________________ * 11010 .... शाम के समय भोजन गृह में आकर श्रीचन्द्र ने कि; माताजी ! लड्ड दो " लक्ष्मीवती ने बहुत से लड्डु दिये / भाव पूर्वक लड्डुओं के टुकडे, करके पत्नियो और सखियों आदि सर्व के पास भेज दिये / बुद्धिशाली ने बाद में संध्या का भोजन श्रेष्ठी के साथ किया / बाद में अपने महल में आकर कोणकोट्ट से आये हुए मन्त्रियों के साथ हिसाब करने के लिए गुणचन्द्र को भेज कर तथा दूसरों को भी भिन्न 2 कार्य सौंप कर रात्रि के प्रारम्भ में पद्मिनी के महल में आये ......... . प्रफुल्लित हृदय से पटरानी चन्द्रकला ने अति हर्ष से मन वचन" और काया से.श्रीचन्द्र की अद्भुत सेवा की। श्रीचन्द्र ने पिता के साथ हुई सर्व बात पद्मिनी से कही। यदि पिता इस प्रकार कहे तो इसे कैसे सहन किया जा सकता है. ?. इतना अल्पदान भी पिता को योग्य नहीं लगा। तो मन की इच्छानुसार किस प्रकार दान दिया जा सकता है ? मैंने किसी दिन भी पिता की आज्ञा को भंग नहीं किया। आज पहली बार.ही मैंने उनको आज्ञा का उल्लंघन किया। मूल्य देकर अश्वों को वापिस लेने की भी मेरी: विल्कुल इच्छा नहीं है सुधासिन्धु से भी मधिक. ऐसे माता पिता और गुरु की आज्ञा जो नहीं मानता वह दुष्ट बुद्धि वाला मृतक समान है यह बात मैं मन में जानता था फिर भी हे वल्लभा / मैंने यह प्राज्ञा नहीं पाली इससे में पुण्यहीन और कंदांग्रही चंद्रकला सोचने लगी.कि."अहो इनकी कितनी नम्रता, गुरुभक्ति : दान घिया और चित्त गम्भीरता है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust