________________ नई 54 . गुरु भी जिस विषय में ज्ञाता न थे। उन विषयों में गुरु श्री 'श्रीचन्द्र' की बुद्धि से जानकार हुए। गुरु से शिप्य बढ़ कर निकला। कुमार सर्व प्रकार से कुशल हो गये। तब उपाध्याय अपने घर जाने को तैयार हुए। इससे श्री 'श्रीचन्द्र' घर में रुदन करने लगा। उसका मुख रुपी कमल दिवस में रहे चन्द्र के समान म्लान हो उठा। श्री श्रीचन्द्र की यह हालत देख कर प्रेम पूर्वक लक्ष्मीदत्त ने कहा कि, "हे वत्स ! तुझे किस बात का दुःख है ? चाहे जितनी लक्ष्मी खर्च हो जाय वह मुझे स्वीकार है परन्तु मैं तुम्हारा मुख म्लान नहीं देख सकता। मैंने कभी तुम्हारे मुख पर प्रांसु नहीं देखे हैं / अाज इस प्रकार क्यों दुःखित हो रहे हो ? क्या मैंने अथवा तुम्हारी माता या गुरु ने तुम्हें कुछ कहा है ? या किसी मित्र ने तुम्हारे साथ दुष्ट व्यवहार किया है।" __ श्रीचन्द्र कहने लगा कि "मुझे किसी ने भी कुछ नहीं कहा है / आपकी कृपा से मुझे सब प्रकार का सुख है / परन्तु गुरुजी यहां से जाना चाहते हैं ! जो गुरु हृदय रूपी नेत्र को खोलने वाले हैं, उनका विरह मुझ से सहन नहीं होगा। अव मुझे कौन बुद्धि देगा ? मेरे संशय कौन दूर करेगा ?" . इतने में पंडितों में अग्रणी, उपाध्यायजी अनुमति के लिए वहां पधार गये। श्री 'श्रीचन्द्र' की यह स्थिति देख कर बोले कि, "अहो भक्ति ! अहो स्नेह ! अहो विनय ! अहो निराभिमानता !" ऐसी वारंवार प्रशंसा करने लगे। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust