________________ * 1131 अपने वस्त्र के किनारे से श्रीचन्द्र ने चन्द्रकला के प्रांसु पूछे और उसे पुनः हित शिक्षा दी / विदुषी पद्मिनी ने पति के प्रवास का निश्चय जानकर उनके शुभ की कामना करती हुई गद्गद् कण्ठ होकर बोली "प्राणनाथ ! 'जाओ' यदि ऐसा कहूँ, तो मुझ में स्नेह नहीं, 'न जाओ' ऐसा कहूं तो अमंगल होता है, 'रहो' ऐसा कहूं तो स्वामी को आज्ञादेने वाली कहलाती हूँ, 'रुचि के अनुसार को ऐसा कहूं, तो उदासीनता कही जाती है, साथ ही पाऊंगी' ऐसा कहूँ तो, कदाग्रह होता है, 'साथ नहीं पाऊ' ऐसा कहूँ तो वाणी की तुच्छता कहलाती है / हे नाथ ! प्रयाण के समय मैं क्या कहूं यह समझती नहीं हूं। हे स्वामिन् ! मैं तो आपश्री को गुरु महाराज द्वारा दिये हुए प्रात्म रक्षा का महामंत्र के लिए आह्वान करती हूँ। यह महामंत्र मस्तक और मुख का रक्षण करता हैं, काया का कवच रुप है, पांच पदों द्वारा हमेशा पात्मारक्षा करनी चाहिये, तुलिका से भूमि वज़मय शिला बन जाती है, चौथी चूलिका से कोट के ऊपर वज्रमय मंडप रचता है। इस महामन्त्र से माप बाहय शरीर की रक्षा करें। - इस मन्त्राधिराज के प्रभाव से शत्रु चोर, शेर, ताल आदि के सर्व भय दूर हो जाते हैं / मन्त्र के ध्यान से और स्मरण से पंग 2 पर संपदाएं उत्पन्न होती है। महामन्त्र के ध्यान से आपश्री का . मार्ग मंगलमय हो। हे नर रत्न ! मापश्री का कल्याण हो और तुरन्त आपश्री का शुभागमन हो। आपश्री को मागं में सर्वत्र मनोवांछित प्राप्त हों।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust