________________ * 10810 की मांगनी की थी। परन्तु अपनी इच्छा से नहीं की। अब मैं राजपुत्र के पास नहीं जाऊंगा। अतः मुझे उचित स्वर्ण देकर अश्वों से युक्त रथ ले लें। आपश्री का चक्रवती दान पणा मैं जानता हूँ। अश्वों से युक्त रथ के दान का फल विशाल है। मणि, मुक्ताफल, धन, वस्त्र आदि के दान से हे वीर ! आपने हमें खरीद लिया है। प्रापश्री के इन गुणों से, हम बांधे गये हैं / आप श्री ने जो दिया है वह दूसरा कौन दे सकता है ? अतः कृपा करके इन अश्वों से युक्त रथ ग्रहण कर मेरे दाहिने हाथ को मुक्त करें।" - श्रीचन्द्र ने कहा कि, 'हे मित्र ! वीणारव से कहना कि, 'इन / हाथों से दिये हुए दान को अब मुझे कोई प्रयोजन नहीं / क्योंकि सज्जन के मुख में एक जीभ होती है। ब्रह्मा की चार, अग्नि की सात, कार्तिक स्वामी की छः, रावण की दस, शेष नाग की दो हजार और दुर्जन को लाखों और कोड़ों से भी अधिक जीमें होती हैं। अभी भी जाते हुए मित्र को अागामी विरह की स्मृति से, आद्रं नयन से / श्रीचन्द्र ने कहा "मेरी जो कीर्ति सम्पत्ति आदि है वे सब तेरे द्वारा ही प्राप्त हुई है, इसलिए हे मित्र ! तुम अपनी इच्छानुसार करो।" इतने में धनंजय सारथी ने प्राकर नमस्कार करके कहा कि, 'हे स्वामिन् !' आपश्री के दोनों उत्तम अश्व श्रीपुर से भागे जाते ही नहीं। वीणारव ने बहुत प्रेरणा की परन्तु श्रीपुर से तो वे आगे पांव ही नहीं उठाते / ' तत्क्षण श्रीचन्द्र मित्र मश्वों और सैनिकों से युक्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust