम्हें महान विशानता प्राप्त हुई है, आपकी कीर्ति रुपी लता की प्राप्ति के लिये P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ आपकी तलवार बीज बो रही है इस प्रकार बड़े मनोहर ढंग से गुणगान करने लगा। उसे श्रीचन्द्र ने पांच लाख सोना मोहर भेंट की पोर दूसरों को सुन्दर वस्त्र आदि भेंट दिये / हर्ष को प्राप्त हुआ वीणारव सुवणं मोहरों को लेकर अपने उतारे पर पाया। - उसी रात्रि में वह पांचलाख सोना मोहरें चोर चुरा कर ले गये / यह बात वीणारव ने राजा से कही / जितशत्रु राजा ने कहा, हे देव ! यहां तीन चोरों ने सारे शहर में उत्पात मचा रखा है पकड़ाई में नहीं पाते / श्रीचन्द्र राजा ने यह सुन वीणारव को दस लाख : सोना मोहर और दान में दी, उनको लेकर वह अपने उतारे पर गया। रात्रि में अदृश्य होकर श्रीचन्द्र फिरते 2 तीन पुरुषों को अच्छी तरह देख लेते हैं / उनमें से दो को तो वह पहचानते हैं कि रत्नखुर और लोहखुर चोर हैं, यह तीसरा कौन है यह सोचने लगे / बाद में ये क्या करते हैं यह देखने के लिये उनके पीछे हो गये। : : उनमें मुख्य लोहखुर जो था उसने कहा चलो वीरणारव को आज दस लाख मोहरें मिली हैं उन्हें ग्रहण करें। तीसरा जो व्रजजंव था उसने कहा, मैंने सुना है जो राजा यहां प्राया हुआ है उसक भंडार में सुवर्ण पुरुष है वह ग्रहण करते हैं / वह कहने लगा तुम्हारे पास अवस्वापिनी विद्या है मैं तुम्हारा भतीजा गंध से पहचानी हुई वस्तु याद रखता हूँ और तुम्हारा भाई गंध से धन को पहचान जाता है / लोहखुर ने कहा हे भद्र ! श्रीचन्द्र राजा धर्मनिष्ठ, न्यायी, पुण्यशाली है / जिस कारण कोई भी किसी प्रकार से उनकी कोई वस्तु नहीं ले सकता / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ इसलिये तेरा उद्यम व्यर्थ जायगा / ऐसा कहकर रज को लेकर वीणारब के उतारा की तरफ फूका। ... .... रक्षक और वीणारव आदि निद्राधीन हो गये / तब चोर अन्दर गये और गध द्वारा धन को प्राप्त कर नगर से बाहर निकले। उनके मर्म को जानने वाले श्रीचन्द्र ने भी उनका पीछा किया, उनके कये हुये मठ में आकर पीछे के भाग में धन रखकर, शिला से गुफा को बन्दकर, अवदूत का वेश पहन कर मठ में प्रांकर सो गये / यह सब कुछ देख श्री चन्द्र भी राजमहल में जाकर सो गये / प्रातः होते ही यह बात सब जगह फैल गयी कि आज भी वीणारव का धन चोरों ने चुरा लिया है।, ... . ... . . _राज्य सभा में सब राजा, मन्त्री प्रादि बैठे थे कुण्डल नरेग गुस्से से जिन शत्रु से कहने लगे कैसा तुम्हारा राज्य है जहां प्रजा को कोई सुखं नहीं ? जहां चोर बार 2. चोरी कर जाते हैं / जितशत्रु राजा अवनत मुख हो गये / यह देख भीचन्द्र बोले जो वीर श्रे ताम्बूल ग्रहण कर चोरों को पकड़ कर लाएगा उसे मैं अपने विवाह की पहेरामणी दे दूंगा। सभा में बैठे हुए लोगों ने कहा हे देव ! तांबूल लेने वाला कोई नहीं है प्रागे भी सब उपाय व्यथ गये हैं / सब सोच में पहे गये, इस प्रकार दोपहर हो गई। ...... . * उन सब बातों से अज्ञात सूर्यवती माता ने कहलाया कि देव __पूजा का समय होगया है. और भोजन का समय होगया है सवको भूख P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ लगी है, इसलिये तू जल्दी आ / 'जो भूख सर्व रूप को नाश करने वाली है, स्मृति को हरने वाली, पांच इन्द्रियों को आकर्षित में करने वाली है, कान मोर गाल को दीन करने वाली है, वैराग्य को उत्पन्न करने वाली है सम्बन्धियों को छुड़ाने वाली है, परदेश पर्यटन कराने वाली है, पंचभूतों का दमन करने वाली, चारित्र का नाश करने वाली और प्राणों का भी जिस क्ष धा से नाश हो जाता है वह भूख उत्पन्न हुई है / ... श्रीचन्द्र कहने लगे मेरी की हुई प्रतिज्ञा अभी तक निष्फल नहीं हुई जब मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी तभी में भोजन करूंगा / ऐसा कहकर श्रीचन्द्र तत्काल खड़े हो गये। गुणचन्द्र ने कहा हे देव ! साहस से ऐसे वचन न कहो चोर कब पकड़े जायेंगे ? श्रीचन्द्र राजाओं सहित पैदल चलते हुए वन क्रीड़ा करते हुए बाहर मठ में आये। वहां पर दूसरे अवधूतों के साथ उन तोनों को मुह में पान चवाये हुये देख श्रीचन्द्र मठ के बाहर बैठे और उन अवधूतों को अपने पास बुलाया। उन्होंने भाकर राजा को आशीर्वाद दिया और खडे हो गये / तब राजा ने पूछा, कि तुम में योगी कौन और भोगी कौन है ? हम योगी हैं और आप भोगी हैं / राजा बोले तब तुम्हारे मुख में यह तांबुल कैसा ? वह तीनों ही श्याम मुख वाले हो गये, दूसरे प्रवधूत नहीं तब श्रीचन्द्र की संज्ञा करते ही उन तीनों को चारों तरफ से घेर लिया नमो जिणांण कहकर राजा ने उठकर मठ का निरीक्षण किया बौर बाद.में पादेश दिया कि यहां बहुत से योगी और मुसाफिर माते P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 91151 है, इस मठ के नजदीक नई धर्मशाला बनवाप्रो / इतना कहकर वह जो पीछे की तरफ शिला थी उसे उठाकर दूर रखी और पृथ्वी खुदवाते हुये मद्भुत गुफा देखी। उसमें से राजा सवं सुवर्ण मोती आदि वस्तुप्रों को बाहर निकाल कर देखने लगे तो पूर्व की तथा अभी की चोरी हुयी सर वस्तुयें प्राप्त हो गई। हे राजन् प्रापका पुष्प अपूर्व है, अद्भुत भाग्य है, आपकी परीक्षा भी अद्भुत है और आप परोपकार करने में भी अनन्य हैं इसकी प्रकार की स्नवना को करते हुये, श्रीचन्द्र राजा ने वीणारव और जिस 2 की जो वस्तुमें थी वह सब को दे दी / तीनों अवधूतों को जितशत्रु राजा को सोंपकर महोत्सव पूर्वक अपने महल में प्राये / जितशत्रु राजा चोरों को चाबुक मादि से सजा देते हैं परन्तु वे अपना नाम आदि कुछ नहीं बताते / राजा उनको चोर जानकर कोटबाल को वध करने के लिये मादेश देता है / ऐसा जानकर बुद्धिशाली श्रीचन्द्र ने चोरों को बुलाकर पूछा, तुम कौन हो? मोर तुम्हारा क्या नाम है ? जब उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया तब राजा ने कहा, महो लोहखुर ! क्या तूं मुझे नहीं पहचानता? मैंने तुझे महेन्द्रपुर की सीमा पर पुत्री सहित जीवित हो जाने दिया ? तेरी अवस्वापिनी विद्या को मैं जानता हूं। हे रत्नखुर! प्रथम के माम्रफल का दान क्या तुझे यार नहीं है ? ये तीसरा कौन है, यह कहो / वे तीनों राजा के चरणों में झुक पड़े / सोहसुर ने कहा, हमारा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ अपराध क्षमा करें। जो लोहजंघ चोरं था उसके तीन नूत्र वज्रखुर लोहखुर और रत्नखुर अनुक्रम से कुडल गिरि, तिलक गिरी महेन्द्र गिरी में रहते थे। पहले के पास ताले को खोलने की विद्या थी, वह पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसका पुत्र यह वज्रजंघ है, इसे पिता ने अदृश्य होने की गोली थी लेकिन इसने वह खो दी | मैं लोहखुर हूं इस प्रकार कह कर वे कहने लगे, आप हमारे स्वामी हो। उनको उपदेश देकर उन्हें अपने पास बिठाया और उनके पास से जो विद्यायें थीं वह मी ग्रहण कर ली। --:. वहां से राजा महेन्द्रपुर में गये ! सोते, बैठते, उठते और चलते हर समय प्रत्येक कार्य करते समय राजा नमो जिणाणं कहते हैं। पारपर्वी तप करने लगे / महंत धर्म की आराधना करते राजा पक्के मास्तिक बन गये / गुफा में से धन निकलवा कर सुलोचना के साथ महोत्सव पूर्वक बड़े बाठ से पाणिग्रहण किया। श्री चन्द्र राजा ने गुणचन्द्र को, अपने. 14 राजानो को सेना सहित! लाने के लिये रवाना किया / लक्ष्मण, सुधीराज, सुन्दर और बुद्धिसागर इन चार मंत्रियों को भक्ति से भेंटनाः देने के लिये प्रतापसिंह राजा के पास भेजा। उन्होंने कुशस्थल जाकर वर्धामणी दी कि, राजन् ! प्राप श्री के पुत्र श्रीचन्द्र राजा, माता, भाई प्रादि सहित महेन्द्रपुर में आये हैं, वहां से लिकपुर और सिंहपुर होकर, अल्प समय में आप श्री के चरणों में नमस्कार करेंगे / / : . .... . ... / इधर गुणचन्द्र ने बाकर श्रीचन्द्र राजा से विनंती की कि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *117* कुडलपुर में भील जिस गंध हस्ती को लेकर पाया था वह हाथी हमारे से तो वहां से आता ही नहीं इसलिये आप स्वयं चलकर उसे शिक्षा दो। उसी समय श्रीचन्द्र राजा ने कुडलपुर की तरफ प्रयाण किया / सुवेग पर रथारूढ़ होकर वे वहां आये। सब राजाओं ने उनका बड़ा ही आदर सत्कार किया / राजा को गध हस्ति ने भी नभस्कार किया, श्रीचन्द्र राजा ने गजराजेन्द्र को उसके नाम से पुचकार उस पर मारूढ़ हो गये / चन्द्रमुखी, चन्द्रलेखा, वीरवर्मा के कुटुम्ब और विशा. रद आदि के साथ तिलकपुर में आये / तिलक राजा ने उन्हें बड़े प्रादर से नमस्कार किया और एक महान् महोत्सव किया। मार्ग में श्रीचन्द्र राजा चन्द्रकला सहित कई देश के राजाओं से पूजिन होते हुये वसतपुर में वीरवर्मा को राजा बनाकर, गंध हस्ति पर मारुढ़ हुये, मुकुट, कुडल आदि उज्जवल ऋद्धि सहित ऐसे सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार इन्द्र ऐरावण हाथीं पर शोभता है / पुत्र का मागमन सुनकर शीघ्र मिलने की उत्कंठा वाले प्रतापसिंह राजा ने मंत्रियों, बाजों, अन्तपुर, नगर के लोगों, नाटक मंडलियों आदि सहित कुशस्थल से प्रयाण किया / पुत्र के समाचार प्राप्त कर लक्ष्मीदत्त श्रेणी भी राजा के मादेश से रत्नपुरी से बड़े हर्षोत्सव पूर्वक रवाना हुये। ::पिता के प्रागमन को देखकर पुत्र सर्व ऋद्धियों सहित सन्मुस 1. प्रायाः / श्रीचन्द्र ने जब पिता के हाथी को देखा उसी समय वे अपने :: हस्ति! पर से उत्तर कर पैदल चलने लगे / प्रतापसिंह भी हाथी पर से उत्तर पड़े। उसी समय पुत्र ने पृथ्वी पर झुककर पिता के चरण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *1185 कमलों में नमस्कार किया / सब को बहुत खुशी हुई / राजा ने सिंहास नारुढ होकर पुत्र को गोद में लेकर बालिंगन करते हुये बहुत समय तक वियोग रुपी दावानल को हर्ष के बासुमों से क्षणवार में शान्त किया। हर्ष के प्रांसू गिरती हुई सूर्यवती भी मिली। चन्द्रकला जिनमें मुख्य है ऐसी बहुएं सखियों सहित जिनका वृतान्त सासू, ने राजा को सुनाया उन सब ने ससुर के चरणों में पड़कर नमस्कार किया / पद्मनाभ आदि राजाओं ने और गुणचन्द्र आदि सब मंत्रियों ने राजा के चरण कमल में नमस्कार किया / वरचन्द्र, वामांग, मदनपाल भौर सेनापति धनंजय ने भी नमस्कार किया कनक और कान्ड देश का राज्य प्रतापसिंह राजा के पास भक्ति पूर्वक लक्ष्मण पौर विशारद मंत्रियों ने भेंट किया / अपूर्ण सुवणं पुरुष, रत्न, पारसमणी नर-मादा मोती सुवेग रथ, महावेग, वायुवेग, गंधहस्ति, भश्व प्रादि सर्ग कीमती वस्तुयें पिता के चरण कमलों में रखीं।। - सूर्यवती रानी सबसे मिली सबने कुशल वार्ता पूछी / गुणचन्द्र ने श्रीचन्द्र का सारा चरित्र कह सुनाया जिससे राजा बहुत हर्षित हुये / बाद में माता के पास से वखीर भाई को लेकर पिता की गोद में रखा / राजा ने पुत्र को स्व-चरित्र कह सुनाया। वे अवधूत की बार 2 प्रशंसा करके स्वमात्म निंदा करने लगे और कहने लगे कि मेरे द्वारा उसका कोई उपकार नहीं हो सका / श्रीचन्द्र ने हंसकर कहा हे तात ! मापले प्रताप से भविष्य में सब ठीक होगा।.... ' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *119 : दीर्घदर्शी दृष्टि वाले श्रीचन्द्र ने सब को बहुत अच्छी तथा कीमती वस्तुयें भेंट की। तिलक राजा की विनन्ति से राजा पुत्र सहित महोत्सव पूर्णक तिलकपुर नगर में पाये / वहां पर रत्नपुरी से पिता लक्ष्मीदत्त भष्ठी को प्राते हुये सुनकर श्रीचन्द्र राजाओं, श्रेष्ठिनों अादि सहित सन्मुख जाकर माता-पिता को नमस्कार किया श्रेष्ठी ने भी सबको नमस्कार . किया, और . जाकर प्रतापसिंह राजा के पास रहे / लक्ष्मीवती बहुओं के साथ सूर्यवती के पास रही। उस समय सब को कितनी खुशी और हर्ष हुआ होगा यह तो केवली जानें / बहुत से राजाओं ने श्रीचन्द्र को कन्यायें ब्याही और बहुत भेटें दीं। सिंहपुर से सुभगांग राजा, दीप शिखा से दीपचन्द्र राजा पारि माये और पुण्यशाली और धन्य ऐसी तिलकमंजरी के साथ श्रीचन्द्र का प्रतापसिंह राजा ने विस्तार से विवाह करवाया। अद्भुत योग हुआ। सबके मनोरय फले / तिलकमंजरी की वरमाला,श्रीचन्द्र को दिन प्रतिदिन यश रुपी सुगंध फैलाती हो ऐसी अद्भुत फूलों को देने वाली वनी / वहा से वे सब रत्नपुर आये / वहां अनेक लौंग, इलायची के मंडपो और तरह 2 के वृक्षों की छाया वाले समुद्री किनारे पर श्रीचन्द्र ने प्रतापपुर नामक नया नगर बसाया। जहां माता-पिता का परस्सर मिलाप हुआ था वहां मेलकपुर नगर बसाया। प्रतापसिंह राजा के सोने और चांदी के सिक्के बनवाये / : ..कुछ दिनों बाद कर्कोट द्वीप से चित्र प्रादि 500 पहाजों में, रविप्रभ राजा का पुत्र कनकसेन, नो बहिनों सहित दश हजार हाथियों तीस हजार घोड़ों, करोड़ों सैनिकों सहित वहां किनारे पर पाकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 12010 उतरा / उस समय प्रतापसिंह राजा कोड़ा के लिये वन में गये हुये थे / कर्कोट द्वीप से हाथी, अश्व आये हैं ऐसा सुनकर सब वहां आये और पूंछने लगे यहां कैसे पाये हो ? कनकसेन ने कहा हम कर्कोट द्वीप से आये हैं और कुशंस्थल प्रतापसिंह राजा ने पास जा रहे हैं / ये नव पत्नियें श्रीचन्द्रं राजा की हैं ये सब करमोचन के समय सारी चीजें मामा ने उन्हें दी थीं / वे अकेले पाये थे, कन्यानों से ब्याह कर, स्वनाम स्पष्ट प्रक्षरों में लिख कर किसी दूसरी जगह चले गये हैं / पिताश्री के आदेश से कन्याओं का भाई मैं सारी समृद्धि सहित उन्हें छोड़ने पाया हूं, वे स्वामी कहां हैं ? राजा ने आनंदित होते हुये कहा कि प्रतापसिंह राजा के पुत्र श्रीचन्द्र यहीं हैं वे ही इस नगर के राजा हैं / कनकसेन ने आनंदित होते हुये यह ही प्रतापसिह राजा हैं उनके चरणों में नमस्कार करके कहा है पूज्य / अपने पुत्र का उपार्जित पाप स्वीकारें / बन्यामों तथा समृद्धि देखकर और चरित्र सुनकर राजा तो बहुत ही माश्चर्य को प्राप्त हुआ। ... .. ___ राज वहीं सिंहासन पर बैठकर पुत्र को परिवार सहित बुलवाते हैं / सामंतों और गुणचन्द्र मंत्रियों सहित श्रीचन्द्र हंस की तरह माये / अर्ध उठे हुये पिता को नमस्कार करके उसके पास बैठे / सूर्यवती पठरानी भी वधुनों सहित आयीं कनकसेन ने श्रीचन्द्र को नमस्कार किया। नव बहुओं अद्भुत पति को देखकर बहुत ही हर्षित हुयीं / रुप और कान्ति युक्त उन्होंने सास और ससुर को नमस्कार किया। उनके भाई कनकसेन ने यथातथ्य कहकर हाथी, घोड़े सैनिक मादि दिये। P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *121 पिता ने श्रीचन्द्र से पूछा तुम वहां किस तरह और कव गये थे? श्रीचन्द्र वृक्ष पर चढ़कर जिस तरह वहां गये और कुशस्थल आये थे सारा वृतान्त कह सुनाया। राजा मोर सब लोग बहुत ही विस्मित हुये / राजा ने नगर में श्रेष्ठ प्रवेश महोत्सव कराया और तुष्टमान होकर कहने लगे मुझे जो अवधूत के उपकार को न करने का अफसोस या वह दूर हुा / तुम्हारी उपकार परायणा भी कमाल की है तेरे गुणों से उपार्जित किये हुने ये सारे राज्य तू स्वीकार कर | श्रीचन्द्र ने मंजली जोड़ कर कहा मैं आपका सेवक हूं, ग्राप श्री के चरण कमल में मुझे राज्य ही है। वहां कई दिन रहकर, इन्द्र की तरह वहां से प्रयाण किया। सूर्यवती के कहने से भीलों के राजा को वासुरी देश देकर सिंहपुर में प्रवेश किया। वहां चन्द्रकला बहुत ही हर्षित हुई / पूर्व जन्म की भूमि देखकर गुणचन्द्र मित्र के पास बेहोश होकर गिर पड़ा / शीत उपचार से जब उसे चेतना आयी तो श्रीचन्द्र ने पूछा क्या हुआ? गुणचन्द्र ने कहा . कि पूर्व जन्म की स्मृति हो पाई तथा अपना पूर्ण भव कह सुनाया जिससे कमल श्री को भी पूर्व भव की स्मृति हुई कमल श्री ने भी पूर्व भव का वृतान्त कह सुनाया जिससे सब बोध को प्राप्त हुये / यहां जो घरण ज्योतिषी था श्री सिद्धगिरि पर अनशन करके मैं गुण चन्द्र हुा / श्री देवी धरण की पत्नी दूसरे भव में जिनदत्ता और वह इस भव में कमल श्री हुई। लोगों ने नमस्कार महामंत्र की मोर शत्रुजय तीर्थ की महिमा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *. 122 10 गायी। सुभगांग राजा ने श्रीचन्द्र को पहेरामणी देकर विवाह उत्सव मनाया। बाद में श्रीचन्द्र ने दीपशिखा नगरी में प्राकर नानीमां को नमस्कार किया / आनंद से प्रदीपवती रानी ने गोद में लेकर चुबन करके कहा, तेरा विवाह मैंने अजानते किया था वह आज हृदय में अत्यन्त आनंद देने वाला बना है / उस समय मैंने कहा था कि चन्द्रकला को वर,इसके हस्तस्पर्श से तुझे बहुत राजकन्यायें वरेंगी। पिता के आदेश से कनकदत्त श्रेष्ठी की पुत्री रुपवती से श्रीचन्द्र ने ठाठ से पाणिग्रहण किया / कुछ दिन वहां रहकर फिर कुशस्थल की तरफ प्रयाण किया / वहां जाकर श्रीचन्द्र ने विनती की कि हे पिताजी ! कारागृह में से जय प्रादि भाइयों को मुक्त करो / वे आत्मनिन्दा करते हुये पिता के सन्मुख पाये। मणिचूड़ और रत्नध्वज विद्याधर मेरुगिरि के नंदनवन से विद्या सिद्ध कर अपने नगर में आये / श्रीचन्द्र का सर्व वृतान्त सुनकर, प्रानंद से विमान रच कर, कुशस्थल के बाहर जहां राजा का पड़ाव था, आकाश में से उतरते हुये रत्नों की कान्ति से प्राकाश को देदीप्यमान बना दिया। श्रीचन्द्र को परस्पर नमस्कार करके अपनी परिस्थिति बताकर शत्रु पर जय करने की विनती की / बाद में मित्र, माता-पिता, लक्ष्मीदत्त लक्ष्मीवती और अपनी प्रियाओं सहित विमान पर प्रारूढ़ होकर श्रीचन्द्र रवाना हुये / उधर पाताल नगर में जाकर वे दोनों सर्व सामग्री सहित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 123 10 वैताट्य गिरि पर पहुंचे। वहां उन्होंने मणिभूषण नगर में प्रवेश किया / अनेक बाजों के नाद से दिशाये गूंज उठी श्रीचन्द्र मणिभूषण नगर के उद्यान में उतरे / वहां उद्यान की मनुष्यों से भरपूर देखते हैं / परपुरुष ने विनती की कि हे देव ! इस उद्यान में श्री धर्मघोष सूरीश्वर जी विराजमान हैं। उनकी धर्मदेशना सुग्रीव आदि विद्याधर भी सुन रहे हैं / राजा भी वहां गये / तब गुरु महाराज तप धर्म पर उपदेश दे रहे थे / श्रीचन्द्र को पाया हुआ जानकर उन्होंने विशेष तप के प्रभाव का वर्णन किया। स्वशक्ति से किये हुये तप से, नीचकुल में जन्म नहीं होता रोग होते नहीं अज्ञानपना भी नहीं रहता दरिद्रता नाश को प्राप्त होती है विसी भी प्रकार का पराभव नहीं होता, पग 2 पर संपदायें प्राप्त होती है / इष्ट की प्राप्ति होती है / श्रीचन्द्र की तरह निश्चय की सब कल्याण कारी वस्तुयें मिलती हैं / श्रीचन्द्र की कथा विस्तार से कहकर, स्वयंज्ञानी गुरु ने कहा, हे राजन ! हे सुग्रीव ! वे ये श्रीचन्द्र राजा हैं, पिता प्रतासिंह और सूर्यवती माता, चन्द्रकला और गुणचन्द्र आदि हैं / विद्याधरों ने प्रमोद से श्रीचन्द्र को नमस्कार करके उनकी प्रशंसा की। दुसरों ने भी नमस्कार किया। ... श्रीचन्द्र राजा ने विनती. की कि हे प्रभु ! श्री जिनेश्वर देवों द्वारा वजित पूर्व भव में मैंने कौनसा पुण्य किया था / गुरु फरमाने लगे P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *. 1241 कि श्री जंबूद्वीप में, ऐरावत क्षेत्र में, ब्रह्मण नगरी में जयदेव राजा, जयादेवी प्रिया के साथ राज्य करते थे। उनके नरदेव पुत्र था। राजा ने उसे पंडित के पास पढाने भेजा / राजा के वर्धन नामक श्रेष्ठी मित्र था उसके वल्लभा नामकी प्रिया थी उनके चंदन नामक पुत्र था उसे भी उन्होंने उसी पंडित के पास पढाने भेजा, जिस कारण राजपुत्र और श्रेष्ठो पुत्र दोनों मित्र हो गये / क्रमशः सब कलाओं में प्रवीण हो गये / उनकी क्रिया, वचन और चित्त भी एक ही समान था / धीरे 2 ने यौवनावस्था को प्राप्त हुये। क्षितिप्रतिष्ठित नगर में प्रजापाल राजा ने अपनी पुत्री अशोक श्री के विवाह के लिये उद्यान में स्वयंवर मंडप की रचना करायो, कुकुम पत्रिका द्वारा अनेक राजपुत्रों को आमंत्रण देकर बुलाया / वहां नरदेव भी चन्दन सहित आया। वहां आये हुये सब राजाओं और राजपुत्रों को छोड़कर, पूर्वभव के प्रेम के कारण अशोक श्री ने चन्दन को वरमाला पहनायो / अपना ही मित्र चुना गया है यह देखकर नरदेव बहुत आनंदित हुआ यह देखकर अपनी भानजी श्री कांता नरदेव के लिये चुनी। उन दोनों का बड़े महोत्सव के साथ विवाह किया / बाद में वे अपने नगर में पाये / 6 महीने बाद पूर्ण कर्म के उदय से चन्दन सेवकों सहित पांच जहाजों को लेकर रत्नद्वीप में गया / वहां बहुत लाभ प्राप्त करके, कोणपुर की तरफ रवाना हुआ / परन्तु तूफानी हवा के कारण जहाज संकट में पड़ गये / एक जहाज तो टूट ही गया बाक़ी के सब अलग 2 हो गये / दैवयोग से चन्दन का जहाज सनर मन्दिर के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 1251 बन्दर पर पहुँचा / वहां से मोती खरीद कर घूमता हुआ चन्दन बारह वर्ष बाद कोणपुर पहुँचा / टूटे हुये जहाज के लोग लकड़ी के टुकड़ों के सहारे निकल कर पहले ही कोणपुर पहुँच गये थे। उन्होंने चन्दन का जहाज डूबने के समाचार कहे / जिस कारण सेठ मित्रों और अशोक श्री को बहुत दुख हुमा / उन्होंने 6-7 वर्ष तक समुद्र में खोज करायी परन्तु चन्दन का पता ही नहीं लगा। लोक अपवाद से अशोकश्री ने विधवा का वेश पहना परन्तु उसे विश्वास नहीं हो रहा था / चन्दन बाहर वर्ष बाद एक दम पाया जान कर सेठ और अशोक श्री को बहुत खुशी हुई। सेठ, मित्र सास, ससुर नगर के लोग प्रादि चन्दन को लेने उसके सन्मुख गये / वह उचित दान को देता हुमा महोत्सव पूर्वक नगर में आया। घर में प्रवेश किया / अशोक श्री का धर्म कल्पद्रुम फलीभूत हुआ / कालक्रम से नरदेव राजा हुआ और प्रिय मित्र नगर सेठ हुआ / एक दिन वहां ज्ञानी गुरुदेव पधारे / राजा, भी कान्ता, चन्दन, अशोकश्री ने लोगों सहित आकर गुरू नंदन किया और यथा योग्य स्थान पर सब बैठे / प्राचार्य श्री ने धर्मलाभ पूर्वक धर्मदेशना देते हुये कहा, जिस प्रकार छाछ में से मक्खण. कीचड़ में से कमल, समुद्र में से अमृत, बांस ' में से मोती, उसी प्रकार मनुष्य भव में धर्म ही सार हैं / अन्त में राजा ने पूछा किस कर्म के योग से चन्दन और अशोकश्री का वियोग हुमा ? और किस पुण्य से वापस संयोग हुआ ? गुरुदेव फरमाने लगे कि जीव P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1261 अपने ही कर्मो से सुख और दुख भोगता है दूसरा कोई कर्म बांधता नहीं और भोगता नहीं इस भव से तीन भव पहले सुलस श्रेष्ठी था, उससे अगले भव में चन्दन किसी जगह कुलपुत्र था, अशोकश्री उसकी पत्नी थी। उसने उस भव में हास्य से वियोग वाला कर्म बांधा था / वह सुलस के भव में सुभद्रा नामकी उसकी प्रिया बनी तब उसे 24 वर्ष का वियोग हुप्रा / वह इस प्रकार है। . अमरपुरी में ऋषभदत्त सेठ के दीनदेवी प्रिया थी। उनके सुलस नामक पुत्र था उसका पाणिग्रहण सुभद्रा के साथ किया / वे दोनों अति धर्म प्रेमी थे / गुरुमहाराज के पास जाकर उन्होंने ब्रह्मचर्य बत ग्रहण किया, वे दोनों अति उल्लास से धर्म करते थे परन्तु यह सब दीनदेवी को अच्छा नहीं लगा / सुलस को संसार का रंग लगाने के लिये उसे एक जुपारी की संगत में रखा / जिस कारण वह उसकी संगति से कामपताका वेश्या के साथ 16 साल तक संसार सुख भोगता रहा / उसी के दुख में माता-पिता स्वर्ग सिधार गये / सारा धन भोग में खतम हो गया / निर्धन होने से कामपताका की अक्का ने घर में से निकाल दिया। अब सुलस धन प्राप्ति के लिये परदेश को रवाना हो गया / मागं में सफेद आकड़े को देखकर, उसके नीचे धन होगा ऐसा सोचकर धरणेन्द्र को नमस्कार करके, वहां जमीन खोद कर गुप्त रीति से हजार सोना मोहरें लेकर आगे को प्रयाण किया / किसी नगर में किसी दुकान पर एक ग्राहक को माल देने में मदद की जिससे सेठ को बहुत लाभ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 127190 हुआ / जिससे उसने प्रसन्न होकर पूछा कि किसके मेहमान हो / उसने कहा तुम्हारा ही, सेठ हर्षित होता हुआ उसे घर ले गया स्नान, भोजन प्रादि कराकर, सुलस को एक दुकान खोल कर दी। ___ वहां उस दुकान में बहुत लाभ हुआ, वहां से सुलस ने चलकर तिलकपुर में जाकर जहाजों में करियाना भरकर रत्नद्वीप की तरफ प्रस्थान किया, वहां भी बहुत लाभ हुआ / वहां से रत्न खरीद कर अमरपुरी जा रहा था रास्ते में ही जहाजों के टूट जाने से लट्ठ के सहारे किसी किनारे पर जा लगा। वहां पर केलों से अपनी भूख को शान्त कर चिन्ता ही चिन्ता में आगे बढते एक शव को देखा / उसके वस्त्र के पल्ले में पांच रत्न बन्धे हुये थे उसे लेकर वेलाकुल नगर में पाया / वहां रत्नों को बेचकर करीयारणा खरीद कर अमरपुरी की तरफ प्रयाण किया परन्तु रास्ते में ही भील्लों ने लूट लिया / फिर वह एक सार्थवाह के साथ रवाना हुआ, रास्ते में उसे पारस रस मिला, उसे बेचकर आगे जाते हुये, उसके लाल शरीर को देखकर भारंड पक्षी मांस समझकर उठा कर रोहणगिरी पर रखकर दूसरे भारडं से लड़ने लग गया। इस अवसर का लाभ लेकर, सुलस तत्क्षण वहां से भागकर गुफा में भाग गया। जब भारंड पक्षी उड़ गये तब छुटकारे की सांस लेकर, मुक्त होने से खुश होकर, जहां 2 चोट आयी थी वहां वहां प्रौषधी लगायी / इतने में एक पुरुष को देखकर पूछने लगा, कि यह क्रौनसा पर्वत है। उसने कहा ये रोहणगिरी है, यह गिरि हर एक के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1281 भाग्य के अनुसार रत्न देती है / सुलस ने राजा की प्राज्ञा लेकर पर्वत को खोदना शुरु किया जिससे उसे बहुत से रत्नों की प्राप्ति हुई / उन रत्नों का करियाणा खरीद कर अमरपुरी के तरफ प्रयाण किया। रास्ते में गाढ़ जगल में दावानल से करीयाण भस्मी भूत हो गया। प्रागे जाते हुये सुलस ने एक अवधूत को देखा, वह रस कुपिका की बातें करता था, जिससे वह आनंदित हुआ। प्रवद्त ने सुलस को डोली में बिठाकर, हाथ में भेंस की पूछ का दीवा करके कुत्रे में उतरा / रस की कुपी भरकर सुलस ने जब संज्ञा की तो उसे खींचकर ऊपर ले आया / अवधूत ने पहले कुप्पी देने के लिये कहा परन्तु सुलस ने कहा पहले बाहर निकालो फिर दंगा, जिस कारण अवदूत ने गुस्से से डोली की डोर काट दी / कुछ पुण्य के कारण डोली सहित सुलस रस में न पड़कर किनारे पर ही रह गया। उसमें पहले जिनशेखर नामक व्यक्ति गिरा हुआ था। वह मिला उससे सुलस ने बाहर निकलने का उपाय पूछा / उसने कहा कि एक ही उपाय है जब द्यो रस पीने पावे उसके पैर के चिपट जाना, उसके साथ ही बाहर निकला जा सकेगा, परन्तु मेरे अंग रस से गल गये हैं इसलिये मैं अब नहीं बच सकूगा / जब द्यो रस पीने आयी तब उसका पैर पकड़ कर सुलस बाहर निकला / वृक्ष के नीचे स्वस्थ होने के लिये बैठा तने ही मे एक हाथी वहां आया, उसे देखकर सुलस वहां से पलायन कर गया / इतने में एक सिंह आया उसने हाथी को फाड़ डाला / सुलस ने रात्रि एक वृक्ष P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 16 126 पर व्यतीत की। वहां वह प्रकाशित रत्नों को देखकर उन्हें लेकर शिर्ष नगर में आया / वहां घातुवादीयों ने घोखे से उससे रत्न छीन लिये जिससे वह अति चिन्ता में पड़ गया। उधर जिनशेखर समाधि पूर्वक मर कर आठवें कल्प में देव रुप उत्पन्न हुआ। _ 'सुलस ने एक के बाद एक प्रती हुयी आपत्तियों से घबरा कर काली च उदश को शमशान में जाकर प्रापघात करने की तैयारी की, उसी समय पुण्ययोग से जिनशेखर का ध्यान सुजस की तरफ पाया, उसने तत्क्षण वहां प्राकर सुलस को बचाकर, अपनी हकीकत कही। प्रापघात के लिये ठपका देखकर उसे बहुत धन सहित अमरपुरी में छोड़ा और कहा कि जब जरुरत पड़े मुझे याद करना / ऐसा कहकर देव अन्तरधान हो गया / राजा को भेंटना देकर सुलस घर भाकर सगे सम्बन्धियों से मिलता है। कामपताका को अपने घर लाकर उसके साथ और सुभद्रा के साथ संसार सुख भोगता है / विलास को भोगते हुये धन खतम हो गया तब वह जिनशेखर देव को याद करता है जिससे देव कोड़ द्रव्य की वृष्टि कर देव अंतरधान हो गया। एक समय सुलस ने गुरु महाराज से परिग्रह परिमाण का नियम लिया। एक दिन नगर बाहर शरीर चिन्ता के लिये वाहर गया वहां उसने धन देखा, नियम होने के कारण उसने वह धन नहीं लिया / ये समाचार जब राजा को मिले तो राजा ने प्रेम पूर्वक उसे राज्य का खजानची बनाया / कई वर्ष बीत जाने पर एक ज्ञानी गुरु महाराज पधारे / उनकी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ को.१३० / देशना सुनकर वैराग्य से राजा, सुलस और सुभद्रा ने ससार त्याग कर दीक्षा ग्रहण की। संयम की उच्चतम रुप मे साधना करते हुये, प्राम रस पीते हुये, ज्ञान, ध्यान में प्रगति करते हुये सुलस ने 500 अखंड प्रांबिल किये और सुभद्रा ने 1000 अखड प्रांबिल किये / संया की साधना और आयंबिल तप के महान प्रभाव से, वे प्रभाविक पुण्य उपार्जन करके क्रमशः काल धर्म को प्राप्त हो, सर्वोत्तम पुण्य के प्रताप से दोनों ने बहुत लम्बे समय तक देवी सुख भोगे / वहां से चव कर सुलस तो तू बना और सुभद्र तेरी पत्नी अशोकश्री बनी। . चन्दन पूछने लगा कि अब कर्मों के क्षय का उपाय बताइये / तब प्राचार्य देव ने फरमाया कि अगर तुम कर्मो का क्षय चाहते हो तो श्री जिनेश्वर देव द्वारा कथित तत्व सुनने, तथा प्रागम विधि से श्री वर्धमान आयंबिल तप को करने से निकाचित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। गुरु महाराज के आदेशानुसार, चन्दन, अशोकश्री और सगे सम्बन्धियों ने आनंद से महान तप की शुरुआत की। चन्दन की धावमाता, सेठ का सेवक हरी और 16 पड़ोसन स्त्रियों ने भी लज्जा से, इस प्रकार बहुत लोगों ने तप शुरु किया। परन्तु बहुत कम लोगों ने उस महान् तप को पूर्ण किया / दही, दूध, घी पकवान, खादिप, स्वादिम आदि से पूर्ण घर होने पर भी महान तप में तत्पर होकर चन्दन और अशोकश्री ने तप पूर्ण किया / नरदेव राजा ने मित्र के तप को बहुत प्रशंसा की / परन्तु उसमें मुख शुद्धि न होने के कारण कुछ घृणा भी की / चन्दन ने तप P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1310 पूर्ण होने पर विधि पूर्वक बड़े ठाठ से महोत्सव पूर्वक तप का उद्यापन करके, क्षेत्रों का पोषण करके कालधर्म को प्राप्त हो, अच्युत इन्द्र बना और अशोक त्री का जीव सामानिक देव हुआ। बाहरवें देवलोक में देवी सुख भोगकर, श्री धर्मघोष सूरीश्वरजी ने कहा, वह अच्युत इन्द्र वहां से च्यव कर कुशस्थल में श्रीचन्द्र के रुप में जन्मा, तथा सामानिक देव चन्द्रकला पद्मिनी रुप में जन्मा जो तुम परी पट्टराणी हुई है / मित्र नरदेवघृणा करने से बहुत भवों में भ्रमण कर, सिंहपुर में धरण ब्राह्मण हुआ। श्री सिद्धाचल तीर्थ पर जाकर अनशन कर इस भव में गुणचन्द्र मंत्री पुत्र, जो तेरा प्राण प्रिय मित्र है। हरी और धावमाता इस भव में लक्ष्मीदत्त और लक्ष्मीवती बने, पूर्ण के स्नेह वश जिन्होंने तेरा पुत्रवत् पालन पोषण किया, पाड़ोसिने राजकुमारिये बन कर तुम्हारी प्रियाएं बनीं / कामपताका जो सुलस के भव में थी वह भील राजा की मोहनी कन्या हुई, इस प्रकार सारा चरित्र कह सुनाया। उस को सुनकर श्रीचन्द्र, चन्द्रकला, गुणचन्द्र प्रादि को जातिस्मरण ज्ञान होने से अपना पूर्णभव, उसी तरह साक्षात देखा / उन्होंने प्राचार्य देव की बहुत ही स्तवना की / उपो समय पुग्रीव की पुत्री रत्नवती को जाति स्मरण ज्ञान होने से पूर्व भव के स्नेह के कारण उसने श्रीचन्द्र को वरा / श्रीचन्द्र ने रत्नवेग आदि विद्याधरों से अज्ञानता से प्रजानते रत्नचूड़ के वध की हकीकत कहकर उनसे क्षमा याचना की। सुग्रीव और मरणोचूड़ ने भी परस्पर क्षमा याचना की। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1321 श्रीचन्द्र ने सबके साथ महोत्सव पूर्णक नगर में प्रवेश किया / दक्षिण और उत्तर श्रेणी के अधिपति विद्याधरों ने रलों और कन्या कों सहित पाकर नमस्कार किया / रत्नवती, रत्नचूला, मणिचूलिका और रत्नकान्ता आदि और भी विद्याधरों की दुसरी पुत्रियों का श्रीचन्द्र से पाणिग्रहण किया / करमोचन के समय आकाशगामिनी और कामरुपिणी विद्यायें मिलीं। - सुग्रीव प दि 110 विद्याधर अधिपतियों ने श्रीचन्द्र महाराजा को,विद्याधरों के चक्रवर्ती रुप में विधि पूर्नक महोत्सव से अगिषेक किया। बाद में श्री सिद्धगिरि शिखर की यात्रा करके, माता-पिता, पत्नियों विद्याधरों सहित, विद्याधरों की विनती से उनके नगरों का निरीक्षण किया / आकाश को चित्र विचित्र करते हुये, विद्य घरों की श्रेष्ठ सेना सहित, रत्नों के अनेक वाजित्रों के नाद से गाजते हुये श्रीचन्द्र रुपी मेघ कुशस्थल भाये / कुशस्थल नगर में छोटे-बड़े विशाल मंच बांधे गये / केले के स्थंभ गाड़े गये / बहुत सुन्दर 2 तोरण बन्धे / जिनके हाथों में केसर चमक रहा है, ऐसे हाथों से मोतियों के स्वस्तिक होने लगे | कोई हाथों में पुष्पों की माला लेकर खड़े हैं, तरह 2 के ध्वज लहरा रहे हैं और अनेक गीत नत्य हो रहे हैं / स्त्रिये धवल मंगल गीत गा रही हैं / स्थान 2 पर चन्दन और कुक म से पवित्र किये हुये राजभुवन हैं, सुन्दर शृंगार से सज्जित ऐसी नारियों और नरों से श्रीचन्द्र ने कुशस्थल में प्रवेश किया / मंगल के लिये किये गये पूर्ण कुभ और अक्षत पात्रों से, राज P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ *133* . भवन छोटा हो गया। सुहागिन स्त्रियों तथा कन्याओं ने श्रीचन्द्र महार राजा को मोती और अक्षत से वाया / कवि और भाट लोगों ने स्तुति शुरु की / सिंहासन पर बैठे हुये पिता के चरण कमलों के नजदीक श्रीचन्द्र अत्यन्त ही सुशोभित हो रहे थे। कुछ समय पश्चात द्वारंपाल द्वारा सूचना कराकर, कुडलपुर नरेश भेंटगगा रखकर, बन्दरी को बिठाकर सभा को प्राश्चर्य चकित कराता हुआ भक्ति से नमस्कार करके कहने लगा, मेरे द्वारा पूर्व में अज्ञानता वश जो अपराध हुप्रा है उसे क्षमा करें / प्रतापसिंह राजा ने पूछा यह कौन है ? तुमने क्या अपराध किया है ? नरे, ने हाथ जोड़ कर साग हाल कह सुनाया। प्रतापसिंह के कहने से वानरी की प्रांस में अंजन डालकर श्रीचन्द्र ने उसे फिर सरस्वती बनाया / लज्जा पूर्वक सास-ससुर को नमस्कार कर, चन्द्रकला आदि को नमस्कार कर, सखी सहित वहां रही मोहनी रत्नों और भीलों सहित वहां आयी। उसे श्रीचन्द्र ने अपने महल के द्वार के प्रागे स्थापन की / ब्राह्मणी शिवमती को नायक नगर अर्पण किया और बाद में चोर की गुफा में से सारा धन मंगवाया / विद्या के बल से विद्याधर राजापों के बल से, चतुरंगी सैन्य बल से और स्वबुद्धि बल से श्रीचन्द्र ने समुद्र तक तीन खण्ड की भूमि को जीता | सोलह हजार देशों के राजाओं ने श्रीचन्द्र को नमस्कार किया / हाथियों घोड़ों, रथों और सैनिकों सहित श्रीचन्द्र अर्धचक्री की तरह शोभने लगे प्रतापसिंह राजा ने एक शुभ दिन, शुभ समय में विद्याधर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 134 राजाओं और दूसरे राजारों के समक्ष श्रीचन्द्र का महान राज्याभिषेक विया / एक छत्री राज्य को करते हुये र जाधिराज बने महापट्टणी पद्मिनी चन्द्रकला बनी और सोलह पटरानिये 1 कनकावली 2 पद्मश्री 3 मदनसुन्दरी 4 प्रियंगमंजरी 5 रत्नचूला 6 रनवती 7 मणिचूला 8 तारालोचना | गृणवती 10 चन्द्रमुखी 11 चन्द्रलेखा 12 तिलकमंजरी 13 कनकवती 14 कनकसेना 15 सुलोचना 16 सरस्वती हुई। चन्द्रावली रत्नकान्ता, धनवती अदि रुप, लावण्य, सौभाग्य लक्ष्मी की स्थान भूत 160. •ानियें हुई / चतुग कोविदा आदि सखिये हजारों हुई / पूर्व पूण्य के भोग फल से विद्या से स्वइच्छानुसार रुप बनाकर श्रीचन्द्र राजाधिराज इच्छानुमार भोग भोगते थे / सुग्रीव को उत्तर दिशा कः राज्य सौंपा और दक्षिण श्रेणी का राज्य रत्नध्वज और मणिचूल को दिया / जय आदि चारों भाइयों को कई देशों का राज्य दिया / सब जमह वह धर्म राज्य को चलाने लगे। सोल हजार मंत्रियों में 1600 मुख्य मंत्री थे, लक्ष्मण आदि 16 अमात्य थे उन सब में मुख्य मंत्रीराज गुणचन्द्र था। 42 लाख हाथी, 02 लाख उत्तम अश्व, 42 लाख रथ, 42 लाख ऊट 42 लाख गाड़े, 10 करोड़ साधारण घोड़े, अड़तालीश करोड़ धनुर्धारी सैनिक, उत्तम सेनाधिपति धनजय सहित हमेशा श्रीचन्द्र राजाधिराज की सेवा करते थे। 42 हजार ऊचे ध्वज, 42 हजार बाजे और उतने ही उनके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ . 1350 बजाने वाले, 42 हजार छत्र,चामर को धारण कराने वाले पुरुष,४२ हजार महावत शोभते थे, हरि तारक आदि भाट, वीणारव आदि गायक और दूसरे व वियों से स्तुति करवाते हुये श्रीचन्द्र सुशोभित होते थे। सर्व देशों में सब जातियों में लोगों को इच्छित दान देकर, सारी पृथ्वी को अऋणी किया। सर्व निमित्रों और सर्व शास्त्रों के प्रादि में श्रीचन्द्र संवत्सर अंकित कराया / दानशालायें, प्याऊ, मठ, मन्दिर प्रादि प्रत्येक सोलह 2 हजार कराये / सत्तर वार सब जीवों को बोधिवीज देने वाली मात पिता सहित महायात्रायें की। प्रतिदिन श्री जिन पूजा, आवश्यक क्रिया और मात-पिता की भक्ति, गुरु महाराज की चरण स्थापना को वन्दन सन किया को करते थे / सारे देशों में अमारी की घोषणा की और अहिंसा को फैलाया / गांव-गांव में, गिरि-गिरि पर श्री जिन मन्दिर, जिन बिंबों की स्थापना करके पृथ्वी को श्री जिनेश्वर देव से मंडित की। श्री जिन आज्ञा के पालक ऐसे वे, सात क्षेत्रों में धन देते हुये, चार पर्वो में कुव्या . पार का निषेध करते हुये, श्री जिन वचन तथा उनके कहे हुये तत्वों में श्रद्धा रखते हुये राज्य पर शासन कर रहे थे / मानन्द पूर्वक बहुत समय व्यतीत हो गया / मुख्य तीन धर्म, अर्थ और काम को भोगते हुये चन्द्र कला की कुक्षि से चन्द्र स्वपन से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1364 सूचित पुत्र रत्न का जन्म हुआ / दादा ने उसका नाम पूर्ण चन्द्र रखा। सर्व देशों में जन्म महोत्सव मनाया गया। दुसरी रानियों के भी अनेक पुत्र जन्मे / श्रीचन्द्र पुत्रों सहित इन्द्र की तरह शोमते थे / महामल्ल राजा और शशिकला रानी के प्रेमकला पुत्री हुई उसके साथ ऐकांगवीर भाई को परणाया। कुटुम्ब के दिन हर्ष पूर्वक व्यतीत हो रहे थे / एक दिन उद्यानगल ने प्राकर सूचना दी कि नगर के उद्यान में मुनि समुदाय से युक्त पुण्य के पुन्ज श्री सुव्रताचार्य पधारे हैं / प्रतापसिंह आदि सब आनन्द को प्राप्त हुये। प्रतापसिंह राजा, श्रीचन्द्र राजा और दूसरे राजाओं और स्वप्रियाओं सहित मंत्रियों, लोगों आदि के साथ आकर गुरुमहाराज को 'विधि पूर्वक नमस्कार करके उचित स्थान पर बैठे / धर्मलाभ युक्त गुरुमहाराज ने देशना शुरु की कि विश्व में श्री जिनेश्वर देवों ने साधु मोर श्रावक़ दो प्रकार के धर्म कहे हैं। साधु धर्म के पांच महाव्रत, तीन गुप्ति और पांच समिति, श्रावक के 12 व्रत, देव पूजा 'मादि धर्म कहे हैं। श्री जिनेश्वर देव की पूजा से "मन को शान्ति प्राप्त होती है मन की शांति से शुभ ध्यान उत्पन्न होता है, शुभ ध्यान से मोक्ष का अव्याबाध सुख प्राप्त होता है / द्रव्य स्तवना से उत्कृष्ट अच्युत देवलोक तक जा सकते हैं और भाव स्तवना के अन्त र मुहूंत में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त होता है / श्री जिन मन्दिर जाने की मन से इच्छा करे तो एक उपवास का फल उठने से बेले का फूल प्रयाण के प्रारम्भ में तेले का फल, चलते.. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1371 हुये 10 उपवास का फल, मार्ग में 15 उपवास का फल, देरासर का दर्शन होते महीने के उपवास का फल, श्री जिनेश्वर प्रभु के दर्शन से 1 वर्ष के उपवास का फन, तीन प्रदिक्षणा से एक सौ वर्ष के उपवास का फल, श्री जिनेश्वर देव की पूजा से हजार वर्ष का फल और श्री जिन स्तवना से अनंतगुणा फल प्राप्त होता है / कहा है कि न्हवरण स्नात्र करने से एक सो गुणा विलेपन से हजार गुना, पुष्प माला पहनाने से लाख गुना और गीत, नृत्य, वाजिन आदि भावपूजा से अनंतगुणा 'कचन मणि और सुवर्ण के हजार यंमों वाला,' सुवर्ण की तल भूमि, श्री जिन भवन कराये उससे भी तप और संयम अधिक है। यह सुनकर बलात्कार श्रीचन्द्र की अनुमति लेकर प्रतापसिंह राजा, और सूर्यवती पटरानी आदि अनेक रानिओं, लक्ष्मीदत्त प्रिया सहित, और मति राज प्रादि मत्रियों ने दीक्षा ग्रहण की। कितनों ने सर्व विरति कईयों ने सम्यक्त्व और देश विरति यथाशक्ति व्रत लिये / श्रीचन्द्र राजाधिराज ने प्रियाओं सहित श्रावक धर्म स्वीकार किया / सम्यक्त्व मूल पांच व्रत सात उत्तर व्रत इस कार श्रावक के 12 व्रत लिये / श्री अरिहंत भगवान को नमस्कार करके अभिग्रह किया प्रमाण करते हैं / 'अरिहंत मेरे श्रेष्ट देव हैं, निग्रेन्थ सुसाधू मेरे गुरु हैं और जिनेश्वर' देवों ने जो कहा है वह ही तत्व है / इस प्रकार जावजीव सम्यवत्व को धारण किया / श्री जिनेश्वर देव की त्रिकाल पूजा करुंगा, उभयकाल आवश्यक क्रिया करुंगा / श्री जिनेश्वर देव के गर्भ गृह में दश विध प्राशातना टालूगा / तंबोल, पशुची डालना विकथा, नींद भोजन पानी कीड़ा कलह, जूती और हास्यकथाये दश P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 13810 आशातना टालूगा / प्रतिदिन एक हजार श्री महामन्त्र नमस्कार का जाप करुंगा / 300 गाथा का स्वाध्याय करुंगा / एक लाख द्रव्य सात क्षेत्रों में खर्च करुंगा। पहेला स्थूल प्रणातिपात विरमण व्रत, अपराध बिना किसी भी जीव का विकल्प पूर्णक वध नहीं करूंगा और नहीं कराऊंगा। दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत, पांच प्रकार के बड़े झूठ नहीं बोलूगा / तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत , अपराधी सिवायें, कोई भी वस्तु दिये सिवाय ग्रहण नहीं करूंगा / चोथा स्थूल ब्रह्मचर्य व्रत, स्वपत्नियों को छोड़कर जावजीव शीलव्रत पालूगा / पांचवां परिग्रह परिमाण व्रत, नवविध परिग्रह में से तीन खण्ड राज्य के सिवाय का परिग्रह कम करूंगा। धन धान्य, रूपा, सुवर्ण, खेत महेल दो पैर वाले, चार पैर वालों आदि का भी प्रमाण रखा / छट्टा दिग परिमाण व्रत, तीन खन्ड में नीचे एक कोस से ज्यादा नहीं, ऊपर नेताढ्य भूमि को छोडकर श्री जिनेश्वर देव की यात्रा सिवाय जाऊंगा नहीं / सातवां भोगोपभोग विरमण व्रत में अनतकाय, अभक्ष्य भोजन का त्याग वस्त्र प्राभूषण का परिमाम, सचित्त वस्तुओं का त्याग, कंद, सूरनकंद, हरी, सोंठ, हरी हल्दी, हरा काचरा, सतावली. वी गली, कुंवार पाठा, अदरक, थोर गिलोय, विरूध, लस्सन्न, वांस, करेला, गाजर, लोग्रेन की भाजी, लोढ़ की भाजी, गिरिकरण, कोमल पान, किसलय कोमल-वनशेरुग, थेग, अल मोया, भूमिरुपा, वथुना की भाजी, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 136 पंल्यक की भाजी, कोमल इमली इस प्रकार 32 अनंतकाय, का त्याग / 1 मध, 2 मदिरा 3 मांस 4 मवखन 5 उदुबर वृक्ष के पांच अंग, रात्रि भोजन, बोल अथाणा, बोल अठा, बर्फ, करा, कच्ची मिट्ठी, कच्चा दूध-दही साथ में द्विदल फुग वाला, चलित रस वाला, अज्ञात फल, तुच्छफल, बहुवीज फल इस प्रकार 32 अभक्ष्य का त्याग किया / 15 कर्मादान, अंगार कर्म, वन कर्म, शकटकर्म, गाड़ी अश्व आदि किराये पर फिने खेती, वोरीग पृथ्वी खुदवाना, दन्त वाणिज्य, कस्तुरी, दांतवाले, पंख, ऊन, हिलते, चलते प्राणी के अंग का व्यापार नहीं करना / मद्य, मखन, मांस, दुध, घी, तेल आदि का व्यापार नहीं करना / विष, अफीम, सोमल, शस्त्र, हल, खुदाली, फावड़े आदि का व्यापार नहीं करना। जिन, चक्की, घाणी, पशु पंखी की पूछ काटनी, पीठ गालना, डाम देना. खसी करना, दव, धन, खेत में अग्नि, कुए', तालाब खुदवाना,नहर कडवाना,पानी सुकवाना,असती का पोषण, मैना,पोपट, वेश्या आदि का पोषण और उसकी कमाई लेने आदि धन्धे का त्याग किया। पाठवां अनर्थदण्ड विरमण व्रत, प्रार्तघ्यान, रौद्रघ्यान, पाप का उपदेश नहीं करना, हिंसक वस्तुओं का दान नहीं देना, प्रमाद नहीं करना / शस्त्र, अग्नि, सांवेला, यन्त्र औषध, पक्षियों का युद्ध करुंगा नहीं, कराऊंगा नहीं। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 1404 नवमा सामायिक व्रत प्रार्त, रौद्र ध्यान छोड़कर मुहूं त मात्र (48 मिनिट) समभाव में यथाशक्ति रहूंगा। दसवां देशावकाशिक व्रत, दिशिव्रत का परिमाण, दिन में संक्षेप और रात्रि का अभिग्रह करूंगा। चउदह नियमों में भोजन, विगई, वाहन, सचित वस्तुओं का दिशा आदि का प्रमाण, द्रव्य, तंबोल, आसन, विलेपन, जूतियें, स्नान, सुगन्धी, की मर्यादा ब्रह्मचर्य, 1-2 सचित्त का त्याग, विगई 2-3 सिवाय त्याग, चार पैर वाले, फल फूल आदि की यतना, शय्या पांच, प्रासन माठ, द्रव्य दश इस प्रकार नियम लिये / ग्यारहवां पौषधोपवास व्रत चार पर्वो में पाप कर्म का व्यापार नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा। पोषध करुंगा। बारहवां अतिथि संविभाग व्रत उस दिन अतिथि, साधु, साध्वी जी को आहार पानी, वसति, शयन, प्रासन, वस्त्र, पात्र, दुगा, इस प्रकार पांच अणुव्रत, चार शिक्षा व्रत, भोप तीन गुणव्रत कुल बारह व्रत हुये। बाकी के शेष प्रारम्भों में अस स्थावर,जीवों की यतना पूर्वक रक्षा करुंगा। राजा, गुरु,गण समुदाय के बल से, देव के बल से, कार्यवश सब प्रकार के समाधि के कारण सिवाय मुझे वन में जाने के लिये नियम है / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ मरिहंत, सिद्ध, साधु, सम्यग् दृष्टि देवों की और स्व की साक्षी से श्रीचन्द्र ने ये व्रत ग्रहण किये / __ जिसमें सम्यक्त्त्व मूल है, गुण रुपी क्यारिये हैं, शील रूपी प्रवाल है व्रतरूपी जिस की शाखायें हैं / ऐसा श्रावक धर्म जो कल्पवृक्ष के समान है, वह मुझे शाश्वत सुख देने वाला बने / ऐसा कहकर गुणचन्द्र सहित गुरू महाराज को नमस्कार करके, प्रतापसिंह राजर्षि प्रादि नवदीक्षित साधुनों और सूर्यवती आदि साध्वीजी आदि प्रत्येक को वन्दन करके, जिनके नेत्रों से आंसू झर रहे हैं ऐसे श्रीचन्द्र राजाधि. राज उनके गुणों को याद करते हुये महल में गये / श्री सुव्रताचार्य आदि राजा की अनुमति लेकर पृथ्वी तल पर विहार कर गये / श्रीचन्द्र राजाधिराज श्रावक धर्म को पालते हुये, प्राक'श गामिनी विद्या से भाईयों से युक्त श्री संघ को लेकर, श्री सिद्ध क्षेत्र आदि तीर्थों की और विंध्याचल नदीश्वर द्वीप आदि शाश्वत तीर्थों की यात्रा करते थे / पिता के दीक्षा लेने के पश्चात 18 लब्धियों से युक्त अपने राज्य का सुख पूर्वक पालन करते हुये बहुत समय व्यतीत हो गया प्रतापसिंह राजर्षि, सूर्यवती साध्वीजी आदि शुद्ध चारित्र पालकर जहां एकावतारी हुये इस स्थान विशेष की शुद्धि के लिये महान स्सूप बनवाकर, सब देशों में रथ यात्रा करायी। पद्मिनी चन्द्रकला प्रादि ने भी अलग 2 रथ यात्रायें करवायीं / कम से भीचन्द्र राजाधिराज के 1600 पुत्र पुत्रिय हुई। उसमें सत्तर अद्भुत पुत्र हुये / श्रीचन्द्र रूपी इन्द्र ने बारह वर्ष कुमार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 142 55 पन में सब कलायें प्राप्त कर लीं। एक सौ वर्ष एक छत्री राज्य का पालन कर, वैराग्य से युक्त मन वाले श्रीचन्द्र राजा ने भाई ऐकांगवीर को श्री गिरि में श्री चन्द्रपुर नगर दिया। स्वय दीक्षा की इच्छा वाले श्रीचन्द्र ने कुशस्थल में चन्द्रकला के पुत्र पूर्णचन्द्र का बड़े महोत्सव से राज्याभिषेक किया। कनकसेन को कनकपुर का राज्याभिषेक कर,नवलक्ष देश का राजा बनाया। वैताट्य गिरि की उत्तर और दक्षिण श्रेणी का राज्य रत्नचूला के पुत्र को दिया / रत्नपुर का राज्य रत्नमाला के पुत्र को दिया / मदनचन्द्र को मलय देश का राज्य दिया / ताराचन्द्र को नंदीपुर का राज्य दिया / इस प्रकार अपने पुत्रों को अलग 2 राज्य देकर उन पर उनकी स्थापना कर श्रीचन्द्र राजराजेन्द्र ने 6 प्रकार के परिग्रह का त्याग करके चन्द्रकला आदि रानियों, गुणचन्द्र आदि मंत्रिों सहित, आठ हजार पुरुर्षो और चार हजार नारियों के साथ श्री धर्मघोषसूरीश्वरजी के पास दीक्षा लेकर उनके साथ पृथ्वी तल पर विचरने लगे / श्रीचन्द्र राजर्षिने द्वादशांगी श्रुत किया और अति दारुण तप करके अाठ वर्ष छदमस्थपर्याय पालकर, चार घाती कर्मो का क्षय करके अति उत्तम केवलज्ञान को प्राप्त किया | देवों और राजायों ने महान महोत्सव किया देवों ने स्वर्ण कमल पर सिंहासन आदि की रचना की। श्रीचन्द्र केवली ने विचरते हुये 16 हजार साधुयों और 8 हजार साध्वीजी को कुल 24 हजार धर्म देशना की शक्ति से दीक्षायें दी। बहुतों को समकित आदि क्रियायें समझाकर श्रावक बनाये / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 143 * गुणचन्द्र आदि बहुत साघुत्रों में और चन्द्रकला प्रादि बहुत साध्वीजी ने कर्मक्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया / कमलश्री और मोहनी शीलव्रत पालकर पहले देवलोक में गयी / वहां से च्यव कर मोक्ष में जायेंगी। श्रीचन्द्र पैतीस वर्ष केवली पर्याय पालकर, भव्य जीवों को प्रतिबोध करते हुये, सम्पूर्ण अायुष्य 155 वर्ष का परिपूर्ण करके निर्वाण पद को प्राप्त हुये (श्री शंखेश्वर पार्श्व प्रभु की शीतल छाया में और उनकी असीम कृपा से वीर सं० 2487 विक्रम स० 2017 के चैत्र वद 5 गुरुवार को प्रभात में 11 बजे यह ग्रन्थ थोड़. ही लिखा गया था इतने ही में देवी पुष्पों की सुगन्ध महक उठी वह पांच मिनिट तक रही देरासर से 6 कदम दूर / देरासर में खोज की, परन्तु ऐसी सुगन्ध के पुष्प दिखाई नहीं दिये / अर्थात् श्री वर्धमान तप के प्रेमी, श्री वर्धमान सूरी का जीव जो कि अभी वहां के अधिष्ठायक यक्ष हैं वे पांच मिनिट पधारे थे उनके गले में और हाथ में पुष्प की माला थी उसकी मुझे शायद सुगन्ध प्रायी / उस समय में प्रथम प्रावृति की प्रेस कापी लिख रहा था ) / 100 वर्ष तक तीन खन्ड के सब राजाओं ने जिनके चरण कमलों की सेवा की चन्द्र की तरह एक छत्री राज्य को पालने वाले श्री चन्द्र जय को प्राप्त हों। योगरूपी शस्त्र से आठ कर्मों की गांठें जिन्होंने नष्ट की ऐसे श्रीचन्द्र केवली जय को प्राप्त हों। भविक रुपी कमल को विकसित करते और सूर्य की तरह बोध देते जो विचरे थे ऐसे श्रीचन्द्र राजर्षि को मैं वन्दन करता हूं। 155 वर्ष का सम्पूर्ण आयुष्य पूर्ण करके, निर्वाण रुपी धर्म तीर्थ में जो सिद्ध पद को प्राप्त हुये उन महान श्रीचन्द्र को हमेशा मेरा नमस्कार हो। श्री चन्द्र के समय 6 हाथ की काया थी श्रीचन्द्र केवली ने जिन्हें दीक्षा दी उनमें से कितने तो केवल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * 144 10 ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में गये / कितनों ने सर्वार्थ सिद्ध देव विमान प्राप्त किया। बाकी के सब देवलोक में गये / वे एकावतारी होकर सब सिद्धि पद को प्राप्त होंगे / इस प्रकार श्री आयंबिल वर्धमान तप की कथा श्री वीर स्वामी ने पहले श्रेणिक महाराज को सुनायी थी, उसी प्रकार हे चेटक ! तेरे बोध के लिये श्रीचन्द्र कैवली की कथा मैंने (गौतम स्वामी गणघर ने) कही है। श्रीचन्द्र केवली की काया 800 चौवीशी तक इस तप को करते ज्ञानियों द्वारा कही जायेगी। इसे सुन चेटक महाराज तप को करने के लिये उद्यमी बनें / श्री सिद्धर्षि गणी ने 598 वर्ष पूर्व प्राकृत चरित्र की रचना करके उसमें से यह रचा गया है। जिसमें विविध अर्थ की रचना की रचना की गई है, उसमें से उधृत करायी हुयी कथा में कुछ त्रुटि हो गई हो तो वह मिथ्या दुष्कृत हो। जहां दया रुपी इलायची, क्षमारुपी लवली वृक्ष, सत्यरुपी श्रेष्ठ लोंग, कारुण्यरुपी सुपारी है.। हे भव्यजनों ! मुनिरूपी कपूर, उत्तम गुणरूपी शील, सुपात्र के समूह श्री जिनेश्वर देव द्वारा कथित गुण के करने वाले ऐसे तांबुल को ग्रहण करो। यह संघ गुण रुपी रत्नों का रोहणाचल गिरि है, सज्जनों का भूषण है, ये प्रबल प्रतापी सूर्य है, महामंगल है, इच्छित दान को देने वाला कल्पवृक्ष है, गुरूप्रों का भी गुरू है ऐसा श्री जिनेश्वर से पूजित श्री संघ लम्बे समय तक जय को प्राप्त हो / ial.THER P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust