________________ * 689 [ चतुर्थ खण्ड ] कुछ समय व्यतीत होने पर श्री वन्द्र राजा को मदनसुन्दरी याद आई / लक्ष्मण मंत्री को अच्छी तरह समझा कर मित्र सहित दो उत्तम अश्वों पर बैठ कर थोड़ी ही देर में भयंकर अटवी में आये / वहां वृक्ष __ पास एक योगी को प्रतिसार रोग से पीड़ित देखकर श्रीचन्द्र योगी की अनेक प्रकार से सेवा करने लगे और दूर रहे हुए भिल्लंपति के गांव से पथ्य औषध प्रादि लाकर अनेक प्रकार से उपचार किया / राजा ने तेल आदि मसल कर स्नान कराकर योगी को स्वस्थ बनाया / जिससे योगी ने अति हर्पित होते हुए कहा 'हे पुण्यात्मा ! मेरा अभी भी भाग्य उदय में है ऐसी दुर्दशा में भी तुम जैसा बुद्धिशाली मिला। यह अति दुर्लभ पारसमणी तुम ग्रहण करो इसके स्पर्श से सब घातुए' सुवर्ण के रूप में बदल जाती है। तुम भाग्यशाली हो जिससे मैं तुम्हें यह समर्पित करता हूँ / पृथ्वी को अनृणी करना, जिनालय बनवाना मेरी मृत्यु के पश्चात इस स्थान पर एक मठ बनवाना / इस प्रकार कह कर श्रीचन्द्र के मना करने पर भी जबरदस्ती पारसमणी उन्हें दे दी। श्रीचन्द्र राजा ने योगी के वचन स्वीकार किये / उस योगी के मर जाने पर उसके कहे अनुसार वहां मठ बनवाया। वहां से मित्र के साथ राजा प्रयाण करते हुए एक वन के मध्य भाग में आये / वहां बांस की जाली में 108 पर्व वाला एक बांस पका हुआ और सीघा शास्त्र लक्षणों से युक्त जानकर उसे काट लिया / उसे काट कर उसके बीच में से एक मोती के जोडे को निकाला। मित्र को श्रीचन्द्र ने कहा जो बड़ा है वह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust