________________ .112 10 मैंने केवल तुझे ही यह बातें कही हैं। मैंने माता पिता मोर मित्र से भी नहीं कहा / अतः हे भद्रे ! मुझे जाने के लिए अनुमति दो। इससे स्वामिन ! प्रापको बुद्धि वचनातीत है। हे नाथ ! मुझे भी साथ ले चलें। क्या पत्नी पति के साथ विदेश नहीं जाती ? मैं माता पिता के वियोग को सहन करने में समर्थ हूं। परन्तु हे स्वामिन आपके वियोग को क्षणवार भी सहन करने में मैं समर्थ नही हूं। मुझे क्षणवार भी प्रापका वियोग नो हो। बहुत सी सखियों में भी आपके बिना मैं अकेली ही हूँ। मेरे प्राण आपके आधीन है आप सुखी तो मैं भी सुखी हूं / पूर्व के पुण्य से यहां मुझे हमेशा दुःख होगा / हे स्वामिन् / मुझे साथ ले जाने से मार्ग में आपको कोई भी तकलीफ नहीं होगी। आपके शरीर की छाया की तरह मैं साथ पाऊंगी। मुझे आज्ञा प्रदान करें" श्रीचन्द्र ने कहा कि, 'हे बुद्धिशाली पद्मिनी ! तुम अपने कुल के उचित ही कह रही है परन्तु प्रवास में कहां तो ग्रीष्म ऋतु की कर्कशता और कहां तुम्हारे अंग की सुकोमलता ! कहां क्षुधा तृष्णा का कष्ट आर कहां तूं राजपुत्री ! कहां तो सूर्य की उग्र किरणों से तपा हुअा मागे मौर कहां तेरे सुकोमल चरण ! कभी सर्दी कभी गर्मी। पग-पग पर तुझे मार्ग में अति कष्ट होगा। हे स्नेह वाली। तेरे साथ मुझे भी * दुःख सहन करना पड़ेगा। प्रतः स्वयं विचार करो। अतः मेरे· मादेश से तुम यहां अपने घर पर ही रह कर आनन्द पूर्वक देवाधि देव की पूजा आदि धर्माचरण करती रहो तुम्हारी धर्माराधना और शील के प्रभाव से मैं भी प्रवास में सुखी रहूंगा।" P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust