________________ 18 . करने से स्वस्थ होने पर वह विलाप करने लगी, "हे नाथ ! आप क्यों जा रहे हैं ? प्राणेश्वर ! मुझे स्वीकार करो। हे कृपा निधि ! प्राप मुझे अपने पास बुला लो! हे स्वामिन् ! मेरी ओर कृपादृष्टि करो ! पापने कठिन गधावेघ को सिद्ध कर लिया, अब सुसाध्य मेरे शरीर को क्यों सिद्ध नहीं कर रहे हो। हे विभो ! अन्य कोई तो राधा में एक भी छिद्र न कर सके परन्तु आपने तो मेरे हृदय में दो छिद्र कर डाले। प्रापके दूर चले जाने और दिखाई न देने पर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। आप दिशा रूपी चक्र को भेद कर नया वेध कर रहे हैं। हे स्वामिन् ! क्या ये उत्तम पुरुष को योग्य है ? यदि नाना ही है तो मेरे हृदय में से क्यों नहीं चले जाते" इस प्रकार विलाप करती हुई तिलकमंजरी को उसके पिता और जयकुमार आदि ने रोकने का प्रयास किया। जयकुमार ने कहा कि 'मेरे पिता ने कोणकोट्टपुर श्री 'श्रीचन्द' को योग्य जान कर ही हर्ष पूर्वक भेंट दिया है। वह हमारे नगर में गया है। इसलिए मेरे साथ आप राज-कन्या को जल्दी भेज देवें।" इससे तिलकराजा और तिलकमंजरी को संतोष हुआ। तिलकमंजरी कुशस्थल जाने को तैयार हो गयी। मन्त्री ने तिलकराजा से विनंति की कि, "महाराज ! हमारे सेवक जयकुमार के निवास पर गये थे। तब वह अपने भाइयों के साथ / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust