________________ करीब 2512 वर्ष पूर्व श्री वैशाली नगरी के बाहर एक सुन्दर उद्यान में पधारे। यह शुभ संवाद- सुन कर गुरु भक्ति से अति हर्षोल्लसित चेटक महाराजा अपने परिवार तथा प्रजाजनों के साथ गणधर भगवंत की सेवा में उपस्थित हुा / उन के चरण कमलों में वन्दन कर और सुख साता पूछ कर सब लोक यथा योग्य स्थान पर बैठ गये। - उस समय श्री गणधरजी महाराज ने धर्म देशना प्रारम्भ की:- "हे महानुभावो / सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवन्तों ने दान, शील, तप, और भाव रूप चार प्रकार का धर्म फरमाया है / यह धर्म मोक्ष की प्राप्ति का कारण भूत है / उन में तप धर्म को उत्कृष्ट कहा गया है। इस के अनेक भेद हैं। पूर्व में भगवान् वर्धमान स्वामी ने श्रेणिक महाराजा के समक्ष सब तपों में विशाल तप का जिस प्रकार वर्णन किया था उसका आज कथन - करते हैं। निकाचित कर्मों का नाश करने वाला और सर्व अभीष्ट फल का प्रदान करने वाला श्री वर्धमान प्रायंबिल तप है जिस में क्रमशः एक 2 वृद्धि को पाते हुए 108 अायं विल तप की अोली और पारणे में उपवास / आते हैं। __ श्री सिद्धान्त में कहा है कि 'एक आयंबिल एक उपवास ऐसे बढ़ते हुए अनुक्रम से सौ ओली करने पर यह तप पूर्ण होता है / इस महातप की पूर्णाहुति 14 वर्ष 3 मास और 20 दिन में होती है / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust