________________ * 11110 फिर वह कहने लगी कि "हे नाथ ! आपश्री का मन अनुत्तर है। जिससे दान पुण्य के अनुसार आपश्री की बुद्धि है। कुटुम्ब में प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न 2 होता है। अपने तो सुखपूर्वक रहेंगे / " शकुन की गांठ बांध कर श्रीचन्द्र ने कहा "हे प्रिये ! यह तो पिताजी बाने। मेरे स्वाधीन में कुछ भी नहीं है। मैं तो पिता के समक्ष किम प्रकार जाऊं? अतः मैं देशाटन के लिए अल्प समय के लिए जा रहा हूं। .... ... .... :: . .. यदि मेरे शुभ भाग्य का उदय होगा तो मैं कौतुक, देखने की इच्छा स पृथ्वी पर भ्रमण करके थोड़े ही दिनों में वापिस लौट आऊँगा।" मानो बज्र का प्रहार हुआ हो घसी पद्मिनी हृदयः. के दुाख से रुदन; करतो 2 बोली कि, "हे देव ! इस प्रकार आप. क्या कह रहे हैं। पतिः / सास, ससुर आदि. को दुख उद्वःग आदि की कारणभूत क्या अभी ही मैं विषः / कन्या हो गई हूं ? हे नाथ ! आप श्री यहीं रहो आपश्री के पास किस बात : की कमी है। हाथी, अश्व, रथ, सेनिक, स्वर्ण रत्न आदि विशाल सामग्री: है / आप श्री अपने पुण्य की लीला.दिखा रहे हैं और भविष्य में भी देखेंगे / आपका पुण्य प्रबल है. इसमें कोई भी शंका का स्थान नहीं है / "., : .. . .... . .... 1 श्रीचन्द्र ने कहा कि, "हे चित्त को जानने वाली ! तुम धैय . धारण करौं / हे कल्याणी ! रुदंन करने से क्या ? यह तो अमंगल है। हे अबले ! तुम समझदार हो अतः दुःष को धारण न करो। मुझे सास , सपुर से जो मिला है। वह मुझे रुचता नहीं है.! परन्तु जो, मैं भुज बल से करु उसमें मेरी शोभा है। मेरा तेरे प्रति विशेष स्नेह है / प्रतः P.P.AC. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust