________________ 8740 - श्रीचन्द्र को मिलकर श्रेष्ठी ने कहा कि, 'अाज तो मेघ बिना हो वृष्टि हुई। मेरा जन्म सफल हुा / आज यह भूमि भाग्यवती हुई / जो कि आपश्री का मेरे यहां आगमन हुआ ! धन्य भाग्य ! धन्य धड़ी! कृपा करके मेरे घर पधारो / आज बालक को पाठशाला में भेजने के कारण उत्सव हो रहा है।" वरदत्त श्रेष्ठी के आग्रह से श्री चन्द्र को वहां जाना ही पड़ा। इस प्रकार से विलम्ब होने पर हर्षित होकर बुद्धिशाली गुणचन्द्र ने कहा कि, 'नगर के बाहर हमारा रथ है उसे मंगवाना है / " श्रेष्ठी ने उसे मंगवा लिया। श्रीष्ठी के आंगन में श्रीचन्द्र ऐसे ६.ोभने लगे जैसे आकाश में सूर्य शोभता है अथवा तारों में चन्द्रमा शोभायमान होता है। श्रेष्ठी की पत्नी ने अक्षत से वधामणी की विवेकी श्री 'श्रीचन्द्र' सर्व व्यक्तियों को प्रणाम करके उनके समक्ष बैठ ये। / दीपचन्द राजा मन्त्रियों सामन्तों व प्रजा जनों के साथ राजसभा में बैठे थे। उस समय गंधर्व गायक ने वीणा बांसुरी आदि बनाने वाले कलाकारों के साथ, मनोहर सुधा समान नव रसों से युक्त मुधुर भाष; से शोभित और विविध रागादि द्वारा श्रवण इन्द्रियों को आनन्ददायक श्री श्रीचन्द्र' का चरित्र रास हर्ष उल्लास से गाना आरम्भ किया, उस में सर्वजन प्रानन्द मग्न हो गये / परदे के पीछे चंद्रवती व प्रदीपवती राणी प्रादि भी यह सुन रही थी। इतने में कोविदा सखी ने आकर पद्मिनी चन्द्रकला के उद्यान में जाने आदि की सारी हकीकत कह सुनायी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust