Book Title: Tirthankar Ek Anushilan
Author(s): Purnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publisher: Purnapragnashreeji, Himanshu Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन साध्वी पूर्णप्रज्ञा श्री जी ALAM Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥जयन्तु वीतरागाः॥ ॥ श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र-इन्द्रदिन्न-नित्यानन्द सूरि सद्गुरुभ्यो नमः॥ तीर्थंकर : एक अनुशीलन * शुभाशीर्वाद * वर्तमान गच्छाधिपति, शान्तिदूत, जैनाचार्य श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वरजी म.सा. * लेखन-संग्रहण * शासनदीपिका महत्तरा साध्वी सुमंगलाश्री जी की प्रशिष्या प्रवचनप्रभाविका, विदुषी साध्वी पूर्णप्रज्ञाश्री जी म. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तीर्थंकर : एक अनुशीलन शुभाशीर्वाद : आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वरजी 0 लेखन व संग्रहण : साध्वी पूर्णप्रज्ञाश्री जी 0 सम्पादन : हिमांशु जैन ‘लिगा' 9 संस्करण : .. प्रथम, 2016 । प्रतियाँ : 1000 मूल्य : ₹ 250 प्राप्ति स्थान : 1. श्री महावीर शिक्षण संस्थान रानी स्टेशन, जिला-पाली (राज.) 306115 2. श्री आत्मानन्द जैन सभा 2/88, रूपनगर, दिल्ली-110007 संकल्पना : निधि कम्प्यूटर्स, जोधपुर (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन अनन्त करुणा निधान, कृपा निधान, परम वीतरागी तीर्थंकर परमात्मा धर्मसंघ के पिता हैं। इस विश्व की सर्वाधिक पुण्यवंत और अतिशयकारी विभूतियों में तीर्थंकर परमात्मा का स्थान सर्वोत्कृष्ट है। ऐसी विश्ववंद्यविभूति द्वारा संस्थापित 'तीर्थ' युगों-युगों से विश्व को आलोकित करता आया है। विशिष्ट पुण्योदय से इस दुर्लभ मानवजीवन में हमें भी ऐसे तारक तीर्थंकर की कल्पतरु-सम-छाया प्राप्त हुई है। हम प्रतिदिन ‘णमो अरिहंताणं' का उच्चारण कर अरिहंत यानी तीर्थंकर प्रभु को नमस्कार करते हैं किन्तु कई व्यक्ति अरिहंत परमात्मा के जीवन से अनभिज्ञ हैं, उनके व्यक्तित्व से अपरिचित हैं। आज के युवा वर्ग में तीर्थंकर परमात्मा के बाह्य और आभ्यंतर रूप तथा स्वरूप को जानने की तीव्र जिज्ञासा है। तीर्थंकर कौन होते हैं, कैसे बनते हैं, कैसे जीते हैं, हमारे लिए कैसे उपकारी हैं, क्यों वंदनीय-पूजनीय-स्तवनीय हैं, इत्यादि अनेकानेक प्रश्न कई लोगों के मानस पटल पर आते हैं। शासनदीपिका महत्तरा साध्वी सुमंगलाश्री जी म. की प्रशिष्या विदुषी साध्वी पूर्णप्रज्ञाश्री जी ने पाठकवृन्द की ऐसी भावना को मूर्तरूप देते हुए तीर्थंकर विषयक आगमों-ग्रंथों-शास्त्रों में यत्रतत्र बिखरी सामग्री का यथोचित संकलन कर उसे सरल-सरस भाषा में 'तीर्थंकर : एक अनुशीलन' पुस्तक रूप में प्रस्तुत किया है। उनके इस महनीय प्रयास की भूरि-भूरि अनुमोदना। उनके इस पुरुषार्थ से सम्यग्ज्ञान का प्रचार होगा एवं पाठकगण लाभान्वित होंगे, यही भावना..... - विजय नित्यानन्द सूरि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल आशीर्वाद . साध्वी श्री पूर्णप्रज्ञाश्री जी ने प्रस्तुत पुस्तक में तीर्थंकर आत्माओं की विशेषताएँ, अतिशय, तथा विशिष्ट गुणों का वर्णन किया है। केवलज्ञानी तीर्थंकर परम उच्चकोटि के आत्मसाधक होते हैं। उनके विषय में मुझ जैसा अल्पज्ञ क्या कुछ कह सकता है और क्या कुछ लिख सकता है। हमारे लिए तो वे परम प्रेरणा स्रोत तथा परम आराध्य हैं। उनसे तो हम हमेशा शुभाशीर्वाद ही चाहते हैं। कृपा की ही याचना करते हैं। सृष्टि के प्राणी मात्र के प्रति करुणामयी भावना का संकल्प लेकर वे तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करते हैं और तीर्थंकर बनते हैं। समता भाव से स्वयं के उपार्जित कर्मों का क्षय कर अपनी आत्म शक्तियों को प्रगट करते हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक जीव के प्रति करुणा भाव से उनको आत्मोत्थान का पथ बतलाते हैं। हम तो परमात्मा से यही प्रार्थना करते हैं कि आप जैसी करुणा, वात्सल्य, अप्रमाद, शान्ति और समता का हमें वरदान दें जिससे हम भी आत्मशक्तियों को जागृत कर स्व- पर का कल्याण कर सकें; मानव जीवन को सफल बना सकें। साध्वी श्री जी ने इस पुस्तक के लेखन कार्य में जो परिश्रम किया है मैं उनके शुभकार्य की सराहना करता हूँ और परमात्मा से शुभाशिष और कृपा की याचना करता हूँ कि हम भी स्वयं के जीवन को सफल बना सके। - विजय जयानन्द सूरि Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जिनधर्म - जिनशासन के आद्य पुरस्कर्ता तीर्थंकर परमात्मा इस लोक की अद्वितीय अलौकिक अतिशयविभूति हैं। पंजाबकेसरी आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. ने फरमाया है करो टुक मेहर ऐ स्वामी, अजब तेरा दीदारा है। नहीं सानी तेरा कोई, लिया जग ढूँढ सारा है। इस संसार में ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ पर हमारा जन्म-मरण न हुआ हो लेकिन फिर भी हम भवभ्रमण से मुक्त नहीं हुए। तीर्थंकर परमात्मा का हम पर अनंतानंत उपकार है जिन्होंने हमें जन्म-जरा-मृत्यु के बंधनों से मुक्त करने के लिए करुणा का अपार स्रोत बहाया। उनके हृदय में बस एक ही भावना होती है - 'जो होवे मुज शक्ति इसी, सवि जीव करूँ शासन-रसी' जो स्वयं तिरा है, वही अन्य को तिरा सकता है। तीर्थंकर परमात्मा भी 'तिन्नाणं तारयाणं' की भावना से ओत प्रोत होते हैं। उनके जैसी वीतरागता, उनके जैसा ज्ञान, उनके जैसा पुण्य, उनके जैसी करुणा समूचे लोक में अन्य किसी की आत्मा में नहीं है। • तीर्थंकर परमात्मा का उपदेश हमें 'अपना' बनाने के लिए नहीं, बल्कि अपने जैसा' बनाने के लिए होता है। ऐसे परमोपकारी-परमपिता-परमेश्वर तीर्थंकर परमात्मा का आदर्श जीवन हम सभी के लिए अक्षय प्रेरणा का अनुपम स्रोत है। भ्रान्ति और क्रान्ति से दूर, शान्ति पथ के पावन पथिक तीर्थंकर परमात्मा के बारे में जानना नितान्त आवश्यक है। 'जैन' शब्द की गरिमा 'जिन' से जुड़ने पर है। कई व्यक्तियों के मन में नाना प्रकार के प्रश्न उठते हैं। कई प्रश्न श्रद्धा से शान्त होते हैं और कई प्रश्न तर्क से शान्त होते हैं। जिस प्रश्न की शान्ति श्रद्धा से होनी चाहिए, वहाँ तर्क लगाना गलत है। उसी प्रकार जहाँ तर्क से शांति होनी चाहिए, वहाँ केवल श्रद्धा की बात करना उचित नहीं है। युवा पीढ़ी इस बात से पूर्णत: परिचित है अतः उसे तीर्थंकर पद को इस द्विविध दृष्टि से समझने की भी विशेष उत्कण्ठा है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi * शान्तिदूत, गच्छनायक आचार्य नित्यानन्द सूरीश्वर जी की आज्ञानुवर्ती एवं प्रवर्तिनी साध्वी देवश्री जी की गौरवशाली परम्परा को आलोकित करने वाली महत्तरा साध्वी सुमंगलाश्री जी म. की प्रशिष्या एवं कुशल निर्देशिका साध्वी प्रफुल्लप्रभाश्री जी की सुशिष्या विदुषी साध्वी पूर्णप्रज्ञाश्री जी म. ने जनभावना अनुरूप अहर्निश परिश्रम कर शास्त्रमंथन कर 'तीर्थंकर : एक अनुशीलन' पुस्तक का सफल संकलन एवं लेखन किया। छद्मस्थ-अवस्था के कारण त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है। उन सभी स्खलनाओं के लिए सभी से 'मिच्छा मि दुक्कडं'। तीर्थंकर परमात्मा के जीवन विषयक सम्यक् ज्ञान के प्रचार का यह लघु प्रयास तेजस्वी करुणा यशस्वी कांति, ओजस्वी अनुपम श्वास, तीर्थंकर प्रभु जीवन रश्मि, शब्दारूढ़ सुवास । देव-गुरु और धर्मकृपा से, आदि मंगल प्रयास, सद्गुण-सिंचन सेवा समर्पण, स्वाध्याय साधना विकास॥ यह कृति जनप्रिय बने, जनग्राह्य बने, जनोपयोगी बने...यही भावना... हिमांशु जैन 'लिगा' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ भूमिका जैन धर्म कर्मप्रधान धर्म है। जीव जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार ही वह उसका फल प्राप्त करता है। जब तक आत्मा कर्मों से लिप्त है, तब तक वह इस संसार में जन्म मरण करती रहती है। उत्तराध्ययन फरमाया गया है। सूत्र - रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति ॥ अर्थात् - राग और द्वेष, कर्म के मूल कारण हैं और कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म ही जन्ममरण का मूल है और जन्म-मरण दुख स्वरूप हैं। आत्मा राग और द्वेष के बंधनों से मुक्त होकर परमात्म पद की ओर अग्रसर होती है, वह शाश्वत सुख सन्निकट जाती है। सिद्धत्व के पथ की ओर जीव प्रथमतः घातिकर्मों का क्षय कर केवलज्ञानी- वीतरागी · बनता है एवं तत्पश्चात् सभी कर्मों का क्षय कर सिद्ध बनता है । केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का वरण करने वाली विभूतियों का द्विविध वर्गीकरण किया जाता है 1. सामान्य केवली : जिनकी आत्मकल्याण की साधना आध्यात्मिकता की परिपूर्णता को प्राप्त करती है, वे सामान्य केवली कहलाते हैं। उन्हें मुण्डकेवली भी कहा जाता है। जैसे- भरत चक्रवर्ती, अर्जुनमाली, गौतम स्वामी आदि । 2. तीर्थंकर केवली : जिनकी साधना स्व (खुद) एवं पर ( अन्य के ) कल्याण को समर्पित होकर अतिशयवंत जीवन से लोकहित के परम उद्देश्य को परिपूर्ण करती है, उन्हें तीर्थंकर केवली कहते हैं। उन्हें अरिहंत भी कहते हैं । जैसे श्री ऋषभदेव जी, सीमंधर स्वामीजी, महावीर स्वामीजी आदि । ज्ञान या कर्मस्थिति की दृष्टि से दोनों समान हैं लेकिन एक ओर जहाँ सामान्य केवली की भावना केवल स्वयं के या कुटुम्बी जनों के या मनुष्यों के कल्याण की होती है, वहीं दूसरी ओर तीर्थंकर परमात्मा की भावना इस लोक की एक-एक आत्मा के, भले ही जीव नरक का हो या निगोद का हो, उत्थान की होती है। इसी उत्तमोत्तम भावना के बल पर ही वे तीर्थंकर नाम कर्म बाँधते हैं जिससे संचित अनंत पुण्य के कारण ही वे संसार के सर्वाधिक अतिशयप्रधान पुरुष होते हैं। अभी उनका मानव रूप में जन्म भी नहीं हुआ होता है कि उनके पुण्य का सुप्रभाव प्रत्यक्ष हो जाता है। ‘परत्थकरणं’ (परार्थकरण) की सर्वोत्कृष्ट भावना के कारण ही उनका पुण्य प्रताप समूचे लोक में उद्दीप्त होता है। उनका च्यवन, उनका जन्म भी पूरे लोक के लिए 'कल्याणक' होता है। विरक्ति भाव से संसार के सभी भोग-विलासों को त्यागकर वे दीक्षा ग्रहण करते हैं एवं गहन आत्मसाधना कर केवलज्ञान - केवलदर्शन रूपी लक्ष्मी का वरण करते हैं। प्राणिमात्र के लिए अपार असीम करुणा की भावना में रत रहकर ही वे साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविका रूपी तीर्थ की संस्थापना कर इस संसार रूपी सागर से तिरने का परम एवं चरम मार्ग प्रदर्शित करते हैं। - हमारे पूर्वाचार्यों ने फरमाया है कि हमारे अनंत जन्मों की अनंत माताओं ने हम पर जितनी ममता बरसाई है, उससे भी कई गुणा अधिक हमपर वात्सल्य और करुणा की अमीवर्षा यदि किसी ने की है, तो वे हैं हमारे तीर्थंकर परमात्मा । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viii तीर्थंकर को अरिहन्त भी कहते हैं। जैन धर्म के सर्वप्रमुख मूलमंत्र नवकार के प्रथम पद 'णमो अरिहंताणं' में तीर्थंकर परमात्माओं को वन्दन करते हैं । वे इस धर्मसंघ के पिता हैं। अपने पूर्णज्ञान में देखकर जो भी उन्होंने फरमाया है, वह हमारी आत्मा के हित के लिए ही है। उनके वचनों में किसी भी प्रकार के संदेह या शंका का कोई स्थान है ही नहीं । आचारांगसूत्र में कहा गया है. " तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं " - जो भी कहा है, वही जिस तरह एक पिता की प्रत्येक आज्ञा पुत्र के हित के लिए होती है, उसी प्रकार परम पिता परमेश्वर की प्रत्येक आज्ञा हमारी आत्मा के हित के लिए ही है। यह चतुर्विध संघ उनकी प्रत्येक आज्ञा को समर्पित है । ऐसे परमहितचिन्तक तीर्थंकर परमात्मा हमारे आसन्न उपकारी हैं। उनकी वीतरागता के स्वरूप को सरल शब्दों में कहा गया है। - राग और द्वेष को पूरी तरह से जीतने वाले केवलज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा सत्य है, असंदिग्ध है। न शूलं न चापं न चक्रादि हस्ते, न हास्यं न लास्यं न गीतादि यस्य । न नेत्रे न गात्रे न वचने विकार:, स एव परमात्मा गति मे जिनेन्द्र ॥ अर्थात् - जिनके हाथ में न शूल है, न धनुष-बाण है, न चक्र आदि शस्त्र हैं, जिनमें न हास्य-विनोद है, न नृत्य और न ही गीत आदि राग की बातें हैं, जिनके नत्र में, गात्र में और वचन में विकार नहीं है, ऐसे जिनेश्वर परमात्मा ही मेरी गति हैं । जैन अर्थात् जिनेश्वर - तीर्थंकर परमात्मा का अनुयायी । तीर्थंकर परमात्मा के कारण ही यह जिनशासन आज विराट् स्वरूप को प्राप्त है। आज अनेकानेक जैन लोग तीर्थंकर परमात्मा के स्वरूप को नहीं जानते । 'नहीं जानते' - यह समझ आता है लेकिन 'जानने की इच्छा ही न हो'- ऐसा स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। तीर्थंकर परमात्मा के विषय में सम्यक् ज्ञान हम सभी को होना ही चाहिए । प्रस्तुत पुस्तक 'तीर्थंकर : एक अनुशीलन' इसी प्रबलतम भावना का सुपरिणाम है। यद्यपि विविध आगमों, नियुक्तियों, भाष्यों, चूर्णियों, टीकाओं आदि अनेक ग्रंथों में तीर्थंकर परमात्मा के विषय में सामग्री प्राप्त होती है, उसी को सरल हिन्दी भाषा में संगृहीत - संकलित कर व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का लघु प्रयास किया है। इस कृति को जनोपयोगी रूप देने में श्रावकरत्न लाला श्री खजांचीलालजी के पौत्र एवं गुरुभक्त श्री कीर्ति जैन के पुत्र, उदीयमान लेखक हिमांशु जैन लिगा का भी सुन्दर सहयोग रहा। साध्वीमण्डल का भी यथोचित सहयोग मिला। मेरे जीवन की आद्य निर्मात्री, आसन्न उपकारी शान्तस्वभाविनी साधी सम्पतश्री जी एवं महत्तरा साध्वी सुमंगलाश्री जी को यह कृति सादर समर्पित है । इस पुस्तक में कुछ भी जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हो, तो मन, वचन और काया से मिच्छा मि दुक्कड़ं। - साध्वी पूर्णप्रज्ञाश्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A चौबीसवें तीर्थंकर शासनपति भगवान श्री महावीर स्वामी जी । STANDOWSDASFayde 000000 16565G । Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की अखण्ड परमोवल पार परंपरा 3वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी 74वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी 75वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वरजी 76वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय इंद्रदिन्न सूरीश्वरजी पावें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वरजी Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांत स्वभाविनी, मितभाषी साध्वी संपत श्री जी म. कुशल निर्देशिका · सेवाभाविनी साध्वी प्रफुल्लप्रभा श्री जी म. मरुधर सिंहनी, शासनदीपिका साध्वी सुमंगला श्री जी म. प्रवचन प्रभाविका, विदुषी साध्वी पूर्णप्रज्ञा श्री जी म. Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत प्रकाशन के लाभार्थी स्व. श्री मोतीलाल जी एवं स्व. श्रीमती बिदामीदेवी डागा __ की पुण्य स्मृति में सुपुत्र महेंद्रकुमार-स्व. कनकदेवी,भारतीदेवी सुपुत्र प्रदीपकुमार-किरणदेवी सुपौत्र गौतम , भव्य सुपुत्री सुमनदेवी-विनोदकुमार जी सुराणा सुपौत्री निधि-वरुण नाहटा आस्था, मनीषा पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र स्व. सुन्दरदेवी गोकलचंद डागा, पीलीबंगा, जिला हनुमानगढ़, राजस्थान प्रतिष्ठान : ओसवाल सीड्स, पीलीबंगा फोन : 01508-233341, 07742204000 साध्वी दिव्यप्रज्ञा श्रीजी म. ( हमारी बेन म.) के जीवन की तपाराधना निमित्ते ___45 उपवास, 36 उपवास, 15 उपवास, 2 वर्षीतप, सिद्धितप, श्रेणितप, चत्तारि अट्ठ दस दो तप, वर्धमान तप का पाया एवं 19 ओली, 108 पार्शवनाथ तप इत्यादि Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनकी कृपा मेरे जीवन का आधार है जिनका आशिष जन्म पूर्व उपकार है शान्तस्वभाविनी साध्वी संपत श्री जी और शासनदीपिका साध्वी सुमंगलाश्री जी को वंदन बारम्बार है ! वंदन बारम्बार है !! Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी दिव्यप्रज्ञाश्रीजी म. के जीवन में तपाराधना 45 उपवास, 36 उपवास, 15 उपवास, 8 उपवास, 2 वर्षीतप, सिद्धितपं, श्रेणीतप, चत्तारि अट्ठ दस दो तप, वर्धमान तप का पाया एवं 19 ओली, 108 पार्श्वनाथ तप आदि ( संसारी मामा की पुत्री हमारी बेन सा. साध्वी दिव्यप्रज्ञाश्री जी म. ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • आशीर्वचन मंगल आशीर्वाद सम्पादकीय भूमिका 1. 'तीर्थंकर' शब्द : एक विश्लेषण 2. तीर्थंकर पद प्राप्ति (तीर्थंकर नाम कर्म) 3. तीर्थंकरों की उत्पत्ति : कहाँ और कब 4. तीर्थंकरों की संख्या : एक अनुचिन्तन 5. कल्याणक : एक परिचय 6. च्यवन (गर्भ) कल्याणक 7. जन्म कल्याणक 8. नामकरण एवं बाल्यकाल 9. तीर्थंकर एवं क्षत्रिय कुल 10. तीर्थंकरों का बाह्य रूप • अनुक्रम 11. तीर्थंकरों का अतुल बल 12. दीक्षा (निष्क्रमण) कल्याणक 13. तीर्थंकरों की छद्मस्थ अवस्था 14. केवलज्ञान कल्याणक 15. तीर्थंकरों की विशिष्टता 16. तीर्थंकरों के विशेषण 17. निर्वाण (मोक्षगमन) कल्याणक 18. तीर्थंकर एवं अन्य आत्माओं में अन्तर 19. तीर्थंकर एवं अवतार 20. जैन स्तोत्र साहित्य में 'तीर्थंकर' पृ.सं. iii iv V vii 1 5 14 20 26 32 41 50 58 65 70 75 83 94 109 121 129 135 141 146 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 161 167 175 21. तीर्थंकरों का शासन कल्प 22. अरिहंत पद ध्यान साधना 23. तीर्थंकर प्रतिमा चिन्तन 24. परिशिष्ट • वर्तमान चौबीसी का परिचय • जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र की आगामी चौबीसी • 20 विहरमान तीर्थंकरों का सामान्य परिचय • अढ़ाई द्वीप की त्रिकाल चौबीसी • श्री अजितनाथजी के समय विचरे उत्कृष्ट 170 तीर्थंकर • मौन एकादशी के दिन 150 कल्याणक • श्री पार्श्वनाथ भगवान के प्रमुख 108 नाम व तीर्थ 214 219 220 231 234 239 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तीर्थंकर' शब्द : एक विश्लेषण तीर्थंकरों की आत्माओं को जैन धर्म में सर्वोपरि सर्वोत्कृष्ट माना गया है। तीर्थंकर भगवन्त को सर्वाधिक आदर एवं श्रद्धा की दृष्टि से निहारा जाता है। जैन परम्परा में तीर्थंकरों के जीवन का परम उद्देश्य है, स्वयं मोक्ष रूपी सत्य का साक्षात्कार करना, उसका वरण करना एवं लोककल्याण के लिए इस सम्यक् मार्ग का प्रवर्तन करना । तीर्थंकर जैन धर्मसंघ के पिता हैं। जैन साहित्य में अत्यंत विस्तृत रूप से तीर्थंकरों की महत्ता एवं उनकी गुणविशालता उल्लिखित है । शक्रस्तव ( नमुत्थुणं) एवं चतुर्विंशतिस्तव ( लोगस्स) आदि सूत्रों में तीर्थंकर परमात्मा को चन्द्रमा से अधिक शीतल, सूर्य से अधिक प्रकाशमान, धर्मर्थ के संस्थापक धर्मोपदेशक, धर्म रथ के सारथी इत्यादि विशेषणों से विभूषित करके गुणों पर चिन्तन किया गया है। - 'तीर्थंकर' शब्द की ऐतिहासिकता 'तीर्थंकर' शब्द जैन वाङ्मय का सर्वप्रमुख पारिभाषिक शब्द है । आगमों व ग्रन्थों में 'तीर्थंकर' शब्द की प्रधानता स्वयमेव दृष्टिगोचर होती है। स्थानांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, भगवती सूत्र आदि में 'तित्थयर' (तीर्थंकर) शब्द पाया जाता है। अन्य प्राचीन आगमों में अर्हत्, जिन, अरहंत इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में तीर्थंकर, जिन, अरिहंत आदि शब्द समानार्थी के रूप में प्रयुक्त होते थे । अन्य आगमों एवं परवर्ती साहित्य में तीर्थंकर शब्द का प्रचुर उपयोग हुआ है। जैन धर्म में यह शब्द कब, किस समय से एवं किस कारण से प्रचलन में आया, यह कहना अत्यधिक कठिन है, क्योंकि वर्तमान कालीन उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री में इसका कोई आदिसूत्र नहीं ढूंढा जा सकता। निःशंकित रूप से तीर्थंकर शब्द प्रागैतिहासिक काल से ही प्रचलित है। वैसे वेदों में तीर्थंकर ऋषभदेव को 'अर्हत्' कहा गया है। अर्थात् तीर्थंकरों के लिए पहले अर्हत्, 'जिन' शब्द का प्रयोग अधिक होता था एवं तीर्थंकर शब्द का प्रचार- प्रसारर - विस्तार शनै: शनै हुआ होगा । अरिहन्त (अर्हत् ) मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं। साधु मंगल हैं। केवलि-प्रणीत धर्म मंगल है। आवश्यक सूत्र (4/1) - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 2 किन्तु, जैन परम्परा में इस शब्द का हमेशा से ही प्राधान्य रहा है, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा। इसी कारण बौद्ध साहित्य में भी इसका प्रयोग किया गया है। बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर 'तीर्थंकर' शब्द व्यवहृत हुआ है। यद्यपि सामञ्जफल-सुत्त, लंकावतार सूत्र आदि बौद्ध शास्त्रों में छह तीर्थंकरों का उल्लेख है किन्तु यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य की तरह प्रमुख रूप से यह शब्द वहाँ प्रचलित नहीं रहा है। केवल कुछ ही स्थलों पर इसका उल्लेख हुआ है, किन्तु जैन वाङ्मय में इस पवित्र शब्द का प्रयोग विपुल मात्रा में हुआ है। 'तीर्थकर' शब्द की रचना प्राकृत (या अर्धमागधी) भाषा में तीर्थंकर के लिए 'तित्थंकर', 'तित्थकर' 'तित्थयर' इत्यादि रूपांतर हैं। प्राकृत भाषा इतनी लचीली भाषा है कि शब्दों का थोड़ा सा भी अंतर भावों को बदले बिना विभिन्न शाब्दिक अर्थों की ओर संकेत करता है। संस्कृत भाषानुसार तीर्थंकर शब्द-तीर्थ उपपद कृञ्-अप से निष्पन्न हुआ है, अर्थात् जो आप्तपुरुष धर्म-तीर्थ का प्रचार-प्रसार करे, वह तीर्थंकर है। तीर्थ का अर्थ पुल भी होता है। मोक्षमार्ग तक के पुल रूप जो मार्ग बताते हैं, वे तीर्थंकर होते हैं। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि तीर्थ शब्द की निष्पत्ति किस प्रकार है ? 'तीर्थ' शब्द की संरचना भी तृ+थक् से हुई है एवं तृ धातु का अर्थ है तरना, तैरना। उत्तराध्ययन चूर्णि के अनुसार 'तीर्यते तार्यते वा तीर्थम्' जिससे तरा जाए, वह तीर्थ है। शब्द कल्पद्रुम में इसी को विस्तृत करके लिखा है। “तरति पापादिकं यस्मात् तत् तीर्थम्” जिसके द्वारा पापादिक से या संसार समुद्र से पार हुआ जाए, वही तीर्थ है। 'तीर्थं करोति इति तीर्थंकरः' एवं ऐसे मंगलमयी तीर्थ के रचयिता तीर्थंकर हैं। वर्तमान में जो भी साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका दृष्टिगोचर हैं, उनके आद्य संस्थापक तीर्थंकर भगवन्त ही होते हैं अर्थात् तीर्थंकर द्वारा ही यह तीर्थ स्थापित है। __ गणधर गुरु गौतम स्वामी जी भगवान् महावीर से पूछते हैं कि चतुर्विध संघ तीर्थ होता है या तीर्थंकर तीर्थ होते हैं? परमात्मा कहते हैं कि श्रमणप्रधान चतुर्विध संघ ही तीर्थ होता है और उस तीर्थ के कर्ता तीर्थंकर होते हैं। धर्म-तीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर संस्कृत साहित्य में 'तीर्थ' शब्द-घाट, सेतु या गुरु के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है अर्थात् जो महापुरुष संसार रूपी सरिता को पार करने व करवाने के लिए धर्मतीर्थ के निर्माण का कारण बने, धर्मतीर्थ के प्रवर्तन का निमित्त बने, वह तीर्थंकर है। भूतकाल में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है। - सूत्रकृताङ्ग (1/5/2/23) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 3 तीर्थ का लौकिक, लोकसम्मत अर्थ यथा शत्रुजय तीर्थ, अष्टापद तीर्थ इस प्रसंग पर उपयुक्त नहीं है। जैन साहित्य में तीर्थ शब्द का विवेचन दो अपेक्षाओं से किया है- द्रव्य तीर्थ एवं भावतीर्थ। एवं तीर्थंकर को दोनों तीर्थों का प्रवर्तक, निर्माता, संस्थापक बनाया है। द्रव्यतीर्थ का अर्थ है- धर्मशासन। धर्मसंघ। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ये धर्म हैं। इस धर्म को धारण करने वाले श्रमण (साधु) श्रमणी (साध्वी) श्रमणोपासक (श्रावक) एवं श्रमणोपासिका (श्राविका) हैं। इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा है, धर्मसंघ कहा गया है। आवश्यक चूर्णि में कहा है- “तित्थं चाउवन्नो संघो तं जेहि कयं ते तित्थकरा।" अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र इत्यादि गुणयुक्त तीर्थ चतुर्विध संघ है एवं उसके संस्थापक ही तीर्थंकर हैं। भावतीर्थ का अर्थ है प्रवचन। प्रवचन पद का अर्थ यहाँ श्रुतज्ञान, आगम, द्वादशांगी है। एवं प्रवचन के प्रदाता, श्रुतज्ञान के स्रोत एवं आगमों के कर्ता तीर्थंकर कहलाते हैं। विशेषावश्यक .. भाष्य में लिखा है- “तीर्थं श्रुतज्ञानं तत्पूर्विका अर्हत्ता तीर्थंकरता" अर्थात् तारक तीर्थ के समान होने से श्रुतज्ञान को तीर्थ कहा गया है और आगमकर्ता ही तीर्थंकर है। इस प्रकार तीर्थंकर शब्द की व्याख्या विस्तृत, विशाल एवं गूढ़ है जो आगम साहित्य में यत्र-तत्र बिखरी हुई है। तीर्थंकर शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य भद्रबाहु स्वामीजी ने लिखा है - अणुलोमहेउतच्छीया य जे भावतित्थमेयं तु । कुव्वंति पगासंति परमात्मा ते तित्थयरा हियत्थकरा ॥ बहुत कम शब्दों में तीर्थंकर परमात्मा के आत्मीय स्तर का निरूपण किया है। 'अनुलोम' यानी अनुकूल। संसार के किसी भी प्राणी के प्रति विरोध व्यवहार करना उनकी प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं होता। स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, ग्लान, जिनकल्पी साधु, स्थविरकल्पी साधु इत्यादि सभी के अनुकूल उत्सर्ग और अपवाद धर्ममार्ग का तीर्थंकर प्रभु प्रतिपादन करते हैं। ‘हेतु' यानी कारण, लक्ष्य। संसार के सभी प्राणियों का श्रेष्ठ आचरण हो, सभी मोक्ष पद को प्राप्त कर सके इस करुणा भाव से तीर्थ की स्थापना का लक्ष्य रखते हैं। तत्शीलता यानी जिनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं है। मोक्ष के जिए मार्ग को वे प्रदर्शित करते हैं उसका पूर्ण पालन वे स्वयं भी करते हैं। ऐसे तीर्थंकर 'हितार्थंकर' होते हैं यानी सभी प्राणियों का हित किसमें निहित है, इसका यथार्थ बोध उन्हें होता है और ऐसी ही हितकारीवाणी की गंगा वे बहाते हैं। अज्ञानी आत्मा क्या करेगा ? वह पुण्य और पाप को कैसे जान पायेगा ? - दशवैकालिक (4/10) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 4 इस संसार में जगह-जगह क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों के अंगारे बिखरे हुए हैं। सामान्य व्यक्ति इनको पार नहीं कर पाता एवं विकारों के भँवर में फँस जाता है। किन्तु अनन्त दया के अवतार-तीर्थंकर परमात्मा केवल स्वयं इन्हें पार कर उच्च शिखर पर आरूढ़ हो जाते हैं, बल्कि जनसाधारण के लिए तीर्थ/पुल का निर्माण करते हैं। व्यक्ति अपनी शक्ति एवं भक्ति के अनुसार साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविका रूपी पुलपर चढ़कर अथवा श्रुतज्ञान प्रवचन को जीवन के अध्यात्म में जोड़कर नर से नारायण बनने का मार्ग खोल सकता है। जिज्ञासा : शास्त्रों में चार प्रकार के निक्षेपों का वर्णन आता है। इन निक्षेपों से तीर्थंकर का स्वरूप कैसे समझें ? समाधान : अनुयोगद्वार सूत्र में शास्त्रकार महर्षि फरमाते हैं जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेयं निक्खिये निरवसेसं। जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिये तत्थ॥ अर्थात् - जहाँ जिसके जितने निक्षेप ज्ञात हों, वहाँ उतने निक्षेप करना एवं जिसमें अधिक मालूम न हो, वहाँ कम-से-कम चार निक्षेप तो अवश्य करने चाहिए1. नाम निक्षेप - वस्तु का आकार रहित एवं गुणरहित निक्षेप जिसके सांकेतिक नाम से उसका बोध हो सके। जैसे-तीर्थंकर का नाम ऋषभ या महावीर, पार्श्व या सीमंधर आदि होना। 2. स्थापना निक्षेप- वस्तु के नाम व आकार सहित हो किन्तु गुणरहित हो। यह निर्जीव होने पर भी सजीव के समान प्रभाव देती है। जैसे-तारक तीर्थंकरों की प्रतिमा, मूर्तियाँ, चित्र, चरण-पादुका आदि। 3. द्रव्य निक्षेप - वस्तु के नाम, आकार व भूत-भविष्य के गुण सहित हो पर वर्तमान में गुणरहित हो। जैसे-जो आत्माएँ तीर्थंकर बनने वाली हैं या तीर्थंकर पद भोग चुकी हों किन्तु वर्तमान में तीर्थंकर नहीं है। | 4. भाव निक्षेप - वस्तु के आकार, नाम और वर्तमान गुण सहित हो। अर्थात् जो वर्तमान में तीर्थंकर हो, समवसरण में बैठकर देशना देते हों, वे भाव तीर्थंकर होते हैं। एक बार भूल होने पर दुबारा उसकी आवृत्ति न करें। - दशवैकालिक (8/47) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर पद - प्राप्ति ( तीर्थंकर नाम कर्म) जैन कर्म साहित्य की दृष्टि तीर्थंकर पद - उत्कृष्ट - उत्तमोत्तम पुण्य प्रकृति है । कोई भी भव्य जीव, एक भव की साधना से तीर्थंकर नहीं बन सकता। उसके लिए दीर्घकाल तक भावपूर्ण साधना आराधना-उपासना करनी पड़ती है। तीर्थंकर भगवन्त की आत्मा भी कभी हमारी तरह इस संसार दलदल में लिप्त थी। जैनधर्म की यह निर्विरोध मान्यता है कि तीर्थंकरों का जीव भी एक दिन हमारी तरह ही वासना के दलदल में फँसा था, पापमय पंक से लिप्त था, कषायों की कालिमा से कलुषित था एवं आधि-व्याधि उपाधियों से संत्रस्त था । लेकिन स्वपुरुषार्थ के बल पर उसने सम्यक्त्व को प्राप्त किया एवं तदनन्तर भावपूर्ण सेवा - साधना से तीर्थंकर नाम - गोत्र कर्म का बंध किया व बहिरात्मा से परमात्मा की राह पकड़ स्वयं मोक्षोन्मुख बने । तीर्थंकर नाम कर्म की विशेष बात यह है कि इसका उपार्जन केवल मनुष्य गति में ही होता है। तिर्यंच गति में आत्मा को न तो इतना विवेक होता है, न ही इतना विनय एवं देवगति व नरकगति में वैक्रिय शरीर की अधमता के कारण दीर्घकालीन पुरुषार्थ नहीं हो सकता है; जितना मानव भव के औदारिक शरीर में । शुभकर्मों की 42 प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्तम है । जो आत्मा इस सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति का बंधकर इसे दृढ़ीभूत (निकाचित) कर लेती है वह अवश्य ही परमात्म पद पाती है। आवश्यक निर्युक्ति (गाथा 179-181 ) में तीर्थंकर नामकर्म बाँधने के 20 द्वार बताए हैं “अरहन्त सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसु । • वच्छल्लया यं तेसि, अभिक्ख णाणोवओगे य ॥ दंसण विणए आवस्सए य, सीलव्वए णिरइआरो । खण - लव-तव-च्चियाए, वेयावच्चे समाहिए । अपुव्वणाणग्गहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहई जीवो ॥ " जब अन्धा अन्धे का मार्गदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट पथ से दूर भटक जाता है। सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/19) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 86 ज्ञाताधर्मकथांग त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, समवायांग, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रन्थों में भी 20 पदों का उल्लेख है, जिनकी आराधना भक्ति से ही आत्मा तीर्थंकर नाम कर्म बाँध सकती है। इन 20 स्थानक की तपस्या द्वारा भी समग्र पदों की आराधना की जाती है। उसका भी महत्त्व है किन्तु उसे अपने आचरण में उतारकर दिव्य करुणा ला पाना, उसका उत्कृष्ट महत्त्व है। इन बीस पदों को बीस-स्थानक भी कहा जाता है। इन 20 पदों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है1. अरिहन्त पद - जिन वीतरागी आत्माओं ने चार घनघाति कर्मों का जड़मूल से नाश कर दिया है, जो 34 अतिशयों एवं अष्ट प्रातिहार्य युक्त हैं उन्हें अरिहंत कहा जाता है। वे अखण्ड केवल ज्ञान दर्शन के स्वामी हैं। इसी कारण उन्हें महागोप, महामाहण आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है। ऐसे अरिहन्त परमात्मा जो नाम स्थापना द्रव्य एवं भाव निक्षेप में उपास्य हैं, उनकी स्तुति, विनय भक्ति करने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है। सिद्ध पद - जो आत्माएँ आठ कर्मों का क्षय कर मोक्षधाम में लोकाग्रे सिद्वशिला स्थित हैं एवं अशरीरी अरूपी-अजरामर-निरंजन हैं, वे सिद्ध कही जाती हैं। ऐसी आत्माएँ परम सुखी अवस्था में हैं। वे जन्म-मरण के बंधनों से सर्वथा मुक्त हैं एवं आधि-व्याधि-उपाधि आदि सभी दुःखों से दूर हैं। ऐसे सिद्ध परमात्मा के अवर्णवाद के परिहार से तथा उनके गुणोत्कीर्तन और गुणप्रकाश करने से तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है। प्रवचन भक्ति पद - केवली प्रणीत धर्म में प्रकाशित तत्त्वों का चरम सत्य एवं पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रवचन कहलाता है। प्रभु की तारक देशना 12 अंगों में निहित है। इन जिनागमों के ज्ञाता- श्रीचतुर्विध संघ को भी प्रवचन की संज्ञा प्रदान की गई है। ऐसे ज्ञानमयी प्रवचन की साधना एवं संघमयी प्रवचन की विनयभक्ति करने से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन होता है। आचार्य पद (गुरु पद) - पाँच समिति तीन गुप्ति इत्यादि 36 गुणयुक्त आचार्य भगवन्त प्रबुद्ध धर्मोपदेशक धर्मतीर्थसंरक्षक एवं श्रीसंघ के नायक होते हैं। 'सूरि तित्थयर समो' कहकर उन्हें तीर्थंकरों के समान बताया है। सद्गुरु ही श्रावक के जीवन को सुधारता है। गुरु की 33 आशातनाओं के परिहार से एवं वन्दनादि-सेवा-भक्ति करने से आत्मा तीर्थंकर नामकर्म का बंध करती है। अज्ञानी साधक उस जन्मान्ध मानव के समान है, जो छिद्रवाली नौका पर आरूढ होकर नदी के तट पर पहुंचना चाहता है, किन्तु किनारा आने से पूर्व ही मध्य-प्रवाह में डूब जाता है। - सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/31) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 6. 7. 8. 9. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 887 स्थविर पद वयः स्थविर, दीक्षा पर्याय स्थविर, श्रुत स्थविर इत्यादि भेद वाले ज्ञानी जो गीतार्थ हैं एवं संयम मार्ग में अविचलित (स्थिर) रहकर जिनशासन की अपूर्व प्रभाव कर रहे हैं और क्षमा, मृदुता सरलता आदि यतिधर्मों का पालन कर रहे हैं, ऐसे संयम स्थविरों की सेवा-भक्ति से, आशातना के परिहार से, गुणोत्कीर्तन से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन निश्चित होता है। - बहुश्रुत पद ( उपाध्याय पद ) ग्यारह अंग, बारह उपांग, चरण सित्तरी, करण सित्तरी के ज्ञाता अथवा 14 पूर्व, 11 अंग के ज्ञाता ऐसे पच्चीस गुणयुक्त प्रभूतश्रुतज्ञानधारी उपाध्य वन्दनीय-पूजनीय होते हैं। वाचक, पाठक, उपाध्याय, बहुश्रुत ये पर्यायवाची हैं। अन्य योग्य पात्रों को श्रुतज्ञान का अभ्यास करवाने वाले उपाध्यायों - बहुश्रुतों के सम्मान - सत्कार से वन्दन विनयादि भक्ति से न केवल तीर्थंकर नामकर्म बँधता है, अपितु ज्ञानावरणीय कर्म का भी क्षय होता है। - तपस्वी मुनि पद (साधु पद) जो मुनिवर पंच महाव्रत आदि 27 गुणों के धारक हैं, क्षुधा आदि 22 परिषहों को सहन करने वाले हैं, स्व-पर हितकर्ता हैं, धर्मोपदेशक हैं वे अवनि के अणगार हैं, जिनशासन के शणगार हैं । बाह्य आभ्यंतर तपस्या करने वाले साधुसाध्वियों की संयम यात्रा में सहायता करके, स्तुति बहुमान करके तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया जा सकता है। - - ज्ञान पद सम्यग्ज्ञान वही है जो पतित व्यक्ति का उद्धार करे एवं उसे उत्थान मार्ग की ओर सम्प्रेरित करे। आत्मा का स्वभाव ही जानना है। स्वाध्याय, वाचना, पृच्छना, धर्मकथा आदि क्रियाएँ निरन्तर ज्ञानोपयोग एवं सतत श्रुताराधना को प्रेरित कर दीपक की भाँति अंधकार-मय अज्ञान को हटाकर प्रकाशमय ज्ञान की ज्योति प्रकट करती है । सद्ज्ञान से ही कर्तव्य अकर्त्तव्य की बुद्धि आती है। सतत ज्ञानाराधना ज्ञानोपासना से आत्मा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करते-करते तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करती है। 1 दर्शन पद सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर अटूट अगाध श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन कहलाता है । सम्यग्दर्शन मोक्ष के निकट लेकर जाता है। दर्शन का अभाव मिथ्यात्व को आमंत्रण देता है, जो जन्म देता है संशय, शंका, कुतर्क को एवं मोक्ष से दूर लेकर जाता है। परमात्मा पर, परमात्मा की वाणी (आगम) पर नि:शंकित, पूर्ण श्रद्धा रखना व अन्य जागृत करना एवं निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है। अज्ञानी कितना ही प्रयत्न करे, किन्तु पाप कर्मों से पाप कर्मों को कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता। सूत्रकृताङ्ग (1/12/15) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 28 10. विनय पद - आत्मा का मूलभूत गुण विनय है। आत्मा में नम्रता के बीज बोने का अर्थ है मुमुक्षु औसन्य आसन्न भव्य जीव उत्पन्न करना। कहा गया है- 'लघुता से प्रभुता मिले।' आत्मा में से अहंकार आदि कषायों को निकालने से कर्मरूपी मल का विनाश होता है और विनय नामक आन्तरिक गुण की उत्पत्ति होती है। आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में 10 प्रकार के/52 प्रकार के विनय समाहित करने से आत्मा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करती है। आवश्यक पद (चारित्र पद) - आत्मा का परम लक्ष्य विकृति से प्रकृति की ओर आना है। इसी हेतु से शुद्ध-निर्मल चारित्र का पालन जरूरी है। सामायिक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग आदि षट् आवश्यक क्रिया के अतिचार रहित, दोष रहित, निर्दोष क्रिया के पालन से आत्मा कलंकहीन बनती है। चारित्रिक उपासना हेतु षड़ावश्यक के भावपूर्वक करने से तीर्थंकर नामकर्म का बंध आत्मा करती है एवं सद्गति की ओर प्रयाण करती है। ब्रह्मचर्य पद (शील पद) - ब्रह्म अर्थात् आत्मा चर्य अर्थात् रमण करना। स्वयं को आत्मा के सन्निकट रखना, आत्मभाव में लीन रहना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो व्यक्ति भोगकामवासना के विकारों का विचार नहीं करते, शील तथा व्रत अर्थात् मूलगुण और उत्तरगुण को निर्दोष पालते हैं व ब्रह्मचारी रहते हैं, उनके शरीर की विशिष्ट ऊर्जा धर्माराधना में सहायक होती है। ब्रह्मचर्य व्रत के भावपूर्ण पालन से तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है। . शुभ ध्यान पद (क्रिया पद) - आत्मा को रौद्र आदि कषायी ध्यान से विकेन्द्रित हो संवेग भावना उत्पन्न करने हेतु धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याना चाहिए। इससे प्रतिक्षण वैराग्य भाव की अभिवृद्धि होती है एवं कर्मरूपी कचरा भस्म होता है। व्यक्ति जब निर्जरा हेतु शुभ ध्यान ध्याता है, तो पंचाचार विशुद्ध क्रिया भी निर्दोष एवं अतिचार रहित होती है। भावपूर्वक शुभ ध्यान में निर्मल क्रियाओं के करने से भी भव-भवान्तर में तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती 12. 13. शुभ 14. तप पद - जो कर्मों की मैल को तपाता है, उसे तप कहते हैं। बाह्य तप (अनशन, वृत्तिसंक्षेप, ऊणोदरी इत्यादि) तथा आभ्यंतर तप (प्रायश्चित्त वैयावच्च इत्यादि) के यथाशक्ति तपानुष्ठान से आत्मा की शुद्धि होती है। प्रशस्त-निष्काम एवं सम्यक्तप से सभी दुर्भाव संकुचित हो जाते हैं। तथा आत्मा मोक्ष की ओर बढ़ जाती है। तप का माहात्म्य अद्भुत कल्याणकारी है एवं इस पद के पूर्ण आराधन से भव्यात्माएँ आगामी भवों में तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकती हैं। काम-भोगों में आसक्त एवं अपने हित तथा नि:श्रेयस् की बुब्दि का त्याग करने वाले अज्ञानी मानव विषय-भोग में वैसे ही चिपके रहते हैं, जैसे श्लेष्म (कफ) में मक्खी। - उत्तराध्ययन (8/5) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 9 15. - दान पद/ गोयम पद - सुपात्र को साधुजनोचित प्रासुक अशनादि का दान करना, मरण शय्या पर लेटे व्यक्ति को अभयदान देना इत्यादि दान परमोत्कृष्ट कल्याणकारी है। क्योंकि दान देने से न केवल दाता को पुण्यबंध होता है बल्कि याचक का भी कल्याण होता है। धर्मदान की महिमा अपरम्पार है। भावपूर्वक दान करने से व्यक्ति सद्कृत्यों का संचय करता है और साथ ही तीर्थंकर नामकर्म बाँधने से तीर्थंकरत्व की प्राप्ति में सहयोग करता है। किन्हीं व्याख्याओं में पन्द्रहवाँ पद 'गोयम पद' लिखा है जिसका आशय है प्रथम गणधर पद। वे परमात्मा की वाणी से द्वादशांगों की रचना कर ज्ञानदान देते हैं। अत: गणधर की पर्युपासना से भी तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है। ज्ञानदान उत्तमोत्तम दान है। अपेक्षा से यदि विचार करें तो सुपात्रदान एक गुण है और ‘गोयम पद' गुणी है। ‘गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए सुपात्र दान एवं गोयम पद दोनों का स्थान यथोचित बराबर है। वैयावृत्य पद (जिन पद) - वैयावृत्य एक निर्जरा प्रधान क्रिया है। इससे पुण्य का बंध भी होता है तथा आत्मा शक्तिमान बनती है। चतुर्विध संघ की सेवा-भक्ति करने से, तेरह प्रकार का वैयावृत्य करने से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है। किसी शास्त्रकार ने इसे जिन पद भी लिखा है। किन्तु यहाँ अरिहंतादि जिन अर्थ उपयुक्त नहीं है। यहाँ 'जिन' पद का अर्थ राग-द्वेषादि अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने हेतु पुरुषार्थ किया जाए तो सुसंगत है, क्योंकि उन्हीं की वैयावृत्य से तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती 16. समाधि पद (संयम पद) - संयम का फल समाधि है जिसमें मन एकाग्र और स्थिर हो जाता है व आत्मा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो जाती है। सभी प्रकार की आकुलताओं से रहित समभाव में टिककर व 20 असमाधियों से बचकर आत्मा तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर सकती है। 18. अभिनवज्ञान पद (अपूर्व श्रुत पद) - बुद्धि के 8 गुणों की प्राप्ति हेतु नवीन अपूर्व अभिलक्षित ज्ञान के अभ्यास से, नए नए ज्ञान के मनन-वाचन से चिन्तन-लेखन से आत्मोत्थान में सहायता प्राप्त होती है तथा तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है। वैसे ज्ञान का स्वरूप आठवें पद में भी है, किन्तु इसमें नवीन जिज्ञासा रूप ज्ञान की पुष्टि को महत्त्व दिया गया है। इसमें पाँचों ज्ञान के अभ्यास की बात है जबकि अग्रिम पद में श्रुतज्ञान की भक्ति की मुख्यता है। सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए श्रावक को सामायिक दिन में अनेक बार करनी चाहिए। ___ - विशेषावश्यक भाष्य (2690) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 20. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 10 श्रुत पद पाँच प्रकार के ज्ञान में श्रुतज्ञान अपूर्व है। क्रम में यह दूसरा है। ज्ञान पद का अर्थ है सद्ज्ञान-भक्ति, अभिनवज्ञान पद का अर्थ है नए ज्ञान का अभ्यास एवं श्रुतपद का अर्थ है साहित्य प्रभावना / परमात्मा की वाणी को अपने शब्दों में लिखकर / लिखवाकर प्रचार-प्रसार से एवं 8 प्रकार के ज्ञानाचार से आराधित श्रुतपद की भक्ति से तीर्थंकर नाम कर्म बँधता है। - तीर्थ पद (प्रवचन प्रभावना) जंगम-स्थावर तीर्थ, तीर्थंकर प्रभु के जिनधर्म शासन की प्रभावना करना अत्यंत हितकर है। आठ प्रकार की प्रभावना से जिनोपदेश को, जिनधर्म को प्रचारित प्रकाशित करने से, कल्याणक भूमियों के दर्शन - स्पर्शन, अवलम्बन से, चतुर्विध संघ के विस्तार से आत्मा तीर्थंकर नाम गोत्र बाँधती है एवं भवान्तर में तीर्थंकर रूप में जन्म लेती है। कहा गया है- "अप्पा सो परमप्पा" अर्थात् आत्मा ही परमात्मा बनती है । किन्तु प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि परमात्मा किस प्रकार बना जाए ? इस प्रश्न का सुयोग्य उत्तर निहित है बीस-स्थानक आराधना में। उक्त 20 बोलों / पदों में से किन्हीं एक दो बोलों की भी उत्कृष्ट साधनाआराधना की जाए तो भी अध्यवसायों की श्रेष्ठता से जीव तीर्थंकर नामकर्म बाँधता है। सप्ततिशतद्वार नामक ग्रन्थ में वर्तमान तीर्थंकरों के बारे में कहा है - पुरमेणे चरमेहिं पुट्ठा जिणहेऊ बीस ते अ इमे । सेसेहिं फासिया पुण एगं दो तिण्णि सव्वे वा ॥ अर्थात् वर्तमान काल के 24 तीर्थंकरों में से प्रथम (ऋषभदेव) एवं अन्तिम (महावीर) तीर्थंकर ने सभी 20 स्थानों की आराधना की, जबकि मध्य के शेष तीर्थंकरों ने एक, दो, तीन, यावत् सभी 20 स्थानों का परमोत्कृष्ट आराधन किया । तत्वार्थ सूत्र (श्री उमास्वाति विरचित) में बीस - स्थानों के बदले सोलह भावनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। यथा 1. दर्शनविशुद्धि 4. निरन्तर ज्ञानोपयोग 7. संघ-भक्ति 10. अर्हत् भक्ति 13. प्रवचन भक्ति 16. प्रवचनवत्सलता । 2. विनयसम्पन्नता 5. वैराग्य भावना 8. साधु भक्ति 11. आचार्य भक्ति 14. आवश्यक परिपालन 3. अतिचाररहित शीलव्रत पालन 6. यथाशक्ति तपाराधन 9. तपस्वी-सेवी 12. बहुश्रुत भक्ति 15. जिनशासन प्रभावना प्रतिमास हजार-हजार गायें दान देने की अपेक्षा, कुछ भी न देने वाले संयमी का आचरण श्रेष्ठ हैं। उत्तराध्ययन (6/40) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 11 सूक्ष्म रूप से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि दोनों परम्पराओं में तीर्थंकर पद प्राप्त करने की साधना पद्धति में कोई मौलिक भेद नहीं है। क्रम में भेद होने पर भी अधिकतम पद समान हैं। तीर्थंकर बनने के मार्ग में जैनधर्म ने मूल प्रधानता भावों को ही दी है। कोई भी क्रिया दूषित-अपवित्र भावों से की हो, वह फलदायक नहीं होती। अर्थात् जब तक मन में पवित्र भाव न हो, तब तक अकेले तपश्चर्या से. दान-पुण्य से. ज्ञानाराधन से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन नहीं होता। अत: सर्व जीवों का कल्याण, उद्धार करने की भावना, सभी जीवों को जिनशासनरसिक बनाने की भावना, ऐसी उत्तमोत्तम भावना अनिवार्य है। साधक तन्मयता से इन बीस पदों को आत्मसात् कर लेता है। जीवन में एकरस हो जाता है, बाह्य आडम्बरों को छोड़ अपना आत्मबल विकसित कर लेता है, और साथ-साथ उत्कृष्ट कक्षा के भावों की भावना करता है, तब ही वह तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर सकता है। इन बीस स्थानकों की आराधना विभिन्न आत्माएँ करती आई हैं, करती हैं एवं करती रहेंगी किन्तु फिर भी सभी तीर्थंकर नाम कर्म का बंध नहीं कर पाते। इसका प्रमुख कारण है 'भाव'। तीर्थंकर पद-प्राप्ति के लिए स्वयं के एवं अन्य के कल्याण की शुभ भावना परमावश्यक है। __जिनके हृदय में केवल स्व-कल्याण की भावना हो, वे अंतकृत केवली बन सकते हैं। जिनके हृदय में स्व-कल्याण एवं अपने कुटुम्बीजनों के कल्याण की भावना हो, वे सामान्य केवली बन सकते हैं एवं जिनके रोम-रोम में संसार के एक-एक जीव के कल्याण की भावना हो, वे ही तीर्थंकर बन सकते हैं। जब जीव के हृदय में संसार के प्राणीमात्र के प्रति असीम अपार करुणा हो, नरक गति के जीव हों या निगोद गति के जीव हों, एक-एक आत्मा को मोक्ष पथ से जोड़ने की तड़प हो, सभी जीवों को सिद्धत्व का शाश्वत सुख प्रदान करने की प्रबलतम भावना हो, 'सवि जीव करूँ शासन रखी' का उत्कृष्ट भाव हो, ऐसी करुणामयी भावना एवं बीस स्थानक आराधना का मेल ही तीर्थंकर पद की चाबी है। एक भव की साधना से मोक्ष तो सीधा मिल सकता है लेकिन तीर्थंकर पद प्राप्त कर मोक्ष जाने के लिए कम-से-कम तीन जन्मों की मेहनत लगती है। तीर्थंकर नाम कर्म की विशिष्टता : तीर्थंकर पद को प्राप्त करने का परम निमित्त तीर्थंकर कर्म है। इसी कर्म के हेतु से तीर्थंकर लब्धि प्राप्त होती है, जिससे ही समस्त ऋद्धियाँ, अतिशय प्राप्त होते हैं। यह शंका कई बार उत्पन्न होती है कि जब तीर्थंकर कृतकृत्य हैं- उन्हें जब कुछ भी करने की इच्छा बाकी नहीं रही है, तो वे देशना, उपदेश भी किस कारण से देते हैं ? इस शंका का परिहार करते हुए श्री शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं सत्य को धारण कर, उससे विचलित न हो। सत्य में रत रहने वाला मेधावी सर्व पापकर्म का शोषण । कर डालता है। - आचाराङ्ग (1/3/2) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 12 तीर्थप्रवर्तनफलं यदागमोक्तं कर्म तीर्थंकरनाम। तस्योदयात्कृतार्थोऽप्यर्हस्तीर्थं प्रवर्तयति ॥ तत्स्वभावादेव प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम्। तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थंकरनाम एवम् ॥ . भावार्थ : तीर्थंकर नामकर्म के कारण ही तीर्थंकर चतुर्विध संघतीर्थ की स्थापना करते हैं। इसी कर्म के उदय होने पर बिना इच्छा के भी तीर्थंकर भगवन्त देशना देते हैं। __कोई सामान्य केवलज्ञानी तीर्थ की स्थापना नहीं कर सकता क्योंकि उसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं किया। तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित करने वाली आत्मा जघन्य रूप से (कम से कम) तीसरे भव में एवं उत्कृष्ट रूप से (अधिक-से-अधिक) पन्द्रहवें भव में तीर्थंकर पद प्राप्त करती है। तीर्थंकर एक महान् पद है। तीर्थंकर नामकर्म उत्तमोत्तम निमित्त है एवं बीस स्थानक तप आराधना एक शाश्वत प्रक्रिया है। तीर्थंकर बने हुए सकल भगवानों ने भगवान होने से पूर्व के भव में तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया था। भविष्य में भी जितने भी तीर्थंकर उत्पन्न होंगे, उन्होंने भी तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया होगा। अत: तीर्थंकर एवं तीर्थंकर नाम कर्म गृढार्थ अभिन्न शब्द हैं। तीर्थंकर पद-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है- तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन व बीस स्थानक आराधन जिसका बंध पुरुष वेद, स्त्री वेद एवं नपुंसक वेद तीनों में किया जा सकता है किन्तु फल भोगते हुए (तीर्थंकर रूप में) केवल पुरुष वेद ही प्राप्त होता है। जब तक परमेश्वर बनने वाली वह आत्मा तीर्थंकर बन नहीं जाती, तब तक वह द्रव्य तीर्थंकर के रूप में वंदनीय रहती है। आवश्यक नियुक्ति व वृत्ति में लिखा है- “तच्चप्रारम्भबन्धसमयादारभ्य सततमुपचिनोति यावदपूर्वकरणसंख्येयभागैरिति केवलिकाले तु तस्योदयः।" अर्थात् तीर्थंकर नाम कर्म की उत्कृष्ट बन्धस्थिति एक कोटाकोटी सागरोपम है। जिस समय नामकर्म की इस उत्कृष्ट प्रकृति का बंध प्रारम्भ होता है तबसे लेकर अपूर्वकरण (क्षपकश्रेणी) के संख्येय भाग मात्र तक इस कर्मप्रकृति का सतत उपचय होता रहता है तथा केवलज्ञान की अवस्था में उदय। यहीं तक की अवस्था भाव तीर्थंकर की है। कर्मबंध दो प्रकार का होता है - निकाचना रूप और अनिकाचना रूप। अनिकाचित बंध फल देता है अथवा नहीं भी देता है और किसी भी भव में बाँधा जा सकता है। जबकि निकाचित एकाकी रहने वाले साधक के मन में प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल्प उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं। अत: सज्जनों की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है। -बृहत्कल्प भाष्य (57/19) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 13 बंध तीर्थंकर के भाव से पूर्व तीसरे भव में ही होता है। महानिशीथ सूत्र में भी सावद्याचार्य की कथा आती है जिसमें बताया है किस प्रकार उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म बाँधा (अनिकाचित रूप में) किन्तु उसके आगे पुण्य दलिक इकट्ठा नहीं कर सके इसलिए उनका तीर्थंकर नाम कर्म निकाचित नहीं हो सका। अतः तीर्थंकर पद की प्राप्ति हेतु तीर्थंकर नाम कर्म को दृढ़ करना भी बहुत दुष्कर है। क्षेमंकरगणि कृत षट्पुरुष चरित्र में ऐसा उल्लेख है कि अव्यवहार राशि में भी तीर्थंकर परमात्मा अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक गुणवान होते हैं; व्यवहार राशि में आते हैं तो • पृथ्वीकाय में चिन्तामणि रत्न, पद्मरांग रत्न आदि । • अप्काय में तीर्थजल, तीर्थोदक आदि । • तैजसकाय में यज्ञ, मंगलदीप, अग्नि आदि । • वायुकाय में वसंतकालीन मृदु पवन आदि । • वनस्पतिकाय में कल्पवृक्ष, आम्र, उत्तम चंदन, चित्राबेल आदि वृक्ष । • द्वीन्द्रिय में दक्षिणावर्त शंख, शालिग्राम, शुक्तिका आदि । • तिर्यंचों में उत्तम हाथी / अश्व आदि उत्तम स्थानों को प्राप्त करते हैं। जिज्ञासा : तीर्थंकर नामकर्म, गोत्र व लब्धि में क्या अन्तर है ? समाधान : तीर्थंकर नाम एवं तीर्थंकर गोत्र, कर्मों से सम्बंधित होते हैं जो जीव को तीर्थंकरत्व देने में नाम, रंग, रूप, कुल आदि प्रदान करते हैं, जो उत्तमोत्तम होते हैं। किन्तु लब्धि का सम्बन्ध तीर्थंकर के पुण्य से होता है, जो तीर्थंकर की सर्वव्यापकता एवं यश-प्रभावादि दर्शाता है। अतः सभी तीर्थंकरों का नाम कर्म व गोत्र कर्म समान होता है, किन्तु लब्धि समान नहीं होती । स्थानांग सूत्र में 'तित्थगरणामगोत्ते कम्मे' कहकर तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म, ऐसा लिखा गया है । अतः तीर्थंकरत्व के संदर्भ में नाम कर्म और गोत्र कर्म का गहरा सम्बन्ध है । - जिज्ञासा : क्या तीर्थंकर की सत्ता वाला मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है ? समाधान : तीर्थंकर प्रकृति का बंध चौथे गुणस्थानक से लेकर आठवें गुणस्थानक के छठे भाग तक किसी-किसी सम्यक्त्वी जीव को होता है। तीर्थंकरनाम की सत्ता के रहते हुए जीव मिथ्यादृष्टि नहीं हो सकता। एक विशेष कारण से उसे मिथ्यात्व में आना पड़ सकता है किन्तु मिथ्यात्व में वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं ठहरता । विशेष कारण यदि जीव नरकायु का बंध पहले करे, बाद में वेदक सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर नामकर्म बाँधे तो वह मरण काल आने पर मिथ्यादृष्टि हो जाता है किन्तु अन्तर्मुहूर्त के अंदर ही वापिस सम्यक्त्व में स्थिर हो जाता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की उत्पत्ति: कहाँ और कब ? यह प्रश्न अनायास ही उपस्थित हो जाता है कि तीर्थंकरों की उत्पत्ति, उनका जन्म कहाँ किस क्षेत्र में तथा कब होता है ? इसका समाधान जानने से पूर्व हमें जैन भूगोल के बारे में पढना तथा समझना होगा। हालांकि वर्तमान भूगोल के साथ इसका मेल नहीं खाता किन्तु परम सत्य के ज्ञाता, सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर एवं उत्तरवर्त्ती महामनीषी आचार्यों से अधिक ज्ञानी कोई वैज्ञानिक नहीं हो सकता। जिस प्रकार कुछ शताब्दी पूर्व विज्ञान पृथ्वी को गोल नहीं मानता था, अंटार्कटिका नामक भूखंड से परिचित नहीं था, इत्यादि किन्तु शोधों से विज्ञान ने अपनी धारणाएँ बदलीं। आज भी बरम्यूडा ट्राएंगल आदि के रहस्यों को विज्ञान सुलझा नहीं पाया है। उसकी धारणाँ निरन्त बदलती रहती हैं। विज्ञान उतना कर्मभूमि 1. यहाँ लोग असि ( तलवार - शस्त्रादि) मसि 1. (कागज-कलमादि) कृषि ( खेती बाड़ी) द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं। 2. यहाँ सदैव युगलिए उत्पन्न नहीं होते । 3. यहाँ पर राज्य नीति होती है। 2. हमेशा मंदकषायी युगलिए होते हैं । लोग यहाँ स्वतंत्र रहते हैं । 3. 4. 4. यहाँ पर विवाह आदि विधि अनुसार होते हैं। व्यक्ति पुत्र पौत्र आदि पीढ़ियाँ देख सकता है। यहाँ विवाह आदि प्रथा नहीं होती। एक व्यक्ति जीवनकाल में केवल अपने पुत्र-पुत्री को ही देख सकता है। अकर्मभूमि यहाँ असि - मसि - कृषि का व्यवहार नहीं होता । लोग कल्पवृक्षों द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं। 5. भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक 5. यहाँ पर भूकम्प, अतिवृष्टि आदि प्राकृतिक उपद्रव तथा रोग होते रहते हैं। उपद्रव नहीं होते । रोगों का भी सर्वथा अभाव रहता है। 6. यहाँ के भव्य जीव केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष 6. यहाँ मुक्ति नहीं होती क्योंकि साधु-साध्वी नहीं जा सकते हैं। होते। अतः धर्म व्यवहार नहीं होता । मर्यादा से अधिक नहीं हँसना चाहिए। - सूत्रकृताङ्ग (1/9/29) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 15 ही कहता है जितना वह देख सकता है। किन्तु जैन भूगोल के अन्य क्षेत्रों तक पहुँचना परम दुष्कर है। अत: विज्ञान विशेष नहीं, अधूरा एवं भ्रामक ज्ञान है। वस्तुत: आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर लोकों की रचना के रूप में भूगोल का कथन व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति व अवनति का प्रदर्शन करता है। जैन भूगोल के अनुसार इस लोक में अनंत द्वीप हैं किन्तु मनुष्यों का जन्म-मरण केवल ढाई द्वीपों में होता है- जंबूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप, अर्ध-पुष्कर द्वीप। प्रत्येक द्वीप में कई क्षेत्र हैंभरत क्षेत्र, उत्तर कुरु, देवकुरु, ऐरावत क्षेत्र, हरिवर्ष, रम्यक्वर्ष, महाविदेह क्षेत्र इत्यादि। इन क्षेत्रों में कई क्षेत्र कर्मभूमि के अन्तर्गत आते हैं व अनेक अकर्मभूमियों के। . यह प्राकृतिक नियम है कि तीर्थंकरों का समागम केवल कर्मभूमियों में होता है। अढाई द्वीप में कर्मभूमियों की संख्या 15 है, जहाँ तीर्थंकरों की विद्यमानता होती है। निम्न कोष्ठक से 15 कर्मभूमियों का ज्ञान होता है। क्षेत्र जम्बूद्वीप धातकीखण्ड | अर्ध-पुष्करद्वीप | कुल भरतक्षेत्र ऐरावत क्षेत्र महाविदेह क्षेत्र कुल कुल 15 कर्मभूमियाँ एवं 30 अकर्मभूमियाँ हैं। हम अभी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में निवास करते हैं, जो जंबूद्वीप का 190 वाँ भाग है एवं जहाँ ऋषभ, अजित आदि तीर्थंकर उत्पन्न हुए। ऐसी ही 14 दुनियाएँ और हैं, जहाँ तीर्थंकर हुए हैं, या होंगे। क्षेत्रों के नाम शाश्वत हैं व अन्य द्वीप में इसी नाम के क्षेत्र हैं। महाविदेह क्षेत्र का विवरण करते हुए शास्त्रकार भगवन्त लिखते हैं कि एक महाविदेह में भद्रशाल वन में सीता-सीतोदा नदी एवं वक्षारगिरि पर्वत के कारण 32 क्षेत्र हैं, जिन्हें 'विजय' कहते हैं। पाँच महाविदेह के 32 x 5 = 160 क्षेत्र हैं। इस संख्या में 5 ऐरावत क्षेत्र एवं 5 भरत क्षेत्र जोड़ने से कुल संख्या 170 हुई। अतः अढ़ाई द्वीप की पंद्रह कर्मभूमियों के एक सौ सत्तर क्षेत्रों में ही तीर्थंकर परमात्माओं का जन्म, विचरण, समागम होता है, अन्य क्षेत्रों में नहीं। तीर्थंकरों की आत्माएँ इन्हीं क्षेत्रों में जन्म लेती हैं, ऐसा अटल नियम है। जिसे जितना लाभ प्राप्त हुआ है, उसी में संतुष्ट रहने वाला और दूसरों के लाभ की इच्छा नहीं रखने वाला, व्यक्ति सूखपूर्वक सोता है। - स्थानांग (4/3) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 16 तीर्थंकरों का जन्म कहाँ ? तीर्थंकर परमात्माओं का जन्म कर्मभूमि में तो होता है, किन्तु क्या कर्मभूमि के किसी भी देश में उनका अवतरण होता है ? इसका समाधान देते हुए पूर्वाचार्य लिखते हैं कि कर्मभूमि के भी धार्मिक प्रवृत्ति वाले देश में ही उनका जन्म होता है। दस क्षेत्र : 5 ऐरावत व 5 भरत में प्रत्येक क्षेत्र में 32,000 देश होते हैं। इनमें से 31,974 देश अनार्य हैं एवं 25 देश आर्य हैं। आर्य देश अर्थात् धार्मिक प्रवृत्ति वाले देश। तीर्थंकरों की उत्पत्ति अत: केवल आर्य देशों तक सीमित है। कई तीर्थंकर दीक्षा पश्चात्, कर्मों को काटने के हेतु से अनार्य देशों तक जाते हैं किन्तु उनका जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, समवसरण, मोक्ष इत्यादि आर्य क्षेत्रों में ही होते हैं। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के साढ़े पच्चीस आर्य देशों के नाम इस प्रकार हैंदेश का नाम राजधानी ग्राम संख्या मत-1 मत-2 मगध देश राजगृही नगरी 6600000 16600000 अंग देश चम्पा नगरी 500000 550000 बंग देश ताम्रलिप्ति नगरी 500000 1800000 कलिंग देश कांचनपुर 100000 2000000 काशी देश वाराणसी नगरी 192000 19000 कोशल देश साकेतपुर (अयोध्या) 99000 99000 कुरु देश गजपुर 87325 99000 कुशावर्त देश शौरीपुर 14083 823425 पांचाल देश कांपिल्यपुर 383000 363000 जांगल देश अहिच्छत्रा नगरी 145000 145000 सौराष्ट्र देश द्वारावती नगरी 6805000 680526 विदेह देश मिथिला नगरी 8000 8000 वत्स देश कौशाम्बी नगरी 28000 28000 शाण्डिल्य देश । नन्दिपुर (आनंदपुर) 10000 21000 जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वास्तव में वही भ्रष्ट है, क्योंकि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट या पतित को निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता। चारित्रहीन तो कदाचित् सिध्द हो भी जाते हैं, परन्तु दर्शनहीन कभी भी सिद्ध नहीं होते। ___- भक्त-परिज्ञा (66) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 16. 17. मलय देश मत्स्य देश वरुण देश दशार्ण देश चेदि देश सिन्धु सौवीर देश शूरसेन देश भंग देश 18. 19. 20. 21. 22. 23. पुरावर्त देश 24. कुणाल देश 25. लाट देश 25 केकयार्द्ध देश तीर्थंकर : एक अनुशीलन 17 भद्दिलपुर वैराटपुर (बहुलपुर ) अच्छा नगरी मृत्तिकावती नगरी शुक्तिकावती नगरी वीतभय नगरी 1. कच्छ (क्षेमा) ' 4. कच्छावती (अरिष्टपुर ) 7. पुष्कलावर्त (औषधि) मथुरा नगरी पावापुरी (अपापा) माषा नगरी 10. सुवत्स (कुंडला) 13. रम्य (अंकावती) श्रावस्ती नगरी कोटिवर्ष नगरी श्वेताम्बिका नगरी 70000 80000 24000 1892000 68000 68500 68000 36000 1425 63053 2103000 205800 शक, यवनादि 31,974 1⁄2 अनार्य देश हैं। ये सभी नाम प्राचीन हैं एवं वर्तमान में यत्रतत्र किसी परिवर्तित नाम से बसे हैं। इन सभी की भौगोलिक सीमाएँ शास्त्रों में विस्तृत रूप से प्राप्त होती हैं। 70000 288000 24000 यहाँ देश शब्द का अर्थ भारत, पाकिस्तान, अमेरिका इत्यादि भूखण्ड नहीं है। अपितु ग्रामों का विशाल प्रशासनिक समूह ऐसा समझना चाहिए। सौभाग्यवश, वर्तमान भारत में ये सभी आर्यदेश समा जाते हैं। कई विद्वद्जनों को शंका होती है कि तीर्थंकरों का जन्म भारत में ही क्यों हुआ, अमरीका, चीन में क्यों नहीं ? वे सभी अनार्य क्षेत्र हैं, इसका हल ऐसा जानना । 18000 42000 680500 8000 36000 52450 63000 713000 129000 महाविदेह क्षेत्र के लिए आर्य-अनार्य जैसा नियम कदापि नहीं है, क्योंकि वे धर्म से परिपूर्ण हैं। वहाँ तीर्थंकरों का जन्म 32 विजयों में होता है। 32 विजयों के नाम एवं उनकी राजधानियाँ क्रमश : 2. सुकच्छ (क्षेमपुरी) 5. आवर्त (खड्गी ) 8. पुष्कलावती (पुंडरीकिणी) 11. महावत्स (अपराजिता ) 14. रम्यक् (पद्मावती) 3. महाकच्छ (अरिष्टा) 6. मंगलावर्त (मंजूषा ) 9. वत्सा (सुसीमा ) 12. वत्सावती (प्रभंकरा ) 15. रमणिक (शुभा ) जो ऋजु होता है, वही शुद्ध हो सकता है और जो शुद्ध होता है, उसी में धर्म टिक सकता है। उत्तराध्ययन (3/13) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 18 16.| मंगलावती (रत्नसंचया) | 17.| पद्म (अश्वपुरी) | 18. सुपद्म (सिंहपुरी) 19. महपद्म (महापुर) 20. पद्मावती (विजयपुर) | 21. शंख (अपराजिता) 22. कुमुदिनी (अरजा) 23. नलिन (अशोका) | 24. नलिनावती (वीतशोका) 25. वप्र (विजया) 26. सुवप्र (वैजयन्ती। 27.| महावप्र (जयन्ती) 28. वप्रावती (अपराजिता) 29. वल्गु (चक्रपुरी) 30. सुवल्गु (खड्गपुरी) 31.| गंधिल (अवध्या) | 32.| गंधिलावती (अयोध्या) तीर्थंकरों का जन्म कब ? जैन कालचक्र के अनुसार अवसर्पिणी काल (उतरता काल) एवं उत्सर्पिणी काल (चढ़ता काल) होते हैं। दोनों के छह छह विभाग (आरे) हैं। भरत-ऐरावत क्षेत्र में कालचक्र का नियम होता है। अत: तीर्थंकरों का जन्म तीसरे आरे के अंत में तथा चौथे आरे में होता है। अतएव तीर्थंकरों का समागम हमेशा नहीं रहता। यथा- पहले, दूसरे, तीसरे आरे में युगलिक परम्परा होती है। उसके अंत के बाद तीर्थंकरों का क्रमश: जन्म होता है, जिसका प्रभाव पंचम आरे तक होता है। महाविदेह क्षेत्र इस नियम से मुक्त हैं। वहाँ हमेशा चौथे आरे जैसा समय रहता है। अलगअलग विजयों में तीर्थंकरों का जन्म-दीक्षा-केवलज्ञान निर्वाण एक ही समय होते हैं। उनके मोक्षगमन के पश्चात् ही नवीन तीर्थंकरों की उत्पत्ति होती है। अत: वहाँ तीर्थंकरों का विचरण सदैव रहता है। हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक और घोर संसार रूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा। - मरण समाधि (590) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 19 जिज्ञासा - कई विद्वान् कहते हैं कि तीर्थंकर ऐतिहासिक पुरुष नहीं हैं, वे मात्र कोरी कल्पना हैं। क्या यह सही है ? समाधान - तीर्थंकर कल्पना है, ऐसा कहना उत्सूत्र प्ररूपणा है जो भवों को बढ़ाने में सहायक है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अभाव के कारण कई व्यक्ति ऐसा सोचते हैं परन्तु यह जैनधर्म की प्राचीनता का द्योतक है। साहित्यिक एवं सांस्कृतिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट है कि तीर्थंकर ऐतिहासिक पुरुष-व्यक्तित्व थे। . इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव केवल जैनधर्म में ही नहीं बल्कि अन्य सभ्यताओं-धर्मों में भी प्रसिद्ध हैं। ऋग्वेद में तो उन्हें पूर्वज्ञान का प्रतिपादक एवं दुःखों का नाशक बताया है। अन्य वेदों, भाष्य आदि में भी उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है। केशों के कारण, स्थान-तिथि समानता के कारण आज भी कई लोग उन्हें शिव भगवान से जोड़ते हैं। चीनी त्रिपिटकों में भी वे 'रोकशब' (ऋषभ) के नाम से प्रसिद्ध हैं। मध्य एशिया, यूनान, फोनेशिया आदि देशों में कृषि व ज्ञानदेवता के रूप में उन्हें रेशेफ के नाम से पूजा जाता है। बेबीलोनिया के शिलालेखों से भी ज्ञात है कि स्वर्ग का, पृथ्वी का देवता 'वृषभ' था। ये सभी नाम 'ऋषभ' के ही विकृत रूप हैं जो तीर्थंकर की ऐतिहासिकता सिद्ध करते हैं। महाभारत में विष्णु के अनेक पर्यायवाची ऐसे हैं, जो जैन तीर्थंकरों के नाम ही हैं। अनेक तीर्थंकरों को उनमें अवतार कहा गया है जो उनकी ऐतिहासिकता का स्वतः प्रमाण देता है। प्राचीन सभ्यता की सीलों, मोहरों पर ऋषभदेवजी की आकृति अंकित मिलती है। . . बौद्ध परम्परा के अंगुत्तरनिकाय में भी 'अर' का वर्णन आया है जो जैन तीर्थंकर से समीपता सिद्ध करता है। 'अजित थेर' का वर्णन भी जैन तीर्थंकर के समान ही प्रतीत होता है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि तो वासुदेव श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे, ऐसा अनेक प्रमाणों से सिद्ध है। तीर्थंकर सीमंधर स्वामीजी द्वारा संपर्क साधने के कई दृष्टान्त भी उपलब्ध हैं। तीर्थंकर पार्श्व तथा महावीर का प्रभाव तो सर्वव्यापक ही है। डॉ. राधाकृष्णन्, डॉ. हर्मन जैकोबी, डॉ. स्टीवेनसन, टी. डब्ल्यू राईस डेविड आदि विद्वानों ने तीर्थंकरों के अस्तित्व को एवं इस परम सत्य को निस्संदेह स्वीकार किया है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की संख्या : एक अनुचिन्तन वैदिक परम्परा अवतारवाद में विश्वास रखती है, फिर भी उनके अवतारों की संख्या में एकमत नहीं है। पुराणों आदि में कहीं पर 16, कहीं पर 22, किसी जगह 24, अन्यथा असंख्य अवतार माने गए हैं। __ यद्यपि बौद्ध परम्परा अवतारवाद का समर्थन नहीं करती, किन्तु वे भी बुद्धों की संख्या में एकमत नहीं हैं। महायान सूची में 32, लंकावतार इत्यादि सूत्रों में कहीं 7, कहीं 24 अथवा किसी जगह असंख्य बुद्धों का उल्लेख किया गया है। जैन आम्नाय में ऐसी मत विभिन्नता नहीं है। समवायांग, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रवचनसारोद्धार, कल्पसूत्र इत्यादि श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में तथा महापुराण, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार इत्यादि दिगम्बर परंपरा के शास्त्रों में एकरूप वर्णन है। चूँकि महाविदेहक्षेत्र में कालव्यवहार नहीं होता, वहाँ सदा चौथा आरा रहता है। अतः वहाँ 20 तीर्थंकर होते हैं। वे 20 तीर्थंकर सदैव विचरते हैं, अत: उन्हें सामान्यतः 'विहरमान' कहकर सम्बोधित किया जाता है। हम भी उन्हें 'विहरमान' ही लिखेंगे। भरत ऐरावत क्षेत्रों में प्रत्येक काल में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं अर्थात् भरत के क्रमश: 24, ऐरावत पूर्व के क्रमश: 24, ऐरावत पश्चिम के क्रमश: 24 इत्यादि द्वीप के अनुसार। तीर्थंकरों की जघन्यतम संख्या यह संभव है कि भरत ऐरावत क्षेत्रों में कालवश (पहले दूसरे पाँचवें आदि आरे में) तीर्थंकर उपस्थित न हों। किन्तु महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर सदैव विराजमान होते हैं। एक महाविदेह क्षेत्र में कम-से-कम 4 (चार) तीर्थंकर (विहरमान) हमेशा विद्यमान रहते हैं। पाँच महाविदेह होने से तीर्थंकरों (विहरमानों) की जघन्यतम संख्या 5 x 4 = 20 है। अर्थात् अभी भी, जब हमारे भरत क्षेत्र में कोई तीर्थंकर नहीं है, महाविदेह क्षेत्रों में कम-से-कम 20 तीर्थंकर होंगे ही। ऐसा अनादि नियम किसी के भी साथ वैर-विरोध नहीं करना चाहिए। - सूत्रकृताङ्ग (1/11/12) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 21 तीर्थंकरों की उत्कृष्ट संख्या एक महाविदेह में 32 विजय शास्त्रोक्त हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर 5 महाविदेह क्षेत्रों में 32 x 5 = 160 विजय हैं। एक विजय में अधिक-से-अधिक एक विहरमान विद्यमान हो सकता है । इस प्रकार महाविदेह क्षेत्रों में उत्कृष्ट 160 तीर्थंकर सम्भव हैं। एक भरत क्षेत्र में एकसमय में एक ही तीर्थंकर होता है । अतः 5 भरत के व 5 ऐरावत के उत्कृष्ट एक समय में हो सकते हैं। कुल उत्कृष्ट तीर्थंकर 160+5+5= 170 हैं। किन्हीं जैनाचार्यों का मत है कि महाविदेह क्षेत्रों में तीर्थंकर एवं तीर्थंकर बनने वाली आत्माएँ एक समय में उत्कृष्ट रूप से 1680 हैं। चूँकि 1-1 विहरमान के पीछे 82-83 तीर्थंकर गृहवास में होते हैं। जो बीस विहरमानों के पीछे 20 x 83 = 1660 तीर्थंकरों की आत्माएँ गृहवास में होती हैं। 20 तीर्थंकर पद भोगते हुए तथा 1660 गृहवासी तीर्थंकर आत्माएँ कुल 1680 तीर्थंकरों की आत्माएँ एक समय पर होनी चाहिए। ऐसा गणित विचारणीय है । शास्त्रों में तीर्थंकर सम्बन्धी गणित अनेक प्रकार से दिया गया है। हम जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में निवास करते हैं, जहाँ ऋषभ, अजित, संभव, पार्श्व, महावीर इत्यादि तीर्थंकर हुए हैं। हमारे पूर्वाचार्यों को भी इन्हीं का परिज्ञान अधिक था । अतः तीर्थंकर शब्द से भरत ऐरावत के तीर्थंकरों का विशेष सन्दर्भ लेना चाहिए । तीर्थंकर चौबीस ही क्यों ? सभी ज्ञानपिपासुओं की यह सामान्य एवं प्राथमिक जिज्ञासा रहती है कि तीर्थंकरों की संख्या 24 ही क्यों है ? 18, 27 इत्यादि क्यों नहीं ? निश्चित रूप से यह जिज्ञासा गम्भीर है। किन्तु इसका समाधान इतना तार्किक नहीं है, क्योंकि इसका कोई विशेष कारण नहीं है। आचार्य श्रीसोमदेवसूरिजी स्वलिखित ग्रन्थ 'यशस्तिलकचम्पूकाव्य' प्रबन्ध में फरमाते हैंनियतं न बहुत्वं चेत्कथमेते तथाविधाः । तिथि-तारा-ग्रहाम्भोधि - भूभृत्प्रभृतयो मताः ॥ अर्थात् तिथि- वार, नक्षत्र, तारा, ग्रह, समुद्र, पर्वत इत्यादि सभी की संख्या नियत है, किन्तु उनकी संख्या इतनी ही क्यों है, इसका कोई कारण नहीं है, क्योंकि यह सब प्राकृतिक नियमानुसार होता है। उसी प्रकार तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही क्यों है, इसका कोई विशेष कारण नहीं है। यह सब प्रकृति के नियमों के अनुसार चलता आया है, जिसका कोई आदि और अंत नहीं है। एक दिन में 24 घंटे ही क्यों हैं? इसका कोई उत्तर नहीं है । जो व्यक्ति संस्कारहीन हैं, तुच्छ हैं, परप्रवादी हैं, राग और द्वेष में फँसे हुए हैं, वासनाओं के दास हैं, वे धर्मरहित हैं, अधर्मी हैं। उनसे हमेशा दूर रहना चाहिए । उत्तराध्ययन (4/13) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 22 जिन प्राकृतिक नियमों की बात की जा रही है, उनका सम्बन्ध काल से है। हरेक उत्सर्पिणीअवसर्पिणी काल एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का होता है। इसीलिए तीर्थंकरों की संख्या 24 होने का ही अवकाश है। यहाँ काल-व्यवहार होने से सभी महानक्षत्र केवल 24 बार ही उच्च स्थानों में होते हैं, अतः 24 तीर्थंकरों का ही जन्म होता है। अतएव तीर्थंकरों की संख्या यहाँ चौबीस ही होती है। श्री कल्पसूत्र किरणावली टीका में लिखा है - तिहिं उच्चेहिं नरिंदो, पंचहिं तह होई अद्धचक्की आ' छहिं होइ चक्कवट्टी, सत्तहिं तित्थंकरो होइ ॥ अर्थात् सुखी बनना, नेता बनना, धनी बनना इत्यादि उच्च ग्रहों का फल है। तीन ग्रह उच्च होने पर जीव राजा/शासक बनता है। पाँच ग्रह उच्च होने पर जीव अर्द्धचक्रवर्ती यानी 3 खण्डों का अधिपति बनता है। छह ग्रह उच्च होने पर जीव चक्रवर्ती यानी 6 खण्डों का अधिपति बनता है और सात ग्रह उच्च होने पर जीव तीर्थंकर बनता है। ऐसा विरल संयोग एक काल में मात्र 24 बार ही आता है। परन्तु अनायास ही यह शंका उत्पन्न हो जाती है कि वर्तमान काल में चतुर्विध संघ (तीर्थ) की सर्वप्रथम स्थापना तो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने ही की है तो केवल उन्हें ही तीर्थंकर कहा जाए किन्तु उनके पश्चाद्वर्ती 23 जिन-आत्माओं को तीर्थंकर क्यों कहें ? कुछ विद्वद्जन यह भी कहते हैं कि धर्म की व्यवस्था जैसी एक तीर्थंकर करते हैं, वैसी ही दूसरे तीर्थंकर भी करते हैं। अतः एक ऋषभदेव को ही तीर्थंकर मानना चाहिए, अन्य को नहीं। निश्चित ही यह समस्या तार्किक है, परन्तु ज्ञानीजन इसका भी समाधान देते हैं। यह सर्वविदित है कि तीर्थंकरों द्वारा निरूपित धर्म के मूलतत्त्वों में किञ्चित्मात्र का भी मतभेद मनभेद नहीं रहा है। भगवान महावीर भी बार-बार यही कहते थे कि जिस प्रकार पार्श्व जिन ने कहा है, मैं भी वैसा ही कहता हूँ। किन्तु प्रत्येक तीर्थंकर अपने-अपने समय में देश, काल, जनमानस की ऋजुता, तत्कालीन मानव की बुद्धि, शक्ति, सहिष्णुता आदि को ध्यान में रखकर व साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के अनुरूप एक नवीन आचार संहिता का निर्माण करते हैं। एक तीर्थंकर द्वारा संस्थापित तीर्थ में काल प्रभाव से विविध विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, लम्बे व्यवधान में अथवा अन्य कारणों से श्रुतपरम्परा धर्म तथा अधर्म से सर्वथा अनजान जो मनुष्य केवल कल्पित तकों के आधार पर ही अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्म-बंधन को तोड़ नहीं सकते, जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता है। - सूत्रकृताश (1/1/2/22) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88823 बिखर जाती है एवं भ्रान्तियाँ पनपने लगती हैं। आचार शिथिल हो जाता है एवं शुद्ध तीर्थ विलुप्तप्राय हो जाता है। उस समय दूसरे तीर्थंकर का समुद्भव होता है और वे विशुद्ध रूप से नूतन तीर्थ की स्थापना करते हैं। जिस प्रकार पुराने घाट टूटकर ढह जाते हैं और पुनः नवीन घाट स्थापित किया जाता है, वैसे ही प्रत्येक तीर्थंकर पूर्वप्रचलित तीर्थ की विकृतियों एवं कालिमा को हटाकर नया तीर्थ स्थापित करते हैं। अतः सभी 24 जिनों को तीर्थं स्थापक तीर्थंकर मानना चाहिए । भरत क्षेत्र के वर्तमान 24 तीर्थंकर इस प्रकार हैं 1. ऋषभदेव (आदिनाथ) जी 3. सम्भवनाथ जी 5. सुमतिनाथ जी 9. 7. सुपार्श्वनाथ जी सुविधिनाथ जी 11. श्रेयांस नाथ जी 13. विमलनाथ जी 15. धर्मनाथ जी 17. कुन्थुनाथ जी 19. मल्लिनाथ जी - 21. नमिनाथ जी 23. पार्श्वनाथ जी अजितनाथ जी अभिनन्दन स्वामी जी 2. 4. 6. 8. 10. शीतलनाथ जी पद्मप्रभ स्वामी जी चन्द्रप्रभ स्वामी जी 12. वासुपूज्य स्वामी जी 14. अनन्तनाथ जी 16. शान्तिनाथ जी 18. अरनाथ जी 20. मुनिसुव्रत स्वामी जी 22. अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) जी 24. महावीर स्वामी जी अजितनाथ जी के समय में ही उत्कृष्ट 170 तीर्थंकर हुए थे। इन सभी 24 तीर्थंकरों का कोष्ठकबद्ध परिचय एवं अन्य तीर्थंकरों, विहरमानों की नामावलि इसी पुस्तक के द्वितीय विभाग में दी गई है। अन्य धर्मों में 24 भगवान जैनधर्म के 24 तीर्थंकरों की परम्परा का गतानुगतिक रूप को अनुसरण कर अन्य धर्मों में भी 24 भगवानों की परिकल्पना की गई है। जैसे बौद्ध धर्म में 24 बुद्धों के नाम दिए हैं - जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी पुरुष पाप को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है। सूत्रकृताङ्ग (1/8/1/16) - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 24 सुमन 1. दीपंकर 2. कौडिल्य 3. मंगल रेवत 6. शोभित अनोमदर्शी पद्म 9. नारद 10. पद्मोत्तर 11. सुमेध सुजात प्रियदर्शी अर्थदर्शी 15. धर्मदर्शी 16. सिद्धार्थ 17. तिष्य 18. पुष्य 19. विपश्चो 20. शिखी 21. विश्वम्भू 22. ककुसंघ 23. कोणागमन 24. काश्यप इसी प्रकार भागवत पुराण के प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय में भी 24 अवतारों की सूची दी गई है। वैदिक साहित्य में कहा है कि संवत्सर (वर्ष) के 24 अंश (अर्धमास) होते हैं। पुरुष के शरीर के भी 24 भाग कहे हैं, इसीलिए 24 भगवानों का चित्रण किया गया है। किन्तु अवतारवाद के कारण यह संख्या भी सुनिश्चित नहीं है। जैनधर्म में तीर्थंकर सम्बन्धी संख्या का सुस्पष्ट वर्णन जिज्ञासा - एक समय में सभी द्वीपों, भूमियों में अधिक-से-अधिक एक साथ कितने तीर्थंकर जन्म ले सकते हैं? समाधान - ढाई द्वीप में जघन्य 20 तीर्थंकर तो विचरते ही हैं। उन सभी विहरमानों का जन्म एक साथ होता है। एवं भरत-ऐरावत क्षेत्रों के 10 तीर्थंकरों का जन्म एक साथ होता है। जब एक-एक महाविदेह में एक साथ में चार-चार तीर्थंकर, जन्मते हैं तब 5 महाविदेह के (5 x 4=20) बीस तीर्थंकरों का जन्म साथ होता है। पाँच भरत व पाँच ऐरावत के मिलाकर 10 तीर्थंकर एक समय में जन्मते हैं। . तीर्थंकरों का जन्म अर्धरात्रि में होता है। भरत-ऐरावत में जब रात्रि होती है, तब महाविदेह में दिन होता है। अतः एक समय में बीस या दस जन्मते हैं ज्यादा नहीं। वे सभी एक साथ (यानी 30 तीर्थंकर) नहीं जन्म सकते। उत्कृष्ट 170 तीर्थंकरों के समय में कुछ प्रहर का अन्तर तो रहता ही है क्योंकि कुल सिंहासन 30 ही हैं। जो साधक शरीर तक में ममत्व नहीं रखते, वे अन्य क्षुद्र साधन-सामग्री में क्या ममत्व रख सकते -दशवैकालिक (6/21) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 25 जिज्ञासा - प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी ने पहली बार तीर्थ-स्थापना की। तो अन्य 23 तीर्थंकर पुरुषों ने उसी धर्म का दोबारा प्रवर्तन किया अथवा परम्परा का पुनः वहन किया ? इस हेतु से उन्हें तीर्थंकर क्यों कहें? समाधान - प्रथम तीर्थंकर आदिजिन ऋषभदेव जी ने धर्म का प्रथम प्रवर्तन किया। तीर्थंकर सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होते हैं, जो किसी का अनुकरण-अनुसरण कभी नहीं करते हैं। वे पुन: जिस सत्य का उत्कीर्तन करते हैं, उसे तीर्थ-प्रवर्तन कहते हैं। सभी तीर्थंकर अपने-अपने ढंग से तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। अत: वे प्रवर्तक हैं, संवाहक नहीं। अतः उन्हें तीर्थंकर कहने में कोई बाधा नहीं है। परम्परा का वहन छद्मस्थ (जिन्हें केवलज्ञान नहीं होता) करते हैं। अतएव, आचार्य संवाहक होते हैं एवं तीर्थंकर प्रवर्तक। . कई आधुनिक लेखकों का मानना है कि केवल पार्श्वनाथ एवं महावीर वास्तविक ऐतिहासिक पुरुष हैं एवं 24 तीर्थंकरों की कल्पना बहुत बाद में निराधार रूप से की गई है। ऐसे विचारक मिथ्यात्व का प्रचार कर समाज को भ्रामक राह की ओर ले जा रहे हैं। पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अभाव के कारण ऐसा भ्रम फैला है किन्तु साहित्यिक सम्यग्दर्शी साक्ष्यों से यह स्पष्ट है कि तीर्थंकर चौबीस थे, हैं और रहेंगे। . जिज्ञासा - तीर्थंकरों की शाश्वत संख्या 24 है। इसका क्या कोई वैज्ञानिक आधार हो सकता है? ___समाधान - ऐसा कोई प्रामाणिक आधार तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु कई वैचारिक मान्यताओं ने ऐसा पुष्ट करने का प्रयत्न किया है। मानव शरीर के अंदर 23 गुणसूत्र (Chromosomes) होते हैं जो शिशु की रचना को प्रभावित करते हैं। चौबीसवाँ प्रभावक वातावरण (Environment) कहा गया है। अत: चौबीस प्रकार से धर्मसंघ की संस्थापना के लिए चौबीस विभिन्न प्रकृति के तीर्थ की रचना के लिए चौबीस तीर्थंकर अपने ढंग से तीर्थप्रवर्तना के लिए जन्मते हैं। वैर रखने वाला द्वेषी मनुष्य सदैव वैर ही किया करता है और वह वैर में ही आनन्दित होता है। परन्तु यह प्रवृत्ति पापकारक एवं अहितकर है और अन्त में दुःख प्रदान करने वाली है। - सूत्रकृताङ्ग (1/8/7) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणक : एक परिचय तीर्थंकर परमात्मा एक सामान्य मानव की भाँति अपनी माता के गर्भ में अवतरित होते हैं, जन्म लेते हैं एवं विशिष्ट महापुरुष की तरह दीक्षा ग्रहण कर केवलज्ञान और निर्वाण को प्राप्त करते हैं। तीर्थंकरों के जीवन में कुछ ऐसे क्षण होते हैं, जिनके घटने पर प्रत्येक जीव सुख का अनुभव करता है। तीर्थंकर भगवन्तों के जीवन का परम उद्देश्य होता है जीवमात्र को शाश्वत सुख प्रदान करना। ऐसे ही यत्किंचित् कल्याणकारी क्षणों को कल्याणक कहते हैं। कहा गया है- “कल्याणं करोति इति कल्याणक :” अर्थात् सम्पूर्ण जगत् में ऊर्ध्व-मध्यअधो तीनों लोकों में सभी भव्याभव्य जीवों का कल्याण करने वाले मंगलकारी क्षण, जब सभी जीव क्षणमात्र के लिए परम सुख का अनुभव करते हैं, उसे 'कल्याणक' की संज्ञा से अभि गया है। वे कल्याणक पाँच हैं 1. तीर्थंकरों का स्वर्ग / नरक से पृथ्वी पर माता की कुक्षि में 2. 3. 4. 5. च्यवन (गर्भ) कल्याणक अवतरण । जन्म कल्याणक तीर्थंकर का इस पृथ्वी पर जन्म । दीक्षा कल्याणक - वैराग्य भाव से तीर्थंकरों का दीक्षा ग्रहण करना एवं सर्वजनों को अभयदान देना । तपश्चर्या पश्चात् तीर्थंकरों को तीनों लोकों का तीनों कालों का निर्वाण कल्याणक - तीर्थंकरों का सर्वकर्मों को नष्ट कर मुक्त होना एवं लोकाग्र पर विराजित होना । - केवलज्ञान कल्याणक ज्ञान उत्पन्न होना। धन और पत्नी का त्याग कर तू अनगार वृत्ति के लिए घर से निकल चुका है। अब इन वन की हुई, त्यक्त वस्तुओं का पान कदापि न कर । - उत्तराध्ययन (10/29) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 27 सभी कल्याणकों का वर्णन इसी पुस्तक में आगे प्रसंगवश किया गया है। देवतागण भी सभी कल्याणकों को मनाते हैं एवं तत्पश्चात् नन्दीश्वर द्वीप जाकर उत्सव मनाते हैं। सौधर्मेन्द्र प्रत्येक कल्याणक पर तीर्थंकर के पास जाकर शक्रस्तव (नमोत्थुणं) का उच्चारण करता है। स्थानांग सूत्र में लिखा चउहिं ठाणेहिं लोगुज्जोए सिया-तं-जहा अरहंतेहिं जाएमाणेहिं अरिहंतेहिं पव्वयमाणेहि, अरहंताणं नाणुप्पाय महिमासु अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु। अर्थात् - लोक में उद्योत के चार कारण हैं- अरिहंत परमात्मा का जन्म, अरिहंत प्रभु की दीक्षा, अरिहंत भगवंत का केवलज्ञान एवं अरिहंत परमेश्वर का निर्वाण कल्याणक। यहाँ पर च्यवन कल्याणक को सम्मिलित नहीं किया गया है। यह भी विचारणीय है कि अरिहंत प्रभु के निर्वाण कल्याणक पर सम्पूर्ण लोक में अंधकार भी संभव है। किन्तु प्रत्येक कल्याणक के अवसर पर सभी जीव क्षणमात्र के लिए सुख का अनुभव करते हैं। यहाँ तक की सभी सातों नरकों में भी उद्योत/ प्रकाश होता है, जिसमें सभी नारकी सुख का अनुभव करते हैं। सात नरकों में प्रकाश कैसा होता है ? इसका उत्तर देते हुए ज्ञानी भगवन्त फरमाते हैं कि 1. प्रथम घम्मा (रत्नप्रभा) नरक में तेजस्वी सूर्य जैसा। 2. द्वितीय वंशा (शर्कराप्रभा) नरक में मेघाच्छादित सूर्य जैसा। 3. तृतीय सेला (बालुकाप्रभा) नरक में तेजस्वीचंद्र के समान। 4. चतुर्थ अंजना (पंकप्रभा) नरक में मेघाच्छादित चंद्र के समान। 5. पंचम रिष्टा (धूमप्रभा) नरक में ग्रह के सदृश। 6. षष्ठ मघा (तमःप्रभा) नरक में नक्षत्र के जैसा। 7. सप्तम माघवती (महातमः प्रभा) नरक में तारों के समान होता है। कहा गया है - नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु, अर्थात् जहाँ कभी भी सुख और आनन्द की अनुभूति नहीं की जाती, ऐसी नरकों में भी कल्याणकों पर प्रसन्नता की अनुभूति होती है। चूंकि वहाँ तो कभी भी प्रकाश होता ही नहीं है, तो जब कल्याणक पर प्रकाश होता है, वे आश्चर्य और विस्मय से उसे देखकर दुःखों से मुक्ति का अनुभव कर आनन्दित होते हैं। जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं तथा तथ्य का अर्थात् सत्य का विलोपन करते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं ही विश्व-चक्र में भटकते रहते हैं। - सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/23) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 28 मानों हमें भूख लगी हो और हम अपनी दुकान पर बैठे हों तो यदि उस समय अच्छा ग्राहक आ जाए तो हमारी भूख-प्यास कैसे मिट जाती है? ऐसा नहीं कि भूख रही नहीं, भूख है लेकिन फिलहाल ध्येय परिवर्तित हो जाता है तो वेदना का अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार कल्याणक पर होता है। आचार्य शीलांक के अनुसार यह उद्योत (प्रकाश) क्षणभर ही होता है परन्तु षट्पुरुषचरित्र में इसकी अवधि अन्तर्मुहर्त (एक समय से लेकर एक समय कम 48 मिनट) तक की बतायी है'स्यादन्तर्मुहूर्तं नारकादीनामपि सौख्यम्'। अत: कल्याणकों पर सभी कल्याण का अनुभव करते हैं। साथ ही, प्रत्येक कल्याणक पर चौसठ इन्द्र अपने देव परिवार के साथ कल्याणक महोत्सव में सम्मिलित होते हैं। 64 इन्द्रों की गणना 10 भवनपति देवनिकाय के उत्तर एवं दक्षिण के 20 इन्द्र 8 व्यंतर देवनिकाय के उत्तर एवं दक्षिण के 16 इन्द्र 8 वाणव्यंतर देवनिकाय के उत्तर एवं दक्षिण के 16 इन्द्र असंख्य ज्योतिष्क के सूर्य एवं चन्द्र ये 2 इन्द्र 12 कल्पोपपन्न वैमानिक देवों के 10 इन्द्र कुल 64 इन्द्र उपर्युक्त प्रकार से इन्द्रों की संख्या चौंसठ है। कल्पोपपन्न वैमानिक देवलोकबारह हैं। प्रथम आठ देवलोकों के एक-एक इन्द्र है किन्तु 9 एवं 10वें देवलोक का संयुक्त एक इन्द्र एवं 11वें12वें देवलोक का भी संयुक्त एक इन्द्र ही होता है। इस प्रकार दस वैमानिक इन्द्रों के नाम इस प्रकार हैं 1. सौधर्म देवलोक का सौधर्मेन्द्र (शकेन्द्र) 2. ईशान देवलोक का ईशानेन्द्र 3. सनत्कुमार देवलोक का सानत्कुमारेन्द्र 4. महेन्द्र देवलोक का माहेन्द्र 5. ब्रह्मलोक देवलोक का ब्रह्मेन्द्र 6. लान्तक देवलोक का लान्तकेन्द्र 7. महाशुक्र देवलोक का महाशुक्रेन्द्र 8. सहस्रार देवलोक का सहस्रारेन्द्र 9. आनत-प्राणत देवलोक का प्राणतेन्द्र 10. आरण अच्युत देवलोक का अच्युतेन्द्र पदवी के अनुसार अच्युतेन्द्र सबसे ज्येष्ठ है एवं कल्याण सम्बन्धी सर्वाधिक कार्य सौधर्मेन्द्र (शकेन्द्र) करता है। यतनापूर्वक चलने से, यतनापूर्वक बैठने से, यतनापूर्वक सोने से, यतनापूर्वक खाने से, यतनापूर्वक बोलने से पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता। ___ - दशवकालिक (4/8) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8829 भवनपति देवों के दस भेद होने से प्रत्येक के उत्तर एवं दक्षिण के इन्द्र होने से कुल 20 इन्द्र होते हैं। यथा भवनपति देव की जाति उत्तर दिशा के इन्द्र बलीन्द्र ( वैरोचन) भूतानन्द विचित्रपक्ष (वेणुदालि) सुप्रभकान्त (हरिसह) तेजप्रभ (अग्निमाणव ) रूपप्रभ ( वसिष्ट ) जलप्रभेन्द्र सिंहविक्रमगति (अमितवाहन) 9. वायुकुमार रिष्ट (प्रभंजन) महानन्द्यावर्त (महाघोष) 10. स्तनितकुमार ज्योतिष देव असंख्य एवं उनके प्रतिनिधि इन्द्र - रूपेण सूर्य एवं चन्द्र ये दो इन्द्र कहे जाते 1. असुरकुमार 2. नागकुमार 3. सुवर्ण (सुपर्ण) कुमार 4. विद्युत्कुमार 5. अग्निकुमार 6. द्वीपकुमार 7. उदधि 8. दिशाकुमार ( दिक्कुमार) हैं। 1. पिशाच 2. भूत 3. यक्ष दक्षिण दिशा के इन्द्र चमरेन्द्र धरणेन्द्र वेणुदेव हरिकान्त अग्निसिंह पूर्ण 4. राक्षस 5. किन्नर 6. किम्पुरुष 7. महोरग (भुजंग) 8. ध जलकान्तेन्द्र अमितगति प्रज्ञापना, स्थानांग इत्यादि सूत्रागमों में अन्य इन्द्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है। आठ प्रकार के व्यन्तरं देवों के 16 इन्द्र व्यन्तर देवों के नाम वेलम्ब घोष दक्षिण दिशा के इन्द्र कालेन्द्र सुरूपेन्द्र पूर्णभद्रेन्द्र भीमेन्द्र किन्नरेन्द्र सत्पुरुषेन्द्र अतिकायेन्द्र गीतरति इन्द्र उत्तर दिशा के इन्द्र महाकालेन्द्र प्रतिरूपेन्द्र माणिभद्रेन्द्र महाभीमेन्द्र किम्पुरुषेन्द्र महापुरुषेन्द्र महाकायेन्द्र गीतयशेन्द्र भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों काल में जिस बात को स्वयं अच्छी तरह न जाने, उसके सन्दर्भ में 'यह ऐसा ही है' ऐसी निर्णायक भाषा न बोलें। दशवैकालिक (7/8) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88830 इसी प्रकार वाणव्यन्तर जाति के 16 इन्द्रों के भी नाम प्राप्त होते हैं व्यन्तर देवों के नाम दक्षिण दिशा के इन्द्र 1. आणपन्निक सन्निहितेन्द्र 2. पाणपन्निक धातेन्द्र ऋषीन्द्र ईश्वरेन्द्र 3. ऋषिवादी 4. भूतवादी 5. कन्दि 6. महाकन्दित 7. कूष्मांड (कोहंड ) 8. पतंग (प्रेत देव) वत्सेन्द्र हासेन्द्र श्वेतेन्द्र पतंगेन्द्र उत्तर दिशा के इन्द्र सामान्येन्द्र विधातेन्द्र ऋषिपालेन्द्र माहेश्वरेन्द्र विशालेन्द्र हासरति इन्द्र महाश्वेतेन्द्र पतंगपति-इन्द्र ये 64 इन्द्र किस प्रकार प्रभु की स्तवना करते हैं एवं किस प्रकार उत्सव मनाते हैं, इसका वर्णन एवं विचार अग्रिम पृष्ठों में किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रत्येक कल्याणक पर शक्रेन्द्र तीर्थंकर परमात्मा को वन्दन करके 'शक्रस्तव' से स्तवना करता है, जिसे आज लौकिक भाषा में 'नमोत्थुणं' अथवा 'नमुत्थुणं' कहा जाता है। - यूँ तो जब तक केवलज्ञान नहीं हो जाता, वे तीर्थंकर नहीं होते लेकिन द्रव्य निक्षेप के आश्रय गर्भ से ही वे द्रव्य तीर्थंकर होते हैं । अतः इन्द्र भी द्रव्य तीर्थंकर के रूप में प्रभु की भक्ति करता है। जिज्ञासा - तीर्थंकरों के 5 कल्याणंक कहे हैं । विवाह, राज्य आदि को कल्याणक की संज्ञा क्यों नहीं दी? समाधान जैन धर्म सदा से ही अध्यात्मवादी रहा है। आत्मा का कल्याण ही वास्तविक कल्याण है । भोग, शासन आदि आत्मा का कल्याण नहीं करते। तीनों लोकों में जीव इन अवसरों पर सुख का अनुभव नहीं करते। अतः इन्हें कल्याणक 'नहीं' कहा जाता । विवाह, राज्यादि सभी तीर्थंकरों के नहीं होते। पंच कल्याणक तो सभी तीर्थंकरों के शाश्वत नियम से होते हैं। बुध्दिमान् पुरुष व्यवहार भाषा बोले, वह भी पाप-रहित अकर्कश कोमल हो, उसकी समीक्षा करके एवं सन्देह रहित बोले । दशवैकालिक (7/3) - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 31 जिज्ञासा - सौधर्मेन्द्र को पता कैसे चलता है कि पृथ्वी पर तीर्थंकर देवाधिदेव का कल्याणक हुआ? समाधान सौधर्मेन्द्र तो नाटकादि देखने में व्यस्त होते हैं। तीर्थंकर का जब च्यवन, जन्म, दीक्षा आदि प्रसंग होते हैं तो उनके पुण्य से अपने आप ही इन्द्र के आधारभू स्थान कम्पायमान चलायमान होते यानी सिंहासन अथवा शय्या अथवा भूमि (जिस अवस्था में इन्द्र हो) हिलती है। तब उस समय सौधर्मेन्द्र क्रोधित हो उठता है। उसे लगता है कि न जाने किस शक्तिमान् शत्रु ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया। तब वह अवधिज्ञान का प्रयोग करता है एवं जानता है कि पृथ्वी पर तीर्थंकर का कल्याणक सम्पन्न हुआ है। सौधर्मेन्द्र अपने क्रोध पर शर्मिन्दा सा होता है एवं इस शुभसूचक घटना को जानकर प्रसन्नता से तीर्थंकर के कल्याणक पर वंदन - गुणकीर्तन करने जाता है। समाधान जिज्ञासा - तीर्थंकरों के कल्याणक होने पर देवतागण किस कारण से जाते हैं ? यह तीर्थंकरों का अपार पुण्योदय ही होता है जिसके कारण अनेकानेक देवतागण प्रभु के कल्याणक के अवसर पर पधारते हैं। श्री कल्पसूत्र की टीकाओं में लिखा है कि कई देव इन्द्र की आज्ञा पालने के लिए, कई देव मित्रों की प्रेरणा से, कई देव अपनी-अपनी देवियों की प्रेरणा से, कई देव शर्म के कारण, कई देव तीर्थंकर की भक्ति करने के लिए, कई देव कौतुक देखने के लिए तथा कई देव अपूर्व आश्चर्य देखने के लिए तीर्थंकर के कल्याणकों में जाते हैं। - सूर्यास्त से लेकर पुन: सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के खाने-पीने की मन से भी इच्छा न करें। दशवैकालिक (8/28) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यवन (गर्भ) कल्याणक तीर्थंकरों का जीव जब देवलोक अथवा नरक का पूर्णरूप से त्याग कर पृथ्वी पर माता की कुक्षि में अवतरित होता है, उसे 'च्यवन' कहते हैं। स्थानांग टीका में 'च्यवन' की व्याख्या करते हुए लिखा है- 'चयणेत्ति च्युति च्यवनम्।' अर्थात् किसी गति से च्युत होना च्यवन है। तीर्थंकर के च्यवन से तात्पर्य है प्रभु का अन्तिम सांसारिक माता के गर्भ में अंतिम अवतरण, अन्तिम गति में अन्तिम सम्बन्धों का प्रतिरूप । इससे न केवल मानव जाति को एक तीर्थकर्ता मिलेगा बल्कि एक भव्यात्मा सूक्ष्म निगोद से बाहर आने की तैयारी करेगी । तीर्थंकर के च्यवन पर क्षण-भर के लिए तीनों - अधो- मध्य - ऊर्ध्वलोक में आनन्द का संचार होता है एवं सर्वत्र एक दिव्य प्रकाश फैल जाता है। इसी अवसर पर तीर्थंकर की माता चौदह महास्वप्नों के दर्शन करती है। तीर्थंकर की माता स्वप्न-दर्शन किस अवस्था में किस प्रकार कब करती है इसका उत्तर देते हुए श्री शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं कि व्यक्ति की तीन अवस्थाएँ होती हैं- सुप्त (सोया हुआ) जागृत (जगा हुआ) एवं सुप्तजागृत (अर्धनिद्रित ) । स्वप्नों के दर्शन सुप्त जागृत अथवा अर्धनिद्रित अवस्था में ही होते हैं। स्वप्नदर्शन के पाँच भेद कहे गये हैं 1. 2. 3. 4. 5. याथातथ्य स्वप्न दर्शन स्वप्न में जिस वस्तु स्वरूप का दर्शन हुआ, जागने पर उसी को देखना या उसके अनुरूप शुभाशुभ फल की पूर्ण प्राप्ति होना । प्रतान स्वप्नदर्शन यथार्थ अयथार्थ फल देने वाले विस्तार वाले स्वप्न देखना । चिन्ता स्वप्न दर्शन - जागृत अवस्था में जिस वस्तु की चिन्ता हो रही हो उसी को स्वप्न में देखना । स्वप्न में जो वस्तु देखी है, जगने पर उससे विपरीत वस्तु की स्वप्न विषयक वस्तु का अस्पष्ट ज्ञान होना । विपरीत स्वप्न दर्शन प्राप्ति होना । अव्यक्त स्वप्न दर्शन जिस प्रकार अन्धा मार्गदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है। अतः जो कुछ बोलें- बुद्धि से परख कर बोलें। व्यवहार-भाष्य-पीठिका (76) - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 3 33 - इस प्रकार स्वप्न दर्शन के पाँच भेद भगवती सूत्र में लिखे हैं। अतः अर्द्धनिद्रित अवस्था में तीर्थंकर की माता 14 स्वप्न याथातथ्य रूप में देखती है। च्यवन के समय तीर्थंकर की माता स्पष्ट 14 महास्वप्नों को देख कर जाग जाती है। च्यवन के समय तीर्थंकर मति (आभिनिबोधिक) श्रुत एवं अवधि इन तीन ज्ञान से युक्त थे। देवगति से च्युत होते समय उस आत्मा ने देवगति से च्युत होना है, ऐसा जाना। देवगति से किस प्रकार च्युत हो रहे हैं, यह भी जाना। च्युत होकर वे कहाँ जाएंगे उन्होंने यह भी जाना, किन्तु च्यवनकाल को नहीं जाना, क्योंकि वह अत्यंत सूक्ष्म होता है। चौदह महास्वप्न एवं उनका फल स्वप्न शास्त्र में 72 प्रकार के स्वप्न कहे गए हैं। इनमें से 42 स्वप्न सामान्य (अशुभ) फलदायक हैं एवं 30 स्वप्न मंगलकारी कहे गए हैं। किसी भी महापुरुष के अवतरण से पहले माता द्वारा स्वप्न दर्शन सांकेतिक लक्षण प्रकट करता है। तीर्थंकर तो उत्कृष्ट भव्यात्मा है। अत: उनकी माता को 30 मंगलकारी स्वप्नों में से उत्तमोत्तम, उपद्रवरहित शुभ 14 स्वप्न दिखाई देते हैं। - शास्त्रानुसार अगर व्यक्ति स्वप्न दर्शन कर पुनः सो जाता है, तब वे स्वप्न निष्फल जाते हैं। अतः तीर्थंकर की माता स्वप्न दर्शन करके पुन नहीं सोती। प्रातः काल में वह राजा (तीर्थंकर के पिता) को जाकर स्वप्न बताती है, जिसका फल स्वयं पिता अथवा स्वप्नपाठक या कभी देवतागण भी बताते हैं। वे चौदह महास्वप्न एवं उनके शुभ सांकेतिक फल इस प्रकार हैं1. गज - तीर्थंकर की माता इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान विशाल, चार दाँतवाला, ऊँचा एवं महाश्वेत ऐरावत हस्ति के दर्शन करती है। वह गज विशाल उदर वाला एवं उत्तम लक्षण सहित होता है, जिसके कुंभ-स्थल से मद झरता हुआ दिखाई देता है। मदोन्मत्त रूप से गम्भीर शब्द-गर्जना करते वह माता के मुख में प्रवेश करता है। इस स्वप्न का अर्थ यह है कि माता को महापराक्रमी पुत्र की प्राप्ति होगी, जो चतुर्विध धर्म (श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका) की रचना करने वाला होगा एवं दान-शील-तप-भाव रूपी-चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा करेगा। तथा सभी 64 इन्द्र बालक की सेवा में रहेंगी। 2. वृषभ - एक श्वेत कान्तिमय मलरहित बैल को तीर्थंकर की माता स्वप्न रूप में देखती है। वह वृषभ अपनी कान्ति से सर्वदिशाओं में उद्योत करता है। ऐसा पतले केश वाले सुन्दरस्थिर वृषभ माता के मुख में प्रवेश करता है। आवश्यकता से अधिक बोलना उचित नहीं है। - सूत्रकृताङ्ग (1/14/25) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 4. 5. 6. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 34 इस स्वप्न का अर्थ यह है कि आगामी पुत्र समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा तथा बोधरूप अनाज का बीज बोएगा । धर्मधुरीण पुत्र उस क्षेत्र में धर्मचक्र का संचालन करेगा। केसरी सिंह तदनन्तर तीर्थंकर की माता निर्मल स्कंध वाले दर्शनीय केसरीसिंह को मुख में प्रवेश करते हुए पाती है, जिसकी तालु लाल रंग की होती है, काया सौम्य होती है एवं जो गर्जना मुद्रा में स्थिर है। इसके फलानुसार माता को अनंत बलयुक्त निर्भय पुत्र प्राप्ति होगी जो काम द्वेष आदि विकार रूप उन्मत्त हाथियों से नष्ट होते हुए भव्यजीव वन का संरक्षण करेगा तथा आठ कर्म व 8 मदरूप श्वापदों का नाश करेगा। सभी उसकी आज्ञा का पालन करेंगे, वह ऐसी भव्यात्मा होगी। लक्ष्मीदेवी चौथे स्वप्न में माता अत्यन्त सुन्दर, ऐश्वर्यधारिका लक्ष्मी देवी को मुख में प्रवेश करते हुए पाती है। हिमालय के पद्मद्रह में विराजित भवनपति निकाय की लक्ष्मी देवी सर्वांग विभूषित एवं अलंकार - आभरण - आभूषणों से युक्त होती है। श्वेत हाथी जिसे शीतल जल से स्नान कराते हैं, ऐसी लक्ष्मी देवी को तीर्थंकर की माता देखती है। इसका फल कहते हुए स्वप्नपाठक बताते हैं कि पुत्र तीनों लोकों की लक्ष्मी का भोक्ता बा वार्षिक दान देकर तीर्थंकर पद के अपार ऐश्वर्य का भोग करते हुए केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त करेगा। वह जीव सभी प्राणियों का प्रिय पात्र बनेगा । पुष्पमाला - कल्पवृक्षों के सरस सुन्दर, छह ऋतुओं के पंचवर्णी मनोहर, नयनरम्य पुष्पों से निर्मित पुष्पमाला को तीर्थंकर की माता च्यवन के समय स्वप्न में निहारती है। पुष्प की भाँति पुत्र भी सुगंधित शरीर वाला होगा एवं सदा श्रेष्ठता का वरण करेगा। फलानुसार वह जीव मस्तक पर धारण करने योग्य त्रिलोकपूज्य होगा तथा प्रमुख दो धर्म -2 व साधु धर्म की प्ररूपणा करेगा एवं सत्पुरुषों में पूज्यता को प्राप्त होगा । चन्द्रमा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का चन्द्र अपूर्व नयनाभिराम कान्तिमय होता है। गाय के दूध की झाग सरीखा वह चन्द्र अपनी श्वेत आभा सब पर निस्तेज करता है। तीर्थंकर की माता ऐसे ही शीतल एवं शान्त चन्द्र के स्वप्न में दर्शन करती है। -श्रावक धर्म इस स्वप्न का अर्थ यह होता है कि भावी पुत्र सौम्यदर्शन वाला, शीतल परिणाम वाला होगा जो शान्तिदायी क्षमाधर्म का उपदेष्टा बनेगा। साथ ही वह भव्य जीव-रूप चन्द्रविकासी कमलों का अपने प्रकाश (बोध) से विकास करने वाला होगा। वैयावृत्य से आत्मा तीर्थंकर पद को प्राप्त करता है। - उत्तराध्ययन (29/44) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. 8. 10. 11. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 35 सूर्य - तत्पश्चात् तीर्थंकर की माता लोकनयनसमान, सहस्राधिक किरणों के धारक, शीत का नाश करने वाले, अन्धकार को दूर भगाने वाले लाल तेजस्वी सूर्य को स्वप्न में निहारती है । वह सूर्य अत्यन्त तेज से युक्त देदीप्यमान- प्रकाशमान प्रकट होता है । इस महास्वप्न का फल यह है कि तीर्थंकर पुत्र जगत् में अज्ञान रूपी अंधकार का नाश कर ज्ञान का उद्योत करेंगे, मिथ्यात्व रूपी संशयों को दूर करेंगे तथा प्रभामंडल से अलंकृत होंगे अर्थात् तेजस्वी कान्तिमय व्यक्तित्व के धारक होंगे। ध्वजा - सुवर्ण के दंड पर रही हुई, श्रीवार, मोरपंख से युक्त तथा पंचवर्णी वस्त्र की बनी हुई ध्वजा, जो सभी के देखने योग्य, सुन्दर है, ऐसी ध्वजा तीर्थंकर की माता स्वप्न में देखती है। स्वप्नपाठकों के अनुसार ध्वजा के दर्शन का फल होता है कि पुत्र सम्पूर्ण कुल में उत्तम होगा, समवसरण में धर्मध्वजा से विराजमान होगा तथा जगत् को चारों दिशाओं में धर्मध्वजा से सुशोभित करेगा । एवं 'शिवसौख्यसाची' के समान सुख एवं कल्याण बाँटेगा । पूर्णकलश - निर्मल जल से भरा हुआ, उत्तम कमलों से घिरा हुआ 6 ऋतुओं के फलफूलों से भरा हुआ, देदीप्यमान, जाज्वल्यमान नयनाभिराम पूर्णकलश रत्नजड़ित होता है। तीर्थंकर की माता के मुख में यह रौप्यमय पूर्णकुम्भ स्वप्न में प्रवेश करता है। इस स्वप्न का फल यह है कि आगामी पुत्र - रत्न अनेक निधियों को सम्प्राप्त कर कुल एवं धर्म में स्वर्ण कलश के रूप में विद्यमान होगा। तथा अनन्तानन्त सद्गुणों का स्रोत होगा व धर्मरूपी विशाल प्रासाद पर कलश चढ़ाएगा। पद्मसरोवर - सूर्यविकासी, चन्द्रविकासी इत्यादि उगते हुए 100 पंखुड़ी वाले कमलों से सुशोभित एवं उनके ऊपर नभ में उड़ते हुए उत्तम पक्षियों से शोभायमान पद्मसरोवर को तीर्थंकर की माता अपने स्वप्न में स्पष्ट रूप से देखती और निहारती है। फलस्वरूप पुत्र जगत् का ताप दूर करने वाला होगा, अनेक लक्षणों से सुशोभित होगा एवं लोगों के दिलों को आकर्षित करने वाला प्रभावोत्पादक चुम्बकीय व्यक्तित्व होगा । क्षीरसमुद्र - तीर्थंकर की माता तत्पश्चात्, क्षीरसमुद्र को स्वप्नरूप देखती है। चौदह लाख, छप्पन हजार नदियों का जहाँ संगम होता हो, जिसकी लहरें चंचल स्वभाव से जल को बढ़ा रही हों, वह क्षीर (लवण) समुद्र की आभा चन्द्र एवं सूर्य को भी निस्तेज कर देती है। परस्त्री का सहवास, द्यूत-क्रीड़ा, मद्य, शिकार, वचन परुषता, कठोर दण्ड तथा अर्थ-दूषण (चोरी आदि) ये सात कुव्यसन हैं। बृहत्कल्पभाष्य (940) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 36 13. इस स्वप्न का शुभ फल यह है कि माता का तीर्थंकर पुत्र ज्ञान-दर्शन रूप मणिरत्नों का धीर-गम्भीर धारक होगा तथा केवलज्ञान रत्न पाकर त्रिकाल भावों का ज्ञाता बनेगा। 12. देवविमान - जो सुवर्णमणि के 1008 स्तम्भों से युक्त है एवं दीपक, सूर्य जैसे चमक रहा है, ऐसा पुंडरीक उत्कृष्ट विमान माता के स्वप्न में मुख में प्रवेश करता है। यह स्वप्न परमात्मा के आधिपत्य का सूचक है। यथा- वे स्वर्ग से अवतीर्ण होंगे, देवताओं द्वारा पूज्य होंगे एवं वैमानिक पर्यंत चारों निकाय के देव प्रभु की सेवा में रहेंगे। जो तीर्थंकर की आत्मा देवलोक के बजाय नरक से आती है, उस तीर्थंकर की माता देवविमान की जगह नागभवन देखती है, ऐसा श्री शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं। रत्नराशि - तदनन्तर तीर्थंकर की माता मेरुपर्वत जितनी ऊँची रत्नों की राशि स्वप्न में देखती है। बड़े थाल में पुलक रत्न, वज्ररत्न, नील रत्न, स्फटिक रत्न, हंसगर्भ रत्न, अंजन रत्न, अंक रत्न, ज्योति रत्न इत्यादि उत्तम जाति के रत्न सुशोभित हैं। यह स्वप्न इस बात का सूचक है कि माता को गुणयुक्त, मणिरत्नों से विभूषित पुत्र की प्राप्ति होगी, जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र इत्यादि रत्न पाकर तीन गढ़ वाले समवसरण में बैठकर भव्य जीवों को धर्मोपदेश देगा। निधूम अग्नि - मधु और घृत से सिंचित, लाल-पीले वर्ण वाली छोटी-बड़ी शिखाएँ, बिना धुएँ की जाज्वल्यमान अग्नि अर्थात् निर्धूम अग्नि को माता अन्तिम स्वप्न के रूप में देखती है। इस महास्वप्न का फल यह है कि पुत्र भावी तीर्थंकर अत्यन्त दीप्तवन्त (तेजस्वी) होगा। वह धर्मरूप सुवर्ण को विशुद्ध और निर्मल करने वाला तथा कर्ममल रूपी ईंधन को भस्म कर देने वाला प्रकट प्रभावी व्यक्तित्व होगा। इस प्रकार इन 14 महास्वप्नों को तीर्थंकर की माता देखती है एवं तीर्थंकर पक्ष (सन्दर्भ) में इनके फल सुनती है। ___ जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा के अनुसार तीर्थंकर की माता 16 स्वप्न देखती है। दोनों परम्पराओं में 13 स्वप्न एवं उनके फल समान हैं। किन्तु दिगम्बर आम्नाय में जहाँ ‘झष' (अर्थात् मीनयुगल) का उल्लेख है, वहीं श्वेताम्बर साहित्य में ‘झय' (अर्थात् धर्मध्वजा) का वर्णन है। सम्भव है कि साहित्यिक त्रुटि के कारण ‘झय' के स्थान पर ‘झष' हो गया हो। इनके अतिरिक्त दिगम्बर साहित्य के अनुसार 2 स्वप्न अधिक माने गए हैं- सिंहासन जो मध्यलोक का स्वामित्व दर्शाता है तथा नागभवन, जो अधोलोक का आधिपत्य दर्शाता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नरक से 14. सब जीवों के, और क्या देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख हैं, वे काम-भोगों की सतत आसक्ति एवं अभिलाषा से उत्पन्न होते हैं। - उत्तराध्ययन (32/19) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 83 37 आने वाले तीर्थंकर की माता ही 'नागभवन' देखती है। किन्तु ऐतिहासिक साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों प्रमाणों से 14 स्वप्नों का क्रम, अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि नरक, मध्य लोक व देवलोक का कुल प्रमाण 14 राजलोक (माप) है, अतः इन 14 राजलोकों के स्वामी होने के कारण तीर्थंकर की माता 14 महा-उत्तम स्वप्न देखती है, ऐसी एक विचारधारा है। चक्रवर्ती की माता : गर्भधारण करते समय यही 14 महास्वप्न देखती है। अन्तर इतना होता है कि तीर्थंकर की माता स्पष्ट (साफ) स्वप्न देखती है किन्तु चक्रवर्ती की माता अस्पष्ट (धुंधले) देखती है। वासुदेव की माता : सिंह, सूर्य, कुम्भ, समुद्र, लक्ष्मी, रत्नराशि एवं अग्नि, ये 7 स्वप्न देखती हैं। - बलदेव की माता : हाथी, पद्म सरोवर, चन्द्र और वृषभ, ये 4 स्वप्न देखती हैं। प्रतिवासुदेव की माता : हाथी, कुम्भ एवं वृषभ (या सिंह), ये 3 स्वप्न ही प्राय: देखती माण्डलिक राजा की माता : एक स्वप्न देखती है। विशिष्ट आत्माओं के जन्म से पूर्व उनके आगमन की पूर्व सूचना देने वाले ये शुभ स्वप्न जीव के स्वयं के पुण्यं प्रभाव से सम्बन्धित होते हैं। शक्रस्तव तथा देवोत्सव का वर्णन तीर्थंकर का च्यवन होते ही शक्रेन्द्र (सौधर्माधिपति) का आसन चलायमान होता है। आनन्द, हर्ष एवं प्रमोद के कारण वह वैक्रिय शरीर का निर्माण करता है। वैडूर्य, अरिष्ट, अंजन आदि मणिरत्नों से जड़ित पादुका को पैरों से उतारकर एक वस्त्र उत्तरासंग करता है। तत्पश्चात् दोनों हाथ जोड़कर तीर्थंकर प्रभु के सामने सात-आठ कदम जाकर विमान में रहते हुए ही बायाँ घुटना जमीन पर स्थापित कर के मस्तक को तीन बार धरती से लगाता है। तथा चौथी बार वन्दन मुद्रा में हाथ जोड़कर और मस्तक पर अंजली लगाकर ‘शक्रस्तव' का उच्चारण करता है। एवं पूर्व दिशा की ओर अभिमुख हो कर नमस्कार करता है। तत्पश्चात् नन्दीश्वर द्वीप के 52 जिनालय में पूजा स्वरूप अष्टाह्रिका महोत्सव मनाते हैं। सच्चा मुनि पापभीरु होता है, उसमें किसी भी तरह का ममत्व-भाव नहीं होता। - आचारांग (1/2/6/99) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 38 तीर्थंकर महावीर के षट्कल्याणक ? सभी तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं, ऐसा शाश्वत सत्य है । किन्तु कुछ विद्वान् चरम तीर्थपति तीर्थंकर महावीर के षट्-कल्याणक का उल्लेख करते हैं। वह इसलिए क्योंकि वे महावीर प्रभु के दो च्यवन कल्याणक गिनाते हैं। दरअसल पिछले भवों के कुल मद के कारण मरीचि का जीव तीर्थंकर भव में ब्राह्मण कुल में च्यवित हुआ था। तत्पश्चात् इन्द्र ने हरिणैगमैषी देव के द्वारा गर्भ संहरण करवाकर क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ की भार्या त्रिशला रानी की कुक्षि में रखा । अतः कुछ लेखक इन्हें अलग-अलग कल्याणक गिनते हैं । किन्तु जहाँ तक हमारी धारणा है- (1) षट्रकल्याणक की मान्यता मूलभूत पंच कल्याणक के विरुद्ध है (2) प्रभु एक ही बार देवगति से च्युत हुए (3) इन्द्रादि देवतागण ने दोनों बार अलग-अलग उत्सव नहीं मनाया लेकिन, जैनधर्म अनेकान्तवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। अतः हम उनके मत का भी पूर्ण आदर-सम्मान करते हैं। गर्भ - परिपालना एवं दोहद - उत्पत्ति च्यवन से लेकर जन्म तक, तीर्थंकर की माता बहुत ही सावधानी पूर्वक अपने गर्भ का पालन करती है। वह उत्तम रूप से देवपूजा, स्नानादि कर उत्तम आभूषण धारण करती है। माता ऊँची नीची अधिक नहीं फिरती एवं सुकोमल शय्या पर सुखासन में बैठती है । तीर्थंकर की माता अपने भोजन का विशेष ध्यान रखती है। वह अतिशीत ( ठण्डा), अतिउष्ण (गर्म), अति कटु (कड़वा) अति कषायित ( कसैला ), अति मिष्ट (मीठा ) इत्यादि प्रकार के भोजन का परिहार करती है ताकि गर्भ पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। वह ऋतु सन्तुलित भोजन करती है। विधि के अनुसार ही वह सभी काम करती है। अनुकूल पौष्टिक गर्भकाल में वयोवृद्धा एवं अनुभवी महिलाएँ माता की सेवा करती हैं। माता स्वयं भी चिन्ता, शोक, दैन्य, भय, त्रास से बचकर, क्रोध न करके शान्त, प्रसन्नचित्त मुद्रा में रहती है। ऐसी अवस्था में तीर्थंकर की माता को दोहद उत्पन्न होते हैं। गर्भ के प्रभाव से माता को जो विशेष कार्य करने की इच्छा होती है उन्हें दोहद की संज्ञा दी गई है। वर्तमान चौबीसी के कई तीर्थंकरों की माताओं को अनेक दोहद उत्पन्न हुए, जिन्हे तीर्थंकर के पिता, इन्द्र की सहायता से परिपूर्ण करते हैं। तीर्थंकर पद्मप्रभ की माता सुसीमा को पद्मशय्या में शयन करने का दोहद हुआ । चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की माता को चन्द्रपान करने का दोहद हुआ । श्रेयांस प्रभु की माता को देवता परिगृहीत शय्या पर बैठने का दोहद उत्पन्न हुआ । अन्तिम तीर्थंकर महावीर जो जन्मा है, उसे अवश्य मरना होगा । - अन्तकृदशांग (6/15/18) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 39 स्वामी की माता-त्रिशला रानी को अनेक दोहद हुए। यथा, मैं अपने हाथों से सद्गुरुओं को दान दूं, कारागार से कैदियों को मुक्त कराऊँ, हाथी की अम्बाड़ी पर बैन, राज्य का संचालन स्वयं करूँ, इन्द्राणी के कुंडल युगल छीनकर पहनें, इत्यादि। राजा, इन्द्र, अमात्यादि ने ये दोहद सूझ-बूझ के साथ पूरे किये। तीर्थंकर महावीर की गर्भ प्रतिज्ञा अन्य किसी तीर्थंकर का गर्भावस्था विषयक कोई विशेष प्रसंग प्राप्त नहीं होता। किन्तु आवश्यक नियुक्ति, कल्पसूत्र, इत्यादि ग्रन्थों में तीर्थंकर महावीर सम्बन्धी एक रोचक प्रसंग उल्लिखित है। जब महावीर स्वामी को माता त्रिशला की कुक्षि में आए साढ़े छह माह हुए, तब उन्होंने सोचा कि मेरे गर्भ में हलन-चलन से माता को कितना कष्ट होता होगा? यह सोचकर उन्होंने अपना हलन-चलन, समूची स्पन्दनादि क्रियाएँ बन्द कर दीं। गर्भ को निश्चल महसूस कर माता को बुरे विचार आने लगे। उसके साथ-साथ सम्पूर्ण राजपरिवार भी शोकाकुल हो गया। गर्भस्थ शिशु ने अवधिज्ञान से माता-पिता तथा परिजनों को शोकविह्वल देखा। सोचा यह क्या हो गया? मैंने तो माता के सुख के लिए यह कार्य किया था, किन्तु यह तो दुःख का कारण बन गया। यह सोचकर प्रभु ने. हलन-चलन-स्पन्दन वापिस प्रारम्भ किए। अपने प्रति माता-पिता के ऐसे अनुराग, मोह को देखकर गर्भस्थ प्रभु ने यह प्रतिज्ञा धारण की कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक में मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर __ दीक्षा अंगीकार नहीं करूँगा। इस प्रकार गर्भ में ही प्रभु ने प्रतिज्ञा ग्रहण की। जिज्ञासा - क्या च्यवित होते समय देवता जानते हैं कि मैं यहाँ से च्युत होऊँगा? समाधान - स्थानांग सूत्र के अनुसार देवता ऐसा 3 कारणों से जानते हैं1. विमान और आभरणों (आभूषणों) की कान्तिहीनता को देखकर। 2. कल्पवृक्ष को म्लान होता हुआ देखकर। 3. तेजोलेश्या को क्षीण होती हुई जानकर। यह शरीर पानी के बुदबुदे के समान नश्वर है। इसे पहले या पीछे एक दिन तो अवश्य छोड़ना पड़ेगा। __ - उत्तराध्ययन (19/13) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा - तीर्थंकर की माता के गर्भ की क्या विशेषता होती है? समाधान - तीर्थंकर (गर्भस्थ शिशु) का अचिन्त्य प्रभाव होता है। माता का वातावरण आनन्दमय बन जाता है। अन्य गर्भवती स्त्रियों की भाँति तीर्थंकर की माता बेडौल नहीं दिखती क्योंकि गर्भ ज्यादा बाहर नहीं आता, मानों माता के गर्भ में छिपा हो। इसी कारण से तीर्थंकर की माता को गूढगर्भा भी कहा जाता है। तीर्थंकर : एक अनुशीलन 40 जिज्ञासा - तीर्थंकरों का देवरूप से च्युत होना च्यवन कहलाता है। अन्य जीवों का देवरूप से च्युत होना च्यवन नहीं कहलाता। क्यों ? समाधान - च्यवन शब्द का भिन्न अर्थ है । जो आत्मा देवगति से च्युत हो कर वापिस कभी उसी गति में न जाए, जिसका उसी भव में सिद्धत्व पहले से ही निश्चित हो, उसका वास्तविक च्यवन कहा जाता है। हम जीवों का तो देवादि गतियों में भ्रमण चालू ही रहता है। इसी कारण हमारा देवरूप से च्युत होना च्यवन नहीं कहलाता । जिज्ञासा - तीर्थंकर का जीव नरक से कैसे च्यवित हो सकता है? समाधान आयुष्य का बंध अगर तीर्थंकर नाम कर्म बाँधने के बाद किया जाए, तो देवगति का आयुष्य बँधता है एवं जीव देवगति से च्यव कर तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है । किन्तु आयुष्य का बंध अगर तीर्थंकर नाम कर्म बाँधने से पहले किया जाए, और उसमें अगर नरक की आयु बाँधी जाए, तो जीव नरक से च्युत होकर माता के गर्भ में आता है। जैसे श्रेणिक राजा ( प्रभु वीर के भक्त राजा) ने गर्भिणी मृगी को मार कर अभिमान करते समय नरकायुष्य बाँधा व बाद में तीर्थंकर नामकर्म बाँधा, तो वो पहली नरक में गए व वहाँ से च्यव कर तीर्थंकर बनेंगे। जिज्ञासा च्यवन के समय तीर्थंकर के पास संपूर्ण अवधिज्ञान होता है ? समाधान नहीं । अवधिज्ञान के भी कई भेद होते हैं। तीर्थंकर को च्यवन से अप्रतिपाती अवधिज्ञान प्राप्त होता है। परमावधि, लोकावधि आदि अवधिज्ञान प्राप्त नहीं होते। भगवान महावीर को तो लोकावधि ज्ञान की प्राप्ति दीक्षा के भी बाद हुई थी। - - बालक, वृध्द और अपंग व्यक्ति, विशेष अनुकम्पा के योग्य होते हैं। - बृहत्कल्पभाष्य (4342) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म कल्याणक गर्भ काल (गर्भ समय) की समाप्ति पर तीर्थंकर प्रभु शिशु रूप में जन्म ग्रहण करते हैं। तीर्थंकर की आत्मा का संसार में यह अन्तिम जन्म होता है। तीर्थंकर का जन्म होते ही तीनों लोकों में क्षण भर के लिए अपूर्व शान्ति छा जाती है एवं सभी जीव परिताप से मुक्ति का अनुभव करते हैं। प्रभु के अतिशय से नारकी जीवों को भी मुहूर्त मात्र साता होती है, तथा स्थावर जीवों का भी विशेष छेदन भेदन नहीं होता, इसलिए सभी जीव सुख एवं कल्याण को प्राप्त होते हैं। संपूर्ण पृथ्वी उल्लासमयी होती है। इसलिए इसे 'जन्म कल्याणक' की संज्ञा दी गई है। छप्पन दिक्कुमारी कृत जन्मोत्सव तीर्थंकरों का जन्म होते ही सर्वप्रथम 56 दिक्कुमारियों के आसन चलायमान होते हैं। ये देवियाँ भवनपति निकाय की देवियाँ होती हैं, जो विविध जगहों पर निवास करती हैं। इन देवियों का यही आचार है कि तीर्थंकर का जन्म होने से पूर्व इनका आसन कम्पायमान होने लगता है एवं प्रभु का पहला जन्मोत्सव ये करती हैं। इसके बाद अन्य इन्द्रादिक देव अपना महोत्सव करते हैं । भोगवती 1. भोगंकरा 2. 4. भोगमालिनी 5. 7. पुष्पमाला 8. प्रथम अधोलोक में गजदन्ताकार पर्वत के नीचे निवास करने वाली ये दिशा - कुमारी देवियाँ प्रभु को और प्रभु की माता को नमस्कार करके ईशान कोण में एक सूतिकागृह (जापा - घर) की रचना करती है एवं 'एक योजन प्रमाण पृथ्वी को संवर्तक वायु (गोल पवन) के द्वारा शुद्ध अर्थात् कांटे कंकर रहित तथा सुगंधित बना देती हैं। यह विकुर्वित सूतिकाघर पूर्व दिशाभिमुख होता है। 9. मेघंकरा 12. मेघमालिनी 15. वारिषेणा सुवत्सा अनिन्दिता 10. मेघवती 13. तोयधरा 16. बलाहिका 3. भोग 6. वत्समित्रा 11. सुमेघा 14. विचित्रा आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी वस्तु क्लेशप्रद एवं दोष रूप हो जाती है। • ओघनियुक्ति (741) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 42 ये दिक्कुमारी देवियाँ ऊर्ध्वलोक के नन्दन वनों के कूटों से आती है तथा माता को नमस्कार करके उस सूतिका घर में सुगन्धित जलसहित पाँच रंगों के घुटने प्रमाण और उत्तम धूप से सुगन्धित करती है। पुष्प वर्षा करती हैं तथा गीत गाती हैं। 17. नन्दोत्तरा 18. नन्दा 19. आनन्दा 20. नन्दिवर्धना 21. विजया 22. वैजयन्ती 23. जयन्ती 24. अपराजिता पूर्व दिशा के रुचक पर्वत से उपर्युक्त 8 दिक्कुमारियाँ आकर वन्दन विधि कर मुख देखने के लिए हाथ में (सम्मुख) शीशा (दर्पण) लेकर प्रभु के सम्मुख गीत गाती खड़ी रहती हैं। 25. समाहारा 26. सुप्रदत्ता ___ 27. सुप्रबुद्धा 28. यशोधरा 29. लक्ष्मीवती 30. शेषवती 31. चित्रगुप्ता 32. वसुंधरा रुचक द्वीप के दक्षिण में पर्वत पर रहने वाली ये 8 दिशा कुमारियाँ वहाँ जाकर भगवान तथा भगवान की माता को नमस्कार करके सोने के शृंगारमयी कलश में सुगन्धित जल भरकर प्रभु की मातेश्वरी को सभी मिलकर स्नान कराती हैं। फिर प्रभु के आगे गीत-गान-नाटक आरम्भ करती हैं। 33. इलादेवी 34. सुरादेवी 35. पृथ्वी 36. पद्मावती 37. एकनासा 38. नवमिका 39. भद्रा 40. सीता (अशोका) ये आठ दिक्कुमारियाँ पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत से आकर पवन ढुलाने के लिए प्रभु की माता के पश्चिम दिशा में सम्मुख हाथों में सोने की दंडी वाले पंखे लेकर खड़ी रहती हैं। 41. अलंबुसा 42. मितकेशी 44. वारुणी 45. हासा 46. सर्वप्रभा 47. श्री (श्रीभद्रा) 48. ह्री (सर्वभद्रा) रुचक द्वीप के उत्तर-पर्वत पर रहने वाली उपर्युक्त दिक्कुमारियाँ वहाँ जाकर तीर्थंकर-तीर्थंकर की माता को वन्दन कर दोनों ओर चार-चार खड़ी हो जाती हैं तथा उत्तर दिशा की ओर से चँवर (चामर) ढुलाती हैं। 43. पुडारका जो साधक बाह्य उपकरणों को अध्यात्म-विशुब्दि के लिए धारण करता है, उसे त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों ने अपरिग्रही ही कहा है। - ओयनियुक्ति (745) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 50. चित्रकनका 49. चित्रा 52. वसुदामिनी 43 51. शतेरा (सुतेश) रुचक द्वीप की विदिशा में रहने वाली ये दिशा - कुमारी देवियाँ हाथों में दीपक धारण कर प्रभु के समक्ष खड़ी रहती है। 53. रूपा 54. सुरूपा 55. रूपकावती चार दिक्कुमारियाँ रुचक द्वीप की मध्यम दिशा से आकर प्रभु का 4 अंगुल बाकी रख, शेष नाल को काटती है, पास ही भूमि में गड्ढा खोदकर उसे गाड़ देती हैं। उसके ऊपर वैडूर्यरत्न से रत्नमय चबूतरा बनाकर दर्भ ( दूभ / दूब घास) बोती है। तत्पश्चात् छप्पन दिक्कुमारियाँ सूतिकागृह से अलग तीन स्थानों पर केलों के द्वारा तीन कदलीगृह (केलिघर) बनाती हैं। सभी में रत्नमय सिंहासन रखे जाते हैं। सर्वप्रथम दक्षिण दिशा कदलीगृह में भगवान तथा उनकी माता को ले जा कर रत्न सिंहासन पर विराजित करने के बाद सुखकारक - सुगंधित तेल मर्दन कर उन्हें उद्वर्तन कराया गया होता है । इसके बाद उन्हें पूर्व दिशा के कदलीगृह में ले जाकर मणि पीठ पर बैठाकर सुगंधित जल से स्नान कराया जाता है, चन्दन लेपन किया जाता है तथा दिव्य वस्त्राभूषण से सजाया जाता है। तत्पश्चात् उत्तर दिशा के रत्न सिंहासन पर बिठाकर ' अरणीकाष्ठ' नामक लकड़ी घिस कर अग्नि प्रज्वलित कर चन्दनकाष्ठ अर्थात् गोशीर्ष चंदन से शान्ति पुष्टिकारक होम करती हैं। उससे दो रक्षा - पोटलियाँ (रक्षासूत्र ) बनाकर तीर्थंकर तथा उनकी माता के हाथ में बांधी जाती है। फिर वे दिक्कुमारियाँ 'हे भगवन् ! पर्वतायुर्भव' अर्थात् हे प्रभो ! आपकी आयु पर्वत के समान दीर्घ हो, ऐसा आशिष देकर दो मणिमय गोले उछालती हैं। उन्हें भगवान के खेलने के लिए पलंग पर बाँध कर गीतगान करके तीर्थंकर एवं उनकी माता को जन्मस्थान पर छोड़ कर एक योजन विमान में बैठकर सहर्ष अपने-अपने स्थान पर चली जाती हैं। इन्द्रदेवादि कृत जन्म - महोत्सव दिक्कुमारियों का महोत्सव होने के पश्चात् चौंसठ इन्द्रों के आसन चलायमान होते हैं । अवधिज्ञान से तीर्थंकर प्रभु का जन्म जानकर सौधर्मेन्द्र हरिणैगमेषी देव ( पदाति सेनाप्रमुख) को बुलाकर उसे 12 योजन चौड़ा, 6 योजन ऊँचा तथा एक (चार) योजन नाल वाला 'सुघोषा' नामक घण्टा बजाने का आदेश देते हैं। पाँच सौ देवों के साथ मिलकर घंटा बजाया जाता है, जिसकी ध्वनि से सौधर्म वह साधु नहीं, सांसारिक वृत्तियों में रचा- पचा गृहस्थ ही है जो सदैव संग्रह की इच्छा रखता है। दशवैकालिक (6/19) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 44 देवलोक के 32 लाख विमानों के सभी घंटे बजते हैं। तत्पश्चात्, ईशानेन्द्र लघुपराक्रम नामक देवता से सुघोषा घंटा बजवाता है। शेष इन्द्र भी ऐसा ही करते हैं। इसी प्रकार शंखनाद से भवनपति देव, पटहनाद सुन व्यंतर वाणव्यंतर देव तथा सीयनाद से ज्योतिष देव सावधान हो जाते हैं एवं इन्द्र के पास पहुँचते हैं। (एक योजन लगभग 12 कि.मी.) इसके बाद पालक देव द्वारा निर्मित पालक विमान में सौधर्मेन्द्र इत्यादि सम्पूर्ण देव परिवार विराजमान होता है तथा नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं। उस लक्षयोजन जितने विस्तृत विमान को संकुचित कर भरत, ऐरावत या महाविदेह क्षेत्र में जिनेश्वर देव के जन्मगृह में पहुंचते हैं। फिर सौधर्मेन्द्र भगवान के जन्म घर में जाकर तीर्थंकर तथा तीर्थंकर की माता को नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा देता है। प्रभु के सम्मुख 7-8 कदम जाकर जसका शक्रस्तव से स्तवना करता है। उसके बाद भगवान की माता से कहता है- हे रत्नकुक्षिधारिणी! हे रत्नगर्भे ! हे रत्नदीपिके ! आपने त्रिभुवन धर्ममार्गप्रकाशक, शुभ लक्षणयुक्त जिनेश्वर को जन्म देकर हम पर उपकार किया है। मैं प्रथम देवलोक का इन्द्र हूँ, उनका जन्म महोत्सव करने आया हूँ। तुम बिल्कुल मत डरना।" इतना कहकर 'नमोस्तु रत्नकुक्षिधारिके तुभ्यम्', बोलकर माता को अवस्वापिनी निद्रा में डालकर, भगवान के समान प्रतिबिम्ब बनाकर माता के पास रख देता है। तब इन्द्र ने पाँच रूप बनाये। एक रूप से दो हाथों से कर-संपुट में तीर्थंकर को रखा। एक रूप से भगवान पर छत्र किया। अन्य दो रूपों से दोनों ओर चामर (चँवर) ढुलाए तथा एक रूप से वज्र उछालते हुए प्रभु के आगे चलने लगा। चौबीस तीर्थंकरों के जन्म के समय इन्द्र ने ऐसे वैक्रिय रूप धारण किए एवं आगामी चौबीसियों में भी ऐसा ही करेगा। भगवान को हाथों में लेकर इन्द्र परिवार सहित आकाश मार्ग से मेरु पर्वत पहुँचता है। मेरु पर्वत के पांडुक वन में चारों दिशाओं में चार बड़ी-बड़ी शिलाएँ हैं1. पूर्व दिशा में पांडुकम्बला शिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पूर्व विदेह के तीर्थंकर का अभिषेक यहाँ पर होता है। 2. पश्चिम दिशा में रक्तकंबला शिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पश्चिम विदेह के तीर्थंकर का अभिषेक यहाँ होता है। 3. उत्तर दिशा में अतिरक्तकंबला शिला है। इस पर एक सिंहासन है। ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकर का अभिषेक यहाँ पर होता है। दक्षिण दिशा में अतिपांडुकंबला शिला है। इस पर एक सिंहासन है। भरत क्षेत्र के तीर्थंकर का अभिषेक यहाँ होता है। धर्माचार्य का जहाँ कहीं पर दर्शन करें, वहीं पर उन्हें वन्दना और नमस्कार करना चाहिए। - राजप्रश्नीय (4/76) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 45 इस प्रकार सौधर्मेन्द्र उचित शिला पर जाता है। जैसे वर्तमान चौबीसी के ऋषभ, अजित, पार्श्व, महावीर इत्यादि का अभिषेक अतिपांडुकंबला शिला पर हुआ। मेरु पर्वत की उचित शिला पर पहुँचने के पश्चात् सब इन्द्र अपने सेवक देवताओं से दर्पण, रत्नकरंडक, थाल, पात्रिका, पुष्पचंगेरी इत्यादि पूजा के उपकरण, चुल्लहिमवन्त, भद्रशाल, वैताढ्य, देवकुरु, उत्तरकुरु, वक्षस्कार आदि के फल, प्रधान गंध, सर्व औषधिप्रमुख वस्तुएँ मंगवाते हैं। किन्तु सर्वमुस्य मागध, वरदाम आदि तीर्थों के पद्म द्रह के जल से, गंगाप्रमुख नदियों के जल से एव क्षीरसमुद्र आदि समुद्रों के जल से कलश भरकर लाने की आज्ञा देते हैं। एक कलश पच्चीस (25) योजन ऊँचा, बारह (12) योजन चौड़ा तथा एक (1) योजन नाल वाला होता है। कलशों की आठ जातियाँ होती हैं____ 1. · सुवर्णमय (सोने का) 2. रौप्यमय (रूपे का) 3. रत्नमय (रत्नों का) प्रत्येक जाति के 8 4. सुवर्णरौप्यमय (सोने रूपे का)| हजार कलश 5. सुवर्णरत्नमय (सोने-रत्न का) | अर्थात् 6. रौप्यरत्नमय (रूपे रत्न का) | कुल 64,000 कलश। 7. सुवर्णरोप्यरत्नमय (सोना, रूपा| व रत्न का) 8. मृत्तिकामय (मिट्टी का) - इस प्रकार एक अभिषेक में 64,000 कलशों का अधिकार होता है। अच्युतेन्द्र के आदेश से अभिषेक शुरू होते हैं। सभी देव-देवियों के मिलाकर कुल 250 अभिषेक होते हैं। ____ अर्थात् 250 अभिषेक x 64,000 कलश = 1,60,00,000 कलश (एक करोड़ साठ लाख कलश) से अभिषेक होता है। वह भिक्षु है, जो जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर नित्य ही श्रमण के कर्तव्य को दृढ़ करने वाले तपश्चरण में तत्पर रहता है। - दशवैकालिक (10/14) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 46 ढाई सौ अभिषेक की गणना इस प्रकार हैभवनपति देवों के इन्द्रों के 20 अभिषेक व्यंतर देवों के इन्द्रों के 16 अभिषेक वाणव्यंतर देवों के इन्द्रों के 16 अभिषेक वैमानिक देवों के इन्द्रों के 10 अभिषेक अढ़ाई द्वीप के सूर्य विमान के इन्द्रों के 66 अभिषेक अढ़ाई द्वीप के चन्द्र विमान के इन्द्रों के 66 अभिषेक 7. असुरेन्द्र धरणेन्द्र (भवनपति) की इन्द्राणियों के 6 अभिषेक 8. असुरेन्द्र (भवनपति) भूतानंद की इंद्राणियों के 6 अभिषेक असुरेन्द्र (भवनपति) की इंद्राणियों के 10 अभिषेक सौधर्मेन्द्र की इन्द्राणियों के 8 अभिषेक 11. ईशानेन्द्र की इन्द्राणियों के 8 अभिषेक 12. ज्योतिष की इन्द्राणी के 4 अभिषेक 13. व्यंतर की इन्द्राणी के 4 अभिषेक 14. लोकपाल देवताओं के 4 अभिषेक 15. सामानिक देवों का 1 अभिषेक 16. त्रायस्त्रिंशक (गुरु स्थानिक) देवों का 1 अभिषेक 17. अंगरक्षक देवों का 1 अभिषेक 18. पारिषद (बाह्य आभ्यंतर, मध्यम सभा) देवों का 1 अभिषेक 19. प्रजादेव (प्रकीर्ण) देवताओं का 1.अभिषेक 20. अनीकाधिपति (सेनापति- 7 कटक) देवों का 1 अभिषेक कुल : 250 अभिषेक ऐसे 204 देवता सम्बन्धी एवं 46 इन्द्राणी संबंधी, कुल 250 अभिषेक देव-देवी हर्ष, आनंद एवं उत्साह से करते हैं। सर्वप्रथम बारहवें देवलोक के अच्युतेन्द्र ने अभिषेक प्रारम्भ किया। शिशु रूप तीर्थंकर सौधर्मेन्द्र की गोद में बैठते हैं। उसके बाद अनुक्रम से 10वें-9वें, 8वें इत्यादि देवलोक के इन्द्र अभिषेक करते हैं। अन्त में सूर्य चन्द्र अभिषेक करते हैं। धर्म-वृक्ष का मूल है 'विनय' और उसका परम-अंतिम फल है मोक्ष। सचमुच विनय के द्वारा ही मनुष्य कीर्ति, विद्या, प्रशंसा और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त करता है। - दशवैकालिक (6/2/2) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 47 249 अभिषेक हो जाने के बाद ईशानेन्द्र सौधर्मेन्द्र से कहता है कि क्षण भर के लिए प्रभु जी को मुझे दो। उस समय ईशानेन्द्र की गोद में बैठाकर सौधर्मेन्द्र चार धवल बैलों (चतुर्वृषभ) का रूप बनाकर 8 सींगों से क्षीरसमुद्र के जल की धारा से 250 वाँ अभिषेक करता है। ऋद्धियाँ होते हुए भी सौधर्मेन्द्र स्वयं को तीर्थंकर के आगे पशु तुल्य बताता है। फिर गंधकाषाय्य वस्त्र से भगवान के अंग पौंछ कर फूल चंदन से विलेपन कर, अक्षत, दीप, धूप, जल, नैवेद्य से विविध प्रकारी पूजा की जाती है। यह करके तीर्थंकर के सम्मुख श्रीवत्स, मत्स्य युगल, दर्पण, कुंभ, स्वस्तिक, नन्दावर्त, भद्रासन और संपुट ये अष्टमंगल रौप्य के अक्षत से आलेखित करते हैं। फिर आरती, गीतगान और नृत्य कर के बाजे बजाते हैं। ढोल, मृदंग, संतूर, गोलथम, तुमक, शुषिर इत्यादि वाद्य बजाते हुए जय-जयकार करते हुए 108 काव्यों की रचना कर भावपूजा करते हैं। इसके बाद शिशु को ले जाकर वापिस माता के पास रख देते हैं । प्रतिबिम्ब हटाकर माता को अवस्वापिनी निद्रा से दूर करते हैं। ताकि माता को दिक्कुमारिकाओं तथा इन्द्रों की स्मृति न रहे । तत्पश्चात् 32 करोड़ सुवर्णमुद्राओं की वर्षा कर पाँच इन्द्राणियों को धाय-माताओं के रूप में स्थापित करते हैं। हर्ष के अतिरेक में वे सभी इन्द्र नंदीश्वर द्वीप में जाकर अट्ठाई महोत्सव कर अपने- अपने स्थान पर चले जाते हैं। सौधर्मेन्द्र भक्तिवश प्रभु के अंगूठे में अमृत का संचार करता है। पिता द्वारा राज्य - जन्मोत्सव तीर्थंकर के पिता तीर्थंकर के जन्म की सूचना सुनते ही अत्यंत सुख एवं हर्ष से प्रमु प्रफुल्लित होते हैं । उस समय उनके आसपास जितने भी दास, दासियाँ, सैनिक, राज्य कर्मचारी होते हैं, वे पुत्रजन्म की खुशी में बहुत सारी स्वर्णमुद्राएँ पाते हैं। राजा की आज्ञा से पूरे शहर, नगर में उत्सव की तैयारियाँ की जाती हैं। राजा हर्ष से सर्वप्रथम जो आदेश देता है, उनमें से कुछ प्रमुख आज्ञाएँ इस प्रकार होती है । 1. राज्य के बन्दियों की सजा माफ की जाती है एवं उन्हें कारागार से मुक्त किया जाता है । राज्याधीन सभी नगरों की प्रत्येक गली में से कचरा काँटा इत्यादि निकालकर उन्हें साफस्वच्छ करवाया जाता है। राजमार्ग के सभी रास्तों पर पुष्प सजाकर वे सुगंधित जल से पवित्र व सुगंधित बनाए जाते हैं। 2. 3. विनय जिनशासन का मूलाधार है, विनयसम्पन्न व्यक्ति ही संयमी हो सकता है। जो विनय से हीन है, उसका क्या धर्म और क्या तप? विशेषावश्यक भाष्य (3468) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. 5. 6. 7. 8. 9. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 48 प्रत्येक घर पर रंग-बिरंगी आकर्षक ध्वजा-पताकाएँ लहराई जाती हैं एवं घर पंचरंगी मनोहर पुष्पों से सजाए जाते हैं । दीवारों पर गोशीर्ष-रक्त चंदनादि के छापे करवाए जाते हैं एवं चंदन कलश का स्थापन करने की आज्ञा दी जाती है। जो वस्तुएँ नाप-तौल के हिसाब से खरीदी बेची जाती हैं, उनके नाप-तौल में वृद्धि कर दी जाती है। राज्य में किसी भी वस्तु पर 10 दिनों तक किसी भी प्रकार का कर (टैक्स) नहीं लिया जाएगा, ऐसी उद्घोषणा की जाती है। जिस व्यक्ति को जो भी वस्तु चाहिए, वह दुकानदार से बिना मूल्य ही प्राप्त कर सकता है। दुकानदार उसका मूल्य बाद में राजभण्डार सकता है। राज्यों के सभी कलाकार, मल्लयुद्ध मष्टियुद्ध आदि के विशेषज्ञ नाचने वाले नर्तक, चित्रकार, तालवादक इत्यादि को आज्ञा दी जाती है कि राज्य के कोने-कोने में अपनी कला का प्रदर्शन कर उत्सव का हिस्सा बने। इन्हें भी राजकोष से द्रव्यादिक सामग्री अर्पित की जाती है। जन्मोत्सव के हेतु से समूची प्रजा को भोजन, राजा द्वारा साधर्मिक वात्सल्य के रूप में कराया जाता है। इसी प्रकार राज्य में जन्मोत्सव मनाने के लिए अन्य अनेक कार्य किए करवाए जाते हैं। चूँकि तीर्थंकर का शिशु रूप भी पुण्यात्मा पवित्रात्मा वाला होता है, राजपरिवार को किसी भी प्रकार का सूतक नहीं लगता, ऐसा वृद्धाचार्य कहते हैं। जन्म के प्रथम दिन 'कुलस्थिति' की जाती है। तीसरे दिन बालक को 'चंद्रमा एवं सूर्य के दर्शन' कराए जाते हैं। जन्म के छठे दिन 'धर्मजागरण' कराया जाता है। ग्यारहवें दिन बर्तन, वस्त्रादि बदलकर 'अशुचि-कर्म-निवारण' होता है । एवं बारहवें दिन सम्पूर्ण राजपरिवार को आहारभोज करवाया जाता है एवं स्नान पश्चात् माता देवपूजा करती है। इसी दिन शिशु का नामकरण भी किया जाता है। इस प्रकार दिक्कुमारियाँ 64 इन्द्र एवं प्रभु के पिता अपने-अपने तरीके से तीर्थंकर के जन्म को महोत्सव रूप में मनाते हैं। तेजोमय नक्षत्र के वोग में जन्में तीर्थंकरों का जन्म सचमुच कल्याणक होता है। किसी सामान्य साधारण व्यक्ति के जन्म को कल्याणक नहीं कहा जाता । किन्तु तीर्थंकरों का जन्म त्रिलोक में क्षणभर की अखण्ड शान्ति प्रदान करता है। अतः देवतादि भी इसे उत्सव रूप में मनाते हैं। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 3 49 जिज्ञासा - तीर्थंकर का जन्म किस प्रकार से कल्याण करता है? समाधान - तीर्थंकर के जन्म को कल्याणक कहने के अनेक कारण हैं। उनके जन्म पर नारकी जीव क्षण भर के लिए सुख का अनुभव करते हैं। सूक्ष्म रूप से देखें तो तीर्थंकर के जन्म के प्रभाव से सातों नरकों में अचिन्त्य प्रकाश होता है। इससे आर्तध्यान में जीने वाले नारकी अचानक हैरान हो जाते हैं। एवं उस हैरानी, आश्चर्य होने के कारण अपनी अपार वेदना को भी भूल जाते हैं व सुख का अनुभव करते हैं। शास्त्र यह भी बताते हैं कि तीर्थंकर के जन्म के समय अन्तर्मुहूर्त के लिए जो भी व्यक्ति अपना आयुष्य कर्म बांधता है, वह उच्च गति के ही बांधता है। मनुष्य, मनुष्य व देवगति का। देव, मनुष्य गति का। तिर्यंच, मनुष्य व देवगति का। नारकी तिर्यंच का मनुष्य गति का आयुष्य बाँधते हैं। इस प्रकार से इनका जन्म सर्वजीवों के लिए कल्याणरूप जिज्ञासा - देवलोक तो बारह हैं जिनके कुल 10 इन्द्र कहे गए हैं। किन्तु 250 अभिषेक में सौधर्मेन्द्र व ईशानेन्द्र की ही अग्रमहिषियों के अभिषेक आते हैं, अन्य के क्यों नहीं ? . समाधान - सौधर्मेन्द्र व ईशानेन्द्र की 8-8 अग्रमहिषियाँ हैं, जो कुल 16 अभिषेक करती हैं। अन्य देवलोक (वैमानिक) में इन्द्रों की अग्रमहिषी ही नहीं होती। - जिज्ञासा - तीर्थंकर के जन्म से संबंधित माता-पिता परिवार की क्या विशेषताएँ होती हैं ? __ समाधान - तीर्थंकर का जन्म होने पर भी उनके परिवार में सूतक नहीं लगता। अनेक आचार्यों ने तीर्थंकर के पिता को 'उदयाद्रि' व माता को 'प्राचीदिशा' कहा है क्योंकि अन्य स्थान व दिशाएँ तीर्थंकर रूपी सूर्य को जन्म नहीं दे सकती। आचार्य मानतुंग सूरि ने कहा है स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् । नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं। प्राच्येव दिक् जनयति स्फुरदंशुजालम्॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकरण एवं बाल्यकाल तीर्थंकर परमात्मा के जन्म के बारहवें दिन उनका नामकरण होता है। भरत क्षेत्र की वर्तमान चौबीसी अर्थात् जहाँ हम अभी रह रहे हैं, वहाँ पर उत्पन्न 24 तीर्थंकरों के नामकरण का भी विशेष, किन्तु संक्षिप्त इतिहास प्राप्त होता है, जिसे मूलरूप में नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने सुरक्षित तथा कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र ने पल्लवित किया है। विशेष बात यह है कि प्रायः सभी तीर्थंकरों के नाम पितृ-इच्छा से प्रभावित न होकर मातृ - इच्छा से ही प्रभावित 1. 2. 3. तीर्थंकर ऋषभ माता मरुदेवी ने चौदह स्वप्नों में सर्वप्रथम वृषभ को देखा था। साथ ही, जब परमात्मा का जन्म हुआ, जब उनके दोनों उरुओं (जंघाओं) पर वृषभ का चिह्न था। अतएव प्रभु का नाम 'ऋषभ' (वृषभ) रखा गया। ऊरुसु उसभ-लंछणं उसभं सुमिणमि तेण उसभ जिणो । - क्योंकि ये इस काल के प्रथम साधु- प्रथम राजा, प्रथम तीर्थंकर बने, तो बाद में इनका नाम 'आदिनाथ' भी प्रसिद्ध हुआ । आचार्य हेमचन्द्र ने 'सकलार्हत् स्तोत्र' में भी लिखा हैआदिमं पृथ्वीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥ तीर्थंकर अजित - अक्खेसु जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा । चौसर ( द्यूत क्रीडा ) खेल में प्रभु की माता सदैव पराजित हो जाती थी, लेकिन जब प्रभु गर्भ में आए, उसके बाद से माता सदैव विजित हुई, इसीलिए प्रभु का नाम ' अजित' रखा। तीर्थंकर संभव - अभिसंभूआ सासत्ति संभवो तेण वुच्चई भयवं ॥ तीर्थंकर प्रभु के गर्भ में आने के प्रभाव से राज्य के दुष्काल में भी अत्यधिक धान्य ( शस्य) संभावित हो गया । शिशु की महिमा जानकर प्रभु का नाम 'सम्भव' रखा गया । जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं। दशाश्रुतस्कंध (5/12) - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. . तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 51 तीर्थकर अभिनन्दन - अभिणंदई अभिक्खं सवको अभिणंदनो तेण॥ तीर्थंकर प्रभु के गर्भ में आने के पश्चात् इन्द्रादिक देव (शक्रेन्द्र इत्यादि) माता सिद्धार्था को बारम्बार अभिनन्दन देते थे। अतः उनका नाम ‘अभिनन्दन' रखा गया। तीर्थंकर सुमति - जणणी सव्वत्थ विणिच्छएसु सुमइत्ति तेण सुमइ॥ एक बालक को दो माताएँ अपना बालक कहने लगीं। इसका निर्णय करना बहुत मुश्किल हो गया। प्रभु के गर्भ में आने के बाद प्रभु की माता मंगला ने दोनों माताओं के षण्मासिक कलह का कुशलता से उपशमन किया। गर्भ के प्रभाव से माता ने प्रत्येक व्यवहार में सुमति (श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता) का परिचय दिया, अत: बालक का नाम सुमति रखा। तीर्थंकर पद्मप्रभ - पउमसयणंमि जणणीइ डोहलो तेण पउमाभो॥ गर्भ के प्रभाव से माता को पद्मों की शय्या में शयन करने का मन किया अर्थात् दोहद उत्पन्न हुआ। जन्म पश्चात् प्रभु के देह का वर्ण (रंग) भी पद्मों के समान था। अत उन्हें 'पद्मप्रभ' नाम प्रदान किया। तीर्थंकर सुपार्श्व - गब्भगए जं जणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो॥ पहले माता पृथ्वी के पार्श्व (कंधे/तरफ) विषम असुन्दर थे, किन्तु प्रभु के गर्भस्थ होने से वे पार्श्वभाग सुन्दर हो गए। अतः प्रभु का नाम “सुपार्श्व' रखा। किसी ग्रन्थ में ऐसा भी वैविध्य है कि प्रभु के पिता के कुष्ठरोगमय दोनों स्कंध (पार्श्व) माता का हाथ फेरने मात्र से ठीक हो गए। इसीलिए प्रभु को सुपार्श्व पुकारा। तीर्थंकर चन्द्रप्रभ - जणणी चंदपियणंमि डोहलो तेण चन्दाभो। गर्भ के प्रभाव से प्रभु की माता लक्ष्मणा को चांद पीने का (चंद्रपान करने का) दोहद उत्पन्न हुआ था, जिसे मंत्री ने युक्तिपूर्वक पूर्ण किया। जन्म पश्चात् तीर्थंकर प्रभु की चंद्र जैसी प्रभा (आभा) थी। इन्हीं कारणों से नामकरण के समय उन्हें 'चन्द्रप्रभ' नाम की अभिधा से अभिहित किया गया। तीर्थंकर सुविधि - सव्वविहीसु अ कुसला गब्भगए तेण होइ सुविहि जिणो॥ नौवें तीर्थंकर के गर्भ में आने से उनकी जननी ने सब विधि-विधानों में कुशलता अर्जित की एवं उल्लासपूर्वक विधिवत् धर्माराधना की। अतः शिशु का नाम 'सुविधि' रखा। साथ ही, मचकुंद के पुष्प की तरह प्रभु के दाँतों की पंक्ति होने से प्रभु का दूसरा नाम पुष्पदन्त रखा गया। 'चतुर्विशतिस्तव' (लोगस्स) में “सुविहिं च पुफ्फदंत' कहकर दोनों नामों का परिज्ञान कराया गया है। 10. तीर्थंकर शीतल - पिउणो दाहोवसमो गब्भगए सीयलो तेणं॥ पिता दृढरथ की पित्त-दाहजन्य पीडा औषधि से शांत नहीं हुई पर गर्भवती माता नन्दा के स्पर्शमात्र से पित्तदाह का शमन जो मनुष्य सजीव अथवा निर्जीव किसी भी वस्तु का स्वयं भी परिग्रह करता है और दूसरों को भी उन वस्तुओं पर स्वामित्व स्थापित करने की सलाह देता है, वह कभी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। - सूत्रकृताङ्ग (1/1/1/2) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 52 हो गया। यह गर्भस्थ शिशु का प्रभाव है, ऐसा जानकर नाम 'शीतल' रखा गया। 11. तीर्थंकर श्रेयांस - महरिहसिज्जारुहणंमि डोहलो तेण सिज्जंसो॥ पवित्र पूजा में स्थल पर रही हुई देवाधिष्ठित शय्या पर बैठने से उपसर्ग हुआ करते थे। माता विष्णुदेवी को ऐसी देवता परिगृहीत शय्या पर बैठने का दोहद उत्पन्न हुआ। गर्भ के प्रभाव से उस शय्या पर बैठने से देव कुछ भी अश्रेय (अहित) नहीं कर पाया। श्रेयस् हो जाने के कारण प्रभु का नाम 'श्रेयास' रखा गया। तीर्थंकर वासुपूज्य - पूएइ वासवो जं अभिक्खणं वसणि रयणाणि वसुपुज्जो॥ बारहवें तीर्थंकर जब माता जया की कुक्षि में अवतरित हुए, तब वासव (इन्द्र) ने पुनः पुनः जननी की पूजा की एवं वासव (वैश्रमण) ने वसु रत्नों की वृष्टि की, अत: पुत्र का नाम 'वासुपूज्य' रखा। तीर्थकर विमल - विमलतणुबुद्धि जणणी गब्भगए तेण होइ विमलजिणो। प्रभु की उपस्थिति गर्भ में होने के कारण माता श्यामा ने स्त्रीरूप व्यंतरी एवं अन्य स्त्री का झगड़ा सुलझाया। माता श्यामा की बुद्धि और शरीर अत्यंत विमल (निर्मल) हो गए। गर्भस्थ शिशु का ही प्रभाव है, ऐसा जानकर जन्मोपरांत 'विमल' नाम से अभिहित किया गया। 14. तीर्थंकर अनन्त - रयणविचित्तमणंतं दामं सुमिणे तओऽणंतो॥ गर्भस्थ शिशु के प्रभाव से एक दिन माता सुयशा ने स्वप्न में रत्नखचित अनंत रत्नों की माला तथा आकाश में अंत बिना का बहुत बड़ा चक्र घूमता देखा। साथ ही, अनंत गांठ के डोरे से लोगों के ज्वर को मिटाया। सब कुछ बिना अंत का दृष्टिगोचर होने से शिशु का नाम 'अनन्त' रखा गया। 15. तीर्थंकर धर्म - गब्भगए जं जणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्मजिणो। जब पंद्रहवें तीर्थंकर गर्भ में आए, तब माता-पिता श्रावक धर्म में विशेष रूप से उपस्थित हुए एवं धर्मपालन करने लगे। अतः प्रभु का नाम 'धर्मनाथ' रख दिया। 16. तीर्थंकर शान्ति - जाओ असिवोवसमो गब्भगए तेण संति जिणो॥ गर्भवती माता द्वारा जल के छिड़काव से हस्तिनापुर नगरी में फैली ‘मरकी' नामक महामारी का अंत हो गया एवं सर्वत्र शांति हुई। प्रभु की महिमा से ही शांति हुई है, ऐसा जान नाम 'शांतिजिन' रखा। 17. तीर्थंकर कुंथु - थूहं रयणविचित्तं कुंथु सुमिणमि तेण कुंथु जिणो॥ गर्भवती माता श्रीदेवी ने स्वप्न में कु (भूमि) पर स्थित थु (रत्नों का विशाल स्तूप) देखा था। प्रभु के प्रभाव से 'कुंथु' जैसे छोटे छोटे जीवों की भी जयणा प्रवर्ती थी। शत्रु राजा भी कुंथु समान छोटेनिर्बल हो गए थे। इन्हीं कारणों से बालक का नामकरण 'कुंथु' किया गया। लोभ, क्लेश और कषाय परिग्रह-वृक्ष के स्कन्ध हैं। जिसकी चिन्ता रूपी सैकड़ों ही सघन और विपुल शाखाएँ हैं। - प्रश्नव्याकरणसूत्र (1/5) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8853 तीर्थंकर अर सुमिणे अरं महरिहं पासइ जणणी अरो तम्हा || अठारहवें तीर्थंकर के गर्भ में आने के बाद माता देवी ने स्वप्न में अतिसुंदर अतिविशाल रत्नमय अर (चक्र) देखा । इसलिए प्रभु का नाम रखा अर । तीर्थंकर मल्लि - वरसुरहिमल्लसयणमि डोहलो तेण होइ मल्लिजिणो ॥ एक बार माता प्रभाव को रात्रि में 6 ही ऋतुओं के सदा सुरभित पुष्पों की माला की शय्या पर सोने का दोहद उत्पन्न हुआ था, जो देवताओं ने पूर्ण किया। इस कारण अपनी पुत्री तीर्थंकर का नाम 'मल्लि' रखा । तीर्थंकर मुनिसुव्रत - जाया जणणी जं सुव्वयत्ति मुणिसुव्वओ तम्हा ॥ प्रभु के गर्भ में आने बाद माता-पिता मुनि की भाँति श्रावक के 12 व्रतों को उत्तम रीति से पालने लगे। गर्भ के प्रभाव से माता-पिता मुनि की तरह सुन्दर व्रतों का पालन करने लगे, इसी कारण शिशु का नाम 'मुनिसुव्रत' रखा। तीर्थंकर नम पणया पच्चतनिव्वा दंसियमित्ते जिणंमि तेण नमी ॥ एकदा शत्रु राजाओं मिथिला नगरी के किले को घेर लिया। उस समय राजा विजय निरुपाय हो गए। ज्यों ही राजाओं ने किले की अट्टालिका पर खड़ी गर्भवती रानी वप्रा को देखा, वे सभी राजा नतमस्तक हो गए। यह प्रभाव गर्भस्थ शिशु का ही है, ऐसा समझकर प्रभु का नाम उन्होंने 'नमि' रखा। - तीर्थंकर अरिष्ट नेमि - रिट्ठरयणं च नेमिं उप्पयमाणं तओ नेमी ॥ गर्भवती माता शिवा ने स्वप्न में अत्यंत विशाल रिष्ट-रत्नमय नेमि (चक्र) को ऊपर उठते हुए देखा था। भगवान के गर्भकाल के समय जो अरि (शत्रु) थे वे सभी नष्ट हो गए, या अरि के लिए भी इष्ट हैं, इन्हीं कारणों का विचार कर बालक का नाम अरिष्टनेमि या 'नेम' रखा। तीर्थंकर पार्श्व सप्प सयणे जणणी तं पासइ तमसि तेण पासजिणो ॥ गर्भकाल के दौरान माता वामादेवी ने अपनी शय्या पर लेटे-लेटे गर्भ के प्रभाव से घोर अंधकार में भी सर्प को देख लियां था। नामकरण के दिन इस घटना का स्मरण करते हुए शिशु का नाम 'पार्श्व' रखा गया। - तीर्थंकर वर्द्धमान वढ्इ नायकुलंति अ तेण वद्धमाणुत्ति ॥ चौबीसवें तीर्थंकर के गर्भ में आने पर सम्पूर्ण राज्य में धन-धान्य, रत्नादि वस्तुओं की वृद्धि हुई । ज्ञातृकुल के वंश की वसुधारा भी वृद्धि को प्राप्त हो रही है, ऐसा जानकर प्रभु का नाम 'वर्द्धमान' रखा। किन्तु मनुष्य परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्च्छा करता है। भक्तपरिज्ञा (132) - Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 54 बाल्यकाल में वर्द्धमान ने वीरता पूर्वक अपनी शक्तियों का उपयोग-प्रदर्शन किया, तब संबंधियों तथा देवतागण द्वारा महावीर ऐसा नाम दिया गया जो आज भी अधिक प्रसिद्ध है। वर्तमान शासन भगवान महावीर स्वामी का है। इनके कई नाम प्रसिद्ध हैं, यथा- श्रमण, विदेह (विदेह कुल की माता होने के कारण), ज्ञातपुत्र (ज्ञातृकुल पितृ वंश में जन्म के कारण), वैशालिक (क्योंकि माता विशाला नगरी की थी), सन्मति, महतिवीर, काश्यप, देवार्य इत्यादि। किन्तु नामकरण के समय 'वर्द्धमान' नाम दिया, जो बाद में महावीर के रूप में परिवर्तित हो गया। अन्य सभी पश्चाद्वर्ती नाम विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने के कारण नाम ही बन गए। __ आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर - महापद्म : अभी अवसर्पिणी काल का पाँचवाँ आरा चल रहा है। पाँचवाँ तथा छठा आरा व्यतीत होने के बाद उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होगा। भरत क्षेत्र में अग्रिम तीर्थंकर उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में उत्पन्न होंगे। प्रथम तीर्थंकर महावीर स्वामी के भक्त श्रावक श्रेणिक राजा की भव्यात्मा होगी। स्थानांग सूत्र आदि ग्रन्थों में आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री महापद्म (पद्मनाभ) स्वामी का चित्रण-वर्णन इस प्रकार किया है- “यह श्रेणिक राजा मरकर इस रत्नप्रभा नरक में नारकी रूप उत्पन्न होगा और अतितीव्र असह्य वेदना भोगेगा। उस नरक से निकलकर आगामी उत्सर्पिणी में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पुण्ड्जनपद के शतद्वार नगर में सन्मति कुलकर की भार्या-भद्रा की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। नौ मास और साढ़े सात अहोरात्र बीतने पर सुकुमार हाथ पैर, प्रतिपूर्ण पंचेन्द्रिय शरीर और उत्तम लक्षण युक्त रूपवान पुत्र पैदा होगा। जिस रात्रि में यह पुत्र रूप में पैदा होगा, उस रात्रि शतद्वारनगरी के अंदर और बाहर भारान तथा कुंभाग्र पद्म एवं रत्नों की वर्षा होगी। बड़े-बड़े पद्मों की वृष्टि होने पर बारहवें दिन पुत्र को ‘महापद्म' नाम देंगे। आठ वर्ष का होने पर माता-पिता महापद्म का राज्याभिषेक महोत्सव करेंगे। तत्पश्चात् पूर्णभद्र एवं महाभद्र नामक 2 देव महर्धिक प्रभु के राज्य की सेना का संचालन करेंगे। अतः महापद्म का दूसरा नाम 'देवसेन' रखा जाएगा। कुछ समय बाद, उसे श्वेत हस्तिरत्न (विमल हाथी) प्राप्त होगा। जिस पर आरूढ़ होने के कारण उनको 'विमल वाहन' के नाम से भी पुकारा जाएगा। तीस वर्ष गृहस्थावस्था में रहने के बाद, माता-पिता का स्वर्गवास होने पर गुरुजनों की आज्ञा लेकर शरद् ऋतु में स्वयं बोध प्राप्त करेगा व प्रव्रज्या ग्रहण करेगा। बुध्दिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद से दूर रहना चाहिए। ___ - आचाराङ्ग (1/2/4/85) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 55 तदनन्तर अन्य तीर्थंकरों की भांति दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक तथा मोक्षकल्याणक का वर्णन है। तीर्थंकरों के जन्म-अतिशय तीर्थंकर प्रभु जन्म से ही अतिशयवन्त होते हैं। यह उनके पूर्वसंचित कर्मों का ही प्रभाव होता है। यूँ तो जन्म के 4 अतिशय गिनाए गए हैं, किन्तु ये जघन्य संख्या से हैं। यथा1. अवट्ठिए केसमंसुरोमनहे - मस्तक आदि समस्त शरीर के बालों-रोम, नाखून तथा श्मश्रु का अवस्थित मर्यादित रहना। 2. निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी - देह का रोगरहित, व्याधिमुक्त, मलरहित, प्रस्वेद रहित निर्मल होना। पउमुप्पलगंधिए उस्सास निस्सासे - श्वासोच्छ्वास का पद्म (उत्पल) कमल की तरह निर्मल व सुगंधित रहना। 4. पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा - अवधिज्ञानी के अलावा सामान्य लोगों के चर्मचक्षुओं के लिए प्रभु का आहार, नीहार अदृश्य होना। किन्तु इनके अलावा भी अनेक अतिशय होते हैं। जैसे उत्तमोत्तम संहनन, संस्थान, रूपवान, शरीर, अमित बल, अनेक लक्षण इत्यादि। पूर्वाचार्यों का ऐसा भी वचन है कि तीर्थंकर जन्मोपरांत भी माता का स्तनपान नहीं करते। चूंकि जन्म कल्याणक के समय इन्द्र उनके अंगूठे पर अमृत के लेप का संचार कर देता है, तीर्थंकर उसी को चूसकर पोषण ग्रहण करते हैं। हालांकि क्षीरधात्री (तीर्थंकर को दूध पिलाने के लिए) इन्द्र नियुक्त करता है, किन्तु वह केवल वात्सल्य एवं सेवा के निमित्त से जीताचार होता है। ___ तीर्थंकर जन्म से ही 3 ज्ञान - मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान), श्रुत ज्ञान एवं अवधिज्ञान के धारक होते हैं, जो एक विशेष अतिशय है, किन्तु वे कभी इस अवधि ज्ञान का प्रयोग नहीं करते। क्योंकि वे गृहस्थावस्था में धर्म का प्रतिपादन स्वयं नहीं करते हैं। तीर्थंकरों का बाल्यकाल अपने बाल्यकाल में तीर्थंकर सरलता की प्रतिमूर्ति होते हैं। वे शुक्ल पक्ष की शशिकलाओं की भाँति निर्मल रूप से बढते हैं। प्रभु की सेवा में पाँच धायमाताएँ रहती हैं काणे को काणा, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, तथापि ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इससे इन व्यक्तियों को दुःख पहुँचता है। - दशवैकालिक (7/12) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 56 1. 2. क्षीरधात्री - दूध पिलाने वाली धायमाता। मज्जनधात्री - स्नान कराने वाली धायमाता। 3. मंडनधात्री - वस्त्राभूषित करने वाली धायमाता। अंकधात्री - गोद में लेने वाली धायमाता। 5. क्रीड़ाधात्री - खेल खिलाने वाली धायमाता। तीर्थंकर प्रभु की बचपन से ही उदार एवं अहिंसक मनोवृत्ति होती है। वे निर्लिप्त भाव से अपने कक्ष में रहते हैं। प्रभु कभी पाठशाला या लेखशाला नहीं जाते क्योंकि वे जन्म से ही प्रत्येक कला में कुशल होते हैं। किन्तु महावीर स्वामी को उनके माता-पिता लेखशाला में लेकर गए थे। इंद्र ने यह जाना, तो वृद्ध का रूप बनाकर कुछ क्लिष्ट श्लोकों के अर्थ पूछने आचार्य (गुरु) के पास आए, किन्तु वे अर्थ बताने में अक्षम रहे। बालक वर्द्धमान ने वृद्ध रूपी इन्द्र को श्लोक के संतोषजनक अर्थ बताए। यह सुन माता-पिता गुर्वादि सभी स्तब्ध रह गए एवं जाना कि वर्धमान प्रबुद्ध ज्ञानी है एवं लेखशाला में जाने की उन्हें जरूरत नहीं है। वह अर्थ जैनेंद्र व्याकरण बना। जब अरिष्टनेमि आठ वर्ष के हुए थे, तो उन्हें अवसरवश अपने पराक्रम का प्रदर्शन करना पड़ा था। तीर्थंकर वर्द्धमान को भी बाल्यकाल में वीरता का प्रदर्शन करना पड़ा था, जिससे उनका लोकविख्यात नाम ‘महावीर' पड़ा। इन प्रसंगों की चर्चा हम तीर्थंकरों का अतुल बल नामक अध्याय में करेंगे। शैशव काल में वे अंगूठे के मनोज्ञ पौष्टिक रस को ग्रहण करते हैं। कहा भी है- “आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणुन्नं तु।" जब तीर्थंकर बड़े होते हैं, तब वे आहार करते हैं। भद्रेश्वर सूरि कृत कहावली समइक्कत बालभावा य सेस जिणा अग्गिपक्कमेवाहारं भुजंति। उसभसामी उण पवज्जं अपडिवन्नो देवोवणीय देवकुरु - उत्तरकुरु कप्परुक्खामय फलाहारं खीरोदहिजलं च उप जति॥ इस प्रकार लिखा है। अर्थात् प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, जब बड़े हुए, तब देवों द्वारा प्रदत्त देवकुरु एवं उत्तरकुरु क्षेत्र के कल्पवृक्षों के फलों का आहार तथा क्षीर सागर के जल का ही पान करते थे। अन्य तीर्थंकर शैशव के बाद बड़े होने पर (गृहस्थावस्था) पक्वाहार करते थे। जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर, हिंस्रपशु, राजा और व्यथित नदी की रुकावट, मरी-प्लेग आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सार-सम्हाल तथा रक्षा करना वैयावृत्य है। - मूलाचार (5/218) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 57 जिज्ञासा - तीर्थंकरों के नाम किसी कारण विशेष से रखे जाते हैं तो आगामी उत्सर्विणी के तीर्थंकरों के नाम हमें कैसे पता? समाधान - हमारे पास जो भी आगमिक साक्ष्य हैं, वे केवलज्ञानी, चौदहपूर्व धारी आदि विद्वद्जन की विरासत से आए हैं। अतः उन्होंने जो होना है, उसका निर्देश पूर्व में ही कर दिया क्योंकि किसी-न-किसी परिस्थितिवश, उन तीर्थंकरों का नाम वैसा पड़ना ही है। जैसे- आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर का नाम ‘महापद्म' कैसे पड़ेगा, इसकी चर्चा हम पूर्व में कर आए हैं। अर्थात् कोई न कोई संयोग या निमित्तवश उनका नाम वैसा ही पड़ेगा। ... जिज्ञासा - क्या तीर्थंकरों के छोटे भाई बहन हो सकते हैं? समाधान - बिल्कुल। तीर्थंकर के छोटे भाई बहन हो सकते हैं। तीर्थंकर मल्लि के छोटे भाई का नाम मल्लदिन्न था। तीर्थंकर अरिष्टनेमि के भी 3 छोटे भाई थे- रथनेमि, सत्यनेमि, दृढ़नेमि। अतः तीर्थंकर के छोटे भाई बहन हो सकते हैं, ऐसा कहने में कोई भी शास्त्रीय बाधा नहीं है। जिज्ञासा - क्या गृहस्थावस्था में तीर्थंकर जिनपूजा करते है? समाधान - जिनपूजा की आवश्यकता सम्यक्त्वप्राप्ति व सम्यक्त्व को विशुद्ध व निर्मल रखने के लिए होती है। किन्तु निष्पक्ष विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि तीर्थंकरों को जिनपूजा की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। वे तो स्वयं द्रव्य तीर्थंकर की अवस्था में जी रहे होते हैं। अत: वे सामान्य रूप से जिनपूजा नहीं करते किन्तु शत्रुजय माहात्म्य आदि ग्रंथों में कुछ तीर्थंकरों द्वारा जिनपूजा करने का वर्णन किया गया है। जिज्ञासा - लोग कहते हैं कि जब चण्डकौशिक सर्प ने महावीर स्वामी को छद्मस्थावस्था में डसा तो दूध की धारा बही। क्या यह सही है? समाधान - जब चंडकौशिक नाग ने तीर्थंकर महावीर को डसा, तो रक्त ही निकला, किन्तु तीर्थंकर का रक्त ही श्वेत वर्ण का होता है, इसलिए लोग उसे दूध समझते हैं जबकि वो रक्त (खून) ही होता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर एवं क्षत्रिय कुल तीर्थंकरों का जन्म, लालन-पालन केवल क्षत्रिय कुल में ही होता है, अन्य कुलों में नहीं । ऐसा शाश्वत नियम है। एक तरफ तीर्थकरों ने अपने उपदेशों में जातिवाद का पूर्णत: विरोध किया है, लेकिन फिर भी तीर्थंकर, स्वयं क्षात्रकुल में ही जन्म लेते हैं। ऐसा क्यों ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। इसका हल ढूंढने की कोशिश करते हैं। तीर्थंकर महावीर, सर्वप्रथम, देवलोक से च्यवित होकर ब्राह्मण कुंडनगर के ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए थे। चूंकि सम्यक्त्व प्राप्ति के तृतीय - मरीचि भव में उन्होंने कुल मद किया था, वे तीर्थंकर भव में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। यह एक आश्चर्य (अच्छेरा) माना गया है। तत्पश्चात् 82वें दिन की रात्रि में इन्द्र महाराज की आज्ञा से हरिणैगमेषी देव ने प्रभु का गर्भ हरण कर क्षत्रियकुंडनगर के राजा सिद्धार्थ की भार्या त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में रखा एवं त्रिशला की पुत्री देवानंदा के गर्भ में रख दी। एवं महावीर स्वामी का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ। शास्त्रों में उग्र, भोग, क्षत्रिय, हरिवंश, राजन्य आदि कुल उत्तम माने हैं एवं ब्राह्मणादि तुच्छ माने हैं। किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है- “ तवो विसेसो, न जाइ विसेसो ।” अर्थात् तप विशेष है, जाति विशेष नहीं है। तीर्थंकरों ने भी सर्वतः साधना और सिद्धान्त के अन्तर्गत गुण, कर्म एवं तप की प्रधानता बताई है, जाति या कुल की नहीं। जन्म की अपेक्षा गुणकर्म की प्रधानता मानी गई है। यथा “कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ ।" अर्थात् व्यक्ति ब्राह्मण या क्षत्रिय अपने कर्मानुसार ही होता है। दरअसल ब्राह्मण ब्रह्मचर्य, संतोषप्रधान एवं दीर्घ भिक्षाजीवी होते हैं। जबकि क्षत्रिय ओजस्वीतेजस्वी-रणकौशल-राज्यक्रियाप्रधान होते हैं । अतः उनका व्यक्तित्व चुम्बकीय एवं प्रभावशाली होता है। धर्मतीर्थ के संस्थापन में, धर्मचक्र के संचालन में, धर्मशासन के रक्षण में एवं धर्मसंघ के उत्थापन शरीर का आदि भी है और अन्त भी । प्रश्नव्याकरण सूत्र (1/2) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 59 में आन्तरिक सत्य शीलादि गुणसरिताओं के साथ ओजस्विता एवं प्रभावकता की भी परम आवश्यकता रहती है। जिस प्रकार एक ढीले वक्ता की बात श्रोता दूसरे कान से निकाल देते हैं एवं तेजस्वी, शारीरिकलक्षण सम्पन्न एवं प्रभावशाली वक्ता की बात निश्चय ही सुनते-समझते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय अपने प्रभावी व्यक्तित्व संस्कारों के कारण ही ओजस्वी अतिशयपुरुष बन पाते हैं। सत्य-संतोष आदि ऐसे गुण हैं, जो क्षत्रिय परिवार भी पालता है। ब्राह्मण कुलोत्पन्न व्यक्ति शान्त, सुशील एवं मृदु होता है, तेज प्रधान नहीं। वह अन्यों को वंदन करता है, आज्ञा सुनता है। उसके द्वारा किया गया अहिंसा धर्मप्रचार-प्रसार प्रभावोत्पादक नहीं होता। जबकि क्षत्रिय तेज का धारक वंदनीय होता है, आज्ञा देता है, दूसरों से बात मनवाने की प्रतिभा वाला होता है। जब शस्त्रास्त्र संपन्न व्यक्ति राज्य वैभव सुख-सुविधाओं को साहसपूर्वक त्यागकर, तिलाजंलि देकर अहिंसा की बात करता है, उसका प्रभाव निश्चित रूप से संपूर्ण भव्य जनमानस पर होता है। वैसे भी जैन दर्शन में पूर्वसंचित कर्मों का फल ही व्यक्ति का वर्तमान बनाता है। तीर्थंकर अपने पूर्व कर्मों के कारण ही क्षत्रिय कुल में जन्म लेते हैं, किसी दैवीय शक्ति के कारण नहीं। ज्यादातर, तीर्थंकर नाम कर्म के बंध के साथ ही वह आत्मा 'उच्च गोत्र' कर्म का भी बंध कर ही लेती है एवं अन्य गोत्र के अध्यवसाय से मुक्त हो जाती है। अतः इसी ‘उच्च गोत्र कर्म' के कारण वे क्षत्रिय कुल में जन्मते हैं। अतः यह शाश्वत मर्यादा है कि तीर्थंकरों का जन्म क्षात्रकुल में ही होगा। तीर्थंकर महावीर कुल मद के कारण ब्राह्मण कुल में च्यवित हुए किन्तु ऐसे आश्चर्य में सौधर्मेन्द्र उच्च कुल में संहरण करवा सकता है, ऐसी इन्द्रों की मर्यादा है। इसी को लक्ष्य बना कर कल्पसूत्र की टीका में लिखा है "तीर्थंकर का यदि नीचगोत्रकर्म क्षय न हुआ हो, वेदन न किया हो, निर्जरित न हो, तो वह कर्म उदय में आता है। उसके उदय से श्री अरिहंत परमात्मा भी अन्तप्रान्त तुच्छ, दरिद्रीप्रमुख कुल में आए, आते हैं और आएंगे। कुक्षि में गर्भ के रूप में उत्पन्न हुए हैं और हो सकते हैं। परन्तु योनिमार्ग से जन्मरूप निकलने की बात हो तो निकले भी नहीं, निकलते भी नहीं और निकलेंगे भी नहीं अर्थात् जन्मे भी नहीं और जन्म भी नहीं सकते।" अतएव, तीर्थंकरों का जन्म उच्च कुलों में ही होता है। उच्च कुल में जन्म लेने का अर्थ तपस्या एवं साधना का परिहार नहीं है। क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के बाद भी वे निर्लिप्त भाव ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है, तप और संयम मेरा शरण है तथा भगवान महावीर मेरे शरण हैं। - मूलाचार (2/60) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 0 60 से जीवन व्यतीत करते हैं। वैराग्य पाकर कठोर तपस्या एवं अतिदुष्कर साधना करते हैं एवं द्रव्यतीर्थंकर से भाव-तीर्थंकर बनते हैं। इस प्रकार जातिवाद का समर्थन किए बिना जैनधर्म तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में मानता है, जो युक्तिसंगत एवं तार्किक-तर्कपूर्ण है, एवं जिज्ञासा को शांत करने में सक्षम है। प्रथम तीर्थंकर युगादिदेव श्री ऋषभदेव परमात्मा इस युग के प्रथम राजा थे। उन्होंने मानवजाति को जीने का ढंग सिखाया। उन्होंने पुरुषों की 72 कलाओं का प्रतिपादन किया - 1. लेहं – लेख लिखने की कला। 2. गणियं – गणित। 3. रूवं - रूप सजाने की कला। 4. नटं – नाट्य करने की कला। 5. गीयं – गीत गाने की कला। 6. वाइयं - वाद्य बजाने की कला। 7. सरगयं - स्वर जाने की कला। 8. पुक्खरयं - ढोल आदि वाद्य बजाने की कला। 9. समतालं – ताल देना। 10. जूयं - जूआ खेलने की कला। 11. जणवायं - वार्तालाप की कला। 12. पोक्खच्चं – नगर के संरक्षण की कला। 13. अट्ठावयं - पासा खेलने की कला। 14. दगमट्टियं – पानी और मिट्टी के संमिश्रण से वस्तु बनाने की कला। 15. अन्नविहिं – अन्न उत्पन्न करने की कला। 16. पाणविहिं – पानी उत्पन्न करना और उसे शुद्ध करने की कला। 17. वत्थविहिं - वस्त्र बनाने की कला। 18. सयणविहिं - शय्या निर्माण करने की कला। .. 19. अज्जं - संस्कृत भाषा में कविता निर्माण की कला। 20. पहेलियं – प्रहेलिका निर्माण की कला। 21. मागहियं – छन्द विशेष बनाने की कला। 22. गाहं – प्राकृत भाषा में गाथा निर्माण की कला। 23. सिलोग - श्लोक बनाने की कला। 24. गंध - जुत्तं सुगन्धित पदार्थ बनाने की कला। 25. मधुसित्थं - मधुरादि छह रस बनाने की कला। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 61 26.. आभरणविहिं - अलंकार निर्माण की तथा धारण की कला। 27. तरुणीपडिकम्मं - स्त्री को शिक्षा देने की कला। 28. इत्थीलक्खणं - स्त्री के लक्षण जानने की कला। 29. पुरिसलक्खणं - पुरुष के लक्षण जानने की कला। 30. हयलक्खणं - घोड़े के लक्षण जानने की कला। 31. गयलक्खणं – हस्ती के लक्षण जानने की कला। 32. गोलक्खणं – गाय के लक्षण जानने की कला। 33. कुक्कुडलक्खणं - कुक्कुट के लक्षण जानने की कला। 34. मिढयलक्खणं - मेंढे के लक्षण जानने की कला। 35. चक्कलक्खणं - चक्र लक्षण जानने की कला। 36. छत्तलक्खणं - छत्र लक्षण जानने की कला। 37. दण्डलक्खणं - दण्ड लक्षण जानने की कला। 38. असिलक्खणं - तलवार के लक्षण जानने की कला। 39. मणिलक्खणं - मणि-लक्षण जानने की कला। 40. कागणिलक्खणं - काकिणी-चक्रवर्ती के रत्नविशेष के लक्षण को जानने की कला। 41. चम्मलक्खणं - चर्म-लक्षण जानने की कला। 42. चंदलक्खणं - चन्द्र लक्षण जानने की कला। 43. सूरचरियं - सूर्य आदि की गति जानने की कला। 44. राहुचरियं - राहु आदि की गति जानने की कला। 45. गहचरियं – ग्रहों की गति जानने की कला। 46. सोभागकरं – सौभाग्य का ज्ञान। 47. दोभागकरं – दुर्भाग्य का ज्ञान। 48. विज्जागयं - रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि विद्या सम्बन्धी ज्ञान। 49. मंतगयं – मन्त्र साधना आदि का ज्ञान। 50. रहस्सगयं - गुप्त वस्तु को जानने का ज्ञान। 51. सभासं - प्रत्येक वस्तु के वृत्त का ज्ञान। ' 52. चारं - सैन्य का प्रमाण आदि जानना। 53. पडिचारं - सेना को रणक्षेत्र में उतारने की कला। असत्य-वचन, तिरस्कार्ता वचन, झिड़कते हुए वचन, कटु वचन, अविचार पूर्ण वचन और शान्त हुए कलह को पुन: भड़काने वाले वचन ये छह तरह के वचन कदापि न बोलें। ___ - स्थानांग (6/3) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 62 .. 54. वूहं - व्यूह रचने की कला। 55. पडिवूहं – प्रतिव्यूह रचने की कला (व्यूह के सामने उसे पराजित करने वाले व्यूह की रचना) 56. खंधावारमाणं - सेना के पड़ाव का प्रमाण जानना। 57. नगरमाणं - नगर का प्रमाण जानने की कला। वत्थुमाणं - वस्तु का प्रमाण जानने की कला। 59. खंधावारनिवेसं - सेना का पड़ाव आदि कहाँ डालना इत्यादि का परिज्ञान। 60. वत्थुनिवेसं - प्रत्येक वस्तु के स्थापन कराने की कला। 61. नगरनिवेसं - नगर निर्माण का ज्ञान। 62. ईसत्थं - ईषत् को महत् करने की कला। छरुप्पवायं – तलवार आदि की मूठ आदि बनाने की कला। आससिक्खं - अश्व-शिक्षा। 65. हत्थिसिक्खं - हस्ती-शिक्षा। धणुवेय - धनुर्वेद। हिरण्णपागं, सुवण्णपागं, मणिपागं, धातुपागं - हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक बनाने की कला। 68. बाहुजुद्धं, दंडजुद्धं, मुट्ठिजुद्धं, अट्ठिजुद्धं, जुद्धं, निजुद्धं, जुद्धाइजुद्धं - बाहु युद्ध, दण्ड युद्ध, मुष्टि युद्ध, यष्टि युद्ध, युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध करने की कला। सुत्ताखेडं, नालियाखेडं, वट्टखेडं, धम्मखेडं, चम्मखेडं – सूत बनाने की, नली बनाने की, गेंद खेलने की, वस्तु के स्वभाव जानने की, चमड़ा बनाने आदि की कलाएँ। 70. पत्तच्छेज्ज-कडंगच्छेज्जं – पत्र-छेदन, वृक्षाङ्गविशेष छेदने की कला। 71. सजीवं, निज्जीवं – संजीवन, निर्जीवन। 72. सउणरुयं – पक्षी के शब्द से शुभाशुभ जानने की कला। 66. हे गौतम ! जिस समय इस जीव में वीरता का सञ्चार होता है तो यह जीव जन्म-जन्मान्तर में किये पार्यों को एक मुहूर्त-भर में धो डालता है। - गच्छाचार-प्रकीर्णक (6) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 63 लं २ व . 44. इसी प्रकार उन्होंने स्त्रियों की 64 कलाएँ भी ब्राह्मी एवं सुन्दरी को सिखाईं - 1. नृत्य 33. कामविक्रिया औचित्य 34. वैद्यक क्रिया चित्र 35. कुम्भभ्रम वादित्र 36. सारिश्रम 37. अंजनयोग 38. चूर्णयोग ज्ञान 39. हस्तलाघव विज्ञान 40. वचनपाटव दम्भ 41. भोज्यविधि जलस्तम्भ 42. वाणिज्यिविधि गीतमान 43. मुखमण्डन - 12. तालमान शालिखण्डन 13. मेघवृष्टि कथाकथन 14. फलाकृष्टि 46. पुष्पग्रन्थन 15. आरामरोपण 47. वक्रोक्ति 16. आकारगोपन 48. काव्य शक्ति धर्मविचार - 49. स्फारविधिवेष शकुनसार 50. सर्वभाषाविशेष 19. क्रियाकल्प 51. अभिधानज्ञान 20. संस्कृत जल्प भूषणपरिधान 21. प्रासाद नीति 53. भृत्योपचार 22. धर्मरीति 54. गृहाचार वर्णिकावृद्धि 55. व्याकरण 24. सुवर्णसिद्धि परनिराकरण 25. सुरभितैलकरण 57. रन्धन 26. लीलासंचरण केशबन्धन 27. हयगज परीक्षण 59. वीणानाद 28. पुरुष स्त्रीलक्षण 60. वितण्डावाद 29. हेमरत्न भेद 61. अङ्कविचार 30. अष्टादश लिपि-परिच्छेद 62. लोकव्यवहार 31. तत्कालबुद्धि 63. अन्त्याक्षरिका 32. वस्तुसिद्धि 64. प्रश्नपहेलिका 52. 23. 58. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन ® 64 जिज्ञासा - क्षत्रिय कुल के किन-किन वंशों में तीर्थंकर का जन्म हो सकता है? समाधान - तीर्थंकर परमात्मा अन्त्यकुल में, प्रांतकुल में, अधम कुल में भिक्षुक कुल में जन्म नहीं लेते। उत्तम कुल 12 बताए हैं। 1. उग्रकुल - ऋषभदेव जी ने जिसे आरक्षक के रूप में रखा। 2. भोगकुल - ऋषभदेव जी ने जिसे गुरुस्थान पर रखा। 3. राजन्यकुल - ऋषभदेव जी ने जिसे मित्रस्थान पर रखा। 4. क्षत्रियकुल - ऋषभदेव जी ने जिसे प्रजालोक के रूप में स्थापित किया। 5. इक्ष्वाकु कुल - ऋषभदेव जी का स्वयं का, संसार का प्रथम कुल। 6. हरिवंश कुल - हरिवर्ष क्षेत्र के युगलिक का पारिवारिक कुल . 7. एष्युकुल (गोपाल) 8. वैश्यकुल 9. गंडुककुल (उद्घोषणा करने वाले) 10. कोहागकुल (सुथार) 11. ग्रामरक्षक कुल 12. बोक्कशालीय (सालवी/तंतुवाय) कुल इनमें भी केवल प्रथम 6 कुलों में ही तीर्थंकर का जन्म हो सकता है। जिज्ञासा - तीर्थंकर महावीर का गर्भ परिवर्तित करके त्रिशला की कुक्षि में ही क्यों रखा गया था? समाधान - जैन दर्शन कर्मवादी है। यह देवानंदा व त्रिशला के कर्मों का ही खेल था। पर्व भव में देवानन्दा व त्रिशला देवरानी-जेठानी थे। लोभ के कारण देवानन्दा ने त्रिशला की रत्नों की डिब्बी चुराई थी और असत्य भाषण भी किया। इसी कर्मोदय के कारण इस भव में देवानन्दा का हक नियति के परिणाम से त्रिशला को चला गया एवं 'रत्न' (महावीर रूपी) त्रिशला के पास आ गया। जिज्ञासा - तीर्थंकरों को जब वैराग्य स्वीकारना ही होता है, तो वे विवाह क्यों करते हैं ? समाधान - विवाह भी कर्मों को भोगने के कारण तीर्थंकरों को करना पड़ता है। जिनके भोगावली कर्म शेष रहते हैं, वे विवाह करते हैं, अन्य नहीं। किन्तु वैवाहिक जीवन में भी वे निर्लेप भाव से रहते हैं, अनासक्त भाव से जीते हैं। उनका उनकी पत्नी से भी कोई विशेष राग नहीं होता। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों का बाहा रूप तीर्थंकरों की आत्मा के समान ही उनका देह भी उच्चता से परिपूर्ण होता है। तीर्थंकरों के तीर्थंकर नाम कर्म के साथ-साथ सुरभिगन्ध नामकर्म, निर्माण नाम कर्म, शरीर नाम कर्म इत्यादि सभी सत्कर्म उदय में आ जाते हैं। तीर्थंकरों का शरीर सुगठित बलिष्ठ एवं कांतिमान होता है। उनकी मुखाकृति अत्यंत मनमोहक चित्ताकर्षक व तेजपूर्ण होती है। दीप्तियुक्त अर्धचन्द्र के समान ललाट एवं वृषभ के समान मांसल स्कंध होते हैं। तीर्थंकरों को पद्मकमल के समान विकसित चक्षु एवं मत्स्याकार उदर (पेट) प्राप्त होता है। उनके दोनों हाथ घुटनों तक का स्पर्श करते हैं। ऐसा उनका नयनाभिराम रूप होता है। आवश्यक नियुक्ति में लिखा है कि तीर्थंकरों के बाह्य रूप का वर्णन करने की क्षमता केवल गणधर भगवन्त (केवलज्ञान पश्चात, तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य) में होती है क्योंकि तीर्थंकर जगत् के सर्वसुंदर नीरोग काया के धारक होते हैं। तीर्थंकरों के पास उत्तम संहनन/ संघयण (हड्डियों की रचना विशेष) व संस्थान (आकार विशेष) उत्तमोत्तम होते हैं। शास्त्रों में भी लिखा है- “भगवतो अणुत्तरं संघयण भगवतो अणुत्तरं संठाणं" अर्थात् उन्हें वज्रऋषभनाराच नामक संहनन एवं समचतुरस्र नामक संस्थान प्राप्त होता है। इसी कारण तीर्थंकरों के सभी अंगोपांग सौंदर्य से परिपूर्ण होते हैं। आवश्यक नियुक्तिकार ने उपमालंकार से तीर्थंकर प्रभु के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखा है गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण चक्कि वासु-बला। मंण्डलिया ता हीणा छट्ठाणगया भवे सेसा॥ अर्थात् - 1. जनसाधारण से कई गुणा अधिक राजा का 2. राजा से कई गुणा अधिक मांडलिक राजा का 3. मांडलिक राजा से कई गुणा अधिक बलदेव का कर्तव्य-पथ पर चलने को उद्यत हुए व्यक्ति को फिर प्रमाद नहीं करना चाहिए। - आचाराङ्गा (1/5/2) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 66 12. 4. बलदेव से कई गुणा अधिक वासुदेव का 5. वासुदेव से कई गुणा अधिक चक्रवर्ती का 6. चक्रवर्ती से कई गुणा अधिक व्यंतर देव का 7. व्यंतर देव से कई गुणा अधिक ज्योतिष्क देव का ज्योतिष्क देव से कई गुणा अधिक भवनपति देव का भवनपति देव से कई गुणा अधिक सौधर्मादि 12 कल्प देवों का . 10. कल्प वैमानिक देव से गुणा-गुणा अधिक नवग्रैवेयक का 11. नवग्रैवेयक से कई गुणा अधिक अनुत्तर देवों का अनुत्तर देवों से कई गुणा अधिक आहारकशरीरी का 13. आहारक-शरीरी से कई गुणा अधिक गणधर का 14. एवं गणधर से सहस्रों गुणा अधिक रूप-लावण्य सौंदर्य तीर्थंकरों का होता है। प्रभु का रूप अत्यंत तेजस्वी एवं मनोहर होता है। वे सुस्वरत्व से युक्त होते हैं। उनका देह शृंगारित किन्तु अलंकार रहित होते हुए भी विभूषित होता है। वे परम श्री से शोभान्वित होते हैं। इसके साथ ही उनके शरीर पर लक्षण व व्यंजन होते हैं। तीर्थंकरों के चमकदार, उज्ज्वल, अनारवत् स्नेहनिबिड पूरे 32 दाँत होते हैं अर्थात् वे लक्ष्मीपति होते हैं। उनके अंगूठे के मध्य भाग में यव का आकार होता है, अर्थात् वे परम विद्यावान यशस्वी होते हैं। तीर्थंकरों का देह दृढ होता है, अर्थात् वे सुखी रहते हैं। उनकी भुजाएँ दीर्घ होती हैं, अर्थात् उन्हें ईश्वरत्व होता है। हाथ-पैर में अनेकानेक लक्षण होते हैं, अर्थात् उनका भाग्य उत्तम होता है। उनके व्यंजन होते हैं, अर्थात् वे उदार, शांत गुणी होते हैं। व्यक्ति का जब जन्म होता है, तब उसके अंग में पुण्यरेखाप्रमुख रेखाएँ प्रकट होती है, उसे लक्षण कहते हैं। (पुरुष के लिए) मसा, तिल, लहसुन इत्यादि दाहिनी ओर के शुभ व्यंजन होते हैं। सामान्य भाग्यवान पुरुषों के 32 लक्षण होते हैं 1. छत्र 2. पंखा 3. धनुष 4. रथ 5. वज्र 6. कछुआ 7. अंकुश 8. बावड़ी 9. स्वस्तिक 10. तोरण 11. तालाब __12. सिंह 13.वृक्ष 14. चक्र 15. शंख 16. हाथी 17.समुद्र 18. कलश 19. प्रासाद 20. मत्स्य 21. यव 22. यूप-यज्ञांग 23. स्तम्भ 24. कमंडल आत्म-साधना में अप्रमत्त रहने वाले साधक, न अपनी हिंसा करते हैं, न दूसरों की-वे सर्वथा अनारम्भअहिंसक रहते हैं। - भगवतीसूत्र (1/1) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 2 67 25.पर्वत 26. चामर 27. दर्पण 28. बलद 29.पताका 30. लक्ष्मी 31. माला 32. मयूर ये 32 लक्षण पूर्वकृत पुण्य के योग वाले पुरुष के हाथ पैरों के तलवे में होते हैं। तीर्थंकरों का पुण्य तो उत्कृष्ट पुण्यानुबंधी पुण्य होता है तो ये 32 लक्षण किस गणना में आते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के बाइसवें रथनेमीय अध्ययन में लिखा है ___'तित्थकरा अट्ठसहस्स लक्खणधरो।' अर्थात् तीर्थंकरों के तो एक हजार आठ (1008) शुभ शारीरिक लक्षण होते हैं। 1. श्रीवृक्ष 2. शंख . 3. कमल (सरोज) 4. स्वस्तिक 5. अंकुश 6. तोरण .7. चमर 8. श्वेत छत्र 9. सिंहासन 10. ध्वजा (पताका) 11. मीनयुगल 12. कुंभद्वय 13. कच्छप 14. चक्र 15. समुद्र 16. सरोवर 17. विमान 18. भवन 19. हाथी 21. स्त्री 22. सिंह 23. बाण 24. धनुष 25. मेरु पर्वत 26. इन्द्र 27. देवांगना 28. पुर 29. गौपुर 30. चन्द्रमा 31. सूर्य 32. अश्व (घोड़ा) 33. तालवृत (पंखा) 34. बाँसुरी 35. वीणा 36. मृदंग 37. मालाएँ 38. रेशमी वस्त्र 39. दुकान 40. शेखर पट्टशीर्षाभूषण 41. कंटिकावली हार 42. पदक 43. ग्रैवेयक ___44. प्रालम्ब (आभूषण) 45. केयूर (आभूषण) 46. अंगद (आभूषण) 47. कटिसूत्र (आभूषण) 48. मुद्रिकाएँ (आभूषण) 49. कुंडल (आभूषण) 50. कर्णपुर (आभूषण) 51. दो कंकण (आभूषण) 52. मंजीर (आभूषण) 53. कटक (आभूषण) 54. पट्टिका (आभूषण) 55. ब्रह्मसूत्र (आभूषण) 56. फलभरित 57. पके वृक्षों का खेत 58. रत्नद्वीप 59. वज्र 60. पृथ्वी 20. मनुष्य धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है। - बृहत्कल्पभाष्य (3386) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. लक्ष्मी 64. वृषभ 67. मत्तांग कल्पवृक्ष 70. ज्योतिरंग कल्पवृक्ष 73. चित्ररसांग कल्पवृक्ष 76. अनितांग कल्पवृक्ष 79. गरुड 82. राजभवन 85. चंद्र ग्रह 88. गुरु ग्रह 91. केतु 94. स्वर्ण सिंहासन तीर्थंकर : एक अनुशीलन 62. सरस्वती 65. चूड़ा 68. भृतांग कल्पवृक्ष 71. दीपांग कल्पवृक्ष 74. मणितांग कल्पवृक्ष 77. सुवर्ण 80. नक्षत्रों का समूह 83. अंगारक ग्रह 86. मंगल ग्रह 97. दिव्यध्वनि 100. देवदुंदुभि 103. संपुट (वर्धमान ) 106. झारी 89. शुक्र ग्रह 92. सिद्धार्थ वृक्ष 95. छत्रत्रय 98. पुष्पवृष्टि 101. दर्पण 104. श्रीवत्स 107. कलश 68 63. कामधेनु 66. महानिधियाँ 69. तुर्यांग कल्पवृक्ष 72. चित्रांग 75. गृहांग कल्पवृक्ष 78. जंबू वृक्ष 81. तारागण 84. रवि ग्रह 87. बुध ग्रह 90. राहु 93. अशोक वृक्ष 96. भामंडल 99. चामर-युगल 102. भद्रासन 105. मीनयुगल 108. नन्दाव उपर्युक्त एक सौ आठ मुख्य लक्षण तथा तिल मसूरिकादि 900 व्यंजन यानी सामान्य लक्षण ये कुल मिलाकर तीर्थंकरों के एक हजार आठ ( 900 + 108 = 1008) शुभ लक्षण कहे गए हैं। तीर्थंकरों के वक्षस्थल पर दक्षिणावर्त से रुँवाटी के आकार का श्रीवत्स होता है। प्रभु के हृदय में परम ज्ञान रहा हुआ है, वो ज्ञान श्रीवत्स के चिह्न द्वारा बाहर आलेखित होता है। इसी प्रकार सभी चिह्न विषयक शुभ मान्यता कही गई है। तीर्थंकर परमात्मा का रूप सर्वोत्कृष्ट होता है। लेकिन यह पुण्यानुबंधी पुण्य ही होता है उनका रूप रागादि बढ़ाने वाला नहीं होता- 'तीर्थंकर - स्वरूपं सर्वेषां वैराग्यजनकं स्यात् न तु रागादिवर्धकं चेति' अर्थात् जहाँ अन्य जीवों का सौन्दर्य रागवर्धक होता है, वहीं तीर्थंकर परमात्मा का रूप राग को पुष्ट नहीं करना बल्कि लोगों के वैराग्यभाव को बढ़ाता है । दुर्विनीत व्यक्ति को सदाचार की शिक्षा नहीं देनी चाहिए। भला, उसे कङ्कण एवं पावल आदि आभूषण क्या दिए जायें, जिसके हाथ-पैर ही कटे हैं। forafter- (6221) - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 869 जिज्ञासा - तीर्थंकर भी इच्छा नहीं करते, लेकिन उन्हें इतना ऐश्वर्य मिल जाता है । क्या निदान करने से तीर्थंकर पद व ये विभूतियाँ मिल जाती हैं ? समाधान सामान्य शब्दों में कहें तो 'निदान' यानी तपस्या के फल को बेचना । इसमें जीव यह याचना करता है कि अगर मेरी तपस्या का कुछ फल है तो अगले भव में मुझे अमुक पद / सामग्री मिले। किन्तु तीर्थंकर परमात्मा का पद निदान से भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। निदान करने वाला पर पर भव में नरक जाता है, किन्तु तीर्थंकर तो मोक्षगामी ही होता है । दशाश्रुतस्कंध आदि शास्त्रों में तो कहा गया है कि ऋद्धि की आसक्ति वश की जाने वाली धर्मप्रार्थना मोह है एवं निदान मोक्षदायी शुभ भाव का बाधक है। अतः ऋद्धि लिए निदान कर सकते हैं किन्तु शास्त्रकारों ने इसका निषेध किया है। - तीर्थंकर के जीव के पास कौन-कौन से निधान होते हैं? शास्त्रों में नवनिधान बताए हैं। यथा जिज्ञासा समाधान 1. ऋद्धि निधान 2. सिद्धि निधान 3. शुद्धि निधान 4. बुद्धि निधान 5. शक्ति निधान 6. मुक्ति निधान 8. पुष्टि निधान 9. लक्ष्मी निधान 7. तुष्टि निधान ये केवल स्थूल रूप से बताए हैं। ऐसे अनन्त निधानों के तीर्थंकर धारक होते हैं । जिज्ञासा - तीर्थंकरों की शारीरिक ऊँचाई तो इतनी लम्बी कही गई है, पर यह सम्भव कैसे ? समाधान जैन सिद्धान्त में तीन प्रकार का अंगुल माना गया है1. प्रमाणांगुल - प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हाथ की अंगुल 2. आत्मांगुल - जिस समय जैसा मनुष्य हो, उसके हाथ की अंगुल 3. उत्सेधांगुल - पाँचवें आरे के लघु मनुष्य के हाथ की अंगुल तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई उत्सेधांगुल की अपेक्षा से गिनी जाती है। इस प्रकार असंख्यात काल पूर्व जो मनुष्य थे फिर उनके शरीर का माप पाँचवें आरे के मनुष्य की अंगुल से किया जाए, तो उनके बड़े शरीर में शंका नहीं रह सकती। जैनों ने जिन मनुष्यों (तीर्थंकरों) के शरीर को बड़ा माना है, वह काल की अपेक्षा से माना है । J Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तीर्थंकरों का अतुल बल रूप, लावण्य में तीर्थंकर जितने कान्तिमान होते हैं, वे उससे कहीं अधिक बलवान होते हैं। शारीरिक बलिष्ठता के साथ-साथ वे अदम्य-अतुल बल के धारक होते हैं, जो किसी भी सामान्य व्यक्ति से कोटि गुणा अधिक होता है। शास्त्रों में लिखा है जं केसवस्स उ बलं, तं दुगुण होइ चक्कवट्टिस्स। ततो बला बलवगा अपरिमियबला जिणवरिन्दा॥ अर्थात् - एक वासुदेव में 20 लाख अष्टापद (एक विशेष पशु) का एवं चक्रवर्ती में 40 लाख अष्टापदों के जितना बल है। किन्तु तीर्थंकर भगवन्त का बल तो अदम्य अपरिमित है। (आवश्यक नियुक्ति) इस ही की व्याख्या करते हुए कल्पसूत्र की टीका में लिखा है - 12 पुरुषों का बल एक साँड में होता है। 10 साँडों का बल एक पाडा में होता है। 10 साँडों का बल एक घोड़े में होता है। 1000 घोड़ों का बल एक हाथी में होता है। 500 हाथियों का बल एक सिंह में होता है। 500 सिंहों का बल एक शार्दूल में होता है। 10,000 शार्दूलों का बल एक अष्टापद में होता है। 10,000 अष्टापदों का बल एक बलदेव में होता है। 2 बलदेवों का बल एक चक्रवर्ती में होता है। 1 करोड़ चक्रवर्तियों का बल एक कल्पवासी देव में होता है। 1 करोड़ कल्पवासी देवों का बल एक इन्द्र में होता है। ऐसे अनन्त इन्द्रों का बल एक तीर्थंकर में होता है। घाव को अधिक खुजलाना ठीक नहीं है, क्योंकि खुजलाने से घाव ज्यादा फैलता है। - सूत्रकृताङ्ग (1/3/3/13) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 71 यह भाषा का अलंकार है एवं किसी कठिन विषय जिसकी व्याख्या करना कठिन है, उसे सरल रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार 'विचार संग्रह' में कहा है 12 सुभटों का बल एक वृषभ में होता है। 10 वृषभों का बल एक अश्व में होता है। 12 अश्वों का बल एक महिष में होता है। 500 महिषों का बल एक गज में होता है। 500 हाथियों का बल एक केसरीसिंह में होता है । 2000 सिंहों का बल एक अष्टापद में होता है । 10 लाख अष्टापदों का बल एक बलदेव में होता है। '2 बलदेवों का बल एक वासुदेव में होता है। 1 करोड़ चक्रवर्तियों का बल एक देवता में होता है। 1 करोड़ देवों का बल एक इन्द्र में होता है। एवं इन्द्र से भी अनन्त गुणा बल केवल तीर्थंकर की कनिष्ठा अंगुलि में होता है। इस प्रकार के उपमा-अलंकार से तीर्थंकरों का अतुल बल दर्शाया गया है। चूँकि तीर्थंकर अपने शारीरिक बल का प्रयोग प्रायः नहीं करते हैं, वासुदेव, चक्रवर्ती इत्यादि स्वयं को सर्वबलशाली समझते हैं, जो होता नहीं है। इस प्रसंग पर तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ जी) का एक दृष्टान्त पढने योग्य है । 'एक दिन युवा अरिष्टनेमि घूमते-घामते वासुदेव श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुँच गए। आयुधशाला के रक्षकों ने शस्त्रों का महत्त्व बताते हुए कहा- इन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई काम में नहीं ले सकता। किसी में इतनी शक्ति तक नहीं है कि इन्हें उठा सके। यह सुनते ही अरिष्टनेमि ने सूर्य के समान चमचमाते हुए सुदर्शनचक्र को अंगुलि पर रखकर कुंभकार के चक्र की तरह फिरा दिया । शाङ्ग धनुष को कमल नाल की तरह मोड़ दिया। कौमुदी गदा सहज रूप से स्कंध पर रख ली एवं पाँचजन्य शंख को इस प्रकार फूँका कि सारी द्वारिका भय से काँप गई। प्रचंड ध्वनि को सुन शत्रु के भय से भयभीत श्रीकृष्ण सीधे आयुधशाला में पहुँचे । अरिष्टनेमि द्वारा शंख बजाने की बात जानकर वे अत्यधिक चकित हुए। उन्होंने तभी अरिष्टनेमि को सहज रूप से बाहुयुद्ध करने का निमन्त्रण दिया । यदि कोई चुपचाप छिपकर विष पी लेता है, जहाँ कोई उसे न देख रहा हो तो क्या वह उससे नहीं मरेगा? सूत्रकृताङ्ग - नियुक्ति (52) - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 72 अरिष्टनेमि ने सोचा- यदि मैं छाती से, भुजा से तथा पैरों से श्रीकृष्ण को दबाऊंगा, तो न जाने उसका क्या हाल होगा । एतदर्थ ऐसा कुछ करूँ कि कृष्ण को कष्ट भी न हो एवं यह मेरे भुजाबल को भी जान पाए । तब उन्होंने परस्पर भुजा को झुकाने का ही युद्ध करने का प्रस्ताव दिया, जो श्रीकृष्ण ने हास्य-विनोद में स्वीकार किया किन्तु अरिष्टनेमि ने दो पल में सहज रूप से श्रीकृष्ण की भुजा झुका दी। परन्तु श्रीकृष्ण नेमिकुमार के भुजा स्तंभ को, जैसे जंगल का हाथी बड़े पहाड़ को नहीं झुका सकता, वैसे ही श्रीकृष्ण किञ्चित् मात्र भी अरिष्टनेमि की भुजा को नहीं झुका सके। तब से श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि को स्वयं से अधिक पराक्रमी, शक्तिसंपन्न मानने लगे।” प्रस्तुत घटनाचित्र तीर्थंकरों के महान् धैर्य, शौर्य एवं प्रबल पराक्रम को उजागर करता है। वासुदेव तो बलशाली होते ही हैं, किन्तु तीर्थंकर सर्व शक्तिमान होते हैं । विशेषावश्यक भाष्य में कहा है सोलस रायसहस्सा, सव्व बलेणं तु संकलनबद्धं । अंछंति वासुदेवं, अगडतडम्मि ठिय संतं ॥ घेतूण संकलं सो, वाम - हत्थेण अंछमाणाणं । भुंजिज्ज विलिंपिज्ज व महुमणं ते न चाएंति ॥ दो सोला बत्तीसा सव्व बलेणं तु संकलनिबद्धं । अछंति चक्कवट्टि अगडतडम्मि ठियं संतं ॥ अर्थात् - कुए के किनारे बैठे हुए वासुदेव का लोहे की शृंखलाओं से बांधकर यदि 16,000 राजा अपनी सेनाओं के साथ सम्पूर्ण शक्ति लगाकर खींचे, तथापि वासुदेव आनन्द पूर्वक बैठे हुए भोजन करते रहें, किंचितमात्र भी उस जगह से न हिले डुले अर्थात् वहाँ से चलायमान नहीं होते। ऐसे वासुदेव व चक्रवर्ती से भी अपरिमित बल तीर्थंकरों में होता है। शैशव काल से ही तीर्थंकरों के पास विश्ववंद्य बल होता है। तीर्थंकर वर्द्धमान के शैशव व बाल्यकाल की कतिपय रोचक घटनाएँ प्राप्त होती हैं। प्रथम घटना प्रभु के जन्म कल्याणक महोत्सव की है। जब सौधर्मेन्द्र प्रभु को गोद में लिये बैठा था एवं अन्य देव-देवियाँ अभिषेक कर रहे थे, तब सौधर्मेन्द्र ने सोचा कि शिशुरूपी प्रभु कितने छोटे हैं ? उनका शरीर कितना नाजुक व लघु है। वे अभिषेकों को किस प्रकार सहन कर रहे होंगे।" शिशु वर्द्धमान ने अवधिज्ञान से शक्रेन्द्र की इस शंका को जाना एवं उत्तर रूप में बैठे-बैठे ही पैर के एक अंगूठे से समस्त मेरु पर्वत को प्रकम्पित कर दिया। विशाल मेरुपर्वत को हिलाने का दुस्साहस स्त्री का आभूषण तो शील और लज्जा है। बाह्य आभूषण उसकी शोभा नहीं बढा सकते हैं। बृहत्कल्पभाष्य (4342) - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 73 किसने किया, यह जानने हेतु इन्द्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। उसने देखा कि यह प्रभु ने सहज रूप से कर दिया। तत्क्षण ही सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर के आगे नतमस्तक हो गया एवं प्रभु का बल जान गया कि शैशव काल में भी तीर्थंकर अतीव बलशाली होते हैं। अर्थात् जन्म के साथ ही वे अतुल बल के धारक होते हैं। द्वितीय घटना उस समय की है जब बालक वर्द्धमान आठ वर्ष के थे। एक बार वे साथियों के साथ गृहोद्यान (प्रमदवन) में आमलकी क्रीड़ा (आमलखेड) कर रहे थे। इसमें जो बालक दौड़कर वृक्ष पर चढकर सबसे पहले नीचे आ जाता था, वह विजयी होता था। प्रभु के साहस की परीक्षा लेने के लिए एक अभिमानी देव भयंकर विषधर सर्प का रूप धारण कर उसी वृक्ष से लिपट गया। फुकारते हुए विषैले नागराज को देखकर अन्य सभी बालक भयभीत हो गए, लेकिन वर्द्धमान अनवरत आगे बढ़ते रहे। सभी मित्रों ने उन्हें बहुत रोका लेकिन बालक वर्द्धमान ने बिना डरे और बिना झिझके उस सर्प को मारे बिना पकड़कर एक ओर रख दिया और विजयी बने। अन्य सभी बालक उनके वीरत्व, पराक्रम और बल को देखकर स्तब्ध रह गए। . बालक पुन: एकत्र हुए और खेल फिर प्रारम्भ हुआ। इस बार वे 'तिंदुषक' क्रीड़ा खेलने लगे। जिसमें किसी एक वृक्ष को अनुलक्ष कर सभी बालक दौड़ते थे, जो सर्वप्रथम वृक्ष को छू लेता था, वह विजयी होता था और जो पराजित होता, उसकी पीठ पर विजयी बालक आरूढ होता। वही देव इस बार किशोर का रूप धारण कर क्रीड़ा दल में सम्मिलित हो गया। वर्द्धमान से खेल में हार जाने पर नियमानुसार उसे वर्द्धमान को पीठ पर बैठाकर दौड़ना पड़ा। वह किशोर रूप देवता दौड़ता-दौड़ता बहुत आगे निकल गया। उसने विकराल-भयंकर सा पिशाच रूप बनाकर वर्द्धमान को डराना चाहा। लेकिन अमेय बल के धनी तीर्थंकर प्रभु ने उसकी पीठ पर ऐसा मुष्टिप्रहार किया कि उस देवता ने वर्द्धमान के बल शौर्य एवं पराक्रम का लोहा मान लिया। वह देव स्तुति कर अपने स्थान पर चला गया। इसी कारण से बालक वर्द्धमान को महावीर कहा जाने लगा। . कहने का सार यह है कि तीर्थंकर में अदम्य बल होता है। बल का अर्थ केवल शारीरिक बल नहीं अपितु मानसिक, चारित्रिक एवं आत्मिक बल भी है। तन बल के साथ-साथ तीर्थंकर भगवंतों के पास अतुल मनोबल होता है। दीक्षा ग्रहण पश्चात् जितने भी उपसर्ग वे सहते हैं, उनका आधार शारीरिक बल नहीं, अपूर्व आत्मबल होता है। बचपन से ही वे सौम्य प्रकृति के होते हैं, सहनशील-सहिष्णु होते हैं, मन को एकाग्र रखते हैं। चूंकि उनका परम लक्ष्य आत्मा का उद्धार है, वे अपनी आत्मा के गुणों को निखारतेनिखारते आत्मा में रमण करते हुए स्वयं के भीतर छिपे आत्मबल को खोजते हैं। यही आत्मबल उनके प्रभुत्व-लघुत्व का सार है। कहा भी गया है-शारीरिक बल से चारित्रिक बल एवं चारित्रिक बल से आत्मबल श्रेष्ठ है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 74 जिज्ञासा - अगर तीर्थंकर को चक्रवर्ती पद भी प्राप्त हो, तो क्या उसे भी अट्ठम तप करना पड़ता है। समाधान - सामान्य चक्रवर्ती छह खंड को साधने के लिए तेरह तेले करता है। किन्तु अगर तीर्थंकर चक्रवर्ती हो तो उसे छह खण्ड साधने ही नहीं पड़ते। वे स्वयमेव उनके स्वामित्व में आ जाते हैं। अतः उन्हें अट्टम करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिज्ञासा - क्या तीर्थंकर गृहस्थावस्था में अवधिज्ञान का प्रयोग करते हैं ? समाधान - सामान्य रूप से तीर्थंकर परमात्मा अपने अवधिज्ञान का उपयोग गृहस्थ अवस्था में नहीं करते हैं, किन्तु परिस्थिति विशेष में आवश्यकता प्रतीत होने पर वे अवधिज्ञान का उपयोग कर लेते हैं। उदाहरणत: श्री पार्श्वनाथ जी एवं श्री महावीर स्वामी जी। 1. वाराणसी नगरी के बाहर कमठ नाम का तापस आया। पंचाग्नि तापने वाले उस तापस की पूजा करने के लिए अनेक लोग जाने लगे। पार्श्वकुमार ने लोगों को जाते हए देखा व कारण पूछा। भगवान भी वहाँ गए। वहाँ अवधिज्ञान से प्रभ ने देखा कि जलती हुई लकड़ी में सर्प भी जल रहा है। पार्श्वकुमार बोले कि मूढ तपस्वी! तू दयारहित वृथा कष्ट क्यों कर रहा है ? तेरी सब मेहनत व्यर्थ है। कमठ क्रोधित हो उठा। बहस करने लगा। प्रभु ने अग्निकुंड में से जलती लकड़ी बाहर निकलवाई और अर्धव्याकुल सर्प को निकाला। नवकार मंत्र का श्रवण कर वह सर्प मरकर व्यंतर निकाय में धरणेन्द्र देव बना। 2. तीर्थंकर महावीर जब माता त्रिशला के गर्भ में थे, तब उन्हें लगा कि मेरे हलन चलन से माता को कष्ट होता है, तो उन्होंने हिलना-डुलना बंद कर दिया। इससे माता द्रवित हुई, शोकाकुल हुई। प्रभु ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और माता के दुख का कारण जाना तो उन्हें पता लगा कि उनका निर्णय ही उनके दुख का कारण बना है, तो उन्होंने हलन चलन प्रारंभ किया। ___ इस प्रकार समयानुसार तीर्थंकर गृहस्थ में रहकर अवधिज्ञान का सीमित उपयोग कर सकते हैं, इसमें बाधा नहीं है। ब्रह्मचर्य-उत्तम तप, नियम, ज्ञान, श्रब्दा, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। - प्रश्नव्याकरण सूत्र (2/4) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा (निष्क्रमण) कल्याणक तीर्थंकर प्रभु का परम उद्देश्य स्व-कल्याणं तथा पर-कल्याण करने का होता है। इसी हेतु से उन्हें सभी सांसारिक बन्धन चक्रव्यूह के समान असार लगते हैं। इसीलिए वे वैराग्य पाकर भागवती दीक्षा ग्रहण कर संसार को त्याग देते हैं। संसार का त्याग अर्थात् बन्धनों का त्याग, राजवैभव, सुख-सम्पदा का त्याग। तीर्थंकरों का प्रमुख सन्देश अहिंसा है। दीक्षा ग्रहण करते ही वे तीनों लोकों के भव्याभव्य सभी जीव-तिर्यंच, मनुष्य, देवता, नारकी, सभी को अभयदान देते हैं। मतलब वे मन-वचन-काया से किसी जीव की उपेक्षा हिंसा नहीं करते। दीक्षा कल्याणक को महा-अभिनिष्क्रमण महोत्सव भी कहते हैं। दीक्षा लेने से पूर्व लोकान्तिक देव उन्हें उद्बोधित करते हैं तथा एक वर्ष तक प्रभु सतत दान देते हैं। लोकान्तिक देवों द्वारा उद्बोधन ब्रह्म देवलोक के अन्त में 9 लोकान्तिक देव रहते हैं। इन देवों की आत्मा बहुत निर्मल एवं पवित्र होती है। जब भी तीर्थंकरों द्वारा दीक्षा लेने का समय होता है, उससे पूर्व ये देव अपना जीताचार समझकर तीर्थंकरों को उद्बोधन देने के लिए आते हैं। ये सभी एकावतारी होते हैं यानी अगले ही भव में मोक्ष जाने वाले। नव लोकान्तिक देवों के विमान एवं उनके नाम इस प्रकार हैं 1. अर्ची विमान में रहा हुआ सारस्वत देव। 2. अर्चिमाली विमान में रहा हुआ आदित्य देव। 3. वैरोचन विमान में रहा हुआ वह्रि देव। 4. प्रभकर विमान में रहा हुआ वरुण देव। 5. चन्द्राभ विमान में रहा हुआ गर्दतोय देव। 6. सूर्याभ विमान में रहा हुआ तुषित देव। जिस प्रकार लाख का यहा अग्नि से तप्त होने पर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्त्रीसहवास से साधु या साधक भी शीघ्र नष्ट हो जाता है। - सूत्रकृतांग (4/1/27) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 876 7. शुक्राभ विमान में रहा हुआ अव्याबाध देव । 8. सुप्रतिष्ठाभ विमान में रहा हुआ अग्नि ( आग्नेय देव | 9. रिष्टाभ विमान में रहा हुआ अरिष्ट देव | हालांकि तीर्थंकर स्वयं-संबुद्ध होते हैं अर्थात् उन्हें किसी के प्रतिबोध की आवश्यकता नहीं पड़ती लेकिन अनादिकाल से ही ऐसा पारम्परिक जीत (लोक) व्यवहार के कारण नवलोकान्तिक देव प्रभु से प्रव्रज्या ग्रहण करने की विनती करते हैं। वे कहते हैं- हे प्रभो ! आप मानव वंश के वृषभ अर्थात् नव बीजारोपण करने वाली परम पवित्रात्मा हैं । कृपया दीक्षा ग्रहण कर तिर्यग्लोक के जीवों को नई दिशा प्रदान करें। धर्म - तीर्थ का प्रवर्तन करें । इत्यादि कहकर, विनती कर वे अपने विमान में वापिस चले जाते हैं। तीर्थंकरों का वर्षीदान दीक्षा के एक वर्ष पूर्व से तीर्थंकर प्रभु एक वर्ष तक निरंतर दान देते हैं जिसे वर्षीदान, वार्षिक दान एवं सांवत्सरिक दान भी कहा जाता है। जो सुवर्ण धरती में गड़ा होता है, वह प्रभु अपने गोत्रियों को दान स्वरूप बाँटते हैं। उसके बाद शहर में उद्घोषणा की जाती है कि जिसे जो भी चाहिए हो, वह भगवान से मांग सकता है। कुमार तीर्थंकर सभी को दान देते हैं। दान की समस्त राशि - द्रव्य की व्यवस्था इन्द्राज्ञा से वैश्रमण देव करता है। औचित्य पालन कर प्रभु परिवार की संपत्ति नहीं देते हैं क्योंकि उस पर तो परिवार का अधिकार होता है और दीक्षा तो केवल तीर्थंकर परमात्मा को ही लेनी होती है । व्यन्तर जाति के नौकर समान तिर्यग्जृंभक (आभियोगिक) देवता गुप्त स्थानों से, जिनके मालिक और गौत्री आदि नष्ट हो चुके हैं, ऐसे धन को एकत्र करके भण्डार में भरते हैं। तीर्थंकर परमात्मा के सर्वोत्कृष्ट पुण्य के कारण वे देवता द्वारा प्रदत्त विपुल द्रव्य भण्डार के स्वामी बनते हैं किन्तु सारी सम्पत्ति वे जनकल्याण हेतु समर्पित कर देते हैं । परमात्मा के अनुरागवश पारिवारिक जन भी उनका सहयोग करते हैं। जैसे महावीर स्वामी जी के वर्षीदान के समय में उनके भाई नन्दीवर्धन ने भी नगर में भोजनशाला, वस्त्रशाला आदि निर्माण कर मानवसेवा की थी । तीर्थंकर परमात्मा द्वारा दिया गया वार्षिक धन बहुत विशेष होता है। सर्वप्रथम देवाधिगण नगरी के बाहर दान का मंडप विशाल रूप से रचते हैं, जिसके मध्य में स्वर्ण सिंहासन स्थापित किया जाता है। सूर्योदय होने पर तीर्थंकर प्रभु वहाँ आकर पूर्व दिशा जैसे बंदर क्षणभर भी शान्त होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी संकल्प-विकल्प से क्षणभर के लिए भी शांत नहीं हो सकता। भक्तपरिज्ञा (84) - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 28 77 की ओर अभिमुख होते हैं एवं सूर्योदय से सायंकालीन भोजन पर्यंत दान देते रहते हैं। प्रभु की सहायता हेतु विविध देव प्रभु की सहायता करते हैं। जैसे 1. ज्योतिष देव सम्पूर्ण भरत क्षेत्र (ऐरावत क्षेत्र/महाविदेह क्षेत्र) में वर्षीदान की उद्घोषणा करते हैं। 2. इन्द्र की आज्ञा से वैश्रमण देव माया से आठ समय में स्वर्ण मुद्राएँ बनाकर तीर्थंकर के घर में भरता है। 3. भवनपति देव दूर देशों के भव्य मनुष्यों को उठा कर लाते हैं। 4. सौधर्मेन्द्र ऐसी दिव्य शक्ति प्रदान करते हैं जिससे तीर्थंकर प्रभु दान देते हुए थके नहीं। 5. ईशानेन्द्र रत्नजड़ित सुवर्ण छड़ी लेकर प्रभु के पास खड़े रहता है और नसीब के अनुसार याचक से याचना करवाता है तथा सामान्य देवों को दान लेने से रोकता है। 6. चमरेन्द्र व बलीन्द्र प्रभु की मुट्ठी में याचक के नसीब अनुसार कम-ज्यादा करते रहते हैं, अर्थात् प्रभु की मुट्ठी में कम हो, तो ज्यादा एवं ज्यादा हो तो कम कर देते 7. वाण व्यंतर देव मनुष्यों को वापिस रख कर आते हैं तथा उनके परिवार को व्यक्ति की पहचान कराते हैं, क्योंकि वह व्यक्ति इतना संपन्न बन जाता है कि परिवार उसे .. पहचानं ही नहीं पाता। एक सुवर्णमुद्रा 30 रत्ती की होती है। बारह सौ (1200) स्वर्ण मोहरों का एक मण होता है। एक दिन में तीर्थंकर प्रभु 900 मन (एक करोड़ आठ लाख सुवर्णमुद्राएँ) दान में देते हैं। चालीस मण से एक गाड़ी भरी जा सकती है अर्थात् एक दिन में दिए वर्षीदान से 225 गाड़े भरे जा सकते हैं। इस हिसाब से एक वर्ष में वे 32 लाख 40 हजार मण (यानी 3 अरब, 88 करोड़, 80 लाख सुवर्ण मोहर) दान में दी जाती हैं। प्रत्येक मोहर पर तीर्थंकर का नाम, माता-पिता का नाम एवं नगरी का नाम लिखा होता है। दान के सुप्रभाव से 12 वर्षों तक 6 खंडों में शान्ति रहती है। भव्य जीवों का दारिद्र्य समाप्त हो जाता है, वे सम्पन्न यश-कीर्ति के स्वामी बन जाते हैं। मंद बुद्धि वाला विद्वान् बन जाता है, दुःखी के सभी दुःखों का अन्त हो जाता है 12 वर्षों तक भंडार भरपूर रहता है एवं रोगी भी 10 सालों तक नीरोग व स्वस्थ रहता है। किन्तु अभव्य जीव चाहकर भी वर्षीदान ग्रहण नहीं कर यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब यहीं छोड़ जाता है। कोई उसे शरण नहीं दे पाता। वह केवल सुखद या दुखद किये कर्मों को साथ लेकर परभव में जाता है। - उत्तराध्ययन (13/24) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 878 पाते, ऐसा ही उनका कल्प होता है। तीर्थंकरों के दान से प्रेरित होकर उनके माता-पिता या अनुक्रम से ज्येष्ठ भ्राता नगर में 3 दानशालाएँ खुलवाते हैं- अन्नपान दान के लिए, वस्त्र दान के लिए, आभूषण दान के लिए । उद्बोधन या दान पहले क्या? प्रश्न यह उपस्थित होता है कि लौकांतिक देवों द्वारा उद्बोधन पहले होता है या सांवत्सरिक दान? आवश्यक निर्युक्ति एवं विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रंथों में तीर्थंकर ऋषभ के चरित्र के वर्णन से पहले संबोधन एवं उसके बाद दान की चर्चा आई है। उन्हीं ग्रन्थों में तीर्थंकर महावीर के वर्णन में सावत्सरिक दान के पश्चात् संबोधन का उल्लेख है। जैन वाङ्मय की यत्र-तत्र बिखरी सामग्री में किसी तीर्थंकर के लिए कुछ पहले लिखा है एवं किसी तीर्थंकर के लिए कुछ और। याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र सूरि जी ने आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति में इसका समाधान करते हुए लिखा है किन सर्वतीर्थकराणामयं नियमो यदुत, संबोधनोत्तरकालभाविनी महादानप्रवृत्तिरिति अधिकृत-ग्रन्थोपन्यासान्यथानुपपत्तेः..... अर्थात् सभी तीर्थंकरों के लिए इस प्रकार का कोई नियम नहीं है कि सम्बोधन के पश्चात् ही दान की प्रवृत्ति हो। यदि इस प्रकार का कोई सर्वव्यापक नियम होता तो आवश्यक - 5-नियुक्तिकारभाष्यकार इस प्रकार वर्णन नहीं करते। अभिनिष्क्रमण महोत्सव साथ तीर्थंकर के दीक्षा के अभिप्राय को जानकर देव - देवियाँ अपनी ऋद्धि और समृद्धि आते हैं। अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा वे एक स्वर्ण सिंहासन की रचना करते हैं एवं तीर्थंकर को पूर्वाभिमुख बैठाते हैं। तत्पश्चात् तीर्थंकर की शतपाक एवं सहस्रपाक तेल की मालिश की जाती है। स्वच्छ जल से अभिषेक किया जाता है। गंधकाषाय वस्त्र से शरीर को पोंछा जाता है। गोशीर्ष चन्दन व बावना चंदन से लेप किया जाता है। अल्पभार वाले बहुमूल्य वस्त्र पहनाए जाते हैं तथा मुकुट मुक्ताहार, कंठसूत्र, केयूर आदि आभूषणों से प्रभु को सुसज्जित किया जाता है। प्रभु का परिवार एक ऊँची मणिकनक रचित पालकी (शिविका) का निर्माण करवाता है । देवतागण भी ऐसी ही एक शिविका रचते हैं जो दिव्यानुभाव से परिवारकृत पालकी में समाहित हो यह आत्मा अनेक बार उच्च गोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में। इसमें किसी प्रकार की विशेषता या हीनता नहीं है। अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त । आचाराङ्ग (1/2/3/1) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन : 79 जाती है। उस पालकी में भगवान पूर्व सम्मुख सिंहासन पर बैठे। भगवान की दाहिनी ओर कुल में वरिष्ठ कुलमहत्तरा साड़ी लेकर बैठती है तथा बायीं ओर धायमाता दीक्षा के उपकरण लेकर बैठती है। ईशानकोण में एक कलशधारी स्त्री पीछे छत्रधारी स्त्री तथा अग्निकोण में पंखा झलती हुई स्त्री खड़ी रहती है। ___शक्रेन्द्र पालकी को दाहिनी ओर की आगे की बाँह से उठाता है। ईशानेन्द्र बायीं ओर की आगे की बाँह से उठाता है। चमरेन्द्र दाहिनी ओर की पिछली बाँह उठाता है तथा बलीन्द्र बायीं ओर की पिछली बाँह उठाता है। अन्य देवों के इन्द्रों की तथा हजार सेवक मनुष्यों की जहाँ नजर गयी, वहाँ से उठायी। इस शिविका को पहले मनुष्य उठाते हैं। फिर सुरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा नागेन्द्र। आचारांग अनुसार शिविका (पालकी) को सबसे पहले मनुष्य हर्षोल्लास से उठाते हैं। सभी में स्पर्धा होती है कि ऐसा पुण्यदायक कार्य मैं करूंगा और तत्पश्चात् पूर्व दिशा से वैमानिक देव, दक्षिण दिशा से असुरकुमार देव, पश्चिम से गरुड़कुमार देव और उत्तर दिशा से नागकुमार देव उठाते हैं। शिविका के आगे क्रम से - स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंदावर्त्त, वर्धमानसंपुट, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण - ये अष्ट मंगल होते हैं। तत्पश्चात् 108 हाथी, 108 घोड़े, 108 प्रधान पुरुष, चार प्रकार की सेना, हजार ध्वजाओं से युक्त महेन्द्र ध्वज (इन्द्र ध्वज) आदि क्रम से चलते हैं। अन्य देव आकाश में देवदुंदुभि बजाते हैं, नृत्य करते हैं। ___फिर विशाल जनमेदिनी से युक्त शोभा यात्रा (जुलूस) निकलती है, एवं पालकी को नगर से वन की ओर ले जाया जाता है। वन के एक वृक्ष के नीचे पालकी रखवाई जाती है। तीर्थंकर पालकी से उतरते ही अपने सर्व वस्त्र, आभूषण आदि आभरण उतारकर कुल महत्तरा को देते हैं। जिन्हें कुलमहत्तरा साड़ी में रखती है। प्रभु अपने मस्तक को चार भाग में बाँटते हैं। एक बार में एक मुट्ठी से एक भाग के बाल निकालते हैं। पाँचवीं मुट्ठी से दाढ़ी के बाल निकालते हैं। इस प्रकार वे पंचमुष्टि लोच करते हैं। शक्रेन्द्र जानुपाद रहकर उन केशों को रत्नमय थाल में ग्रहण करता है एवं बाद में उन केशों को क्षीर समुद्र में विसर्जित कर देता है। सौधर्मेन्द्र ही प्रभु को एक देवदूष्य वस्त्र प्रदान करता है, जिसे जीताचार समझकर तीर्थंकर अपने वामस्कंध पर धारण करते हैं। तत्पश्चात् सिद्धों को नमस्कार करके सामायिक चारित्र स्वीकार करते हैं। हरिभद्रीयावश्यक में कहा है काऊण णमुक्कारं सिद्धाणमभिग्गहं तु से गिण्हे। सव्वं मे अकरणिज्जं पाव ति चरित्तमारूढो। अभिमानी अपने अहंकार में दूसरों को सदैव परछाईवत् तुच्छ मानता है। - सूत्रकृताङ्ग (1/13/18) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन * 80 ‘णमो सिद्धाणं' कहकर सिद्धों को नमस्कार करके अभिग्रह लेते हैं कि सभी पापों का मुझे त्याग है। ‘करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जंजोगं पच्चक्खामि जाव वोसिरामि' का पाठ वे कहते हैं लेकिन चूंकि वे स्वयंसंबुद्ध होते हैं तथा अन्य गुरु का अभाव होता है, वे भन्ते! भदन्ते ! शब्द का प्रयोग नहीं करते। इस प्रकार प्रभु ने गुर्वाभाव में स्वयं भागवती प्रव्रज्या ग्रहण की। अपने समस्त ऐश्वर्य सुख-संबंध को छोड़ तीर्थंकर दीक्षा लेते हैं। इन्द्रादिक देवतागण भी प्रभु को नमस्कार करके नन्दीश्वर द्वीप की ओर अग्रसर होते हैं, जहाँ वे अट्ठाई महोत्सव मनाते हैं। मनःपर्यव ज्ञान की प्राप्ति ज्ञान मुख्यतया 5 प्रकार के होते हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव एवं केवलज्ञान। प्रथम तीन ज्ञान तो तीर्थंकर को गर्भ से ही होते हैं। दीक्षा लेते ही तीर्थंकर प्रभु को चतुर्थ मनः पर्यव ज्ञान की प्राप्ति होती है। मनः पर्यव ज्ञान के लिए 9 बातें जरूरी होती हैं। 1. मनुष्य भव हो 2. गर्भज हो 3. कर्मभूमिज हो 4. संख्यात वर्ष की आयु हो 5. पर्याप्त हो 6. सम्यग्दृष्टि हो 7. संयमी हो 8. अप्रमत्त हो 9. ऋद्धिप्राप्त आर्य हो प्रव्रज्या एवं सामायिक चारित्र ग्रहण करने के साथ ही प्रभु मनः पर्यवज्ञान के धारक बन जाते हैं। जिससे वे ढाई द्वीप और दो समुद्र तक के समनस्क प्राणियों के मनोगत भावों को जानने में सक्षम बनते हैं। लेकिन वे कोशिश करते हैं कि इसका प्रयोग कम-से-कम करें। प्रथम भिक्षा एवं पंच दिव्याश्चर्य तीर्थंकर जब भी दीक्षित होते हैं, तो किसी-न-किसी तप के साथ दीक्षा लेते हैं। यथाएक उपवास, षष्ठभक्त, छट्ठ, अट्ठम इत्यादि। समवायांग में कहा है- तीर्थंकर ऋषभदेव के अतिरिक्त शेष 23 तीर्थंकरों ने दूसरे ही दिन पारणा किया और भिक्षा में घृत व शक्कर मिश्रित अमृत सदृश मधुर खीर (परमान्न) उन सभी को प्राप्त हुई। श्रमण ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल के प्रथम साधु थे। इसीलिए अन्य लोगों को भिक्षा वोहराना नहीं आता था। क्योंकि ऋषभदेव ने पूर्व भव में 400 बैलों के मुँह पर छींकी लगाकर खाने से रोकने की सलाह दी थी, इसीलिए लाभान्तराय के उदय से उन्हें भी 400 दिनों तक कल्प्य आहार नहीं मिला। एक दिन हस्तिनापुर में उनके पौत्र सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण किसी भी दूसरे जीव की हत्या वास्तव में अपनी ही हत्या है और दूसरे जीव की दया अपनी ही दया है। - भक्तपरिज्ञा (93) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 81 ज्ञान उत्पन्न हुआ एवं उसने ज्ञान में आहार वोहराने की सम्यग् विधि देखी। उसी के आधार पर उन्होंने श्री ऋषभदेव को इक्षुरस (गन्नों का प्रासुक रस) वोहराया। अन्य 23 तीर्थंकरों ने दूसरे ही दिन खीर (परमान) से पारणा किया। कल्पसूत्र की टीका में लिखा है कि पात्रधर्म बताने के लिए वे कभी गृहस्थ के कांस्य पात्र में खीर ग्रहण करते थे। जब प्रभु को भिक्षा दी जाती है, तब पाँच दिव्य प्रकट होते हैं। प्रभु के अतिशय के प्रभाव से 5 आश्चर्य होते हैं- .. 1. देव आकाश में दुंदुभिनाद करते हैं। 2. दाता के घर वस्त्र वृष्टि होती है। 3. दाता के शरीर प्रमाण पुष्प (गंधोदक) वृष्टि होती है। . 4. दाता के घर साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं की वसुवर्षा होती है। 5. 'अहोदानं-अहोदानं' की उद्घोषणा होती है। इसके अतिशय से दाता भी जीवन पर्यंत सुखी-सम्पन्न रहता है। तीर्थंकर, तत्पश्चात्, छद्मस्थावस्था में ध्यान-साधना तथा कर्मों की निर्जरा में लीन रहते हैं। जिज्ञासा - दीक्षा के समय तीर्थंकर पूर्व या उत्तर की ओर ही क्यों अभिमुख होते हैं ? समाधान - पूर्व दिशा एवं उत्तर दिशा, इन दोनों की वायु का प्रभाव मन पर बहुत अच्छा पड़ता है। पूर्वदिशा का उगता सूर्य निश्चित रूप से नवीन ऊर्जा का संचार करता है। भरतक्षेत्र की उत्तर दिशा में ही महाविदेह क्षेत्र के विहरमान विराजमान है। इन्हीं अनेक कारणों से वे सदैव इन दिशाओं की ओर ही अभिमुख होते हैं। जिज्ञासा - देवदूष्य वस्त्र क्या होता है एवं तीर्थंकर इसे क्यों लेते हैं ? समाधान - दूष्य बहुत कीमती वस्त्र होता है। प्राचीन समय में इसका मूल्य एक लाख (सयसहस्स) कूता गया था। वह शंख, कुंद, जलधारा व समुद्रफेन के समान श्वेत वर्ण का होता है। इसके भी कोयव, पावारग, दाढ़ीआलि, पूरिका, विरलिका आदि भेद हैं। जो दूष्य देवता तीर्थंकर को देते हैं, उसे देवदूष्य कहते हैं। पूर्व के तीर्थंकर ने इसे ग्रहण किया, इसी हेतु को जीताचार समझकर सभी तीर्थंकर देवदूष्य ग्रहण करते हैं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 82 जिज्ञासा - श्री ऋषभदेव जी ने पंचमुष्टि लोच क्यों नहीं किया? समाधान - श्री ऋषभदेव जी जब सभी देवता-मनुष्य के समक्ष अपना केशलुंचन कर रहे थे, तब उनके द्वारा चार मुष्टि का लोच होने पर सौधर्मेन्द्र ने प्रभु को विनती की कि वे पाँचवीं मुष्टि का लोच न करें। प्रभु के सौंदर्य से अभिभूत होकर शक्रेन्द्र ने ऐसा कहा। इन्द्र की विनती को मान देकर प्रभु ने चतुर्मुष्टिक लोच ही किया। केश होने के कारण वे केशी नाम से भी प्रसिद्ध हुए। कांगड़ा जी आदि तीर्थों पर आज भी ऋषभदेव जी की केश सहित प्रतिमा प्राप्त होती है। जिज्ञासा - तीर्थंकर जब दीक्षा लेते हैं तो पूर्व के तीर्थंकर के शासन में दीक्षा क्यों नहीं लेते ? समाधान - प्रत्येक तीर्थंकर को अपने ढंग से तीर्थ की प्ररूपणा करनी होती है। वे जगद्गुरु होते हैं। उनका कोई गुरु नहीं होता। उनके नाम से शासन चलता है। वे अन्य का शासन नहीं चलाते। अगर वे अन्यों के शासन में दीक्षित हो जाते तो वे नए तीर्थ की प्ररूपणा नहीं कर पाते व तीर्थंकर नहीं कहलाते। तीर्थंकर शासन की रचना करते हैं, मात्र संवहन नहीं करता। जिसको तू मारना चाहता है, वह तू ही है। ___ - आचाराङ्ग (1/5/5/5) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की छद्मस्थ-अवस्था दीक्षा ग्रहण करने से केवलज्ञान प्राप्त करने तक की अवस्था को छद्मस्थ-अवस्था कहा गया है। कहा गया है- “छद्मनि तिष्ठन्तीति छद्मस्था:" अर्थात् जो आवरण में अवस्थित हैं, कर्मों से बँधे हैं, अवीतराग हैं, वे छद्मस्थ कहलाते हैं। ___ ज्यादातर तीर्थंकर सम्पूर्ण छद्मस्थावस्था में मौन ही रहते हैं। क्योंकि यह उनकी साधना का अभिन्न अंग होता है। तीर्थंकर छद्मस्थ अवस्था में धर्म का उपदेश नहीं देते। इस साधना काल में स्वकल्याण एवं स्वयं के घातिकर्म-क्षय का उद्देश्य प्रमुख रहता है। मौन रहकर वे मन को, चित्त को एकाग्र रख कर्मों की निर्जरा करते हैं। इसी हेतु से वे अत्यल्प बोलते हैं। वे केवल चार कारणों से बोलते हैं 1. याचना करने के लिए 2. मार्ग पूछने के लिए 3. आज्ञा लेने के लिए 4. प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अपने चित्त को साधना में लीन रखने के लिए वे सतत काऊसग्ग मुद्रा में रहते हैं। छद्मस्थावस्था में वे कभी सोते नहीं हैं। वे अपने मन को इतना दृढ़ बना लेते हैं कि उन्हें निद्रा आती ही नहीं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को एक हजार वर्षों में केवल एक अहोरात्रि (24 घंटे) नींद आई। मध्य के 22 तीर्थंकरों को नींद बिल्कुल भी नहीं आई। अंतिम तीर्थपति श्री महावीर स्वामी को दो घड़ी (48 मिनट) नींद आई। इसी दो घड़ी की निद्रा में प्रभु ने पश्चिम प्रहर में 10 स्वप्न देखे जिनका फल उत्पल निमित्तज्ञ ने बताया। स्वप्न एवं फल इस प्रकार है सामान्यतया - तीर्थंकर स्वप्न नहीं देखते क्योंकि वे सोते ही नहीं हैं। महावीर स्वामी द्वारा यह स्वप्नदर्शन की घटना अपने में अपूर्व है। रक्त से सना वस्त्र रक्त से धोने से स्वच्छ नहीं होता है, उसके लिए तो शुब्द जल की आवश्यकता है। - ज्ञाताधर्म कथा (1/5) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 84 फल स्वप्न 1. मैं भयंकर ताल पिशाच को मार रहा हूँ। | आप मोहनीय कर्म को नष्ट करेंगे। 2. मेरे सामने श्वेत पक्षी उपस्थित है। आप सर्वदा शुक्लध्यान में रहेंगे। 3. मेरे समक्ष रंग-बिरंगा पुंस्कोकिल गा रहा है। आप विविध ज्ञानमय द्वादशांग श्रुत की प्ररूपणा करेंगे। 4. दो रत्नपुष्पमालाएँ मेरे सम्मुख हैं। | सर्वविरति और देशविरति धर्म की प्ररूपणा आप करेंगे। 5. मेरे सम्मुख एक श्वेत गोकुल है। | चतुर्विध संघ आपकी सेवा करेगा। 6. विकसित पद्मसरोवर मेरे सामने स्थित है। चतुर्विध देवतागण आपकी सेवा में रहेंगे। 7. मैं महासमुद्र को तैर कर पार कर रहा हूँ। | संसार-सागर को पार करेंगे व भवभ्रमण का अंत करेंगे। 8. जाज्वल्यमान सूर्य विश्व को आलोकित कर | केवलज्ञान और केवलदर्शन आपको प्राप्त करेंगें। रहा है। 9. मैं मानुषोत्तर पर्वत को घेर रहा हूँ। यत्र-तत्र-सर्वत्र कीर्ति-कौमुदी चमकेगी। 10.मैं मेरु पर्वत पर चढ रहा हूँ। समवसरण में बैठकर आप धर्म की संस्थापना करेंगे। छद्मस्थावस्था में प्रथम बाईस तीर्थंकरों ने केवल आर्यक्षेत्र में ही विहार किया। तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं तीर्थंकर महावीर ने कर्म काटने हेतु आर्य व अनार्य, दोनों क्षेत्रों में विहार किया। इन दोनों ने ही कठोर उपसर्ग सहन किए। भगवान महावीर स्वामी जी जब चिन्तन मनन में लीन होते थे, उस समय कोई पूछता था कि यहाँ कौन खड़ा है? तो अगर भगवान निश्चल ध्यान में होते थे तो उत्तर नहीं देते थे किन्तु अगर ध्यान में नहीं होते थे तो कहते थे - ‘अहमंसि त्ति भिक्खु' यानी मैं भिक्षु हूँ। यदि वह व्यक्ति उस स्थान को छोड़ने के लिए कहता, क्रोधित होता तो अवसरानुकूल होकर वे स्थान छोड़ देते थे अथवा कटु वचन सहन करते थे। विहार में प्रायः प्रभु एक रात्रि गाँव में और 5 रात्रि शहर में रह लेते थे। परिषह-शमनकर्ता तीर्थंकर साधनाकाल के दौरान तीर्थंकरों को अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। आपत्ति आने पर भी संयम में स्थिर रहने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक एवं मानसिक कष्ट सहने चाहिए, उन्हें परिषह कहते हैं। समवायांग उत्तराध्ययन आदि आगमों में 22 परिषह कहे हैं अपने द्वारा किसी जीव को पीड़ा पहुँचाने पर भी जिसके मन में पछतावा नहीं होता, उसे निर्दय कहा जाता है। - बृहत्कल्पभाष्य (1319) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 85 सं । 1. क्षुधा परिषह - निर्दोष (प्रासुक) आहार न मिलने पर भूख का कष्ट सहना। पिपासा परिषह - प्यास का परिषह। 3. शीत परिषह - ठंड सहने का कष्ट। उष्ण परिषह - गरमी सहन करने का कष्ट। दंशमशक परिषह - डाँस, मच्छर, नँ, चींटी आदि द्वारा दिया गया कष्ट। अचेल (नागण्य) परिषह - आवश्यक वस्त्र न मिलने से होने वाला कष्ट। अरति परिषह - मन में उदासी का परिषह। 8. स्त्री परिषह - स्त्रियों द्वारा होने वाला कष्ट। 9. चर्या परिषह - ग्राम-नगरादि में विहार में होने वाला कष्ट। • 10. निषद्या (नषेधिकी) परिषह - सज्झाय की भूमि में होने वाले उपद्रव। 11. आक्रोश परिषह - धमकाए / फटकारे जाने पर दुर्वचनों से होने वाले कष्ट। 12. शय्या परिषह - रहने के स्थान सम्बन्धी परिषह। 13. · वध परिषह - पीटे जाने पर होने वाले कष्ट। 14. याचना परिषह - भिक्षा माँगने में होने वाला परिषह। 15. अलाभ परिषह - वस्तु के न मिलने पर होने वाला परिषह। 16. रोग परिषह - रोग से होने वाले उपद्रव। 17. तृणस्पर्श परिषह - तिनको के चुभने से होने वाला कष्ट। 18. जल्ल (मल) परिषह - उद्वेग को प्राप्त न होना व स्नान की इच्छा न करना। 19. सत्कार-पुरस्कार परिषह - जनता द्वारा मान-पूजा होने पर हर्षित न होते हुए समभाव रखना गर्व में न पडना व मान पूजा के अभाव में खिन्न न होना। 20. प्रज्ञा परिषह - प्रज्ञा होने पर अभिमान न करना। 21. अज्ञान परिषह - अज्ञान के कारण होने वाला कष्ट। 22. दर्शन परिषह - अन्य दर्शन की ऋद्धि-आडम्बर देखकर भी अपने मत में दृढ़ रहना। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके बुदिमान मनुष्य जिन-भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे। - उत्तराध्ययन (21/22) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 86 तीर्थंकर इन सभी परिषहों को शांत चित्त से सहन करते हैं। उन्हें प्रमुख रूप से 11 परिषह सहने पड़ते हैं। श्री उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय में लिखा है एकादश परिषहाः संभवन्ति जिने वेदनीयाश्रयाः। तद्यथा-क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्या शय्यावरोगतृणमल परिषहाः॥ अर्थात् वेदनीय कर्म के आश्रय से तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानक में रहे हुए भी तीर्थंकर तथा छद्मस्थावस्था में प्रमुख 11 परिषह संभव हैं। यथा क्षुधा परिषह, पिपासा परिषह, शीत परिषह, उष्ण परिषह, दंशमशक परिषह, चर्या परिषह, शय्या परिषह, वध परिषह, रोग परिषह, तृण स्पर्श परिषह तथा मल (जल्ल) परिषह। दीक्षा के समय जो गोशीर्ष चन्दन का लेप प्रभु को किया जाता है उस चन्दन की. सुगंध दीक्षा पश्चात् चार महीने से भी अधिक रहती है। इस दिव्य सुगंध के कारण कई कीट, मच्छर आदि सूक्ष्म प्राणी उनके देह की ओर आकर्षित होते हैं। यह भी दंशमशक परिषह का ही प्रभाव है। किन्तु तीर्थंकर समभाव पूर्वक सभी कष्टों को सहन करते हैं। उपसर्ग-विजेता तीर्थंकर परिषह तो विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार स्वयं ही आ जाते हैं। उपसर्ग वे हैं जो पास में आकर किसी कारणवश पीड़ित करते हैं। उपसरंतीति उवसग्गा। उपसर्ग कारण हैं और परिषय कार्य। उपसर्ग चार प्रकार के होते हैं1. देव सम्बन्धी 2. मनुष्य सम्बन्धी . उपहास से . हास्यवश . प्रद्वेष से प्रद्वेषवश • परीक्षा से . परीक्षावश . विमात्रा से (उपर्युक्त 3 की । • मैथुन सेवन की भावना वश विविध मात्राओं से) (कुशील प्रतिसंवेदना) 3. तिर्यञ्च सम्बन्धी +. आत्मसंवेदनीय . भय के कारण • घट्टन आँखों में धूल पड़ना . द्वेष भावना के कारण • प्रपतन-गिरकर चोट खाना . आहार के कारण • स्तंभन-हाथ-पैर सुन्न होना . स्वस्थान की रक्षा के कारण • श्लेषण-वात पित्त कफ होना जो किये हुए कपटाचरण के प्रति पश्चाताप करके सरल हृदयी बन जाता है, वह धर्म का आराधक है। - स्थानांग (8) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 87 तीर्थंकर जैसी पुण्यात्मा को सामान्यतया उपसर्ग नहीं होते। किन्तु पार्श्वनाथ जी एवं महावीर स्वामी जी को कदाचित् उपसर्ग हुए क्योंकि यह उनके पूर्वसंचित कर्मों का प्रभाव था जो उन्होंने छद्मस्थावस्था में भोगे। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर को हुए उपसर्ग का वर्णन करते हैं। एक बार प्रभु पार्श्व सूर्यास्त होने के समय एक कुएँ के सन्निकट वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर खडे हो गए। वहाँ मेघमाली नामक देव आया। विभंग (अवधि) ज्ञान द्वारा उसने अपने साथ हुए कमठ रूप में श्री पार्श्व द्वारा हुए अपमान को याद किया। अपने पूर्वभव का स्मरण कर क्रोध तथा अहंकार से बेभान बना हुआ वह भगवान को ध्यान से विचलित करने के लिए सिंह, हाथी, सर्प, बिच्छू प्रभृति विविध रूप बनाकर नाना प्रकार के कष्ट देने लगा। घनघोर यातनाएँ, उपद्रव देने लगा। जब प्रभु अपने अडिग ध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुए, तब मेघमाली गंभीर गर्जना करते हुए अपार जलवृष्टि करने लगा। नासाग्र तक पानी आ जाने पर भी भगवान का ध्यान भंग नहीं हुआ। तभी धरणेन्द्र नामक सम्यग्दृष्टि देव वहाँ आया और सप्त फनों का छत्र बनाकर उपसर्ग का निवारण किया। भयभीत होकर मेघमाली देव नतमस्तक हो क्षमा-याचना करने लगा। आचार्य हेमचन्द्र सूरि जी ने प्रभु की इस वीतरागी वीतद्वेषी अवस्था का वर्णन करते हुए लिखा है कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति। प्रभोस्तुल्य: मनोवृत्ति, पार्श्वनाथ श्रियेस्तु वः॥ भक्ति भावना से गद्गद हो धरणेन्द्र ने प्रभु की स्तुति की लेकिन ध्यानमग्न समदर्शी पार्श्व न तो स्तुति करने वाले धरणेन्द्र पर तुष्ट हुए और न ही उपसर्गदाता मेघमाली पर रुष्ट हुए। तीर्थंकर महावीर पर तो छद्मस्थावस्था में सर्वाधिक उपसर्ग हुए। अनार्य देशों में विहार करने के दौरान लोगों ने उन्हें अनेकानेक उपसर्ग दिए। आश्चर्य की बात है कि भगवान महावीर का पहला उपसर्ग भी कमरिग्राम में एक ग्वाले से प्रारंभ हुआ था और अन्तिम उपसर्ग भी ग्वाले द्वारा ही दिया गया। यहाँ पर प्रभु वीर को हुए प्रमुख 3 उपसर्गों का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है। कटपूतना देवी का उपसर्ग भगवान महावीर कमरिग्राम सन्निवेश से विहार कर शालिशीर्ष के रमणीय उद्यान में पधारे। माघ मास की सनसनाती वायु प्रवहमान थी। साधारण मनुष्य घरों में गर्म वस्त्र ओढ़कर भी काँप रहे थे। किन्तु उस ठंडी रात में भी प्रभु वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। उस समय कटपूतना नामक व्यन्तरी देवी वहाँ आई। त्रिपृष्ठ के भव में प्रभु वीर का उससे वैर था। प्रभु को ध्यानावस्था में भयंकर कष्टों के पश्चात् मनुष्य-जन्म मिल गया तो भी तप, क्षमा और अहिंस्रता के संस्कार चित्त में स्थिर करने वाले धर्म-वचों का सुनना महादुर्लभ है। - उत्तराध्ययन (3/8) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 2 88 देखकर उसका पूर्व वैर उबुद्ध हो गया। वह परिव्राजिका का रूप बनाकर जटाओं से भीषण जल बरसाने लगी व प्रभु के कोमल स्कंधों पर खड़ी होकर तेज हवा करने लगी। लेकिन प्रभु विचलित नहीं हुए। उस समय समभावों की उच्च श्रेणी पर आरोहित होते हुए प्रभु को लोकाऽवधि ज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु के धैर्य, समताबल के समक्ष वह पराजित हो गई व चरणों में झुक क्षमायाचना कर के चली गई। संगम देव का उपसर्ग देवेन्द्र के मुख से प्रभु वीर की अडोल साधना की प्रशंसा सुन संगम नामक अभिमानी देव ने प्रभु को विचलित करने का विचार किया। संगम ने एक रात्रि में 20 विकट उपसर्ग श्रमण महावीर को दिए, वे इस प्रकार हैं1. प्रलयकाल की तरह भीषण धूल की वर्षा की, जिससे प्रभु के कान, नाक, नेत्र इत्यादि सुन्न हो गए। 2. वज्रमुखी चींटियाँ उत्पन्न की जिन्होंने श्रमण महावीर के संपूर्ण देह को खोखला करने का निरर्थक . प्रयत्न किया। 3. संगम ने फिर मच्छरों का झुण्ड श्रमण वीर पर छोड़ा जो प्रभु के शरीर का खून (दुग्धवर्णी) चूसते रहे। 4. प्रभु के शरीर से चिपट कर उसे काटे, ऐसी तीक्ष्णमुखी दीमकें उत्पन्न की। 5. जहरीले बिच्छुओं की सेना तैयार कर महावीर पर आक्रमण कराया जो तीक्ष्ण डंक से डसने लगे। 6. भयंकर नाद करते हुए माँस को छिन्न-भिन्न करने वाले नेवले प्रभु वीर पर छोड़े। 7. नुकीले दाँतों वाले विषधर सर्प छोड़े जो वीर प्रभु को काटते रहे। 8. संगम ने फिर चूहे उत्पन्न किए। वे अपने दांतों से श्रमण महावीर को काटने लगे तथा घावों पर मलमूत्र का विसर्जन करने लगे। 9. विशालकाय हाथी द्वारा प्रभु वीर को पुनः पुनः आकाश में उछाला तथा गिरने पर पैरों से रौंद डाला। 10. महाकाय हथिनी का निर्माण किया जो श्रमण महावीर की छाती पर तीखे नुकीले दाँतों से प्रहार करती रही। 11. वीभत्स पिशाच का रूप बनाया जो संपूर्ण शक्ति से आक्रमण करने लगा। जिस प्रकार शरीर में मस्तक का तथा वृक्ष में उसकी जड़ का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसी प्रकार आत्मधर्म की साधना में ध्यान का प्रमुख स्थान है। - इसिभासियाइं (21/13) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88889 12. विकराल व्याघ्र बनकर वज्रसम दाँतों तथा त्रिशूलसम नाखूनों से महावीर के शरीर का विदारण किया। 13. राजा सिद्धार्थ तथा माता त्रिशला का रूप बनाया एवं करुण क्रंदन करते हुए बुलवाया कि हमें वृद्धावस्था में असहाय छोड़ कहाँ जा रहा है। 14. पैरों पर बर्तन रख दोनों पैरों के बीच अग्नि जलाई । 15. शरीर पर पक्षियों के पिंजरे लटका दिए। वे पक्षी अपनी चोंच व पंजों से प्रहार कर क्षतविक्षत करने का प्रयास करते रहे । 16. भयंकर आंधी चलाकर महावीर को उड़ाया व गिराया । 17. महावीर चक्र की तरह घूमे, ऐसी चक्राकार वायु प्रवहमान की । 18. कालचक्र चलाया। महावीर घुटने तक भूमि में धंस गए। 19. फिर. संगम देवविमान में आया तथा स्वर्ग की शोभा से लालायित कर विचलित करने की कोशिश करने लगा । 20. अप्सरा (देवांगना ) को लाकर उपस्थित किया जो अपने हाव-भाव से विनम्र विलास से, भोग प्रार्थना करके उन्हें साधना से विचलित करने का प्रयत्न करने लगी । लेकिन संगम के सभी प्रयत्न निरर्थक रहे । बीस बीस भयंकर उपसर्ग देने पर भी श्रमण महावीर समत्व योग से साधना में लीन रहे । उनका मुख मध्याह्न के सूर्य की तरह चमकता रहा । छह महीने तक महावीर जहाँ भी विहार कर गए, संगम उनके पीछे-पीछे विविध उपसर्ग देने पहुँच गया जिससे प्रभु वीर की भिक्षा में, विहार में, अन्तराय पड़ा। लेकिन प्रभु वीर अविचल रहे । जब उसके सभी प्रयत्न बेकार गए, उसने हार मान ली । उसका मान स्खलित हो गया। अपने द्वारा कृत घोर पापों की क्षमायाचना करके वह लौट ही गया । ग्वाले का उपसर्ग छद्मस्थावस्था के अंतिम वर्षों में प्रभु वीर छम्माणि ग्राम पधारे। संध्या काल में एक ग्वाला वहाँ आया और महावीर को अपनी बैलों की जोड़ी रक्षार्थ सौंपकर किसी कार्य हेतु गया । महावीर के मौन को उसने स्वीकृति समझ लिया। बैल चरते चरते दूर निकल गए। ग्वाला जब वापिस आया, तो बैलों को न पाकर क्रोधित हुआ । श्रमण वीर से उसने बार-बार पूछा, प्रभु मौन रहे । "अच्छा', बोलता भी नहीं है। जैसे कानों में तेल डला हो, जैसे कुछ सुनाई ही न देता हो । रुक, अभी तेरे कान खोल देता हूँ।” यह कहकर ग्वाले ने प्रभु वीर के कानों में तीक्ष्ण शलाकाएँ डाल दीं। इस असह्य वेदना को भी प्रभु सह गए। वे जानते थे कि त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में उन्होंने शय्यापालक बुराई को दूर करने की दृष्टि से यदि आलोचना की जाए तो कोई दोष नहीं है। उत्तराध्ययन- नियुक्ति (279) - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 90 के कानों में जो गर्म शीशा उँडेलवाया था, यह उसी का फल था। वहाँ से विहार कर प्रभु मध्यम पावा पधारे, जहाँ खरक वैद्य एवं सिद्धार्थ श्रेष्ठी ने शलाकाओं को देखा और निकालने का विचार किया। औषधि आदि सामग्री ले वे उद्यान में पहुंचे। वहाँ भगवान् ध्यानस्थ थे। उन्होंने प्रभु के तैलमर्दन किया व संडासी से शलाकाएँ निकाली। कानों से रक्त की धाराएँ प्रवाहित हो गईं। कहा जाता है कि उस अतीव भयंकर वेदना से प्रभु के मुख से एक चीत्कार निकल गई जिससे समस्त उद्यान व देवकुल संभ्रमित हो गया। वैद्य ने शीघ्र ही संरोहिणी औषधि से रक्त को बंद किया। प्रभु को नमन व क्षमायाचना करके वैद्य और श्रेष्ठी स्वस्थान पर चले गए। किन्तु महावीर इस भीषण कष्ट को भी सह गए व साधना में लीन रहे। आवश्यक चूर्णि में लिखा है - "अहवा जहन्नगाण उवरि कडपूयणासीतं मज्झियाण कालचक्कं, उवकोसग्गण उवरिं सल्लुद्धरणं॥” अर्थात् प्रभु वीर को हुए उपसर्गों को जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपसर्गों में विभक्त करें, तो जघन्य उपसर्गों में कटपूतना का उपसर्ग महान् था। मध्यम उपसर्गों में संगम का कालचक्र विशिष्ट था और उत्कृष्ट उपसर्गों में ग्वाले का उपसर्ग उत्कृष्ट था। श्रमण महावीर की तपस्या नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु का मन्तव्य है कि अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा छद्मस्थावस्था में श्रमण महावीर का तप कर्म सर्वाधिक उग्र था। जैसे समुद्रों में स्वयंभूरमण श्रेष्ठ है, रसों में इक्षुरस श्रेष्ठ है, उसी प्रकार तप-उपधान में मुनि वर्धमान जयवन्त हैं। श्रमण महावीर ने छद्मस्थ काल में जो जलरहित (अपानक) तप किये वे संक्षिप्त रूप में इस प्रकार हैंछहमासी तप पाँच दिन न्यून छहमासी चातुर्मासिक . 2 त्रैमासिक सार्धद्विमासिक द्विमासिक सार्धमासिक ___12 मासिक पाक्षिक भद्र प्रतिमा (दो दिन) 1 महाभद्रप्रतिमा __1 सर्वतोभद्रप्रतिमा (दस दिन) 229 छट्ठभक्त ___ 12 अष्टभक्त 349 दिन पारणा 1 दिन दीक्षा का लोभ-संयम रूप निर्लोभता की भावना से भावित अन्तरात्मा अपने हाथ, पैर, आँख और मुँह पर संयमशील बनकर धर्मवीर तथा सत्यता और सरलता से सम्पन्न हो जाता है। - प्रश्नव्याकरण (2/2) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 891 अपने साधक जीवन के 4515 दिन (12 वर्ष और 12 पक्ष) में केवल 349 दिन ही आहार किया और अन्य दिन निर्जल तपश्चरण किया। ? तीर्थंकर अचेल या सचेल सभी तीर्थंकर दीक्षा समय सौधर्मेन्द्र प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र साधना पर्यन्त धारण करते हैं। हालांकि सभी तीर्थंकर सर्वस्व त्याग देते हैं किन्तु वे साधनापर्यन्त छद्मस्थावस्था में केवल एक वस्त्र धारण करते हैं । विशेषावश्यक भाष्य में इसका हेतु बताते हुए लिखा है निरुपमधिइसंघयणा चउनाणाइसयसत्तसंपण्णा । अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जियपरिसहा सव्वे ॥ सवत्थतित्थोवएसणत्थंवि । तहवि गहिएगवत्था अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुए 5 चेलया हुंति ॥ अर्थात् - सभी तीर्थंकरों के सन्निकट चार ज्ञान उत्तम संहनन, अतिशय होते हैं। वे असाधारण वृत्ति के धनी होते हैं एवं परिषह विजय के कारण स्वयं कोई वस्त्र ग्रहण नहीं करते, किन्तु सवस्त्र संघ की स्थापना करने के हेतु से वे इन्द्रप्रदत्त देवदूष्य वस्त्र जीताचार समझकर छद्मस्थावस्था में पहने रखते हैं। सभी तीर्थंकरों के देवदूष्य वस्त्र जीवनपर्यंत उनके साथ रहे सिवाय श्रमण महावीर के । महावीर स्वामी ने अर्धवस्त्र सोम ब्राह्मण को दिया एवं बचा अर्धवस्त्र दीक्षा के एक वर्ष व एक मास के पश्चात् स्कंध से गिर गया। जिज्ञासा - तीर्थंकरों को जब इतने घनघोर उपसर्ग होते हैं, तो उसके पश्चात् उनका शरीर इतनी जल्दी ठीक कैसे हो जाता है ? समाधान साधनाकाल तीर्थंकर अपनी आत्मा में इतने ज्यादा रमे हुए होते हैं कि शरीर पर कौन कैसा उपसर्ग दे रहा है, इसका उन्हें पता ही नहीं चलता । फिर भी उनके शारीरिक अतिशयों के कारण उनका शरीर जल्दी ठीक हो जाता क्योंकि उनके शरीर में विशिष्ट प्रकार की संरोहण शक्ति होती है। - जो कुछ भी प्राप्त न होने पर भी खेद नहीं करता और मिल जाय तो प्रसन्न नहीं होता, वही 'पूज्य' है। दशवैकालिक (9/3/4) - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 92 जिज्ञासा - क्या तीर्थंकर हास्य विनोद से सर्वथा रहित होते हैं? समाधान - तीर्थंकर सर्व जीवों पर मैत्री व आह्लाद भाव रखते हैं, किन्तु हास्यविनोद जो कर्मों के द्वारा व कर्मों से प्रभावित होते हैं, उनसे सर्वथा रहित होते हैं। विनोद 36 प्रकार के बताए हैं1. दर्शन विनोद 2. श्रवण विनोद 3. गीत विनोद 4. नृत्य विगोद 5. लिखित विनोद 6. वक्तृत्व विनोद 7. शास्त्र विनोद 8. शस्त्र विनोद 9. कर विनोद 10. बुद्धि विनोद 11. विद्या विनोद 12. गणित विनोद 13. तुरंगम विनोद 14. गज विनोद ___15. रथ विनोद 16. पभि विनोद 17. आखेट विनोद 18. जल विनोद 19. यंत्र विनोद 20. मंत्र विनोद 21. महोत्सव विनोद 22. फल विनोद 23. पुष्प विनोद 24. चित्र विनोद 25. पतित विनोद 26. यात्रा विनोद ___27. कलत्र विनोद 28. कथा विनोद 29. युद्ध विनोद 30. कला विनोद 31. समस्या विनोद 32. विज्ञान विनोद 33. वार्ता विनोद 34. क्रीड़ा विनोद 35. तत्त्व विनोद 36. कवित्व विनोद इन सभी विनोदों से तीर्थंकर रहित होते हैं। एक असंयमी, जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजाने में, शास्त्र में इन दोनों के हिंसाजन्य कर्मबन्ध में महान् अन्तर बताया है। - बृहत्कल्पभाष्य (3938) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 93 जिज्ञासा - तीर्थंकर परमात्मा जब दीक्षा पश्चात् ध्यान करते हैं, तब उनका ध्येय क्या रहता है ? समाधान - किसी भी साधक के लिए ध्येय अत्यावश्यक है। तीर्थंकरों का मुख्य ध्येय उनकी आत्मा ही है, क्योंकि व स्वयं अपनी आत्मा के वैराग्य मार्ग में प्रविष्ट होकर स्वयं का ही ध्यान करते हैं। इसके अतिरिक्त . ऊर्ध्वलोक के द्रव्यों को साक्षात् करने के लिए ऊर्ध्व-दिशापाती ध्यान . अधोलोक के द्रव्यों को साक्षात् करने के लिए अधो-दिशापाती ध्यान • ति लोक के द्रव्यों को साक्षात् करने के लिए तिर्यदिशापाती ध्यान • संसार, संसार हेतु और संसार परिणाम-कर्म विपाक • मोक्ष, मोक्ष हेतु और मोक्ष सुख, आत्म-परम समाधि _ इत्यादि ध्यान में मग्न रहते हैं। नासिका के अग्रभाग पर (आज्ञाचक्र के समीप) | नेत्रों को स्थिर रखकर वे ध्यान चिन्तन करते हैं। आचारांग चूर्णि में लिखा है कि 'अरिहंत कभी बाह्य पुद्गलों - बिंदुओं पर दृष्टि को स्थिर रखकर अनिमेष नयन से ध्यान भी करते हैं व आन्तरिक भावों द्वारा ध्यान में द्रव्य-गुण-पर्याय के नित्य-अनित्य आदि का चिंतन तथा स्थूल सूक्ष्मादि पदार्थों का ध्यान व आत्मनिरीक्षण करते हैं। __ जिज्ञासा - तपस्या द्वारा किस प्रकार तीर्थंकर कर्मक्षय करते हैं? । समाधान - तीर्थंकर तप करते नहीं, उनसे तप हो जाता है। आत्मभाव की तन्मयता में देहभाव को भूल जाना तप है। मैं अट्ठम करूँ, मासक्षमण करूँ, ऐसे निश्चय से वे तप नहीं करते। कर्मों के अनुसार तप होता है। आचारांग नियुक्तिकार तप अनुष्ठान द्वारा कर्मग्रन्थि भेदन का उपादान जानकर 12 प्रकार की क्रियाओं की प्रधानता दर्शाते हैं यथाअवधूनन (कर्मग्रन्थि भेद का उपादान जानना), धूनन (भिन्न ग्रन्थिवाले का सम्यक्त्व में रहना), नाशन, विनाशन, ध्यापन, क्षपण, शुद्धीकरण, छेदन, भेदन, स्फेटन, दहन व धावान जिनकी गूढ विवेचना शास्त्रों में प्राप्त होती है। तप द्वारा उत्तरोत्तर कर्मों का क्षय होता पादपोपगमन (पादप यानी वृक्ष, उपगमन यानी प्राप्त करना) अर्थात् वृक्ष की तरह स्थिर रहकर अनशन इत्यादि तपश्चर्या से मनोयोग, वचनयोग व काययोग का पूर्णतः निरोध वे करते हैं व कर्मों का क्षय कर आत्मा को हल्की कर शाश्वत सिद्धिगति में जाते हैं। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान कल्याणक केवलज्ञान का अर्थ पूर्ण ज्ञान है। मति आदि ज्ञान की अपेक्षा बिना, त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् हस्तामलकवत् जानना केवलज्ञान है। केवल पडिपुण्णे णेयाउए संसुद्धे। अर्थात् केवलज्ञानी परिपूर्ण ज्ञान का धारक बन जाता है। वही जन-मानुष को उपदेश देने की क्षमता रखता है। केवलज्ञानी ही अरिहंत कहलाता है क्योंकि उसने 8 कर्मों में से चार कर्मशत्रुओं का सर्वनाश किया होता है। यह ज्ञान आने के बाद कभी जाता नहीं। तीर्थंकर परमात्मा छद्मस्थावस्था में रहकर कर्मनिर्जरा के हेतु से तपो साधना करते हैं, जिससे चार कर्म (घनघाति) का वे क्षय करते हैं। 1. मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त आत्म-गुणरूप यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति हो जाती है। सर्वप्रथम इस कर्म का क्षय होता है। 2. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जिससे वे समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव का जानने से सर्वज्ञ हो जाते हैं। 3. दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलदर्शन की प्राप्ति होती है। जिससे उक्त पाँचों . को देखने से सर्वदर्शी हो जाते हैं। 4. अन्तराय कर्म का क्षय होने से अनन्त दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि व वीर्यलब्धि की प्राप्ति होती है, जिससे आत्मा अनन्त शक्तिमान होती है। इन तीन कर्मों का नाश एक साथ होता है। इसी के साथ प्रभु को सर्वज्ञत्व की प्राप्ति होती है। केवलज्ञान के बाद तीर्थंकर परमात्मा को संसार की एक-एक चीज़ का सुस्पष्ट दिग्दर्शन हो जाता है क्योंकि आत्मा के पूर्ण ज्ञान के गुण को जो ढक रहे थे, ऐसे घाती कर्म क्षय हो जाते हैं। स्थानांग सूत्र में केवलज्ञानी के 10 अनुत्तर बताए हैं - जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए। जो तुम अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए- बस, यही जिनशासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है। - बृहत्कल्पभाष्य (4584) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 95 अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन ( क्षायिक समकिती, अनुत्तर चारित्र, अनुत्तर तप, अनुत्तर वीर्य, अनुत्तर क्षमा, अनुत्तर निर्लोभता (सन्तोष), अनुत्तर सरलता, अनुत्तर मार्दव और अनुत्तर लाघव । यहाँ 'अनुत्तर' शब्द का अर्थ है कि केवलज्ञानी भगवन्तों गुण सभी छद्मस्थ जीवों के गुणों से श्रेष्ठ होते हैं । तीर्थंकर छद्मस्थावस्था में किसी को भी उपदेश नहीं देते। केवलज्ञान के पश्चात् ही वे धर्मदेशना देते हैं। ट-महाप्रातिहार्य तीर्थंकर प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त होते ही तीर्थंकर नामकर्म के उदय से आठ प्रातिहार्य देवताओं की भक्ति के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। शक्रेन्द्र प्रभु को शक्रस्तव (णमोत्थुणं) से वंदन करता है एवं तत्पश्चात् देवता उल्लास उमंग से आकर प्रभु की भक्ति स्वरूप अष्ट प्रातिहार्य प्रकट करते हैं । प्रातिहार्य शब्द 'प्रतिहार' शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है - सेवक / द्वारपाल / अंगरक्षक । केवलज्ञान के बाद ये सदा तीर्थंकर प्रभु के सेवक की तरह साथ रहते हैं, इसीलिए इन्हें प्रातिहार्य कहा है - " प्रतिहारा इव प्रातिहारा : सुरपति नियुक्ता देवास्तेषां कर्माणि कृत्यानि प्रातिहार्यणि" । आज तक जितने भी तीर्थंकर हुए है, उन सभी को ही ये 8 महाप्रातिहार्य थे। वे इस प्रकार हैं अष्ट 1. अशोक वृक्ष न शोक इति अशोकः । जो सौख्य- स्वस्ति प्रदान करे वह अशोक है। प्रभु का भी ऐसा ही आचरण होने से देवतागण प्रभु के शरीर से 12 गुणा ऊँचे अशोक वृक्ष की रचना करते हैं। यह समवसरण के बीच में होता है। इसकी विशालता के कारण किसी को भी धूप, बारिश आदि का अनुभव नहीं होता है । 2. सुरपुष्पवृष्टि - अपने हर्ष को प्रकट करने हेतु देवतागण कल्पवृक्ष के बहुविध रंगों के अतिसुंदर पुष्पों की वर्षा करते हैं । वे अधोमुखी वृत वाले ऊपर से विकसित दलों वाले, देवों द्वारा विकर्षित होते हैं। 3. दिव्यध्वनि - वीणा, शुषिर, मृदंग इत्यादि वाजिंत्रों के द्वारा देवता प्रभु की सेवा हेतु उनकी वाणी में स्वर पूरते हैं। इससे प्रभु की वाणी एक योजन तक फैलाई जाती है और उनका स्वर कर्णप्रिय बनता है। जिस प्रकार भयाक्रान्त के लिए शरण की प्राप्ति हितकर है, जीवों के लिए उसी प्रकार, अपितु इससे भी बढकर भगवती अहिंसा हितकर है। प्रश्नव्याकरणसूत्र (2/1) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 896 4. चामर केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर त्रिलोक- त्रिकाल - ज्ञानी हो गए हैं। उनकी सेवा स्वरूप देवतागण चामर बींझते हैं। चामर में रहे हुए बाल बहुत श्वेत एवं तेजस्वी होते हैं । दिगम्बर परम्परा में चामर की संख्या 64 बताई गई है। 5. सिंहासन तीर्थंकर की आत्मा लोक में सर्वश्रेष्ठ है। इसी हेतु से देवता प्रभु को विराजमान करने के हेतु से रत्नजड़ित मणिमय स्वर्ण सिंहासन का निर्माण करते हैं। अशोक वृक्ष के मूल में चार दिशाओं में सिंहासन होता है। पैर भी सुखपूर्वक रख सके, ऐसा पादपीठयुक्त होता है। 6. भामंडल देवतागण भगवान के मस्तक के पीछे तेज का मांडला रचते हैं। वह प्रभु के बुद्धिबल आत्मबल के सूर्यरूप रहता है जो प्रभु के तेज को निखारता है। वह दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है। - 7. देवदुंदुभि - देवता दुन्दुभि नामक वाद्य - वार्जित्र बजाते हैं जिसमें से “हे भव्य जीवो! शिवपुर के सारथी तुल्य इस पथप्रदर्शक प्रभु की सेवा-शुश्रूषा करो" ऐसा स्वर निकलता है। इसे थेरि और महाढक भी कहते हैं । परमात्मा के धर्मचक्रवर्ती होने को यह सूचित करता है। 8. छत्रत्रय - हीरे, मणि से विभूषित त्रण छत्र ( आतपत्र ) की रचना प्रभु के मस्तक के ऊपर देवता करते हैं। ये छत्र तीन लोकों के साम्राज्य को सूचित करते हैं। समवसरण ये सभी प्रातिहार्य होते हैं। जब प्रभु विहार करते हैं तो 5 प्रातिहार्य ही रहते हैं दिव्यध्वनि, चामर, भामंडल, दुंदुभि एवं छत्रत्रय। इसके अलावा भी कई अतिशय केवलज्ञान होते ही तीर्थंकर को उत्पन्न होते हैं। एक विशेष कि वे पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते। देवता नवकमल की रचना करते हैं। दो आगे कमल और शेष सात पीछे। जैसे प्रभु एक कदम बढ़ाते हैं, वैसे ही पीछे वाला कमल स्वयमेव देवर्द्धि से आगे आ जाता है। आवश्यक चूर्णि अनुसार आगे तीन कमल, पीछे तीन कमल एवं एक पर प्रभु का चरण, ये 7 पद्मकमल भी संभव हैं। तीर्थंकर का नाम : यह तीर्थंकर नाम तभी सार्थक होता है, जब वे तीर्थ की रचना करते हैं । केवलज्ञान पश्चात् ही वे समवसरण में देशना देते हैं । समवसरण क्या होता है, कैसा होता है एवं तीर्थ की स्थापना किस प्रकार होती है ? अब जानते हैं सारे जीव जीना चाहते मरने की किसी की भी इच्छा नहीं है। - दशवैकालिक (6/10) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 97 समवसरण का स्वरूप सूत्रकृतांग चूर्णि में लिखा है- समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि।' अर्थात् जहाँ अनेक दर्शन, दृष्टियाँ समवसृत होती हैं, वह समवसरण है। सर्वोत्कृष्ट पुण्य से प्राप्त होने वाले सभी आश्चर्य जहाँ पर एक साथ देखने को मिलते हैं, वह समवसरण है। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - 'सम्यग् एकीभावेन अवसरण - एकत्रगमनं मेलापकः समवसरणम्' अर्थात् जहाँ विविध जीव एकत्र होते हैं, वह समवसरण है। समवसरणस्मव, आवश्यक नियुक्ति में समवसरण विषयक गम्भीर और सूक्ष्म चर्चा की गई है। यहाँ समझने हेतु संक्षेप में उल्लेख किया गया है। स्थानविशेष के तौर पर सामान्य भाषा में कहा जाए तो समवसरण देवों द्वारा रचित दैवीय वैभवों से युक्त वह स्थल है जहाँ पर देवता, मनुष्य, तिर्यञ्च एक साथ बैठकर परमात्मा की देशना सुन सकते हैं। चार निकाय के देवता मिलकर गोलाकार या चतुष्कोणाकार (चौरस) समवसरण बनाते हैं। इन्द्र महाराज की आज्ञा से वायुकुमार देवता संवर्तक वायु उत्पन्न करके (जहाँ समवसरण बनना होता है, उस भूमि पर) एक योजन प्रमाण क्षेत्र में से तृण-कंकर, घास, काँटे साफ कर देता है। मेघकुमार देव सुगंधित जल की वृष्टि करके सारी मिट्टी को स्थिर करके समूचे पृथ्वीतल को सुगंधमय बनाते हैं। व्यंतर देव सुवर्णरत्नमय शिला द्वारा पृथ्वीतल को मजबूत बनाते हैं एवं उस ऋतु की अधिष्ठायिका देवी से पंचवर्णी अचित्त पुष्पों की जानु प्रमाण वृष्टि करवाते हैं। तत्पश्चात् देवतागण 3 गढ रचते 1. प्रथम रजतमय गढ़ - भवनपति देव भूमिभाग के मध्य में मणिपीठ की रचना करके भूमितल से सवा कोस ऊँचा प्रथम चाँदी का गढ़ बनाते हैं। उस गढ़ पर चढ़ने के लिए एक हाथ लम्बी, एक हाथ चौड़ी, ऐसी 10,000 सीढ़ियाँ बनती हैं। उस दीवार के ऊपर सुवर्णमय कांगरे होते हैं। प्रथम गढ़ के चारों ओर 50 धनुष प्रमाण समतल भूमि होती है। इस गढ़ में रथ, पालखी आदि वाहन होते हैं। 2. द्वितीय सुवर्णमय गढ़ - प्रथम गढ़ से 1300 धनुष प्रमाण क्षेत्र छोड़कर ज्योतिष देव दूसरा सोने का गढ़ रचते हैं। उस गढ़ की दीवार आदि प्रथम गढ़ की तरह ऊँची व चौड़ी होती है। इस गढ़ की 5000 सीढ़ियाँ होती हैं। इसके ऊपर भी रत्न के कांगरे हैं। द्वितीय गढ़ के मध्य के ईशान कोण में प्रभु के विश्राम हेतु देवछंद की रचना व्यंतर देव करते हैं। इस गढ़ में तिर्यंच परस्पर वैर भाव को भूलकर एक साथ बैठते हैं। जैसे जगत् में मेरुपर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। __ - भक्तपरिज्ञा (91) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 98 3. तृतीय रत्नमय गढ़ - द्वितीय गढ़ से 1300 धनुष प्रमाण क्षेत्र छोड़कर वैमानिक देव तीसरा गढ़ बनाते हैं। जिसकी प्रत्येक दिशा में 5,000 सीढ़ियाँ होती हैं। इसके ऊपर मणिरत्न के कांगरे होते हैं। तीसरे गढ़ के मध्य में प्रभु के देह से 12 गुणा ऊँचा अशोक वृक्ष होता है जिसके ऊपर चैत्य वृक्ष (जिसके नीचे प्रभु को केवलज्ञान होता है) होता है। जिसके मूल में 4 सिंहासन होते हैं। मुख्य पूर्वाभिमुख सिंहासन पर परमात्मा विराजमान होकर देशना देते हैं एवं अन्य तीन सिंहासनों पर व्यंतर देव प्रभु का प्रतिबिम्ब स्थापित करते हैं। सभी अष्ट प्रातिहार्य विराजमान होते हैं। तीसरे गढ़ में 12 पर्षदाएँ होती हैं जहाँ मनुष्य, देव एवं देवियाँ धर्मदेशना सुनते हैं। दिशा कौन होता है अवस्था प्रवेश द्वार 1. आग्नेय कोण - गणधर आदि साधु भगवन्त बैठकर पूर्व द्वार साध्वी जी खड़े होकर पूर्व द्वार वैमानिक देवियाँ खड़े रहकर पूर्व द्वार 2. नैऋत्य कोण - ज्योतिष देवियाँ खड़े रहकर दक्षिण द्वार व्यंतर देवियाँ खड़े रहकर . दक्षिण द्वार भवनपति देवियाँ खड़े रहकर दक्षिण द्वार ____ 3. ईशान कोण - वैमानिक देव बैठकर उत्तर द्वार श्रावक वर्ग बैठकर उत्तर द्वार श्राविका वर्ग बैठकर उत्तर द्वार 4. वायव्य कोण - व्यंतर देव । बैठकर पश्चिम द्वार भवनपति देव बैठकर पश्चिम द्वार ज्योतिष देव बैठकर पश्चिम द्वार प्रत्येक गढ़ जमीन से 2500 धनुष (सवा गाऊ) ऊँचा होता है एवं भींत (दीवार) 500 धनुष ऊँची और 33 धनुष 32 अंगुल लम्बी होती है। प्रथम गढ़ के चारों किनारों पर देवता मीठे जल की एक-एक बावड़ी (सरोवर) का निर्माण करते हैं। समवसरण से बाहर जाने हेतु एवं प्रवेश हेतु रत्नों के चार-चार दरवाजे होते हैं, तीन गढ़ों के कुल 12 द्वार जिन पर पद्मराग मणिमय तोरण होते हैं। प्रत्येक दरवाजे के पास सुवर्णकमल से सुशोभित बावड़ी होती है। एवं प्रत्येक गढ़ के दरवाजों पर देव-देवी द्वारपाल रूपेण खड़े रहते हैं। प्रत्येक द्वार पर धर्मचक्र होता है। प्रत्येक दिशा में एकएक योजन प्रमाण ऊँचाई वाला ध्वज होता है। जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए, क्योंकि विरक्त व्यक्ति संसार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है। - मरणसमाधि (296) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 99 पूर्व दिशा में धर्मध्वज। दक्षिण दिशा में मानवध्वज। पश्चिम दिशा में गजध्वज। उत्तर दिशा में सिंहध्वज। समवसरण की कुल 20,000 सीढ़ियाँ होती है। चारों दिशाओं की 80,000 सीढ़ियाँ होती हैं। प्रत्येक सीढ़ी एक हाथ ऊँची होती है। मगर तीर्थंकर का अतिशय ऐसा होता है कि कोई भी व्यक्ति बाल, युवा या वृद्ध थकता नहीं है। वे आराम से, प्रसन्नता से 20,000 सीढ़ियाँ चढ़ जाते हैं। समवसरण की ऐसी रचना केवलज्ञान होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में हो जाती है। प्रथम और तीसरे गढ़ के द्वार पर देव और दूसरे गढ़ के द्वारों पर देवियाँ होती हैं। प्रथम गढ़ द्वितीय गढ़ । | तृतीय गढ़ पूर्व दिशा तुम्बरु देव जया देवी सोम वैमानिक देव पश्चिम दिशा मालधारी-कपाली अजितादेवी वरुण ज्योतिष देव उत्तर दिशा जटामुकुट देव अपराजिता देवी | धनद भवनपति देव दक्षिण दिशा | खट्वांगधारी देव विजया देवी | यम व्यन्तर देव परमात्मा का प्रातिहार तुंबरू नामक देव होता है क्योंकि वे हमेशा पूर्व दिशा से ही प्रवेश करते हैं। द्वितीय गढ़ के पूर्व द्वार पर जया नामक दो देवियाँ श्वेत वर्ण और अभयमुद्रा से सुशोभित करकमल वाली द्वारपालिका होती हैं। दक्षिण द्वार पर लाल वर्ण की विजया नामक दो देवियाँ हाथ में अंकुश लिए खड़ी रहती हैं। पश्चिम द्वार पर पीतवर्ण की अजिता नामक दो देवियाँ हाथ में पाश पकड़े खड़ी रहती हैं। उत्तर द्वार पर नील वर्ण वाली अपराजिता नामक दो देवियाँ हाथ में मकर पकड़े खड़ी रहती हैं। तृतीय गढ़ के पूर्व द्वार पर पीतवर्ण वाला सोम देव हाथ में धनुष लेकर, दक्षिण द्वार पर गौरवर्ण वाला यम देव हाथ में दण्ड लेकर, पश्चिम द्वार पर लालवर्ण वाला वरुण देव हाथ में पाश लेकर एवं उत्तर द्वार पर श्यामवर्ण वाला धनद देव हाथ में गदा लेकर खड़े रहते हैं। चारों दिशाओं में परमात्मा के ऊपर तीन-तीन छत्र सुशोभित होते हैं, इस प्रकार कुल बारह छत्र होते हैं। किन्तु 'अर्हन्नमस्कारावलिका' के अनुसार 'नमोपंचदसछत्ररयणसंसोहिआण जो आचार्य भव्य प्राणियों को वीतराग भगवान का यथार्थ अनुष्ठान-मार्ग दिखाता है, वह उनके लिए चक्षुभूत होता है। - गच्छाचार-प्रकीर्णक (26) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन * 100 अरिहंताणं' अर्थात् 15 छत्र होते हैं। चार दिशाओं में 12 एवं सबसे ऊपर ऊर्ध्व दिशा में 3 छत्रकुल 15 छत्र। बलि विधान : यहाँ बलि का अर्थ किसी की हिंसा नहीं है। आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्प भाष्य, लोकप्रकाश ग्रन्थ में अद्भुत प्रकार के बलि विधान का उल्लेख है - परमात्मा की देशना श्रवण करने आये चक्रवर्ती आदि अग्रिम राजा अथवा श्रावक या अमात्य, इनकी अनुपस्थिति में नगरजन या देशवासी अद्भुत बलि तैयार करवाते हैं। उज्ज्वल वर्ण वाले, सुगंध से युक्त, पतले, अत्यन्त कोमल, पवित्र बलवती स्त्री द्वारा फोतरा रहितं कूटे हुए ऐसे अखण्ड अणीशुद्ध चार प्रस्थ कलमशाली चावलों को सर्वप्रथम शुद्ध पानी से धोकर उन्हें अर्ध पक्व (पूरे पके नहीं) किया जाता है। फिर उन अर्ध पक्व चावलों को रत्नों के थालों में डाला जाता है। सोलह शृंगार से सुसज्जित सौभाग्यवती स्त्री उस थाल को अपने सिर पर लेती है। उस बलि को सुगन्धित और सुन्दर बनाने हेतु देवता उसमें दिव्य और सुगन्धित पदार्थ डालते हैं। इस प्रकार से बलि तैयार किया जाता है। तैयार बलि को गीत-गान, वार्जिन आदि ठाट-बाट के साथ महोत्सवपूर्वक धार्मिक लोगों के द्वारा इसकी महिमा गाते हुए श्रावकों द्वारा जहाँ पर उसे बनाया है वहाँ से लेकर पूर्व द्वार से समवसरण में लाया जाता है। समवसरण में बलि के प्रवेश होते ही क्षण मात्र के लिए जिनेश्वर परमात्मा देशना फरमाना बंद कर देते हैं। फिर चक्रवर्ती आदि श्रावकवर्ग बलि सहित परमात्मा की तीन प्रदक्षिणा देते हैं, फिर पूर्व दिशा में परमात्मा के सम्मुख आकर उस बलि को मुट्ठियों में भरकर सभी दिशाओं में उछालते हैं। जिसके भाग्य में जितना होता है वह उस प्रमाण में उसे प्राप्त करता है। बलि की विधि पूर्ण होते ही परमात्मा तीसरे गढ़ से उतरकर दूसरे गढ़ में ईशान कोण में बने देवच्छंद में जाते हैं। सम्पूर्ण बलि के आधे भाग (1/2) कों देवता पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ही उसे अधर-अधर से ग्रहण कर लेते हैं। देवताओं के ग्रहण करने के पश्चात् शेष बचे आधे भाग का आधा अर्थात् सम्पूर्ण का एक चौथाई (1/4) भाग बलि को तैयार करवाने वालों को मिलता है। जैसे बरसात की बूँद के गिरने से अग्नि शांत होती है, वैसे ही बलि के एक कण को सिर पर रखने से सर्व रोग शान्त हो जाते हैं। छह महीने तक कोई नया रोग उत्पन्न नहीं होता है। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है, सारे जगत् को जानता है और जो सबको जानता है, सारे जगत् को जानता है, वह एक को, अपने आपको जानता है। - आचाराङ्ग (1/3/4/2) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 101 तीर्थंकरों की देशना एवं तीर्थ स्थापना जब प्रथम समवसरण का निर्माण होता है तब साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका की पर्षदाएँ खाली (रिक्त) रहती हैं क्योंकि उस समय तक तीर्थ की स्थापना नहीं होती। प्रथम देशना के समय जैसे ही लोग श्रावक-श्राविका के व्रत ग्रहण करते हैं अथवा चारित्र ग्रहण करते हैं वे परिषद में स्वस्थान ले लेते हैं। तीर्थंकरों के साथ उनके अतिशयसूचक प्रातिहार्य भी पधारते हैं। अशोक वृक्ष के नीचे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठकर सर्वप्रथम प्रभु की दिव्य वाणी को सुन भव्य श्रोतागण सभी काम छोड़कर समवसरण में प्रवेश करते हैं। घनिष्ठ वैरी भी अपने वैर को विश्राम देकर उल्लासपूर्वक प्रभु की देशना सुनते हैं। वहाँ कभी भी जगह की कमी नहीं पड़ती। तीर्थंकरों की देशना कभी निष्फल नहीं जाती अर्थात् कोई-न-कोई तो श्रावक धर्म या संयमधर्म अंगीकार करता ही है। जो व्यक्ति श्रमण और श्रमणी के पंचमहाव्रत के कठोर कटकाकीर्ण महामार्ग को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं, वे श्रमणोपासक (श्रावक) व श्रमणोपासिका (श्राविका) के व्रतों को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार श्रमणश्रमणी. श्रावक-श्राविकारूप चतर्विध तीर्थ की संस्थापना कर तीर्थंकर कहलाते हैं। तत्पश्चात् सभी दीक्षित श्रमणों में से जिन व्यक्तियों का गणधर नाम कर्म उदय में आता है, उसे तीर्थंकर 'गणधर' का पद प्रदान करते हैं। इस अवसर पर इन्द्र महाराज स्वयं रत्नथाल में सौगन्धिक रत्नचूर्ण (वासक्षेप) लेकर खड़े होते हैं। गणधरों के सिर पर तीर्थंकर अनुक्रम से वासक्षेप करते हैं। इस प्रकार तीर्थ की स्थापना होती है। गुणों की दृष्टि से तीर्थंकर श्रमणों को 7 भागों में विभक्त करते हैं1. केवलज्ञानी - प्रथम श्रेणी के पूर्ण ज्ञानी श्रमण। 2. . मनःपर्यवज्ञानी - समनस्क प्राणियों के मानसिक भावों के परिज्ञाता श्रमण। 3. अवधिज्ञान - सीमित क्षेत्र के रूपी पदार्थों के ज्ञाता श्रमण। 4. वैक्रियलब्धिधारी - योगसिद्धि प्राप्त ऋद्धिधारी, ध्यान में लीन श्रमण। चतुर्दशपूर्वी - संपूर्ण अक्षर ज्ञान में पारंगत श्रमण। 6. वादी - तर्क और दार्शनिक चर्चा में प्रवीण श्रमण। सामान्य साधु - अन्य सभी श्रमण जो अध्ययन, तप, ध्यान, सेवा, शुश्रूषा, आवश्यकादि किया करते थे। वही अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमङ्गल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्य की योग-धर्म क्रियाओं में विघ्न न आए। - मरणसमाधि (134) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 102 2. तीर्थंकरों की देशना इतनी मार्मिक होती है कि हजारों-लाखों मनुष्य संयम अंगीकार करते हैं। देवी-देवतागण मनुष्य योनि के लिए तरसते हैं क्योंकि वे भी दीक्षा लेकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने की इच्छा करते हैं। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद देवतागण जहाँ भी समवसरण रचते हैं, तीर्थंकर वहाँ प्रतिदिन दो बार धर्मदेशना देते हैं- एक प्रथम प्रहर में एवं दूसरी तृतीय पहर में तीर्थंकरों की धर्मदेशना विषयक राग एवं भाषा के विषय में सम्पूर्ण जैन वाङ्मय एकमत है कि1. तीर्थंकर मालकोश राग में देशना देते हैं। पत्थर को भी रुई बना दें, ऐसा पवित्र यह राग होता है। मालकोश राग जिनसे बना है, ऐसे 6,400 रागों में प्रभु की देशना चलती है। तीर्थंकर अर्द्धमागधी भाषा में देशना देते हैं। आर्ष प्राकृत एवं मागधी भाषा के सम्मिश्रण से ही यह भाषा बनी है। प्राचीन काल में बचपन से अगर किसी को कोई भी भाषा न सिखाई जाए तो वह स्वयं ही अर्द्धमागाधी भाषा सीख जाता था। यह भाषा भाव की अपेक्षा शाश्वत है। अत: तीर्थंकर इसी भाषा में धर्मोपदेश देते हैं और जिसे जैसी भाषा आती है वह अपनी-अपनी भाषा में देशना सुन-समझ लेता है। गणधर पद : एक पर्यवेक्षण तीर्थंकरों के केवलज्ञान कल्याणक पर देवता उत्सव मनाते हैं व समवसरण की रचना करते हैं। तत्पश्चात् वे नन्दीश्वर द्वीप पर जाकर अट्ठाई महोत्सव करते हैं। लेकिन केवलज्ञान के पश्चात् एक नाम जो तीर्थंकर के साथ ही लिया जाता है वो है, गणधर का। गणधर पद जैन आम्नाय में अत्यंत विशिष्ट एवं गौरवशाली पद है। 'गणधर' शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि तीर्थंकरों के सन्निकट दीक्षित श्रमणों का समूह विशेष 'गण' कहलाता है। विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में लिखा है- 'अनुत्तरज्ञानदर्शनादि गुणानां गणं धारयन्तीति गणधराः॥" आवश्यक चूर्णि में लिखा है- 'तित्थगरेहिं सयमणुन्नातं गणं धारेन्तीति गणहराः।" अर्थात् लोकोत्तर (उत्तम) ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को अपनाने वाले तथा तीर्थंकर द्वारा अनुज्ञात धर्म-श्रमण गण को धारण करने वाले गणधर होते हैं। गणधर साधु-साध्वीरूप संघ की मर्यादा, व्यवस्था एवं समाचारी के नियोजक, व्यवस्थापक होते हैं। तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी को श्रुत सूत्र रूप में संकलन वे ही करते हैं। वे चार ज्ञान के धारक तथा चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। | तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं करनी चाहिए। - सूत्रकृताङ्ग (1/7/27) | Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गणधर नाम-कर्म गणधर नामकर्म नामकर्म की अनन्त प्रकृतियों का एक भेद है। तीर्थंकर के बाद जो सर्वाधिक पूजनीय पद आता है, वह है गणधर का । यह स्पष्ट है कि जैनधर्म कर्मवाद का पूर्ण समर्थन करता है एवं गणधर पद की प्राप्ति हेतु भी विशिष्टतम - उच्चतम साधना करनी पड़ती है। शुभ अध्यवसायों के योग से गणधर लब्धि उत्पन्न होती है। नामकर्म तो सभी गणधरों को समान होता है किन्तु लब्धि में अंतर होता है । यथा प्रथम गणधर एवं तीर्थंकर की परम्परा का वहन करने वाले गणधर की लब्धि अन्य से अधिक होती है। शास्त्रों में फरमाया गया है तीर्थंकर : एक अनुशीलन 103 चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगतं तु यः । तथाऽनुष्ठानतः सो पिं, धीमान् गणधरो भवेत् ॥" अर्थात् जो प्रशस्त बुद्धिमान आत्मा स्वयं के स्वजन - परिजन - मित्र आदि के लिए भव से तिरने की चिन्ता करे तथा तदनुरूप परोपकार रूप अनुष्ठान या सेवा करे, उन्हें धर्मरथ पर आरूढ़ करे, वह महामहिमावान गणधर पद प्राप्त करती है। गुजरात के सम्राट कुमारपाल ने इसी भाव से गणधर नामकर्म का बंध किया व वे आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर महापद्म जी के गणधर बनेंगे। 2. गणधरों द्वारा श्रुत-रचना गणधर तीर्थंकरों की अर्थपूर्ण वाणी को सूत्र रूप में गूँथते हैं। कहा गया है- अत्थं भासई अरहा सुत्तं गुफइ गणहरा निउणा । प्रथम देशना में तीर्थंकर परमात्मा उन्हें तीन पदों का ज्ञान देते हैं, जो समस्त ज्ञान का सार होता है। और उसी के आधार पर गणधर वाचना तैयार करते हैं । वैज्ञानिक रूप से भी यह त्रिपदी जगत का आधार है। गणधर भगवंत प्रभु से प्रश्न करते हैंभंते ! किम् तत्तम् ? तब प्रभु उत्तर रूप में जो त्रिपदी प्रदान करते हैं, वह इस प्रकार है 1. उपन्नेइ वा (उत्पाद) - "स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिरुत्पाद: ।" अर्थात् सब उत्पन्न होता है। किसी द्रव्य द्वारा अपने मूल स्वरूप का परित्याग किए बिना दूसरे रूपान्तर का ग्रहण कर लेना उस द्रव्य का उत्पाद स्वभाव कहा जाता है। जैसे स्वर्णपिंड को गलाकर कंकण का निर्माण करना, कंकण का 'उत्पाद स्वभाव' है। विगमेइ वा (व्यय) “तथा पूर्वभावविगमो व्ययः ।" अर्थात् सब नष्ट होता है। किसी द्रव्य द्वारा रूपान्तर करते समय पूर्वभाव का परित्याग करना द्रव्य का व्यय स्वभाव कहा जाता है। जैसे स्वर्णपिंड को गला कर कंकण का निर्माण करना स्वर्णपिंड का व्यय स्वभाव है। 'आज नहीं मिला है तो क्या है, कल मिल जायेगा' - जो यह विचार कर लेता है, वह कभी अलाभ के कारण पीड़ित नहीं होता। उत्तराध्ययन (2/31) - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. तीर्थकर : एक अनुशीलन ® 104 धुवेइ वा (ध्रौव्य) - “ध्रुवे स्थैर्ये कर्मणि ध्रुवतीति ध्रौव्य।" द्रव्य व संसार की स्थिति निश्चल है अर्थात् उत्पाद और व्यय स्वभाव की स्थिति में भी पदार्थ का अपने मूल गुण, धर्म और स्वभाव में बने रहना, उस द्रव्य का ध्रौव्य (ध्रुवत्व) स्वभाव कहलाता है। जैसे उपर्युक्त दोनों परिस्थितियों में स्वर्ण द्रव्य की विद्यमानता उस स्वर्ण का ध्रौव्य स्वभाव है। इस त्रिपदी के रूप में वासक्षेप के प्रभाव से समस्त विश्व के त्रिकालवर्ती संपूर्ण ज्ञान की कुंजी प्राप्त कर गणधर भगवन्तों का श्रुतज्ञानावरणीय कर्म उसी समय विशिष्ट क्षयोपशम वाला होता है और वे समग्र श्रुतज्ञानसागर के विशिष्ट वेत्ता बन जाते हैं, सर्वप्रथम वे 14 पूर्वो की रचना करते | 10 R नाम विषय पद संख्या : वस्तु 1. उत्पाद पूर्व सभी द्रव्यों पर्यायों की उत्पाद प्ररूपणा एक करोड़ 2. अग्रायणी पूर्व सभी द्रव्य-पर्याय-जीव के परिमाण छियानवे लाख 14 3. वीर्य प्रवाद पूर्व सभी जीवाजीव के वीर्य का वर्णन सत्तर लाख 4. अस्तिनास्ति प्रवाद धर्मास्तिकाय आदि विद्यमान और आकाश साठ लाख आदि अविद्यमान का वर्णन 5. ज्ञानप्रवाद पूर्व 5 ज्ञानों का विस्तृत विवेचन 1 कम 1 करोड़ | 12 6. सत्यप्रवाद पूर्व सत्य-संयम-वचन का विस्तृत वर्णन 6 अधिक 1 करोड़ 7. आत्मप्रवाद पूर्व अनेक नय की अपेक्षा आत्मा का प्रतिपादन 26 करोड़ 8. कर्मप्रवाद पूर्व अष्ट-कर्मों का विस्तृत निरूपण 1 करोड़ 80 हजार | 9. प्रत्याख्यान प्रवाद प्रत्याख्यानों का भेद प्रभेद पूर्वक वर्णन 84 लाख 10. विद्यानुवाद पूर्व अतिशयकारी चमत्कारी विद्या व सिद्धियाँ 1 करोड़ 10 लाख 11. कल्याणवाद पूर्व | शुभ-अशुभ कार्यों का वर्णन 26 करोड़ ___ (अवंध्य पूर्व) 12. प्राणायु प्रवाद । | 10 प्राण और आयु का विस्तारपूर्वक कथन |1 करोड़ 56 लाख | 13 13. क्रिया विशालपूर्व | कायिकी, छंदादि क्रियाओं का निरूपण | 9 करोड़ | 30 14. लोक बिन्दुसार । लोक में शास्त्र बिन्दु रूप श्रेष्ठ ज्ञान 127 करोड़ इनकी रचना अन्य सूत्रों से पूर्व हुई, इसीलिए इन्हें पूर्व कहा जाता है। पूर्वो के अध्यायों को वस्तु कहते हैं। पूर्वो की रचना के बाद गणधर अंग आगम रचते हैं। इनकी संख्या बारह है। देवता भी तीन बातों की इच्छा करते रहते हैं- मनुष्य जीवन, आर्य क्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति। - स्थानांग (3/3) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 105 यथा1. आचारांग 7. उपासकदशांग 2. सूत्रकृतांग 8. अंतकृतदशांग 3. स्थानांग 9. अनुत्तरोपपातिक 4. समवायांग 10. प्रश्न व्याकरण 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) 11. विपाक श्रुत 6. ज्ञाताधर्मकथांग 12. दृष्टिवाद (हेतुवाद-भूतवाद, धर्मवाद इत्यादि) दृष्टिवाद समस्त ज्ञान का स्थान है किन्तु सभी सामान्य बुद्धि बाले इसे पढ़-समझ नहीं सकते। इसी हेतु से गणधर अन्य 11 अंगों की भी रचना अर्धमागधी भाषा में ही करते हैं। अन्य मत से द्वादशांगी की रचना ही होती है एवं 14 पूर्व दृष्टिवाद में समा ही जाते हैं। गणधर स्वयं 4 ज्ञान एवं 14 पूर्वो के धारक होते हैं। श्रुत निधि उन्हीं से चलती आई है क्योंकि तीर्थंकर कभी अपनी ही वाणी का संकलन नहीं करते। ये काम उनके प्रधान शिष्य (गणधर) ही करते हैं। गणधरों की देशना दिवस के प्रथम एवं तृतीय प्रहर में तीर्थंकर भगवन्त देशना देते हैं। गणधर भगवन्त दिन के द्वितीय पहर में धर्मोपदेश देते हैं। कई व्यक्ति यह प्रश्न करते हैं कि तीर्थ की रचना तीर्थंकर करते हैं जिनकी दिव्य वाणी होती है, फिर गणधर जी धर्मदेशना क्यों देते हैं ? इसके उत्तर में निवेदन है कि निम्नलिखित कारणों से गणधर देशना देते हैं1. . एक शिष्य होने के नाते, तीर्थंकर परमात्मा को विश्राम देना एवं शिष्यों की योग्यता को और अधिक निखारना। 2. श्रोताओं को विश्वास दिलाना कि वे भी तीर्थंकर सदृश उपदेश देते हैं एवं गुरु-शिष्य-वचनों में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है ताकि आगामी काल में कोई विरोध न हो। 3. तीर्थंकरों द्वारा कथित त्रिपदी को ज्ञान रूप में गूंथी हुई अपने गण व श्रोताओं को वाचना देना। जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग और मरण दु:ख हैं। अहो ! संसार दुःखरूप ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। - उत्तराध्ययन (18/16) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 106 तीर्थंकर परमात्मा से मोहवश उनके बारे में बताना, उनके दिव्य प्रभाव, अतुल बल, कल्याणकारी उद्देश्य के बारे में बताना। “मेरे गुरु कैसे हैं ! मेरे गुरु कितने गुणविशाल गुणगंभीर हैं!" इस बारे में श्रोताओं को परिचित कराना। इस प्रकार तीर्थंकर के केवलज्ञान कल्याणक के पश्चात् ही तीर्थंकर गणधर एवं अन्य श्रमणश्रमणी समुदाय कर्मनिर्जरा हेतु विचरण करते हैं। तीर्थंकर महावीर की अभाविता परिषद् चारित्र धर्म के अयोग्य परिषद् (सभा) को अभाविता (अभव्या) परिषद् कहते हैं। तीर्थंकर भगवान को केवलज्ञान होने पर वे जो सर्व प्रथम धर्मदेशना देते हैं, उसमें कोई न कोई व्यक्ति चारित्र अवश्य ग्रहण करता है यानी दीक्षा लेते हैं किन्तु भगवान महावीर स्वामी के विषय में ऐसा नहीं हुआ। यह एक शाश्वत नियम है कि जिस स्थान पर केवलज्ञान की उपलब्धि होती है, वहाँ पर तीर्थंकर एक मुहूर्त तक ठहरते हैं और तत्पश्चात् धर्मदेशना भी देते हैं। मुंभक ग्राम के बाहर जब भगवान महावीर स्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब वहाँ समवसरण की रचना हुई। अनेक देवीदेवता भगवान का धर्मोपदेश सुनने समवसरण में एकत्र हुए। पर देवता, सर्वविरति के योग्य न होने से प्रभु ने एक क्षण ही उपदेश दिया। वहाँ पर मनुष्य की उपस्थिति नहीं थी, अत: किसी ने भी विरतिरूप चारित्रधर्म स्वीकार नहीं किया। ऐसी बात किसी भी तीर्थंकर भगवान के समय में नहीं हुई थी। अनंत काल में यही एक घटना हुई थी कि तीर्थंकर परमात्मा की वाणी निष्फल-निष्प्रभावी गई। अतः स्थानांग सूत्र, प्रवचन सारोद्धार आवश्यक नियुक्ति में इसे 'आश्चर्य' (अच्छेरा) की संज्ञा से अभिहित किया है। यूँ तो तीर्थंकर रात्रिकाल में विहार नहीं करते। किन्तु तीर्थंकर महावीर ने उस दिन किया। केवलज्ञान कल्याणक के कारण रात्रि में भी उद्योत था तथा अपवाद मार्ग से वे मध्यम पावा के महसेन उद्यान में पहँचे जहाँ अगले दिन तीर्थ की स्थापना हई। तीर्थंकर ने साधु के आचार में रात्रि में विहार का निषेध किया है। तर्क करके स्वयं की तुलना तीर्थंकर से करना मिथ्यात्वसूचक है। यहाँ उल्लेखनीय है कि तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान के बाद भिक्षा (आहार) हेतु घर-घर घूमते नहीं हैं। यह उनका पुण्य होता है। व्यवहार भाष्य में लिखा है कि तीर्थंकरों को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर उनके उपपात में देवेन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, राजा, कोतवाल आदि व्यक्ति प्रश्न पूछने आदि कार्यों संघ भयभीत मनुष्यों के लिए आश्वासन, निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतगृह समान, अविसमदर्शी होने के कारण माता-पिता तुल्य तथा सबके लिए शरणभूत होता है। - व्यवहारभाष्य (326) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 107 से आते ही रहते हैं। अतः वे भिक्षा के लिए घूमते नहीं हैं। अन्य साधु प्रभु के लिए आहार लेकर आते हैं। शास्त्रों में उन्हें 'लोहार्य' कहा है (कुछ के अनुसार भगवान महावीर के संदर्भ में लोहार्य का अर्थ सुधर्मा स्वामीजी है) गौतम स्वामीजी भी अपने पारणे के दिन भगवान के लिए आहार लाते थे। लोकप्रकाश ग्रन्थ में कहा गया है कि दूसरे प्रहर में पादपीठ पर या फिर राजा द्वारा लाये सिंहासन पर बैठकर जब गणधर भगवन्त देशना देते हैं, तब किसी के द्वारा प्रश्न किए जाने पर वे उसके असंख्यात भवों को ऐसे बताते हैं जैसे वे छद्मस्थ नहीं, बल्कि केवलज्ञानी हों। जिज्ञासा - देवताओं द्वारा रचा गया समवसरण कितने समय तक रहता है ? समाधान अलग-अलग इन्द्रों द्वारा रचे गए समवसरण का स्थिरता काल भी अलग-अलग होता है। जैसे • सौधर्मेन्द्र का आठ दिन तक ईशानेन्द्र का 15 दिन तक • माहेन्द्र का 2 मास तक ● अच्युतेन्द्र का दस दिन तक । • सनत्कुमार का एक महीने (30 दिन) तक • ब्रह्मेन्द्र देव का 4 मास तक समवसरण रहता है। जिज्ञासा जब समस्त देवता मिलकर भी परमात्का के एक अंगूठे की रचना नहीं कर सकते तो व्यन्तर देव तीन दिशाओं में तीन प्रतिबिम्ब कैसे बना पाते हैं? समाधान यह सब परमात्मा के अचिन्त्य तीर्थंकर नामकर्म के महापुण्य प्रभाव से ही होता है कि एक ही व्यन्तर देवता में परमात्मा के तीन रूपों की विकुर्वणा ( रचना ) करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा है - जे ते देवेहिं कया, तिदिसि पडिरूवगा तस्स । तेसिंपि तप्पभावा, तयाणु रूवं हवइ रूवं ॥ टीका में 'तप्प - भावा' का अर्थ तीर्थंकर का प्रभाव बताया है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 108 जिज्ञासा - केवलज्ञान-प्राप्ति के बाद तीर्थंकर पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते एवं सुवर्ण कमल पर ही विहार करते हैं। इसके पीछे क्या कोई वैज्ञानिक रहस्य हो सकता समाधान - वर्तमान में विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि प्रत्येक सजीव पदार्थ में से ऊर्जा उत्सर्जित होती है। इस शक्ति को वैज्ञानिक विद्युत् जैविक चुंबकीय शक्ति (Bioelectro-magnetic energy) कहते हैं। प्राचीन समय में इसी को आभामंडल (aura) कहा जाता था। मानव के शरीर की यह ऊर्जा/शक्ति उसके शुभ भावों, शारीरिक बल व मनोबल से प्रभावित होती है। तीर्थंकर उत्तम शरीर शक्ति, आत्म शक्ति व सर्वशुभ भावों के धनी होते हैं। चार कर्मों के अभाव में उनके शरीर में बहुत सकारात्मक ऊर्जा होती है जो सूक्ष्म जैविक विद्युचुंबकीय शक्ति के स्वरूप में होती है। ऐसी अपार शक्ति के कारण उनका वातावरण परम शक्तिशाली बन जाता है। इतनी अधिक ऊर्जा को अन्य प्राणी व सामान्य पृथ्वी झेलने में असमर्थ होते हैं। इस कारण उस ऊर्जा को कम मात्रा में लोगों तक पहुँचाने के लिए सुवर्ण की धातु का प्रयोग किया जाता है। देवतागण सुवर्ण धातु के कमल रचते हैं क्योंकि यही धातु इतनी शक्ति सहन कर सकती है एवं अधिक शक्ति को अपने पास रख धरती में बाकी की ऊर्जा डाल देती है। इस कारण से तीर्थंकर परमात्मा अतिक्रान्त के भय से पृथ्वी पर चलें, इससे पूर्व ही उनकी अपार ऊर्जा को संहरने के लिए देवता सुवर्ण कमल रचते हैं। इसी ऊर्जा के कारण प्रभु के आसपास दुर्भिक्ष, वध आदि नहीं होते। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की विशिष्टता तीर्थंकर नामकर्म, तीर्थंकर लब्धि एवं कर्मनिर्जरा के प्रभाव से तीर्थंकरों में असाधारण अलौकिक लब्धियाँ, ऋद्धियाँ, अतिशय एवं गुण उत्पन्न होते हैं। यह तीर्थंकर परमात्मा का वैशिष्ट्य ही है, जिसके कारण वे जगप्रसिद्ध होते हैं एवं साधारण जन से अलग होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा का पुण्य अनन्त होता है। 'तीर्थंकर भगवन्त एक नगरी से दूसरी नगरी में विहार कर रहे हैं' उनका यह समाचार जब चक्रवर्ती, वासुदेव और मांडलिक राजा को मिलता है, तब वे अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और सूचना देने वाले अनुचर को बहुत इनाम देते हैं। चक्रर्वी साढ़े बारह लाख स्वर्णमुद्रा, वासुदेव साढ़े बारह लाख रुपये और माण्डलिक राजा साढ़े बारह लाख रुपये का प्रीतिदान करते हैं। यहाँ कुछ ऐसी ही विशिष्टताओं की चर्चा की जा रही हैतीर्थंकरों के बारह (12) गुण तीर्थंकर प्रभु तो अनन्तानंत गुणों के भंडार हैं। उनकी गुणविशालता अतुलनीय अविश्वसनीय होती है किन्तु यही सत्य है। उच्च कर्मोदय से सम्प्राप्त उनमें अरिहन्त स्वरूप ऐसे विशिष्ट 12 गुण होते हैं जो किसी अन्य आत्मा में नहीं होते हैं। समवायांग एवं हरिभद्रकृत संबोध सत्तरी में तीर्थंकर के निम्नलिखित 12 गुण बताए हैं, जिनमें अष्ट प्रातिहार्य एवं चार अतिशय सम्मिलित किए गए हैं, जो इस प्रकार हैं1. अशोक वृक्ष-प्रभु के देह से 12 गुणा ऊँचा अशोक वृक्ष समवसरण में बनाया जाता है। 2. सुरपुष्पवृष्टि - देवतागण प्रभु पर पुष्पों की वृष्टि करते हैं। 3. दिव्यध्वनि - प्रभु की वाणी में देवता वाजिंत्र-वाद्य द्वारा स्वर पूरते हैं। 4. चामर - प्रभु के दोनों ओर चौसठ चामर वींझे जाते हैं। 5. आसन - समवसरण में प्रभु के लिए रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन रचा जाता है। 6. भामंडल - प्रभु का तेज संहरने हेतु भामंडल रचा जाता है। अहिंसा, संयम और तप रूप शुब्द धर्म उत्कृष्ट मंगलमय है। जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। - दशवैकालिक (1/1) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 110 11. 7. देवदुंदुभि - देवतागण दुंदुभि नामक वाजिंत्र बजाते हैं। 8. छत्रत्रय - रत्नजड़ित तीन छत्र प्रभु के मस्तक के ऊपर होते हैं। ज्ञानातिशय - ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय होने से तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं, लोकालोक को सम्पूर्ण रीति से जानते हैं। केवलज्ञान द्वारा तीर्थंकर जगत् के सभी रूपी-अरूपी पदार्थों को, सभी पर्यायों को प्रत्यक्ष जानते हैं, ऐसा उनका ज्ञानातिशय है। पूजातिशय - सामान्य जन ही नहीं, देव देवेन्द्र चौंसठ इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि सभी लोग व सम्यक्त्वी तिर्यंच भी परमात्मा की विशेष पूजा भक्ति करते हैं। अपायापगम-अतिशय - अपाय अर्थात् उपद्रव, अपगम यानी नाश। भगवान का सर्वजीवों के प्रति करुणा व समभाव होता है। इस अतिशय के प्रभाव से समवसरण में आने वाले जीवों का वैर विसर्जित हो जाता है, शांति छा जाती है। प्रभु जहाँ-जहाँ विचरते हैं, वहाँ प्रत्येक दिशा में सवा सौ योजन तक अकाल आदि नहीं होता और जीव परम शांति का अनुभव करते हैं। वचनातिशय - तीर्थंकर प्रभु की अमोघ - अस्खलित वाणी होती है। देव-मनुष्य तिर्यञ्च प्रभु की वाणी को अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। 35 गुणों से युक्त वाणी के द्वारा सभी आकर्षित होते हैं। इस प्रकार 12 गुणों का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। किन्तु उपर्युक्त 12 गुणों का प्रतिपादन बाह्य विभूतियों की अपेक्षा किया गया है। जैन वाङ्मय में निम्नलिखित 12 गुण भी बताए हैं जिनका संबंध तीर्थंकर की आत्मा की उच्चता से है1. अनंत ज्ञान - सभी द्रव्यों की तीनों काल की अनन्त पर्यायों को एक साथ जानना अनन्त ज्ञान है। अनंत दर्शन - अनंत द्रव्य-गुण-पर्यायें व लोकालोक एक साथ सामान्यपने से दिखाई दें उसे अनंत दर्शन है। अनंत वीर्य - अंतराय कर्म के क्षय से आत्मा जब अनंत (परिपूर्ण) शक्तिमान बन जाता है, वह अनंत वीर्य है। 4. अनंत चारित्र - संकल्प-विकल्प रहित आत्मा में रमण कर स्थिर रहना, उस चर्या को अनंत चारित्र कहते हैं। अहिंसा, सत्य आदि रूप धर्म सब प्राणियों का पिता है, क्योंकि वही सब का रक्षक है। - नन्दीसूत्र-चूर्णि (1) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 111 5. अनंत सुख - तीर्थंकर की आत्मा के सहज स्वाभाविक आनंद की अनुभूति को अनंत सुख कहते हैं। क्षायिक समकित - दर्शनमोह एवं अनंतानुबंधी के क्षय से विशुद्ध आत्मीयता को क्षायिक समकित कहा जाता है। शुक्ल ध्यान - तेरहवें गुणस्थानक में स्थित तीर्थंकर को जो निर्विकल्प शुद्ध ध्यान होता है वह शुक्ल ध्यान है। अनन्त दानलब्धि - आत्मा की शक्ति जिससे अनंत दान मिलने की स्वाभाविक योग्यता प्राप्त हो, वह अनंत दानलब्धि है। अनंत लाभलब्धि - जिससे आत्म स्वरूप का अनंत लाभ प्राप्त हो, आत्मा की ऐसी दिव्य शक्ति अनंत लाभलब्धि होती है। अनंत भोगलब्धि - आत्मा की शक्ति जिसके द्वारा प्रतिक्षण अनन्त ऐश्वर्य का भोग है, वह अनन्त भोगलब्धि है। 11. अनंत उपभोगलब्धि - आत्मा के आनन्द का प्रवाह रूप में पुनः पुनः अनुभव हो, वह . अनंत उपभोगलब्धि है। 12. अनंत वीर्यलब्धि - जिसके आलंबन से आत्मा तेरहवें गुणस्थानक में रहने की शक्ति रखती हो, वह अनंत वीर्यलब्धि है। अठारह दोष रहित तीर्थंकर जिस आत्मा के चार घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं, उस आत्मा में किसी भी प्रकार का विकार या. दोष नहीं रह सकता। ऐसी अवस्था में आत्मा निर्दोष निष्कलंक निर्विकार और पापमुक्त होती है। अतः तीर्थंकर परमात्मा में दोष का लेश मात्र भी नहीं रहता। किन्तु यहाँ पर जिन दोषों के अभाव की चर्चा की जा रही है वे उपलक्षण मात्र हैं। इन दोषों का अभाव प्रकट करने से समस्त दोषों का अभाव समझ लेना चाहिए अर्थात् जिनमें ये 18 दोष नहीं है, उस आत्मा में अन्य दोष होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रवचन सारोद्धार एवं सत्तरियसय ठाणावृत्ति आदि ग्रन्थों में ये दोष दो प्रकार से गिनाए हैं। यथा पंचेव अन्तराया मिच्छत्तमन्नाणमविरइ कामो। हास छग राग दोसा निद्दाऽट्ठारस इमे दोसा॥ धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? - उत्तराध्ययन (14/17) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 0 112 1. दानांतराय लाभान्तराय 3. वीर्यान्तराय 4. भोगान्तराय 5. उपभोगान्तराय 6. मिथ्यात्व 7. अज्ञान 8. अविरति 9. काम (वेद) 10. हास्य 11. रति 12. अरति 13. शोक 14. भय 15. जुगुप्सा 16. राग 17. द्वेष 18. निद्रा हिंसाइ तिगं कीला, हासाइ पंचगं च चउ कसाया।' भय मच्छर अन्नाणां, निद्दा पिम्मं इअ व दोसा॥ दूसरी दृष्टि से 18 दोष इस प्रकार हैंहिंसा - तीर्थंकर ‘मा हन अर्थात् किसी भी जीव को मत मारो, ऐसा उपदेश देते हैं। वे स्वयं सभी जीवों की मन, वचन एवं काया द्वारा हिंसा से सर्वथा निवृत्त होते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में लिखा है- 'सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयण भगवया सुकाहियं।" 2. मृषावाद - अरिहंत होने से तीर्थंकर कभी मिथ्या भाषण नहीं करते, न ही अपना वचन पलटते हैं। तीर्थंकर भगवान शुद्ध सत्य की ही प्ररूपणा करते हैं। अदत्तादान - मालिक की आज्ञा बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी (अदत्तादान) है। तीर्थंकर निरीह (इच्छा रहित) होते हैं व यत्किंचित् किसी प्रकार का पदार्थ ग्रहण नहीं करते। क्रीडा - मोहनीय कर्म से रहित होने के कारण तीर्थंकर सभी प्रकार की क्रीडाओं से निवृत्त होते हैं। गाना, बजाना, रास खेलना, दौड़ना, भोग लगाना इत्यादि क्रियाओं के दोष से वे मुक्त होते हैं। 5. हास्य - किसी अद्भुत अपूर्व वस्तु या क्रिया को देखकर हँसी आती है। लेकिन तीर्थंकर सर्वज्ञ हैं, उनके लिए कोई वस्तु अपूर्व नहीं है। उनके मुख पर मुस्कुराहट जरूर होती है किन्तु उन्हें कभी भी हंसी नहीं आती। रति - इष्ट वस्तु की प्राप्ति से होने वाली प्रसन्नता रति है। तीर्थंकर को किसी वस्तु का मोह नहीं होता, वे वीतरागी-अकषायी हैं। अत: वे किञ्चित्मात्र भी रति का अनुभव नहीं करते। 7. अरति - प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति पर जो उद्वेग होता है वह अरति है। तीर्थंकर समभावी होते हैं। अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर भी वे कभी अप्रीत (दुःखी) नहीं होते। जो अपनी आत्मा को अनुशासन में रखने में समर्थ नहीं है, वह दूसरों को अनुशासित करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? - सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/17) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 3 113 8. शोक - इष्ट व मनोज्ञ वस्तु के वियोग की पीडा ‘शोक' होती है। तीर्थंकर के लिए कुछ इष्ट ही नहीं है, अत: वे शोकरहित होते हैं। भय - तीर्थंकर अत्यंत बलशाली होते हैं- शारीरिक व मानसिक (आत्मिक) रूप से। वे किसी भी प्रकार के भय से तिर्यंच, धन, आजीविका, मृत्यु आदि सभी डर से निवृत्त होते 9. हैं। 10. क्रोध - तीर्थंकर परमात्मा क्षमाशूर-क्षमासागर होते हैं। वे किसी के निंदनीय अप्रीतिकर कृत्य पर क्रोधित नहीं होते। मोहनीय कर्म के क्षय के कारण कषाय उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाते। 11. मान - अपने वैभव, शौर्य, विभूति का अहंकार करना मान है। अभिमान मिथ्यात्व का परिचायक है लेकिन दृढ सम्यक्त्वी होने से तीर्थंकरों में मान कषाय नहीं होता। 12. माया - तीर्थंकर परमात्मा सरलता की प्रतिमूर्ति होते हैं। किसी भी प्रकार का छल, कपट, उपाधि, निकृति आदि से वे रहित होते हैं। उन्होंने मोहनीयकर्म क्षय किया व उन्हें किसी भी कारण से माया करने की जरूरत नहीं होती। 13. लोभ - तीर्थंकर सन्तोष सागर में रमण करते हैं। कोई भी इच्छा आकांक्षा या तृष्णा उन्हें ___ . स्पर्श भी नहीं कर पाती। वे समस्त ऋद्धियों का परित्याग करते हैं व उनकी इच्छा भी नहीं करते। 14. मद - अपने गुणों पर गर्व करना मद है। मद वही होता है जहाँ अपूर्णता होती है। तीर्थंकर सर्वगुणसम्पन्न होते हैं। अतः वे मद से सर्वथा रहित होते हैं। 15. मत्सरता - दूसरों में किसी वस्तु या गुण की अधिकता देखने से होने वाली ईर्ष्या को मत्सरता कहते हैं। तीर्थंकर तो स्वयं सर्वगुण सम्पन्न होते हैं। अतः वे कभी भी ईर्ष्याभाव धारण नहीं करते। अज्ञान - ज्ञान न होने का कारण ज्ञानावरणीय कर्म है तथा विपरीत ज्ञान की उपस्थिति होना मोहनीय कर्म का सूचक है। तीर्थंकर केवलज्ञानी होते हैं, कर्मों से रहित होते हैं। अतः उनके वचन परम ग्राह्य होते हैं। 17. निद्रा - दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने से तीर्थंकर केवली-अवस्था में क्षण भर की भी निद्रा नहीं लेते। वे सदैव निरंतर जागृत रहते हैं। 18. प्रेम (मोह) - तीर्थंकर में तन, स्वजन तथा धनादि सम्बंधी स्नेह या राग नहीं होता। वे वंदक और निंदक में समभाव रखते हैं। अतः वे इस दोष से भी मुक्त होते हैं। मानव! तू स्वयं ही अपना मित्र है। तू बाहर में क्यों किसी सखा की खोज कर रहा है? - आचाराङ्ग (1/3/3) ) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 988 114 ___ इन अठारह दोषों में समस्त दोषों का समावेश हो जाता है। अतः तीर्थंकर भगवंत समस्त क्रियाओं के समस्त दोषों से मुक्त होते हैं। अत: उन पर किसी प्रकार का आक्षेप लगाना मिथ्यात्व है। प्रभु तो सर्वथा निर्दोष होते हैं। तीर्थंकर के 34 अतिशय यद्यपि वीतरागता और सर्वज्ञता में सभी केवलज्ञानी समान होते हैं किन्तु तीर्थंकर की प्रभावोत्पादक अन्य भी विशेषताएँ अतिशय रूप में होती हैं। अतिशय यानी श्रेष्ठता, उत्तमता, महिमा, प्रभाव, चमत्कार इत्यादि। अभिधान चिन्तामणि स्वोपज्ञ टीकानुसार “जगतोऽप्यतिशेरते तीर्थंकरा एभिरित्यतिशया:" यानी जगत् के समस्त जीवों से उत्कृष्ट अतिशय है। तीर्थंकर परमात्मा के अनन्त अतिशय हैं। तो क्या उनके सिर्फ 34 अतिशय ही होते हैं? इसके उत्तर में वीतराग स्तव की अवचूर्णि में लिखा है-“न, अनन्तातिशयत्वाद्, तस्य चतुस्त्रिंशत संख्यानं बालावबोधाय' अर्थात् अतिशय तो अनंत हैं। अतिशयों की संख्या 34 मात्र बालबुद्धि जीवों को समणा सकें, इस हेतु से रखी है। समवायांग सूत्र में 'चौंतीस बुद्धाइसेसा' कहकर बुद्धों अर्थात् तीर्थंकरों के 34 अतिशय बताए हैं। वे अतिशय इस प्रकार हैं1. सर्व केश, रोम तथा रमश्रु, नख का अवस्थित व मर्यादित रहना। 2. शरीर का रोगरहित, स्वस्थ तथा निर्मल होना, रज, मैल आदि अशुभ लेप न लगना। 3. गाय के दूध के समान शारीरिक रक्त-माँस का उज्ज्वल धवल होना। श्वासोच्छ्वास का पद्म व नील कमल की तरह एवं उत्पलकुष्ट (गंध द्रव्य विशेष) के समान सुगन्धित होना। आहार और नीहार (शौच क्रिया) प्रच्छन्न अर्थात् चर्मचक्षुओं से अदृश्य होना (अवधिज्ञानी देख सकता है)। आकाशगत प्रभु के आगे गरणाट शब्द करता हुआ धर्मचक्र चलना। 7. आकाशगत मस्तक के ऊपर मोतीयुक्त तीन छत्र होना। 8. दोनों ओर तेजोमय (प्रकाशमय) एवं उज्ज्वल केशयुक्त - रत्न जड़ित डंडी वाले चंवर (चामर) का होना। 9. आकाश के समान स्वच्छ एवं सपादपीठ रत्नजड़ित स्फटिक सिंहासन प्रभु के लिए होना। विश्व में आत्माएँ काल-क्रम के अनुसार शुब्द होते-होते मनुष्यत्व को प्राप्त होती हैं। - उत्तराध्ययन (3/7) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 18. 19. 20. 21. 22. 17. तीर्थंकर की चारों दिशाओं में एक योजन पर्यंत सुगंधित अचित्त जलवृष्टि से भूमि की धूलि का पूर्ण शमन होना । 23. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 115 तीर्थंकर के आगे आकाश में रत्नजड़ित स्तंभ वाले, हजार पताकाओं से युक्त इन्द्रध्वज का चलना । भगवान जहाँ जहाँ ठहरें - बैठें, वहाँ पर उसी समय पत्र, पुष्प व पल्लव से सुशोभित छत्र, घंटा, ध्वज व पताका सहित अशोक वृक्ष का प्रकट होना । 24. दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला, प्रभु के थोड़ा पीछे की ओर अतिभास्वर ( देदीप्यमान) तेजोमंडल प्रभामंडल का होना । प्रभु जहाँ-जहाँ विचरें, वहाँ का भूमि भाग गड्ढे या टीले से रहित समतल एवं रमणीय हो जाना । प्रभु के विचरण पर काँटों का अधोमुख अर्थात् उल्टे हो जाना ताकि पैर में न चुभ सकें । तीर्थंकर जहाँ विचरते हैं, वहाँ की ऋतुओं का सुखस्पर्श वाली अर्थात् अनुकूल हो जाना तथा मौसम का सुहावना होना । प्रभु के चारों ओर एक - एक योजन ( चार-चार कोस ) तक सुगन्धित वायु का चलना व भूमिक्षेत्र स्वच्छ व शुद्ध होना । तीर्थंकर जहाँ विचरते हैं, वहाँ पर पाँच प्रकार के अचित्त पुष्पों की देवकृत जानुप्रमाण वृष्टि होना, जिनका डंठल सदैव नीचे की तरफ तथा मुख ऊपर की ओर होता है । अमनोज्ञ अशुभ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण और गंध का अपकर्ष ( नाश ) । मनोज्ञ शुभ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण व गंध का उद्भव ( प्रकट) होना । देशना देते समय भगवान् का स्वर गंभीर एवं हृदयस्पर्शी होना व एक योजन तक सुनाई देना । - - प्रभु का अर्धमागधी भाषा ( आर्ष प्राकृत व मागधी भाषा का सम्मिश्रण) में धर्मप्रवचन होना । अर्द्धमागधी भाषा का आर्य एवं अनार्य के मनुष्य, द्विपद (पक्षी), अपद (सर्प आदि), चतुष्पद (पशु) आदि तिर्यंच को अपनी-अपनी भाषा में कल्याणकारी, हितकारी परिणत होना । पहले से ही जिनके वैर बँधा हुआ है, ऐसे भवनपति, व्यंतर, वैमानिक ज्योतिष आदि देवों का प्रभु के चरणों में आकर वैर भूलना एवं प्रसन्नचित्त हो धर्मश्रवण करना । आत्मा ही सुख-दुःख का कर्त्ता और भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई होनेपर वही शत्रु है। उत्तराध्ययन (20/37) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 116 26. 30. 25. अन्य मत - दर्शन पर अभिमान रखने वाले वादियों का भी भगवान के चरणों में आकर वंदन करना। वाद के लिए आए हुए अन्यतीर्थी प्रतिवादी का निरुत्तर हो जाना। (तीर्थंकर के पच्चीस योजन अर्थात् 100 कोस के अन्दर निम्नलिखित आठ बातें) ईति, चूहे, टिडे आदि जीवों से धान्यादि का उपद्रव न होना। 28. महामारी (हैजा, प्लेग आदि) उपद्रव का न होना। स्वचक्र का भय (स्वराज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता। परचक्र का भय (अन्य राज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता। 31. अतिवृष्टि (जरूरत से अधिक वर्षा) नहीं होती। 32. अनावृष्टि (कम वर्षा या वर्षा का अभाव) नहीं होती। 33. दुर्भिक्ष - दुष्काल नहीं पड़ता। 34. पूवोत्पन्न - उत्पात तथा व्याधियाँ - तत्काल शांत हो जाता है। इस प्रकार तीर्थंकर 34 अतिशयों से सुशोभित होते हैं। इन 34 अतिशयों में से दो से पाँच तक, ये 4 अतिशय जन्म से होते हैं। इक्कीस से लेकर चौंतीस तक तथा भामंडल का अतिशय ये 15 अतिशय घाती कर्मों के क्षय होने पर केवलज्ञानभावी होते हैं। शेष अतिशय देवकृत होते हैं। वाणी के 35 गुण तीर्थंकर देव कृत्कृत्य होने पर भी, तीर्थंकर नामकर्म के उदय से निरीह भाव से जगजीवों के कल्याण हेतु धर्मोपदेश देते हैं। श्री समवायांग सूत्र में लिखा है- ‘पणतीस सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता।' अर्थात् तीर्थंकर की वाणी सत्य वचन के अतिशयों से सम्पूर्ण परिपूर्ण होती है, जिसके 35 गुण होते हैं। समवायांग राजप्रश्नीय सूत्र, औपपातिक सूत्र आदि आगम ग्रन्थों की टीकाओं में निम्नलिखित 35 वचनातिशय प्राप्त होते हैं1. संस्कारवत्व - संस्कृत आदि लक्षणों से युक्त होना अर्थात् वाणी का भाषा की दृष्टि से संस्कारयुक्त निर्दोष होना। 2. उदात्तत्व - उदात्त स्वर अर्थात् स्वर का ऊँचा बुलन्द होना, उच्च स्वभाव से एक योजन तक पहुँचे इससे परिपूर्ण होना। प्राणी किससे भय पाते हैं ? दुःख से। दुःख किसने किया है ? स्वयं आत्मा ने, अपनी ही भूल से। - स्थानांग (3/2) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 117 3. उपचारोपेतत्व - रे, 'तू' इत्यादि तुच्छ ग्राम्य दोष एवं ग्रामीणता के अन्य हल्के शब्दादि से रहित होना। गंभीर शब्दता - मेघगर्जना के समान गंभीर आवाज (वाणी) व शब्दत्व का होना। अनुनादित्व - अनुनाद अर्थात् प्रतिध्वनि युक्त होना एवं शब्दों का यथार्थ यथोचित स्पष्ट उच्चारण होना। दक्षिणत्व - भाषा का वक्रता रहित सरल स्पष्ट होना एवं दाक्षिण्य भाषा का उपयोग करना। उपनीतरागत्व - वाणी का मालकोश (प्रधान राग), मालव, केशिकादि ग्राम रागों से युक्त होना जो श्रोता का तल्लीन बना दे। 8. . महार्थत्व - अभिधेय अर्थ में महानता गम्भीरता एवं परिपुष्टता का होना, थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ कहना। अव्याहतपौर्वापर्यत्व - वचनों में पूर्वापर विरोध न होना। जैसे अहिंसा परमो धर्म कहकर यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः ऐसे वचन न कहना। शिष्टत्व - सिलसिलेवार प्रवचन करना, अभिमत सिद्धांतों का कथन करना व वक्ता की शिष्टता सूचित हो, ऐसा अर्थ कहना। 11. असन्दिग्धत्व - अभिमत वस्तु का इस प्रकार स्पष्टतापूर्वक कथन करना कि श्रोता के दिल में किंचित् मात्र भी संशय न हो। अपहृतान्योत्तरत्व - वचनों का दूषण (दोष) रहित होना और इसलिए शंका-समाधान का मौका न आने देना। __हृदयग्राहित्व - श्रोताओं को एकाग्र, आकृष्ट एवं आनन्दित करे, ऐसे कठिन विषय को भी सहज रूप से समझाना। देशकालात्यतीतत्व - बड़ी विचक्षणता से देश काल के अनुरूप, अनुसार एवं अवसरोचित वचन कहना। तत्त्वानुरूपत्व - विवक्षित वस्तु का जो स्वरूप (विषय) हो उसी के अनुरूप उसका सार्थक सम्बद्ध व्याख्यान करना। 16. अप्रकीणप्रसृतत्व - प्रकृत वस्तु का उचित विस्तार करना। असम्बद्ध अर्थ न कहना तथा सम्बद्ध अर्थ का भी अतिविस्तार न करना। 17. अन्योन्यप्रगृहीतत्व - पद और वाक्यों का वाक्यानुसारी सापेक्ष होना एवं निस्सार (सारहीन) पद न कहना। जो समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता है। - बृहत्कल्पभाष्य (4586) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 27. 28. 29. 30. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 118 अभिजातत्व प्रतिपाद्य विषय की भूमिकानुसार विषय और वक्ता का होना जो वक्ता की कुलीनता - शालीनता दर्शाए । अतिस्निग्ध - मधुरत्व - अमृत से भी अधिक, स्नेह एवं माधुर्य से परिपूर्ण वाणी का श्रोता के लिए परम सुखकारी होना । अमरमर्मवेधित्व - मर्मवेधी न हो अर्थात् किसी के मर्म गुप्त रहस्य को प्रकाशित करने वाली न हो । 31. 26. उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलत्व - श्रोताओं के हृदय में वक्ता विषयक निरंतर कुतूहल (आश्चर्य) बने रहना । अद्भुतत्व - अद्भुत अर्थरचना वाली होना एवं वचनों का अश्रुतपूर्व होने के कारण श्रोताओं में हर्षरूप विस्मय बने रहना । अनतिविलम्बितत्व - विलम्बरहित होना अर्थात् धीरे नहीं, तेज नहीं किन्तु धाराप्रवाह उपदेश देना । - अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व - धर्मार्थरूप पुरुषार्थ की पुष्टि करने वाली हो व मोक्षरूप अर्थ एवं श्रुतचारित्ररूप धर्म से सम्बद्ध होना । उदारत्व अभिधेय अर्थ की गंभीरता होना व तुच्छतारहित उदारता से युक्त होना । परनिन्दात्मोत्कर्ष विप्रयुक्तत्व - दूसरों की निन्दा व आत्मप्रशंसा से रहित होना । वे पाप की निंदा करते हैं, पापी की नहीं । श्रोताओं द्वारा श्लाघनीय व प्रशंसनीय होना क्योंकि वचन उपर्युक्त गुण - उपगतश्लाघत्व से युक्त होते हैं । अनपनीतत्व - कारक, काल, वचन, लिंग आदि व्याकरण के विपर्यास रूप दोषों का न होना । - विभ्रम-विक्षेपकिलि-किंचितादि - भ्रान्ति होना विभ्रम है, दिल पर न लगना विक्षेप है, रोषभय-लोभ होना किलिकिंचित है। प्रभु की वाणी का ऐसा कोई प्रभाव नहीं होता । विचित्रत्व - वर्णनीय वस्तुओं की विविधता होने के कारण तथा विचित्र अर्थ वाली से वाणी में विचित्रता होना । आहित विशेषत्व - दूसरे पुरुषों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने से श्रोताओं को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त होना । जो व्यक्ति हिताहारी है, मिताहारी है और अल्पाहारी है, उसे किसी वैद्य से चिकित्सा करवाने की जरूरत नहीं है, वह स्वयं ही स्वयं का वैद्य है, चिकित्सक है। ओपनियुक्ति (578) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 119 साकारत्व - वस्तु स्वरूप को साकार रूप में प्रस्तुत करने वाली हो तथा वर्ण-पद वाक्य अलग-अलग हों। सत्त्वपरिगृहीतत्व - भाषा का सत्त्वप्रधान, ओजस्वी व प्रभावशाली होना जिससे स्वयमेव वह साहसयुक्त हो जाती है। अपरिखेदितत्व - स्व पर के लिए खेदरहित होना एवं उपदेश देते हुए थकावट का अनुभव न करना। 35. अव्युच्छेदित्व - विवक्षित अर्थ की सम्यक् सिद्धि होने तक बिना व्यवधान के उसका अविच्छिन्न अर्थबोधक व्याख्यान करना। . इस प्रकार तीर्थंकर वाणी 35 सत्यवचनातिशय से युक्त होते हैं। पहले सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से है एवं शेष अतिशय अर्थ का अपेक्षा से हैं। तीर्थंकरों की पदवियाँ . शास्त्रों में वासुदेव प्रतिवासुदेव, कुलकर इत्यादि 23 पदवियाँ गिनाई हैं। उन तेईस पदवियों में से तीर्थंकर ज्यादा से ज्यादा निम्न 6 पदवियाँ ही प्राप्त कर सकते हैं। 1. सम्यक् दृष्टि - सम्यक्त्व दर्शन जिसे प्राप्त है। 2. मांडलिक राजा - एक मंडल का अधिपति राजा। 3. चक्रवर्ती - षट्खण्डों को जीतने वाला। 4. साधु - 27 महाव्रतों से युक्त सहायक गुरु श्रमण। 5. केवली - केवल ज्ञान-दर्शन से युक्त चरमशरीरी। 6. तीर्थंकर - तीर्थ की संस्थापना करने वाले। . इन छह में से सम्यग्दृष्टि साधु, केवली एवं तीर्थंकर ये 4 तो प्रत्येक तीर्थंकर को प्राप्त होती हैं। स्पष्टतया वे वासुदेव, प्रतिवासुदेव नहीं बन सकते क्योंकि वे मोक्षगामी नहीं होते। वे गणधर भी नहीं बन सकते क्योंकि वे किसी से दीक्षा नहीं लेते। इत्यादि अन्य पदवियों के लिए भी समझना। तीर्थंकरों की आत्मा तो तेरहवें गुणस्थानक की अनुमोदनीय पदवी पर स्थित होती है। शास्त्र कहते है इंदिय-विसय-कसाए, परिसह वेयणाए उवसग्गे। ए ए अरिणो हंता, तित्थयरा येण वुच्चंति॥ पाँचों इन्द्रियाँ, पाँचों इन्द्रियों के 23 विषय एवं 252 विकार, 64 कषाय, शारीरिक, मानसिक एवं उभय रूप त्रिविध उपसर्ग, परिषह रूपी अन्तरंग शत्रुओं को जिसने मार दिया, ऐसी पदवी तीर्थंकर की ही होती है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 120 जिज्ञासा जब तीर्थंकर विहार करते हैं, तो अष्ट मंगल की आकृतियाँ उनके आगे चलती हैं। आज भी अष्ट मंगल के द्वारा भगवान की पूजा होती है। इसके पीछे क्या रहस्य है ? समाधान कुछ आकृतियाँ अमंगल होती हैं, कुछ मंगल होती हैं एवं कुछ कोई भी प्रभाव नहीं छोड़तीं । अष्ट मंगल की आकृतियाँ मंगलकारी होती है। इनके पीछे कुछ रहस्य होता है। - - 1. श्रीवत्स प्रभु के हृदय में रही हुई जीवमात्र के प्रति करुणा एवं अनन्त - अक्षय ज्ञानकोष उनकी छाती पर बाहर की ओर प्रकट होता है, जो विशुद्ध ज्ञान का प्रतीक है । 2. पूर्ण कलश श्रीफल व अन्य उत्तम द्रव्यों से परिपूर्ण कलश के समान तीर्थंकर भी अनन्त गुणों से युक्त अपने कुल व तीनों लोकों के लिए पूर्णकलश की तरह मंगलकारी बने । - - - 3. भद्रासन तीर्थंकर त्रिलोकाधिपति होते हैं। भद्र यानी कल्याण । प्रभु का आत्मिक आधिपत्य सभी विघ्नों को टालने में सक्षम है। ऐसा भद्रासन तीर्थंकर के पास रहा हुआ मंगलकारी होता है। 4. स्वस्तिक - स्वस्ति यानी अच्छा, कल्याणकारी, उत्तमोत्तम । तीर्थंकर भी सर्वत्र - सर्वदा स्वस्ति करने वाले होते हैं, कल्याणकों पर भी सभी का कल्याण करने वाले होते हैं। स्वस्तिक की आकृति परम शुभ मानी गई है। 5. नन्दावर्त नौ कोनों वाला विशेष स्वस्तिक ही नंदावर्त है। नवनिधान, नवलक्ष्मी का भोगोपभोग होने पर भी मोक्षरूपी सुख को प्राप्त करने की प्रेरणा दे ऐसी नंदावर्त की आकृति है। 6. वर्धमान संपुट - तीर्थंकर परमात्मा सदैव वृद्धि को प्राप्त होते हैं, अध्यात्म के नए शिखरों को प्राप्त करते हैं, यश कीर्ति का भी वर्धन होता है। वर्धमान संपुट भी ऐसी ही मंगल आकृति है । 7. मीनयुगल - तिर्यंच जीव भी कर्मों के नाश के लिए तीर्थंकर को पूज्य मानते हैं। मत्स्य युग्म बहुत ही मांगलिक मानी गई है, जो नीरोग अंग प्राप्ति का संदेश प्रतीक है। 8. दर्पण आत्मा को निहारने के लिए तीर्थंकर ने तप, ध्यान आदि दुष्कर कृत्य किए। दर्पण मांगलिक द्रव्य अन्य को भी प्रभु आलंबन से आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा देता है। - Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों के विशेषण इस अध्ययन में हम चर्चा करेंगे कि तीर्थंकरों को किन-किन विशेषणों से विभूषित किया गया है। विशेष्य तो तीर्थंकर परमात्मा ही हैं, किन्तु वे इतने गुणविशाल होते हैं कि उनके विशेषण अनंत होते हैं। तीर्थंकरों के जन्म कल्याणक पर सौधर्मेन्द्र प्रभु की गुणस्तुति 108 काव्यों से करता है जिनमें एक विशेषण शब्द का प्रयोग दूसरी बार नहीं होता है। तीर्थंकर भगवान् जो सबसे सर्वसाधारण - सर्वप्रचलित विशेषण तीर्थंकरों के लिए उपयोग करते हैं, वह है 'भगवान।' भगवान शब्द का अर्थ क्या है और तीर्थंकर को भगवान की उपाधि क्यों दी जाती है? इसके उत्तर में शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं - भगवा ति वचनं सेठं भगवा ति वचनमुत्तमं । . गुरुगारवयुत्तो सो भगवा तेन वुच्चति ॥ अर्थात् - जिनके वचन उत्तमोत्तम हैं एवं जो शील आदि गुणों में सर्वश्रेष्ठ है वह भगवान है। विपाक सूत्र की टीका में लिखा है भावितसीलो भावितचित्तो भावितपळे ति भगवा। - अर्थात् - जिसके शील, चित्त और प्रज्ञा भावित है, वह भगवान है। 'भगवान' शब्द भग से निर्मित है। जो ‘भग' से युक्त है वो भगवान है। ‘भग' शब्द की व्याख्या करते हुए ग्रन्थों में अनेक अर्थ दिए हैं। विशेषावश्यक भाष्य में उल्लिखित है इस्सरियरूवसिरिजसधम्मपयत्ता मया भगाभिक्खा। ते तेसिमसामण्णा संति जओ तेण भगवंते ।। अर्थात् - भग शब्द के छह अर्थ हैं- ऐश्वर्य, रूप, श्री (लक्ष्मी), यश, धर्म और पुरुषार्थ। जो इनसे युक्त हैं, वे भगवान् हैं। ललित विस्तरा में भी 'भग' शब्द के 6 अर्थ दिये हैं। योगशास्त्र मेघ के समान दानी भी चार प्रकार के होते हैं- कुछ बोलते हैं, देते नहीं। कुछ देते हैं; किन्तु कभी बोलते नहीं। कुछ बोलते भी है और कुछ देते भी है। कुछ न बोलते हैं, न देते हैं। - स्थानांग (4/4) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 122 टीका में भग शब्द के 14 अर्थ दिये हैं - सूर्य, ज्ञान, माहात्म्य, यश, वैराग्य, मुक्ति, रूप, वीर्य, प्रयत्न, इच्छा, श्री, धर्म, ऐश्वर्य, योनि। तीर्थंकर परमात्मा उपर्युक्त सभी परिभाषाओं पर खरे उतरते हैं। अत: वे भगवान कहलाने के सम्यक् अधिकारी हैं। तीर्थंकर परमात्मा अनंत ऐश्वर्य के धारक होते हैं, रूप-लावण्य के पोषक होते हैं। लक्ष्मी जिनके चरणकमल में निवास करती है। ऐसे यश के धारक होते हैं। वे धर्म एवं पुरुषार्थ की प्रतिमूर्ति, प्रचारक होते हैं। अतएव तीर्थंकर को भगवान कहा गया है। भगवान शब्द के कुछ पर्यायवाची नैरुक्त भी प्राप्त होते हैं। 1. भवान्त - भव (संसार) का अन्त करने वाले। 2. भयान्त - भय (त्रास) का नाश करने वाले। 3. भदन्त - भद (कल्याण) एवं सुख से युक्त। 4. भजन्त - सिद्धि के मार्ग की उपासना करने वाले। 5. भान्त/भ्राजन्त - ज्ञान से दीप्तियुक्त होने वाले। . 6. भग्नवान - कषायों को भग्न (क्षीण) करने वाले। इस प्रकार तीर्थंकर, भगवद्-विषयक अनेक विशेषणों से अभिहित किये गये हैं। सर्वश्रेष्ठ उपमाओं से उपमित तीर्थंकर तीर्थंकर को मुख्यतया चार लोकोत्तर विशिष्ट अर्थद्योतक उपमाओं से उपमित किया गया है। ऐसे विशेषणों से उपमित कर आगमकारों ने तीर्थंकर की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. ने कहा है - “महागोप महामाहण कहिये. निर्यामक सथ्थवाह । उपमा एहती जेहने छाजे ते जिन नमीए उत्साह रे भविका ! सिद्धचक्रपद वंदौ, जेम चिरकाल नंदो रे भविका ॥" वे चार उपमाएँ इस प्रकार हैं1. महागोप - गोप अर्थात् ग्वाला। विश्व में सर्वोत्तम ग्वाला अर्थात् 'महागोप'। उत्तम ग्वाला गौ आदि पशुओं को अरण्य में सुरक्षित रूप से चारा चराता है उन्हें मार्ग में चलाता है, हिंसक पशुओं से उनकी सर्वरूप सुरक्षा करता है एवं उनके स्थान तक पहुँचाता है। इसी जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट होकर परीत संसारी हो जाते हैं, अल्प जन्म-मरणवाले हो जाते हैं। - उत्तराध्ययन (36/260) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 3. 4. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 123 प्रकार तीर्थंकर परमात्मा संसार रूपी वन में भव्यात्माओं को धर्मरूपी भोजन करवाते हैं, वास्तविक शाश्वत सुख का मार्ग बताकर जन्म-मरणादि के त्रास (भय) से बचाने वाले हैं, स्वस्ति (कल्याण) के शिवपुर तक पहुँचाते हैं और मिथ्यात्व आदि शत्रुओं से संरक्षण करते हैं। इस आशय से तीर्थंकर भगवान उत्तमोत्तम गोप महागोप हैं। महामाहण मा हण अर्थात् मत मारो। किसी भी जीव को प्राणों से रहित न करो, ऐसा उद्घोष तीर्थंकर ही करते हैं। सभी जीवों को प्राण प्रिय हैं, अतः किसी भी जीव की हिंसा मत करो ऐसा उपदेश देने वाले तीर्थंकर परमात्मा महामाहण है। - माह का एक अर्थ साधु भी होता है। तीर्थंकर तो त्रिलोकपूज्य सर्वश्रेष्ठ श्रमण - माहण होते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से भी तीर्थंकरों को महा-माहण की उपमा दी गई है। महानिर्यामक - निर्यामक अर्थात् सुकानी (कप्तान) सम्पूर्ण जगत् में महान् कप्तान (सुकानी) महानिर्यामक। जिस प्रकार सामुद्रिक कप्तान समुद्र से जहाज में सफर करने वाले बन्धुओं को सुखपूर्वक इच्छित स्थान पर भी पहुँचाता है, उसी प्रकार परमात्मा स्व-पर कल्याण की भावना भाते हैं। संसार रूपी समुद्र से पार होने के इच्छुक बन्धु जब धर्मरूपी नौका में स्थान ले लेते हैं, तब उन साधकों को विषय-विकार आदि महामच्छों के विघ्नों से बचाकर तीर्थंकर उन्हें निर्विघ्नता पूर्वक मोक्षनगर में पहुँचाने का परम सामर्थ्य रखते हैं। इसीलिए श्रेष्ठ निर्यामक अर्थात् महानिर्यामक की उपमा से उपमित हैं। महासार्थवाह अत्यन्त भयजनक अरण्य से होकर किसी नगर की ओर जाते समय लोगों का पूर्ण संरक्षण सार्थवाह करता है। उसी प्रकार संसार व भवचक्र रूपी वन में राग-द्वेषरूपी लुटेरों के आक्रमण से तीर्थंकर परमात्मा भव्यात्माओं की पूर्ण रक्षा, पूर्ण संरक्षण करते हैं। वे उन्हें भव- बोधि का ज्ञान देते हैं एवं संसारवन पार करने का तितिक्षा मंत्र देते हैं जिसे मानने वाली भव्यात्मा शिवपुरी के रथ पर सवार हो जाती है। अतएव तीर्थंकर को उत्तमोत्तम श्रेष्ठ सार्थवाह महासार्थवाह की उपमा से अभिहित किया है। तीर्थंकर परमात्मा की विशिष्टता का संकेत करते हुए कहा है कि अगणित अनगिनत सूर्यो की रक्ताभ रश्मियों से अधिक सौम्यता जिनके मुखमंडल को देदीप्यमान बनाती है, जिनके नयनों रूपी गंगा के स्रोतों से स्नेह एवं मैत्री का निर्झर प्रवाहित होता है, जिनकी वाणी का प्रत्येक शब्द लौह चुम्बक सदृश बहिरात्म भाव को अन्तरात्म भाव की ओर खींचता है, ऐसे त्रिलोकज्ञ - त्रिकालज्ञ परम मुक्ति के परामर्शदाता के गुणों का लेखन जीवन पर्यन्त अविराम किया जाय तो भी प्रभु गुणरत्न पूर्ण नहीं होंगे। ज्ञान के अभाव में चारित्र भी नहीं है। - व्यवहार भाष्य (7/217) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 9 124 णमोत्थुणं में तीर्थंकरों के विशेषण स्वयं की आत्मा को परम पवित्र बनाने एवं भाषावर्गणा के पुद्गलों को कर्मनिर्जरा में सहायक बनाने हेतु स्तव, स्तुति उत्तम साधन हैं। तीर्थंकरों की विशेषताओं को पुष्पमाला की तरह सजोकर 'नमोत्थुणं' की स्तुति की जाती है जो सर्वप्रथम शक्रेन्द्र करता है। ____ अरिहंताणं भगवंताणं - तीर्थंकर को अरिहंत एवं भगवंत (भगवान) के विशेषण से आराध्य बनाया है। तित्थयराणं - जिससे संसार रूपी समुद्र पार हो, ऐसे श्रमण-श्रमणी श्राविका श्रावक रूपी चतुर्विध संघ की रचना करने वाले तीर्थंकर निम्नलिखित गुणों के धारक होते हैं। आईगराणं - कालाश्रयी श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म की सर्वप्रथम प्ररूपणा, आदि (शुरुआत) करने वाले। सयंसंबुद्धाणं - गुरु के उपदेश बिना स्वयं ही प्रतिबोधित होकर, षड्द्रव्यों के हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का स्वयं स्वरूप समझकर बोध को प्राप्त हुए (स्वयं-सम्बुद्ध) पुरिसुत्तमाणं - 1008 उत्तम लक्षणों से युक्त बाह्यरूपकांति ऐश्वर्यादि एवं अन्तरंग गुणादि में जगत् के समस्त पुरुषों में सर्वोत्तम एवं श्रेष्ठ (पुरुषोत्तम)। पुरिससीहाणं - सिंह के समान अत्युत्कृष्ट शौर्य के स्वामी, वनचर रूपी सभी जीवों को क्षुब्ध कराते हुए व प्रवर्तित मार्ग में निडर स्वयं प्रवृत्त हुए उत्तम पुरूष। (पुरुषसिह) पुरिसवरपुण्डरीयाणं - पुरुषों में पुण्डरीक (कमल) के समान। जिस प्रकार सहस्रकमल कीचड से अलिप्त रहता हुआ रूप व सुगंध में अनुपम होता है, उसी प्रकार तीर्थंकर कामरूपी कीचड़ तथा भोग रूपी पानी से अलिप्त रह महायश व अनंत गुणों के भंडारी हैं। पुरिसवरगंधहत्थीणं - पुरुषों में गन्धहस्ती के समान। जैसे गंधहस्ती सेना में श्रेष्ठ तथा अस्त्र शस्त्र की परवाह नहीं करता है, उसी प्रकार तीर्थंकर चतुर्विध संघ के नायक तथा उपसर्गपरीषह का शमन करते हैं। गंधहस्ती की गंध से पर का संकट दूर होता है, वैसे ही तीर्थंकरों का विचरण सर्वसंकट दूर करने वाला होता है। लोगुत्तमाणं - लोकोत्तम। बाह्य तथा आंतरिक विभूतियों से युक्त तीर्थंकर परमात्मा तीनों लोकों में सर्वोत्तम हैं। लोगनाहाणं - लोकनाथ। भव्य जीवों के योगक्षेम कराने वाले अर्थात् समकितादि प्राप्त कराने वाले तीर्थंकर लोक के नाथ (स्वामी) हैं। जो व्यक्ति चारित्र-गुण से रहित है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता - आवश्यकनियुक्ति (97) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 125 लोगहियाणं - लोकहितकर्ता। सवि जीव करूँ शासन रसी, ऐसी हितकारी भावना के उपदेश तथा प्रवृत्ति से तीर्थंकर ही समस्त लोक के हितकर्ता हैं। लोगपईवाणं - लोकप्रदीप। अज्ञानांधकार का नाश करने वाले तीर्थंकर लोक में दीपक के समान हैं। ___ लोगपज्जोयगराणं - लोकप्रकाशक। कल्याणकों पर द्रव्य उद्योत हो एवं केवलज्ञान प्राप्त कर ज्ञान का प्रकाश किया हो, ऐसे तीर्थंकर परमात्मा ही सर्वप्रकाशक सच्चे सूर्य हैं। अभयदयाणं - अभयदाता। जगत् के समस्त प्राणियों को 7 प्रकार के भय से मुक्त करने वाले तीर्थंकर अभयदान के दाता हैं। ___ चक्खुदयाणं - चक्षुदाता। ज्ञानावरणीय कर्मरूप पट्टी का अनावरण करने वाले तीर्थंकर श्रुतज्ञानरूप चक्षु के दाता है। मग्गदयाणं - मार्गदाता। संसाररूपी अटवी में रागद्वेषरूपी चोरों से बचाकर रत्नत्रयरूप, मोक्षमार्ग के प्रदर्शक तीर्थंकर होते हैं। सरणदयाणं - शरणदाता। चारों गतियों के दुःखों से मुक्ति पाने वाले प्राणियों को तीर्थंकर ज्ञानरूप सुभट की शरण देते हैं। बोहिदयाणं - बोधिदाता, अनादिकाल से मिथ्यात्व रोग से पीड़ित भव्यों को सम्यक्त्व रूप औषधि देने वाले तीर्थंकर बोधिदाता हैं। धम्मदयाणं - धर्मदाता। पतित होते हुए व्यक्ति की आत्मा को देशविरति व सर्वविरति रूप धर्म से उत्थान करने वाले तीर्थंकर धर्मप्रदाता हैं। ___धम्मदेसयाणं - धर्मोपदेशक। स्याद्वादमय निरुपम एवं यथातथ्य धर्म के स्वरूप का उपदेश तीर्थंकर देते हैं। धम्मनायगाणं - धर्मनायक। चतुर्विध संघ के संस्थापक, प्रवर्तक व रक्षक होने से तीर्थंकर धर्मनायक हैं। ' धम्मसारहीणं - धर्मसारथी। धर्मरूपी रथ पर आरूढ़ होकर चारों तीथों को निर्विघ्न मोक्ष पहुँचाने वाले तीर्थंकर धर्मरथ के सारथी हैं। धम्मवरचाउरंत - चक्कवट्टीणं धर्मचक्रवर्ती। चार गति का अंत करने वाले तीर्थंकर धर्मचक्र के धारक होने से धर्मचक्रवर्ती हैं। शास्त्र का सामान्य अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाशदायक होता है। जिसके चक्षु खुले हैं, उसे एक दीपक भी अपेक्षित प्रकाश दे देता है। - आवश्यकनियुक्ति (99) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 126 अप्पडिहय - वरनाण-दंसणधराणं - अनाशवान केवलज्ञान एवं केवलदर्शन के धारक। विअदृ छउमाणं - घमस्थावस्था से जो मुक्त हैं। जिणाणं जावयाणं - तीर्थंकर स्वयं जिन (राग-द्वेष शत्रुओं के विजेता) हैं और दूसरों को भी जिन बनने का मार्ग देने वाले ज्ञापक हैं। तिन्नाणं तारयाणं - स्वयं तिरे औरों को तारे। बुद्धाणं बोहयाणं - स्वयं बुद्ध एवं दूसरों को बोध देने वाले। । मुत्ताणं मोअगाणं - स्वयं मुक्त हैं एवं दूसरों को मुक्ति दिलाने वाले। सव्वन्नृणं सव्वदरिसीणं - सर्वज्ञ-सर्वदर्शी। सौधर्मेन्द्र उक्त विशेषणों से तीर्थंकर परमात्मा की स्तव-स्तुति करता है। आज भी उपरिलिखित विशेषण युक्त नमोत्थुणं बोलकर तीर्थंकर परमात्मा के गुणों का स्मरण किया जाता है जो मोक्षमार्ग का बीज है। लोगस्स में तीन महाविशेषण लोगस्स सूत्र (अपरनाम चतुर्विशंतिस्तव) भक्तिवाद का एक अनन्य उदाहरण है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति एवं गुणोत्कीर्तन से लोगस्स अपूर्व सूत्र बन चुका है। इसके अन्दर तीर्थंकर को तीन महाविशेषणों से अभिहित किया गया है। ये विशेषण महान् इसलिए हैं क्योंकि रचयिता की मानसिकता एवं कल्पना हमारे वैचारिक दृष्टिकोण से कहीं आगे है। इसके रचयिता ने तीर्थंकरों की ज्येष्ठता प्रकृति की तीन वस्तुओं से की है। जो स्वयं में ही विशिष्टतम उनसे सिद्ध की है। यथा- ' 1. चंदेसु निम्मलयरा - चन्द्रमा से भी अधिक निर्मल। चन्द्रमा की कलाओं को शीतलता एवं निर्मलता का प्रतीक माना गया है। तीर्थंकर भी निर्मलता एवं सौम्यता की प्रतिमूर्ति कहे जाते हैं। किन्तु तीर्थंकरों को यहाँ चन्द्र से भी विशेष निर्मल कहा गया है। कारण- चन्द्रमा पूर्ण धवल नहीं होता, उसमें कुछ कलंक दिखाई देता है, परन्तु तीर्थंकर तो सभी दोषों से रहित होते हैं। उनमें चार घनघाति रूप कर्म कलंक नहीं होता है। इसीलिए तीर्थंकर चन्द्रमाओं से भी अधिक निर्मल है। आइच्चेसु अहिय पयासयरा - सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान्। सूर्य अपनी ऊर्जा के द्वारा सर्वतः प्रकाश का स्रोत है।उसी प्रकार, तीर्थंकर भी द्रव्य उद्योत (प्रकाशमय) एवं भावउद्योत (ज्ञानमय) के कर्ता माने जाते हैं, लेकिन यहाँ तीर्थंकरों को सूर्य से भी विशेष प्रकाशक यदि ज्ञान और तदनुसार आचरण नहीं है तो उस साधक की दीक्षा सार्थक नहीं है। - व्यवहारभाष्य (7/215) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 127 कहा गया है। कारण - सूर्य तो सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है किन्तु तीर्थंकर अपने केवलज्ञान के द्वारा समस्त द्रव्यों, क्षेत्रों, कालों व भावों को प्रकाशित करते हैं। अतएव तीर्थंकरों को सूर्यों से भी अधिक प्रकाश करने वाला कहा गया है। सागरवरगंभीरा - श्रेष्ठ सागर अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र से भी अधिक गम्भीर। स्वयंभूरमण समुद्र की गंभीरता सर्वविदित ही है। तीर्थंकर भी ज्ञान, ध्यान एवं साधना से युक्त होने के कारण गम्भीर होते हैं। किन्तु यहाँ तीर्थंकरों को स्वयंभूरमण से भी गंभीर माना गया है। कारण-समुद्र की गहराई एक बिन्दु पर आकर समाप्त हो जाती है एवं तूफान आदि आपदाओं में महासमुद्र भी गम्भीर नहीं रह पाता लेकिन तीर्थंकरों के गांभीर्य का कोई आदि अन्त नहीं है। प्रत्येक परिस्थिति में वे गंभीर रहते हैं। इसीलिए तीर्थंकर श्रेष्ठ समुद्र से भी अधिक गंभीर हैं। जिज्ञासा - तीर्थंकर परमात्मा इस विश्व की सर्वोत्कृष्ट विभूति हैं तो वे तीर्थ को नमस्कार क्यों करते हैं? ___समाधान - तीर्थंकर परमात्मा समवसरण में देशना देने से पूर्व हमेशा ‘णमो तित्थस्स' कहकर साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतर्विध संघ को वन्दन करते हैं। इसके अनेक कारण हैं। तीर्थंकर भगवन्त भी पूर्वजन्मों में इस तीर्थ के अंग रहे। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप किसी न किसी पद में रहकर धर्माराधना कर ही वे तीर्थंकर बन सके। इसलिए तीर्थ का ऋण अनन्त है। णमो' शब्द विनय का सूचक है। प्रभु किसी व्यक्तिवाचक संज्ञा को वंदन नहीं करते बल्कि गुणवाचक, गुणनिधान तारक तीर्थ को वंदन करते हैं। यह उनका लोकोत्तर विनय है। तीर्थंकर के अभाव में तीर्थ ही पथ-प्रदर्शक होता है। आज भी जब एक आचार्य अपने शिष्य को आचार्य पदवी देता है तो वे स्वयं अपने पाट से नीचे उतरकर नूतन आचार्य को वंदन करते हैं। यह भविष्योन्मुखी आचार है कि गुरु द्वारा वन्दनीय यह आचार्य संघ द्वारा भी वैसे ही आदर और सम्मान का पात्र होगा जैसे कि गुरु थे। उसी प्रकार का महत्त्व समझकर भी तीर्थंकर तीर्थ को नमन करते हैं। जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियाँ नहीं बढ़ती और जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हो जाती, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। - दशवैकालिक (8/36) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 128 जिज्ञासा - तीर्थंकरों को 'पुरिससिहाणं' आदि कहा है। क्या यहाँ पुरुष का अर्थ आदमी से है ? पुरुष संबंधी 4 विशेषण कब मान्य होते हैं ? समाधान - “ललित विस्तरा' नामक महाग्रन्थ में कहा गया है कि “पुरि शयनात् पुरुषाः " अर्थात्पुरु में शयन करने वाला, शरीर में रहने वाला पुरुष है । अत: संदर्भ में पुरुष का अर्थ आदमी नहीं, बल्कि जीवमात्र है। चार में से पुरुषोत्तमपन पहले से होता है । पुरुषसिंहपन व पुरुषगंधहस्तिपन मध्य में होता है व पुरुषपुण्डरीकपन जीवन के अन्त में सिद्धावस्था में होता है। जिज्ञासा तीर्थंकरों को किस प्रकार की उपमाएँ दी जाती हैं। समाधान 'उपमा' भी व्याकरण का विशिष्ट अंग है जिसमें व्यक्ति के परम गुण तुलना के द्वारा दर्शाए जाते हैं। कल्पसूत्र में तीर्थंकरों को निम्नलिखित उपमाओं से उपमित / विभूषित किया गया है। 1. कांस्यपात्र की तरह निर्लेप 2. शंख की तरह निरंजन - रागरहित 3. आकाश की भाँति आलंबन रहित 4. पवन की भाँति अप्रतिबद्ध 5. शरदऋतु के जल के समान निर्मल 6. कमलपत्र के समान भोग से निर्लिप्त 7. गैडे के सदृश एकाकी 8. कच्छप सदृश जितेन्द्रिय 9. पक्षी की तरह अनियत विहारी - . 10. श्रेष्ठ हाथी के समान शूर 11. सुमेरु की तरह परिषहशमनकर्ता 12. स्वर्ण की तरह कान्तिमान 13. पृथ्वी के समान सहिष्णु 14. अग्नि की भांति जाज्वल्यमान 15. वृषभ के समान पराक्रमी 16. भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत 17. जीव की तरह अप्रतिहत गतिधारी, इत्यादि । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण (मोक्षगमन) कल्याणक जब तीर्थंकर परमात्मा समस्त कर्मों का नाश कर देते हैं, तब वे परम पद-मोक्ष की ओर आरूढ होते हैं। उनके शरीर का त्याग कर उनकी आत्मा सिद्धशिला की ओर अग्रसर होती है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा से आत्मा परमात्मा बन जाती है, उसे निर्वाण कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में कहा गया है- “निर्वान्ति-कर्मानलविध्यापनाच्छीतीभवन्त्यस्मिन् जन्तव इति निर्वाणम् । ” जहाँ कर्मरूपी अग्नि के बुझ जाने से जीव शीतल / शांत होते हैं एवं आत्मा शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेती है, वह निर्वाण है। मोक्ष, निर्वाण, परिनिर्वाण, सिद्धि इत्यादि शब्द समानार्थक हैं। अष्ट कर्मों का नाश होते ही तीर्थंकर सदा-सदा के लिए संसार को त्याग देते हैं। उनकी आत्मा में निम्न 8 गुण उपस्थित हो जाते हैं। 1. अनन्त ज्ञान ( ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से ) 2. अनन्त दर्शन ( दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से ) 3. अव्याबाध सुख ( वेदनीय कर्म के क्षय से ) 4. क्षायिक समकित एवं अनन्त चारित्र ( मोहनीय कर्म के क्षय से ) 5. अक्षयस्थिति (आयुष्य कर्म के क्षय से) 6. अरूपीपन ( नाम कर्म के क्षय से) 7. अगुरुलघुत्व ( गोत्र कर्म के क्षय से) 8. अनन्त शक्ति ( अंतराय कर्म के क्षय से ) ज्ञानावरणीय आदि प्रत्येक कर्म की प्रकृतियों को भिन्न-भिन्न गिनने से तीर्थंकर सिद्ध के 31 गुण भी होते हैं। 'अभयदान' सब दानों में श्रेष्ठ है। प्रश्नव्याकरण (2/4) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 130 तीर्थंकर के मोक्ष जाते ही अव्यवहार राशि (निगोद) में भटकती एक अन्य भव्यात्मा व्यवहार राशि में आती है। तीर्थंकर जगत् में भाव उद्योत करते हैं। इन्द्रादि कृत निर्वाण क्रिया जब तीर्थंकर भगवान का निर्वाण समय निकट आता है, तो वे तेरहवें-सयोगीकेवली गुणस्थानक को छोड़कर चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थानक में ठहरकर एक समय मात्र में ही मोक्ष में चले जाते हैं। कई बार उनके साथ समय के उसी योग में अनेक गणधर, अणगार उनके साथ ही मोक्ष चले जाते हैं। तीर्थंकर का निर्वाण होते ही देवराज शक्र का आसन चलित होता है। वह अवधिज्ञान का प्रयोग कर सोचता है कि अमुक तीर्थंकर ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है। अतः अतीत वर्तमान, अनागत शक्रेन्द्रों का यह जीताचार है कि वे निर्वाण क्रिया संपन्न कर महोत्सव मनाएँ। अत मैं भी तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण महोत्सव आयोजित करने जाऊँ। यों सोचकर देवेन्द्र सामानिक त्रायस्त्रिंशक, आत्मरक्षक आदि संपूर्ण देव-परिवार के साथ प्रभु के निर्वाण स्थल पर पहुँचता है। जहाँ तीर्थंकर का शरीर होता है, वह वहाँ जाता है एवं आनन्दरहित, अश्रुपूर्ण नेत्रों से आदक्षिणाप्रदक्षिणा करता है। तदनन्तर - सभी इन्द्र स्वपरिवार सहित पहुँच जाते हैं। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से भवनपति, वाणव्यंतर एवं ज्योतिष्क देव नन्दनवन से स्निग्ध उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाते हैं एवं तीन चिताओं की रचना करते हैं- तीर्थंकर के लिए, गणधरों के लिए एवं बाकी अणगारों के लिए। फिर आभियौगिक देवगणं क्षीरोदक समुद्र से क्षीरोदक लाते हैं। फिर सौधर्मेन्द्र 1. तीर्थंकर के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराता है। 2. सरस, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त करते हैं। 3. हंस सदृश श्वेत देवदूष्य वस्त्र पहनाते हैं। 4. सब प्रकार के आभूषणों से, अलंकारों से विभूषित करते हैं। तत्पश्चात् शक्रेन्द्र की आज्ञानुसार भवनपति, वैमानिक आदि देव, मृग, वृषभ, तुरंग, वनलता इत्यादि चित्रों से अंकित तीन शिविकाओं की विकुर्वणा (निर्माण) करते हैं- तीर्थंकर के लिए, गणधरों के लिए, अन्य अणगारों के लिए। उदास एवं खिन्न सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर के देह को चिता पर रखते हैं। अन्य देव गणधर एवं साधुओं के शरीर शिविका पर आरूढ़ करके चिता पर रखते हैं। कई कुछ पुत्र गुणों की दृष्टि से अपने पिता से बढ़कर होते हैं। कुछ पिता के समान होते हैं और कुछ पिता से हीन। कुछ पुत्र वंश का सर्वनाश करने वाले-कुलांगार होते हैं। - स्थानांग (4/1) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 131 देव पुष्प बरसाते हैं, कई रुदन करते हैं। तीर्थंकर की शिष्य संपदा भी उदास होती है। फिर इन्द्र की आज्ञा से अग्निकुमार देव चिताओं में अश्रुपूरित नेत्रों से अग्निकाय की विकुर्वणा करते हैं अर्थात् अग्नि की चिंगारी छोड़ते हैं। वायुकुमार देव शोकान्वित मन से वायुकाय की विकुर्वणा करते हैं अर्थात् उस अग्नि को प्रज्वलित करते हैं एवं देह को स्थापित करते है। भवनपति तथा वैमानिक देव विमनस्क मन से चिताओं में परिमाणमय अगर, तुरुष्क, कपूर घी एवं शहद डालते हैं। . वायुकुमार देव (अग्नि संस्कार पूर्ण होने पर) चिताओं को क्षीरोदक से निर्वापित करते हैं अर्थात् वर्षा कराते हैं। तदनन्तर, शक्रेन्द्र तीर्थकर के ऊपर की दाहिनी दाढ़ लेता है। चमरेन्द्र नीचे की दाहिनी दाढ़ • लेता है। ईशानेन्द्र ऊपर की बाया दाढ़ लेता है एवं वैरोचनेन्द्र बली नीचे की बायी दाढ़ लेता है। अन्य देव भी रत्नकरंडक (वज्रमय समुद्गक) में रखकर पूजन हेतु अस्थियाँ (हड्डियाँ) लेते हैं। ज्ञाताधर्मकथांग की वृत्ति में लिखा है कि देवतागण सुधर्म सभा (देवलोक) के चैत्य स्तम्भ में लटकते रत्नजड़ित डब्बियों में दाढ़ाओं में पधराते हैं एवं निरन्तर आराधना करते हैं तथा परमात्मा की आशातना न हो, इस हेतु से वहाँ काम-क्रीड़ा भी नहीं करते। उसी स्थान पर तीन रत्नमय विशाल स्तूपों का निर्माण होता है- तीर्थंकर की चिता पर, गणधरों की चिता पर, अन्य अणगारों की चिता पर। गणधर भगवन्तों के लिए दक्षिण दिशा में त्रिकोणी (त्रिभुजाकार) चिता और साधु भगवन्त हेतु पश्चिम दिशा में चौखुनी (वर्गाकार) चिता का निर्माण देवता करते हैं। उनकी क्रिया सामान्य देवतागण करते हैं। यह ध्येय होना चाहिए कि महावीर स्वामी का निर्वाण एकाकी हुआ, तो सर्वत्र एक स्तूप, चिता पालकी आदि समझनी चाहिए। इस प्रकार क्रिया सम्पन्न करके इन्द्रादि देव नन्दीश्वर द्वीप पर जाकर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण महोत्सव मनाते हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव के निर्वाण की मानवीय देन ___ वर्तमान अवसर्पिणी काल के ऋषभदेव जी प्रथम तीर्थंकर थे। जीवित-अवस्था में उन्होंने मानवजाति को पुरुषों की 72 एवं स्त्रियों की 64 कलाओं का परिज्ञान कराया। उनके निर्वाण के बाद भी मानवजाति को उनके निमित्त अमूल्य देन मिली। जिसको भली प्रकार तैरना नहीं आता जैसे वह स्वयं डूबता है और साथ में अपने साथियों को भी ले डूबता है उसी प्रकार उलटे मार्ग पर चलता हुआ एक व्यक्ति भी कई को ले डूबता है। - गच्छाचार-प्रकीर्णक (30) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 132 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में हेमचन्द्राचार्यजी ने लिखा है कि अष्टापद पर्वत के रक्षक देवताओं ने ऋषभदेव जी के अन्तिम समय को जानकर उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती को सूचना प्रदान की। जब तक भरत अष्टापद पर पहुँचे, ऋषभदेव जी शरीर का त्याग कर परमात्म-पद को पा चुके थे। प्रभु के निर्वाण को जानकर सम्राट् भरत शोक से मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। उस समय के लोग रुदन (रोने) की प्रवृत्ति से अनजान थे किन्तु शोकान्वित होने पर आँसू निकलना सहज भाव है। सम्राट भरत की मूर्च्छित स्थिति देख इन्द्र चिन्तित हो गए। उन्होंने तीव्र स्वर से कहा- “षट्खंडाधिपति भरत! रुदन करो। हे भरत। रुदन करो।” भरत चक्रवर्ती की मूर्छा दूर हुई एवं उनके नेत्रकमलों से अश्रुधारा फूट पड़ी। जब आँसुओं के प्रबल प्रवाह में शोक बह गया, तब इन्द्र ने प्रभु की शारीरिक अन्तिम क्रिया करने का आदेश दिया। देह का दाह-संस्कार हुआ। उसी दिवस से मानवों में अग्नि-संस्कार की क्रिया प्रारम्भ हुई एवं रुदन की प्रवृत्ति भी उसी दिन से शुरू हुई। तीर्थंकर महावीर के निर्वाण की मानवीय देन जब भगवान महावीर के परिनिर्वाण का क्षण निकट आया, तो शक्रेन्द्र का आसन प्रकम्पित हुआ। उसने प्रभु से नम्र निवेदन किया- “भते ! आपके गर्भ, दीक्षा, जन्म एवं केवलज्ञान में हस्तसेत्तरा नक्षत्र था। इस समय उसमें भस्मग्रह संक्रांत होने वाला है। वह ग्रह आपके जन्म नक्षत्र में आकर दो हजार वर्षों तक आपके जिनशासन के प्रभाव में अवरोधक होगा। एतदर्थ जब तक वह आपके जन्म नक्षत्र में संक्रमण कर रहा है, आप अपना आयुष्य बल स्थित रखें।" प्रभु ने विनयपूर्वक कहा- “शक्र ! आयुष्य कभी बढ़ाया नहीं जा सकता। ऐसा न कभी हुआ है, न कभी होगा। दुषमा काल के प्रभाव से जिनशासन में जो बाधा होती है, वह तो होगी ही।" तत्पश्चात् प्रभु ने 16 प्रहर अर्थात् 48 घंटों की अन्तिम देशना दी। उस देशना में 55 अध्ययन पुण्यफलविपाक के तथा 55 अध्ययन पापफल विपाक के कहे। छत्तीस अध्ययन अपृष्टव्याकरण के कहे एवं सैंतीसवाँ' 'प्रधान' अध्ययन कहते-कहते प्रभु का निर्वाण हो गया। ___जिस रात्रि को भगवान् का परिनिर्वाण हुआ, उस रात्रि को 9 मल्ल, 9 लिच्छवी राजा पौषध व्रत में थे। उन्होंने कहा- आज संसार से भाव उद्योत उठ गया है, अतः हम द्रव्य उद्योत करेंगे। जीव अपने ही कर्मों के कारण नरक यावत् देवयोनि में उत्पन्न होते हैं। - अन्तकृदशांग (6/15/18) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 133 मानवों ने अंधकार मिटाने हेतु दीपक जलाए। इस प्रकार दीपमालिका दिवाली अथवा दीपावली का पुनीत पर्व प्रारंभ हुआ । निर्वाणे स्वामिनि ज्ञानदीपके द्रव्यदीपकान् । तदाप्रभृति लोकेऽपि पर्वदीपोत्सवाभिधम् ॥ तीर्थंकरों का शासन निर्वाण के पश्चात् तीर्थंकरों का शासन नियमित रूप से चलता है। उनकी आज्ञा के अनुरूप चलने वाले साधु-साध्वी भगवन्त उनकी शासन - परम्परा का वहन करते हैं। कहा गया है- 'तित्थयर समो सूरि” अर्थात्आचार्य भगवन्त तीर्थंकरों के समान होते हैं। सम्पूर्ण चतुर्विध संघ में तीर्थंकर पद प्राप्त करने की योग्यता होती है, इसीलिए ऐसे तारक तीर्थ को पच्चीसवें तीर्थंकर की उपमा दी गई है। तीर्थंकर के अभाव में उनके परिनिर्वाण के पश्चात् चतुर्विध संघ ही उनकी परम्परा संभालता है। तीर्थंकरों का शासन कभी विच्छेद नहीं होता । किन्तु वर्तमान अवसर्पिणी में यह एक आश्चर्य हुआ अर्थात् सुविधिनाथ जी से लेकर धर्मनाथ जी तक, जिनशासन का अभाव रहा एवं असंयति की पूजा हुई जो एक अच्छेरा (आश्चर्य) है। दो प्रकार की मोक्ष मर्यादा प्रत्येक तीर्थंकर के दो प्रकार की अन्तकृत भूमि यानी मुक्तिमार्ग की मर्यादा होती है। भव अर्थात् संसार । इसका अन्त करने की भूमिका अथवा कर्मों का अन्त करने की मर्यादा अन्तकृत भूमि है। ऐसी मोक्षमर्यादा दो प्रकार की है 1. युगान्तकृत भूमि - युग यानी कालमान विशेष । अनुक्रम से गुरु, शिष्य - प्रशिष्यादिरूप भव्यात्माओं के अनुसार कालमान जानना । तीर्थंकर से लेकर उनकी कितनी पाट तक के काल तक जीवों ने कर्म खपाए, यह युगान्तकृत भूमि है। 2. पर्यायान्तकृत भूमि- तीर्थंकरों के केवलज्ञान होने के कितने समय बाद कोई व्यक्ति मोक्ष गया यह पर्यायान्तकृत भूमि है। अर्थात् उनके कितना केवली पर्याय होने पर किसी जीव के कर्मों का अन्त हुआ या वो मोक्ष गया । हे सुविहित ! यदि तू घोर भवसमुद्र के पार तट पर जाना चाहता है, तो शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर । मरण- समाधि (202) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा - सिद्धावस्था में तीर्थंकर 'शैलेशी' अवस्था में होते हैं । यहाँ पर 'शैलेशी' का क्या अर्थ है ? समाधान शैलेश (शैल + ईश ) यानी पर्वतों का राजा अर्थात् सबसे बड़ा रु पर्वत। इसके भाँति आत्मा की अत्यंत स्थिर अवस्था बनाना शैलेशी अवस्था है। जब तक भी सूक्ष्म मन-वचन-काय योग प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं, तब तक आत्मद्रव्य अस्थिर होता है। निर्वाण होने पर कर्मों से सभी योगों से मुक्त होने पर सभी आत्मप्रदेश हो जाते हैं। यह है शैलेशी अवस्था । जिज्ञासा तीर्थंकरों का निर्वाण होने पर चतुर्विध संघ एवं परम्परा का वहन कौन करते हैं ? - तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88134 समाधान तीर्थंकरों के मोक्षगमन के पश्चात् उनकी परम्परा का वहन उनके प्रधान छद्मस्थ शिष्य करते हैं । केवलज्ञानी शिष्य परम्परा का वहन नहीं कर सकता क्योंकि वह कहेगा, “मैं ऐसा कह रहा हूँ" या "मुझे ज्ञान में ऐसा दिखा है" जबकि छद्मस्थ शिष्य कहेगा कि "हमारे गुरु महावीर ने कहा" या "हमारे शासननायक महावीर ने अपने ज्ञान में ऐसा देखा । " अत तीर्थकर की श्रुतपरम्परा को अविच्छिन्न रूप छद्मस्थ शिष्य ही दे सकते हैं। इसी कारण तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के बाद इन्द्रभूति गौतम (जो उसी रात केवलज्ञानी बने) को उनका पट्टधर नहीं बनाया एवं सुधर्मा स्वामी को ही संघनायक बनाया क्योंकि वे अन्तिम छद्मस्थ गणधर थे । - - समाधान जिज्ञासा क्या तीर्थंकर मनोयोग व काययोग का पूर्ण निरोध करते हैं ? सर्वज्ञ होने से वे सर्ववस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण करते हैं अतः चिन्तन व विचार की आवश्यकता नहीं होती तथा मन का उपयोग भी नहीं करते, किन्तु कभी अनुत्तरविमानवासी देव स्वर्ग में स्थित रहकर ही तत्त्व चिंतन की जिज्ञासा होने से प्रभु से प्रश्न पूछते हैं, उस समय उन्हें मनोयोग का उपयोग करना पड़ता है। जिस समय काय योग का निरोध किया जाता है, उस समय संपूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मप्रदेश देह के तृतीय भाग को छोड़ 2/3 भाग में व्याप्त रहते हैं व शेष आत्मप्रदेशों से रहित हो जाता है व वे 'व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती' नामक चतुर्थ परम शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं। - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर एवं अन्य आत्माओं में अन्तर तीर्थंकरों ने उपदेश दिया है कि निश्चय नय की दृष्टि से सभी प्राणियों की आत्मा समान है। किन्तु आत्म-भाव, बाह्य विभूतियों की अपेक्षा से तीर्थंकर एवं अन्य आत्माओं में किंचित् मौलिक भेद होता है। स्मरण रहे, यह भेद मात्र केवली-अवस्था तक ही सीमित रहता है क्योंकि एक बार जो कोई आत्मा मोक्ष पद को प्राप्त कर जाती है, तब सिद्धशिला में विराजित अनंत आत्माओं में कोई अन्तर द्रष्टव्य नहीं होता। तीर्थंकर एवं कुलकर - जब कल्पवृक्ष नष्ट हो रहे होते हैं एवं युगलिकों में कलह बढ़ जाते हैं, तब वे सर्वसम्मति से कुलों का विभाजन करके 'कुलकर' बनाते हैं जो न्याय (दण्ड) व्यवस्था का कर्ता होता है। कुलकरों की उत्पत्ति सदैव तृतीय आरे में होती है एवं तीर्थंकर (जो तीर्थ के कर्ता होते हैं) की उत्पत्ति तृतीय व चतुर्थ आरे में होती है क्योंकि अन्तिम कुलकर से ही प्रथम तीर्थंकर उत्पन्न होता है। कुलकर कभी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि उनके काल में कोई चतुर्विध संघ नहीं होता। अतः वे विनय भाव के कारण देवलोक में ही जाते हैं। तीर्थंकर-शासन के अभाव में वे उस भव में मोक्षरूपी आलम्बन पर आरोहित नहीं हो पाते। तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती चक्रवर्ती षट्खंड के अधिपति (स्वामी) होते हैं जबकि तीर्थंकर तो संपूर्ण जगत् के स्वामी होते हैं। शांतिनाथ जी, कुंथुनाथ जी एवं अरनाथ जी इस अवसर्पिणी काल के वो तीर्थंकर हैं जो गृहस्थपने में चक्रवर्ती भी थे। चक्रवर्ती नामकर्म से व्यक्ति चक्ररत्न का धारक बन चक्रवर्ती पद पाता है। ऐसा शाश्वत तथ्य है कि तीर्थंकर सदैव मोक्ष जाते हैं। चक्रवर्ती अगर दीक्षा ग्रहण करे तो मोक्ष अथवा देवलोक में जाता है। अन्यथा वो नरकगामी बनता है। चक्रवर्ती राजा जब तीर्थंकर के शासन में दीक्षा लेकर केवलज्ञानी बनते हैं तो वे भी सामान्य केवली कहे जाते हैं। जो कर्त्तव्य कल करना है, वह आज ही कर लेना श्रेयस्कर है। मृत्यु अत्यन्त निर्दय है, पता नहीं, यह कब आ जाए। - बृहत्कल्पभाष्य (4674) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 136 तीर्थंकर एवं सामान्य केवली कोई भी भव्यात्मा जब केवलज्ञान प्राप्त कर लेती है, तब उसे केवली कहते हैं। यूँ तो सभी केवलज्ञानी का केवलज्ञान समान होता है एवं उनकी आत्मदशा भी समान होती है किन्तु निमित्त, विभूतियों एवं अन्य अपेक्षाओं से दो प्रकार के केवली कहे हैं1. तीर्थंकर केवली - जैसा कि हम पढते आए हैं, तीर्थंकर अनेकानेक अतिशयों से युक्त होते हैं। वे स्वयं संबुद्ध होते हैं अर्थात् वे न ही किसी के प्रतिबोध से एवं न ही किसी निमित्त से प्रतिबोधित होते हैं। वे समवसरण में देशना देकर चतुर्विध संघ की रचना करते हैं जिससे उनके नाम का शासन चलता है। सामान्य केवली - चक्रवर्ती बलदेव, गणधर, साधु इत्यादि कोई भी अन्य आत्मा, जब केवलज्ञान-केवलदर्शन पा लेती है, उन्हें शास्त्रीय भाषा में सामान्य केवली कहा गया है। ये आत्माएँ क्षायिक भाव प्राप्त कर अथवा संयोग अंतकृत से केवली बनती हैं। चारित्र ग्रहण किए बिना (भाव अथवा द्रव्य) केवलज्ञानी नहीं बन सकते। ये आत्माएँ दो प्रकार से दीक्षा ग्रहण करती हैं। 1. प्रत्येक बुद्ध - जो भव्य जीव किसी निमित्त को पाकर वैराग्य पाते हैं, वे प्रत्येक बुद्ध हैं। चार प्रत्येक बुद्ध अति-प्रसिद्ध हैं 1. नमि , 2. करकंडु, 3. दशार्णभद्र, 4. नगाति तीर्थंकर पार्श्वनाथ के शासनकाल के 15 प्रत्येक बुद्ध निम्न हैं 1. गोहावती पुत्र-तरुण 2. दगमाल 3. रामपुत्र 4. हरिगिरि 5. अम्बड . 6. मातंग 7. वरत्तक 8. आर्द्रक 9. वर्धमान 10. वायु 11. पार्श्व 12. पिंग 13. महाशाल पुत्र-अरण 14. ऋषिगिरि 15. उद्दालक अन्य तीर्थंकरों के शासनकाल में भी प्रत्येकबुद्ध होते हैं। यथा पत्तेय बुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिट्ठणेमिस्स। पासस्स य पण्णरस, वीरस्स विलीणमोहस्स॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 137 जो प्रत्येकबुद्ध कर्मों का क्षय कर लेता है, वह सामान्य केवली बन जाता है (2) बुद्धबोधित जो भव्य जीव तीर्थंकर या सद्गुरुदेव के उपदेश को सुनकर ग्रहण करके दीक्षा लेते हैं, वे बुद्ध बोधित कहे जाते हैं। जो कर्मों को नष्ट करने में सफल होता है, वह केवलज्ञानी बन जाता है। कल्याणक लिंग/वेद तीर्थंकर सामान्य केवली च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण ये इनके इन पाँच क्षणों को कल्याणक की संज्ञा पंचकल्याणक होते हैं जिन पर देवतागण नहीं दी गई अर्थात् देवता अष्टान्हिका उत्सव मनाते हैं एवं इन्द्र शक्रस्तव का | महोत्सव नहीं मनाते। उच्चारण करता है। केवल पुरुष लिंग में ही तीर्थंकरत्व प्राप्त पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक कोई भी व्यक्ति होता है। | सामान्य केवली बन सकता है। तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म के उदय से तीर्थंकर केवलीपन क्षायिक भाव अथवा अंतकृत पद प्राप्त होता है। क्षण से मिलता है। इन्हें 1, 2, 3, 5, 11 वें गुणस्थान का स्पर्श केवल 11वां गुणस्थानक स्पर्श नहीं होता। नहीं होता। तीर्थंकर देवगति अथवा नरक से आते हैं एवं इनका च्यवन किसी भी गति से हो सकता उनकी माता चौदह स्वप्न देखती है। है। माता कोई विशेष स्वप्न नहीं देखती। पद प्राप्ति का निमित्त गुणस्थानक स्पर्श च्यवन जन्म तीर्थंकर आर्यक्षेत्र में ही जन्मते हैं। वे माता अढाईद्वीप में कहीं भी सामान्य केवली का का दूध नहीं पीते। जन्म हो सकता है। वे माता का दूध पीते हैं। शारीरिक विशिष्टता |. अत्यंत रूपवान • शरीर पर 1008 लक्षण • लांछण विशेष होता है • समचतुरस्र संस्थान • केवली समुद्घात नहीं • रूप संबंधी कोई नियम नहीं। • 1008 लक्षण संभव नहीं। • 32 लक्षण होते हैं, लांछण नहीं। • कोई भी संस्थान हो सकता है। • केवली समुद्घात हो सकता है। दीक्षा वे स्वयंबुद्ध होते हैं। दीक्षा से पूर्व वर्षीदान | वे प्रत्येक बुद्ध/बुद्धबोधित होते हैं। वर्षीदान देते हैं। तथा चारित्र ग्रहण करते समय ‘भंते' | संबंधी कोई नियम नहीं है। चारित्र ग्रहण का प्रयोग नहीं करते। | करते समय भंते' शब्द का प्रयोग आवश्यक होता है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 138 तीर्थंकर सामान्य केवली ज्ञान देशना व तीर्थस्थापना गर्भ से ही तीन ज्ञान के धारक होते हैं तथा अनियमित: मति-श्रुत-अवधि ज्ञान कभी दीक्षा लेते ही चतुर्थ मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न | भी हो सकते हैं। दीक्षा पश्चात् किसी भी हो जाता है। साधना के पश्चात् केवलज्ञान | क्षण मन:पर्यव ज्ञान हो सकता है। तत्पश्चात् होता है। | केवलज्ञान होता है। तीर्थंकरों की देशना के लिए देवता समवसरण | सामान्य केवली मूक-अमूक दोनों प्रकार की रचना करते हैं। उनकी देशना निश्चित के होते हैं। अमूक देशना नहीं देते। मूक प्रतिबोधयुक्त होती है तथा तिर्यंचों को | के लिए समवसरण का कोई नियम नहीं अपनी-अपनी भाषा में समझ आती है। है। उनका प्रवचन सर्वथा सर्वदा प्रतिबोधयुक्त साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध हो, ऐसा नहीं है। तिर्यंचों को भाषा समझ संघ की रचना करते हैं। उनके नाम से शासन में नहीं आती। वे तीर्थ की स्थापना नहीं चलता है। | करते। अत उनके नाम से शासन नहीं चलता। तीर्थंकरों के 34 मूल अतिशय एवं 35 | सभी अतिशय नहीं होते हैं। बल भी परिमित वचनातिशय होते हैं अपरिमित बल होता | होता है। अतिशय शिष्य सम्पदा दो का मेल अनेक शिष्य होते हैं। प्रधान शिष्य गणधर' | कई सामान्य केवलियों के शिष्य होते हैं कहलाते हैं। तीर्थंकर के नाम से चली पाट | एवं कईयों के नहीं भी होते। उनका शासन परम्परा पर शिष्य विराजमान होते हैं। या पाटपरम्परा नहीं चलती। । दो तीर्थंकरों का मेल कभी भी नहीं हो | दो सामान्य केवलियों का मेल हो सकता सकता। तीर्थंकरों की जघन्य लम्बाई सात हाथ एवं सामान्य केवली की जघन्य लंबाई दो हाथ उत्कृष्ट ऊँचाई 500 धनुष होती है। एवं उत्कृष्ट ऊँचाई 500 धनुष ही होती अवगाहना आयु संख्या जघन्य सर्वायु 72 वर्ष। उत्कृष्ट सर्वायु 84 | जघन्य सर्वायु 9 वर्ष। उत्कृष्ट सर्वायु एक लाख पूर्व करोड़ पूर्व अढाई द्वीप में प्रत्येक समय कम-से-कम | प्रत्येक समय कम-से-कम 2 करोड़ केवली 20 तीर्थंकर तो होते ही हैं। तीर्थंकरों की | मध्यलोक में विचरते है। सामान्य केवली उत्कृष्ट संख्या 170 है। एक क्षेत्र में एक की उत्कृष्ट संख्या 9 करोड़ है। एक क्षेत्र ही तीर्थंकर होते है। एक समय में। | में अनेक सामान्य केवली हो सकते हैं। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 139 तीर्थंकर सामान्य केवली | इनकी उत्पत्ति क्षत्रिय कुल में ही होती है। इनका जन्म किसी भी कुल में हो सकता कुल शुभाशुभ कर्म द्वादशांगी | तीर्थंकरों के वेदनीय कर्म शुभाशुभ एवं शेष | सामान्य केवली का आयुष्य कर्म शुभ, शेष तीन अघाति कर्म एकांत शुभ होते हैं। | तीन शुभाशुभ होते हैं। | इनके मुख से त्रिपदी को सुनकर गणधर | इनकी वाणी को सूत्र-रूप में गूंथ कर सकते द्वादशांगी सूत्रों की रचना करते हैं। हैं किन्तु वे आगमरूप धारण ही करें, ऐसा नहीं। | तीर्थंकरों में ‘णमो अरिहंताणं' पद में वंदन | सामान्य केवली को ‘णमो आयरियाणं' होता है। (आचार्य हो तो) व णमो लोए सव्वसाहूणं' पद में वंदन होता है। ਕਵਰ तीर्थंकर (अरिहन्त) एवं सिद्ध आत्माएँ तीर्थंकर चार कर्मों से रहित एवं चार प्रकार के कर्मों से युक्त होते हैं। वे शरीरी होते हैं। अतः मनुष्य लोक में ही विचरण करते हैं। किन्तु सिद्ध तो सभी कर्मों से सर्वथा रहित होते हैं, अशरीरी होते हैं एवं लोक के अग्रभाग - सिद्धशिला के ऊपर विराजमान होते हैं। तीर्थंकर (अरिहन्त) मार्गदाता, चक्षुदाता होते हैं क्योंकि वे अपनी देशना से जग को आलोकित करते हैं। उनका पुण्य भी अपार होता है, किन्तु सिद्धों का पुण्य नहीं होता। उनका सुख अपार होता है। वे कोई देशना नहीं देते। - तीर्थंकर का पद अशाश्वत अस्थायी है किन्तु वे काल कर के जिस शाश्वत पद को प्राप्त करते हैं, वह सिद्ध पद है। अरिहंत भाषक सिद्ध हैं व सिद्ध वस्तुतः अभाषक सिद्ध, ऐसा प्रज्ञापना सूत्र में कहा है। जिसको भली प्रकार तैरना नहीं आता जैसे वह स्वयं डूबता है और साथ में अपने साथियों को । भी ले डूबता है उसी प्रकार उलटे मार्ग पर चलता हुआ एक व्यक्ति भी कई को ले डूबता है। - गच्छाचार-प्रकीर्णक (30) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 140 जिज्ञासा - तीर्थंकर पद पाना कठिन है या सिद्ध पद पाना ? समाधान - अनन्तानंत आत्माएँ सामान्य केवली के मार्ग से सिद्धत्व को प्राप्त करती है लेकिन तीर्थंकर सिद्ध तो सीमित ही होते हैं। अतः तीर्थंकर बनना कठिन है एवं सामान्यकेवली बनकर सिद्ध बनना सरल है। एक बात और। तीर्थंकर पद प्राप्त करने के लिए कम-से-कम 3 भवों के पुण्य का संचय चाहिए लेकिन सिद्धत्व की प्राप्ति एक भव के कर्मक्षय से भी हो सकती है। जिज्ञासा - तीर्थंकरों का लक्ष्य भी सिद्धत्व की प्राप्ति है, फिर भी नवकार मंत्र में अरिहंतों को वंदन पहले क्यों होता है ? समाधान - निश्चय नय की दृष्टि से सिद्ध परमात्मा बड़े हैं क्योंकि उन्होंने सभी कर्मों का क्षय कर लिया है, लेकिन व्यवहार नय की अपेक्षा तीर्थंकर (अरिहन्त) परमात्मा ज्येष्ठ हैं, क्योंकि सशरीरी होने के कारण वे ही हमें धर्मदेशना-धर्मबोध देकर सिद्ध बनना सिखाते हैं। सिद्ध हमें बोध देने सिद्धशिला से नहीं आते। अन्य रूप में विचारें तो अरिहंत भी भाषक सिद्ध ही है। (प्रज्ञापना सूत्र) इसके अलावा अरिहंत पद अधिक दुर्लभ है। अत: व्यवहार पक्ष को लेकर हम तीर्थंकरों को सिद्धों से पहले वन्दन करते हैं। . जिज्ञासा - चार शाश्वत जिन से क्या तात्पर्य है ? समाधान - जिन, तीर्थंकर कभी शाश्वत नहीं होते। उनके नाम जरूर शाश्वत हो सकते हैं। पाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र एवं दस क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणीउत्सर्पिणी काल में 24-24 तीर्थंकर होते हैं। उनमें ऋषभ, चन्द्रानन, वारिषेण और वर्द्धमान ये चार नाम वाले तीर्थंकर होते ही हैं। राजप्रश्नीय सूत्र में लिखा है'तासिणं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमा ओं जिणुस्सेहपमाणमेताओ.... जहा उसभा, वद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेण'। देवलोकों आदि में शाश्वत चैत्यों में भी उक्त 4 नामों की प्रतिमाएँ विराजित हैं। वर्तमान चौबीसी भरतक्षेत्र में ऋषभ, वर्द्धमान हुए। ऐरावत क्षेत्र में चंद्रानन एवं वारिषेण नाम के तीर्थंकर हुए। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये संक्षेप में आठ कर्म हैं। - उत्तराध्ययन (64-65) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर एवं अवतार कई व्यक्ति सोचते हैं कि तीर्थंकर अवतार होते हैं जो उनकी जैनदर्शन सम्बंधी मूलभूत अनभिज्ञता दर्शाता है। अवतार और तीर्थंकरों का उद्देश्य जरूर एक होता है लेकिन तीर्थंकरों को अवतार कहना निश्चय रूप से अनुचित है, असैद्धान्तिक है। . अवतार क्या और क्यों ? 'अवे तृस्त्रोघञ् अवतारं' अर्थात् किसी उच्च स्थल से नीचे उतर कर आना, दैवीय शक्ति के प्रभाव से दिव्य लोक से भूतल पर उतर कर आना अवतार कहलाता है। एक बार भगवान बन चुकी दिव्य आत्मा का फिर से धरती पर उतरने वाले महापुरुष को अवतार कहते हैं। श्रीमद् भगवत गीता की दृष्टि में ईश्वर तो मानव बन सकता है लेकिन मानव कभी ईश्वर नहीं बन सकता। उसके अनुसार सृष्टि के चारों ओर अधर्म के अंधकार को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि अवतार ग्रहण करके पृथ्वी पर आते हैं। यथा यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्॥ अवतारवाद में ईश्वर को स्वयं भक्तों की पुकार सुनकर अधर्म के नाश के लिए मानव बनकर खुद नीचे आना पड़ता है, भक्तों की रक्षा के लिए नरसंहार भी करना पड़ता है, भक्तों के लिए रागी द्वेषी बनना पड़ता है। वैदिक परम्परा के विचारकों ने इस विकृति को 'लीला' कहकर आवरण डालने का प्रयास किया है। शिवपुराण, नरसिंहपुराण में 10 अवतारों का वर्णन किया है - मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, हंस, कल्कि (बलराम)। वायुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण में भी 10 अवतारों का उल्लेख है किन्तु नामों में भिन्नता है - वैन्य, दत्तात्रेय, मान्धाता, नरसिंह, वामन, जामदग्न्य, राम, कृष्ण, वेदव्यास और कल्कि। क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने वाला है, माया मैत्री का विनाश करती है और लोभ सब (प्रीति, विनय और मैत्री) का नाश करने वाला है। - दशवैकालिक (8/37) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 142 भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध में 24 अवतारों का उल्लेख है 1. सनकादि 7. यज्ञ 13. मोहिनी 14. नरसिंह 2. वराह 8. ऋषभदेव 9. 15. वामन 10. मत्स्य 16. परशुराम 17. व्यास 3. नारद 4. नरनारायण 5. कपिल 6. दत्तात्रेय राजा पृथु - 19. बलराम 20. श्रीकृष्ण 21. बुद्ध 22. कल्कि 23. हंस 24. हयग्रीव 11. कच्छप 12. धन्वन्तरि 18. राम इस प्रकार कहीं पर 9, कहीं पर 100, कहीं पर अनन्त अवतार लेने का वर्णन है । किन्तु जैनधर्म में अवतारवाद का सिद्धान्त स्वीकार्य नहीं है। अवतारवाद एवं उत्तारवाद उत्तारवाद यानी नीचे से ऊपर जाना अर्थात् मानव का ईश्वर बनना । जैन धर्म उत्तारवाद का ही समर्थन करता है। वैदिक धर्म यह सिखाता है कि भगवान् को पाना कैसे है, भगवान को मिलना कैसे है लेकिन जैनधर्म बताता है कि भगवान बनना कैसे है । जैन आम्नाय मानता है कि पापी बुरा नहीं होता, पाप बुरा होता है। पाप का गला घोटना चाहिए, पापी का नहीं। अतः पापी को सुधारना चाहिए क्योंकि पापी को मारना अधर्म का नाश नहीं है। इसी कारण जैन दर्शन को अवतारवाद के सिद्धान्त में कोई सार दृष्टिगोचर नहीं होता । अवतारवाद ईश्वरत्व को अपमानित करने के समान है क्योंकि कोई परम आत्मा अन्य के निमित्त नर-संहार नहीं करेगी। अवतार उन्हीं का होता है जो कर्म, इच्छा, मोह, माया एवं अविद्या से युक्त. हो और जो इन चीजों से युक्त हो वह कभी भगवान बन ही नहीं सकता और जो एक बार इन सभी को छोड़कर भगवान बन चुका है वह वापिस इनसे लिप्त क्यों होगा ? परम्परा अनुसार एक ही आत्मा जो भगवान पद से विभूषित है, अनेक बार अवतार ग्रहण करती है। कहीं नौ, चौबीस सौ, असंख्य इत्यादि अवतार गिनाए हैं लेकिन जैनधर्म मानता है कि जो एक बार भगवान बन गया, वो बस भगवान बन गया। फिर वह किसी भी कारण से सं में नहीं आ सकता। जो कर्मों से युक्त है, वो सिद्ध नहीं बन सकता और सिद्ध दोबारा कभी कर्मों से युक्त नहीं हो सकते। अगर अधर्म की कालिमा से प्रभावित होकर 'भगवान' अवतार लेते, तो वे आज भारत में क्यों नहीं ? स्पष्ट है, भगवान भक्तों का आलम्बन नहीं लेते बल्कि भक्त ही भगवान का आलंबन लेते हैं। उपशम (शान्ति) से क्रोध का हनन करें, मृदुता से मन को जीतें, ऋजुभाव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते। दशवैकालिक ( 8/38) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 143 जैनधर्म ने हमेशा विकृति से संस्कृति में समा जाने के लिए पुरुषार्थ किया है और संस्कृति में आकर प्रकृति में समाने के लिए उद्यम किया है। यही उत्तारवाद है। प्रकृति से विकृति में आना अवतारवाद है। चूँकि अवतारवाद तो जड़ है, इसने कृपावाद जैसे अनेक सिद्धान्तों को जन्म दिया। जैन परम्परा में व्यक्ति किसी की कृपा से नहीं. स्वयं के पुरुषार्थ से भगवान बनता है। यही अवतारवाद तथा उत्तारवाद में प्रमुख अन्तर है। तीर्थंकर अवतार नहीं हैं अवतारों तथा तीर्थंकरों का परम उद्देश्य समान ही होता है- धर्मसंस्थापना । अवतार अधर्म तत्त्व से मुक्ति दिलाकर लोगों में धर्म के प्रति सद्भाव की वृद्धि करते हैं । तीर्थंकर भी अहिंसा, अपरिग्रह आदि गुणयुक्त साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूपी चतुर्विध धर्मसंघ की संस्थापना करते हैं। दोनों स्वयं उपदेष्टा हैं, निष्क्रिय हैं एवं अन्य को सक्रिय होने की प्रेरणा देते हैं। वे स्वयं किसी व्यक्ति विशेष की उपासना नहीं करते। फिर भी भक्तों द्वारा उपास्य होते हैं। लेकिन हम तीर्थंकर को अतिशयकारी ही कह सकते हैं, अवतार नहीं । जैनधर्म ने तीर्थंकर को ईश्वर का अंश नहीं माना है और न ही दैवी सृष्टि का अजीब प्राणी माना है । तीर्थंकर चौबीस हुए हैं। वे सभी भिन्न आत्माएँ हैं। किसी एक आत्मा ने चौबीस बार तीर्थंकरत्व ग्रहण नहीं किया। जैन आम्नाय में "अप्पा सो परमप्पा” का सिद्धान्त माना है अर्थात् शुभयोगों में आत्मा ही परमात्मा बनती है। कोई भी व्यक्ति साधना करके तीर्थंकर बन सकता है, इसके लिए किसी की कृपा की आवश्यकता नहीं है। तीर्थंकरों का जीव अतीत में एक दिन हमारी तरह ही संसार के दलदल में फँसा जीव था । वह भी पापकर्मों की कालिमा से लिप्त था, अज्ञान के अंधकार से भरा था। संसार की असारता जानकर, धर्म का मर्म जानकर, प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री - कारुण्य भावना भा कर ही यह सत्संगति से प्रभावित हो गया एवं उच्च कर्मों का बंध किया। पता नहीं, हममें से कौन कल तीर्थंकरत्व को प्राप्त कर जाए। यह भी भूलना नहीं चाहिए कि जब तक तीर्थंकर का जीव संसार के भोग-विलास में उलझा हुआ था, तब तक वह वस्तुतः तीर्थंकर नहीं था। तीर्थंकर बनने के लिए उसने अनन्त पुण्यों का संचय किया, अनंतानंत कष्ट सहे एवं सांसारिक सुखों का त्याग किया। कषायों को अग्नि कहा गया है। उसे बुझाने के लिए ज्ञान, शील और तप शीतल जल है । - उत्तराध्ययन (23/53) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन / 144 पूर्वभवों में सम्यग्ज्ञान, दर्शन-चारित्र एवं तप की उत्कृष्ट आराधना कर ही उसने नामकर्म की उच्च प्रकृति का बंध किया। उसकी आत्मोन्नति, आत्मोद्धार, आत्मविकास के मार्ग में जो कोई कंटक आया, उसने सभी का त्याग किया, सभी शूलों का डटकर सामना किया। तीर्थंकर बनने के भव में भी जब तक वह गृहस्थावस्था में सांसारिक बंधनों से लिप्त था, तब तक भी वह तीर्थंकर नहीं था। नौकर, चाकर, धन, रत्न आदि सभी प्रकार के राज्य वैभव का वह त्याग कर वर्षों तक साधक जीवन जीता है। न खाने को योग्य भोजन, न ओढ़ने के लिए वस्त्र, ऐसे अनन्त परिषहों को वह जीव सहन करता करता, ध्यान साधना करता करता शुक्लध्यान के योग में पूर्ण ज्ञान-आत्मज्ञान केवलज्ञान को प्राप्त करता है। तब वह तीर्थ की स्थापना करता है और तीर्थंकर कहलाता है। तीर्थंकर सर्वत्र अहिंसा का जयघोष करते हैं। वे पापी का संहार नहीं करते, बल्कि उसे पापों का संहार करने की प्रेरणा देते हैं। जीवनपर्यन्त वे शुभ ध्यान में लीन रहते हुए, संसार की असारता को ध्याते हुए सिद्धत्व का परम लक्ष्य पाते हैं। सभी कर्मों का क्षय होने पर वे सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो, अक्षय सुख के साथ, कर्माभाव दशा में रहते हैं। मोक्षगामी व्यक्ति तो जन्म-जरा-मृत्यु के बंधनों से छूटकर सिद्धशिला पर विराजमान है और फिर कभी संसार में वापिस नहीं आता। अतः ये पूर्णरूपेण स्पष्ट है कि तीर्थंकर अवतार नहीं होते। चक्षु-इन्द्रिय की आसक्ति का इतना बुरा परिणाम होता है कि मूर्ख पतंगा जलती हुई अग्नि में गिरकर मर जाता है। __ - ज्ञाताधर्मकथा (1/17/4) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 0 145 जिज्ञासा - तीर्थंकरों के साथ 'नाथ' शब्द जुड़ा होता है। 'नाथ' शब्द जन्म से जुड़ा होता है या बाद में जोडा गया ? क्या यह तीर्थंकरों का आधिपत्य दर्शाता है? समाधान - तीर्थंकरों का उल्लेख वेदों, पुराणों आदि वैदिक ग्रन्थों में, त्रिपिटक आदि बौद्ध ग्रंथों में तथा समवायांग, आवश्यक, नन्दी इत्यादि अनेकानेक जैन आगमसूत्रों में भी है किन्तु उनके नाम के साथ 'नाथ' पद का उपयोग नहीं मिलता। सर्वप्रथम भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति) एवं आवश्यक सूत्रों में तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन करते समय लोगनाहेणं, लोगनाहाणं आदि शब्दों से विभूषित किया है। अत: उन्हें लोकनाथ कहा गया है किन्तु तीर्थंकरों के नाम के साथ 'नाथ' शब्द प्रयोग करने की परम्परा आगमकाल में नहीं रही होगी। शब्दार्थ के दृष्टिकोण से 'नाथ' पद का अर्थ स्वामी या प्रभु होता है। आगमों में वशीकृत आत्मा के लिए भी 'नाथ' शब्द का उपयोग हुआ है। किन्तु गंभीर दृष्टि से विचारने पर प्रत्येक तीर्थंकर तीनों लोकों के स्वामी एवं अनन्तानंत गुणों से युक्त होते हैं। अत: उनके नाम के साथ 'नाथ' पद भक्तों का भक्तिभाव दर्शाता है जो नितान्त उचित है। 'नाथ' शब्द की टीका करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं- “योगक्षेमकृन्नाथ: अलभ्यलाभो योग: लब्धस्य परिपालनं क्षेमः"। इसके अनुसार तीर्थंकर तो भव्य आत्माओं के लिए अलब्ध सम्यग्दर्शन का लाभ और लब्ध सम्यग्दर्शन का परिपालन करवाते हैं, अत: नाथ कहे जाते हैं। लगभग चतुर्थ शताब्दी के ग्रन्थकार दिगम्बराचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति में कतिपय स्थानों पर 'नाथ' पद का उपयोग तीर्थंकर के नाम के साथ किया है। यथाभरणी रिक्खम्मि संतिणाहो य। विमलस्स तीसलक्खा अणंतणाहस्स पंचदसलक्खा।। इत्यादि। इसके बाद के सभी ग्रंथों में तीर्थंकर के साथ नाथ पद का उपयोग शनैः शनैः प्रचलित हो गया। जैन तीर्थंकरों के नाम के साथ लगे हुए नाथ शब्द की लोकप्रियता धीरे-धीरे इतनी बढ़ गई कि शैवमती योगी मत्स्येन्द्रनाथ गोरखनाथ आदि भी अपने नामों के साथ 'नाथ' जोड़ने लगे किन्तु ये वस्तुतः जैन नहीं है। श्रमणोपासक की चार कोटियाँ हैं- 1. दर्पण के समान स्वच्छ-हृदय, 2. पताका के समान अस्थिरहृदय, 3. स्थाणु के समान मिथ्याग्रही, 4. तीक्ष्ण कंटक के समान कटुभाषी। - स्थानांग (4/3) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन स्तोत्र साहित्य में 'तीर्थंकर' आराध्य तीर्थंकरों के प्रति भक्ति रस की अमल-धवल मन्दाकिनी ध्वनि प्रवाहित करने के लिए स्तोत्र काव्यों की विशेष परम्परा रही है। स्तोत्र अपने इष्ट देव के प्रति सर्वतोभाव समर्पण तथा आत्मनिवेदन का विशुद्ध स्वरूप है। 'स्तोत्र' शब्द स्तुञ्+क्तिन् से बना है यानी प्रशंसाकारक सूक्त अथवा गुणकीर्तन स्तुति ही स्तोत्र है। स्तोत्र में एक ओर स्तुतिकर्ता स्तोत्र के माध्यम से अपने आराध्य देव के गुण कथन के साथसाथ आत्मोन्नति का भी परम लक्ष्य रखता है व आराध्य जैसा ही बनना चाहता है, वहीं लौकिक दृष्टिकोण से स्तोत्र विघ्न, दुख, दरिद्रता आदि नष्ट करने का भी सामर्थ्य रखने वाले हैं। आचार्य समन्तभद्र सूरि जी ने स्पष्टरूप से यह बात कही है कि हम तीर्थंकर की स्तुति इसलिए नहीं करते कि उसकी स्तुति करने या नहीं करने से वे हित या अहित करेंगे। वासुपूज्य भगवान की स्तुति में वे कहते हैं - न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरेः। तथाऽपि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न:, पुनातु चेते दुरितांजनेभ्यः॥ हे प्रभो ! आपकी प्रशंसा से आप प्रसन्न नहीं होते क्योंकि आप तो वीतरागी हैं। आपकी निन्दा करने पर भी कोई भय नहीं है क्योंकि आप नाराज भी नहीं होते। लेकन फिर भी हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आपके पुण्य गुणों का स्मरण पाप रूपी मलिनता का नाश करके हमारे चित्त को पवित्र कर ही देता है। साहित्य की विविध विधाओं में स्तोत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि जैसी भावाभिव्यक्ति रचना कौशल के माध्यम से स्तोत्र द्वारा की जाती है, वह किसी अन्य में नहीं की जाती है। भक्तिवाद के फल स्वरूप जैन परम्परा में भी तीर्थंकरों को लक्ष्य में रखकर अनेकानेक स्तोत्रों की रचना की गई है। यदि जलस्पर्श से ही सिद्धि प्राप्त होती हो, तो जल में निवास करने वाले अनेक जलचर जीव कभी के मोक्ष प्राप्त कर लेते। - सूत्रकृताङ्ग (17/14) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 147 आगम साहित्य में तीर्थंकर स्तुति द्वादशांगी का दूसरा अंग - ‘सूत्रकृतांग' में 'वीरत्थुइ' (वीरस्तुति) नामक एक स्तुतिपरक अध्ययन है। परमात्मा श्री महावीर स्वामी संबंधित ज्ञानादि के सम्बंधन में सुधर्मा स्वामी ने उत्तर रूप में प्रभु के गुण ग्रंथित किए है। सुधर्मा स्वामी ने महावीर स्वामी को दीपक के समान स्व-पर प्रकाशक, धर्मोपदेशक कहा है- 'दीवे व धम्मं समियं उदाहु।' से पण्णया अक्ख्यसागरे वा, महोदही वावि अणंतपारे। अणाइले वा अकसाइ मुक्के, सवके व देवाहिवई जुईमं॥ अर्थात् - वे महोदधि-स्वयंभूरमण समुद्र की भाँति प्रज्ञा से अनंत पार वाले, शुद्ध जल वाले अक्षय सागर, अकषायी, इन्द्र के समान द्युतिमान थे। इस प्रकार बृहद् रूप से प्रभु का गुणोत्कीर्तन किया गया है। इस वीरस्तुति की शब्द संरचना, अलंकार योजना, ललित-भावपूर्ण भाषा बहुत ही प्रभावशाली है। आवश्यक सूत्र में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति रूप लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव) का उल्लेख है। स्तोत्र के प्रारम्भ एवं अंत में तीर्थंकरों की गुणचर्चा की है एवं मध्य में सभी चौबीस तीर्थंकरों की क्रमरूप से वंदना की है। कई विद्वानों का मत है कि इस लोगस्स सूत्र की रचना प्रभु वीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने की। जब गौतम को प्रभु वीर के निर्वाण की सूचना मिली, तब शोकविह्वल होकर उन्होंने प्रभु को वंदन करने का विचार किया। तभी उन्हें ध्यान आया कि प्रभु वीर से पूर्व भी 23 प्रभावक तीर्थंकर हो चुके हैं। इस प्रकार उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के रूप में इसको रचा जो आगमों में निबद्ध है। लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली॥ इस प्रकार तीर्थंकरों को लोकोद्योतक, धर्मतीर्थस्थापक, रागद्वेषविजेता इत्यादि कहकर स्तुति प्रारम्भ की गई है। यहाँ पर 'चउवीसंपि' कहकर स्तोत्रकार ने गौणरूप से भूतकाल एवं भविष्यकाल की चौबीसी के तीर्थंकरों का भी स्तवन किया है। ज्ञाताधर्मकथांग एवं अन्तकृद्दशांग सूत्र में औपपातिक, राजप्रश्नीय एवं जम्बूद्वीपज्ञप्ति उपांगों में तीर्थंकरों की स्तुति के रूप में गद्य रूप में 'नमोत्थुणं' (शक्रस्तव) प्राप्त होता है, जिससे इन्द्र कल्याणक पर प्रभु की स्तुति करता है। इस सूत्र की चर्चा हम पहल के अध्ययनों में कर आए हैं। मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। - उत्तराध्ययन (25/31) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 148 नन्दीसूत्र नामक आगम में भावमंगलाचरण के रूप में तीर्थंकरों की स्तुति ही की है । चतुर्विघ संघ की स्तुति से पूर्व परमोपकारी तीर्थंकर महावीर की भावपूर्वक स्तुति की गई है। जयइ जगजीवजोणी, वियाणओ जगगुरु जगाणंदो । जगणाहो जगबन्धू जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जय गुरु लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥ अर्थात् - जीवोत्पत्ति स्थान के ज्ञाता जगद्गुरु, भव्य जीवों के लिए आनंद प्रदाता, सम्पूर्ण - जगत् के नाथ, विश्वबन्धु, धर्मोपदेशक होने से जगत् के पितामह स्वरूप अरिहंत सदा जयवंत रहें । समस्त श्रुतज्ञान के मूल स्रोत, तीर्थंकरो में अन्तिम, तीनों लोकों के गुरु, ऐसे महावीर सदा जयवंत रहे । स्तुति की तीन गाथाओं पर टीकाकार मलयगिरि ने लगभग डेढ़ हजार श्लोकों की विशाल टीका लिखी है। प्राकृत साहित्य में तीर्थंकर स्तुति 1. उवसग्गहरं स्तोत्र में आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भावविभोर स्तुति की है। 2. उवसग्गहरं पासं पासं वंदामि कम्म घण मुक्कं । विसहर विस निन्नासं मंगल कल्लाण आवासं ॥ अर्थात् - उपसर्गों को दूर करने वाले, भक्तों के समीप रहने वाले, कर्म समूह से मुक्त बने हुए मिथ्यात्व आदि दोषों को दूर करने वाले मंगल और कल्याण के गृहरूप तेईसवें तीर्थंकर (पासं) पार्श्वनाथ जी को वंदन करता हूँ। स्तोत्र के प्रमुख 5 पद्य एवं कहीं-कहीं वृहद् रूप से 27 पद्य भी प्राप्त होते हैं। अन्त में पार्श्वनाथ जी से भक्ति फल स्वरूप बोधि (सम्यक्त्व ) की याचना कर उन्हें ‘पास-जिणचंद’ चन्द्र की उपमा दी है। इस स्तोत्र में वैसे भी बहुत चामत्कारिक रहस्य छिपे हैं जो इसके गूढ रहस्यों को उद्घाटित करते हैं । जगचिन्तामणि स्तोत्र रचकर अष्टापद पर्वत पर श्री गौतम स्वामी ने सभी तीर्थंकरों को वन्दन किया। इसकी पहली गाथा में 24 जिनवरों की स्तुति की गई है। दूसरी गाथा में यदि कोई वन में निवास करने मात्र से ज्ञानी और तपस्वी हो जाता है तो फिर सिंह, बाघ आदि भी ज्ञानी, तपस्वी हो सकते हैं। आचाराङ्ग-चूर्णि (1/7/1) - Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 149 तीर्थंकर किस भूमि में पैदा होते हैं, संघयन उत्कृष्ट जघन्य संख्या इत्यादि का चिंतन किया है। तीसरी गाथा में 5 सुप्रसिद्ध तीर्थों के मूलनायकों को वंदन किया है- ऋषभदेव (शत्रुजय गिरि), नेमिनाथ (उज्जयंतगिरि), महावीर स्वामी (सत्यपुर सांचोर), मुनिसुव्रत जी (भृगुकच्छ भरूच), पार्श्वनाथ जी (मथुरा)। चौथी व पाँचवीं गाथा में क्रमश: शाश्वत चैत्यों व बिम्बों की संख्या गिन उन्हें वंदन किया गया है। यह अपभ्रंश प्राकृत में निबद्ध है। बृहद्गच्छीय श्री मानतुंगाचार्य जी ने 24 पद्यों द्वारा तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अमिट प्रभाव व उनकी महिमा का उल्लेख करते हुए नमिऊण स्तोत्र (भयहर स्तोत्र) की रचना की। प्रथम पद्य में स्तोत्ररचना का संकल्प करते हुए बाद की गाथाओं में महाभयावह अष्ट भयों का निरूपण किया है एवं पार्श्वनाथ जी को ऐसे भयों का विनाशक कहा है। अन्तिम गाथा में लिखा है पासह समरण जो कुणइ, संतुढे हिययेण। अट्टत्तरसयवाहिभय नासइ तस्स दूरेण ॥ अर्थात् - जो व्यक्ति स्थिर चित्त से श्री पार्श्वनाथ जी का स्मरण करता है। उसके 108 व्याधियों के भय दूर से ही नष्ट हो जाते हैं। जयतिहुअण स्तोत्र में 30 पद्यों द्वारा तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी की स्तुति की गई है। लोकोक्ति अनुसार नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि जी द्वारा यह स्तोत्र रचने पर स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्रकट हुई जिससे वे रोगमुक्त हुए थे। स्तुतिकर्ता ने प्रभु की भक्ति में लीन होकर बहुत ही सुंदर शब्दों से स्तुति की है। उन्हें 'प्रत्युपकार-निरीह', 'शत्रुमित्र समचित्त वृत्ति', परोपकार करुणैकपरायण' इत्यादि विशेषणों से विभूषित किया है। इसमें अपभ्रंश भाषा भी ध्वनित होती है। तिजयपहुत स्तोत्र के द्वारा आचार्य मानदेव सूरि जी ने भूत, वर्तमान तथा भविष्य के सब तीर्थंकरों का स्मरण किया है। मान्यतानुसार जिनशासन में आए व्यन्तर उपसर्ग के निवारणार्थ इस स्तोत्र की रचना की गई। इसकी काव्य शैली व शब्द संरचना अत्यन्त सुगठित है। तीर्थंकरों के लिए जिनाणं, 'जिनन्द', 'जिनवर', 'जिनगण' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। अजितशान्ति स्तव भी जैन वाङ्मय की प्राचीन कृति मानी जाती है। कथानुसार नन्दिषेण मुनि एक बार शजय गिरिराज तीर्थ पर गए। वहाँ पर श्री अजितनाथ जी एवं श्री शान्तिनाथ जी के मन्दिर आमने सामने थे। आशातना से बचने हेतु मुनिश्री ने दोनों तीर्थंकरों की संयुक्त स्तवना की, जिससे दोनों मन्दिर देवीय प्रभाव से एक साथ हो गए। 5. क्षमा मांगनी चाहिए, क्षमा देनी चाहिए। जो क्षमा-याचना करके कषार्यों का उपशमन कर लेता है, वही आराधक है। - कल्पसूत्र (3/59) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन : 150 प्राकृत साहित्य में ऐसे अनेक स्तोत्र प्राप्त होते हैं जिनमें तीर्थंकरों की स्तवना की गई है। प्रत्येक स्तोत्र की शब्द संरचना एवं भावों की प्रगाढता भिन्न है। कवि धनपाल कृत 'ऋषभपंचाशिका' अभयदेवसूरिजी कृत महावीर स्तोत्र', देवेन्द्रसूरिजी कृत 'आदिदेव-स्तवन', 'तिलकचन्द्रजी कृत 'द्वासप्ततिजिनस्तोत्र', आचार्य जिनप्रभजी कृत. 'पार्श्वनाथलघुस्तव', उपाध्याय मेरुनन्दनजी कृत 'सीमन्धर जिन स्तवन' आदि स्तोत्र भक्तियोग के अनन्य उदाहरण अपभ्रंश भाषा में तीर्थंकर स्तुति भारतीय इतिहास की मध्यकालीन भाषाओं में अपभ्रंश भाषा का विशिष्ट स्थान रहा है। इस भाषा में अनेक सरस कृतियाँ आज भी ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हैं। कवि धनपाल कृत 'सत्त्यपुरीय महावीर उत्साह', जिनप्रभसूरिजी विरचित 'जिनजन्माभिषेक', 'मुनिसुव्रत स्तोत्रम्', शान्तिसमुद्रजी प्रणीत 'नवफनपार्श्वनाथनमस्कारः', वर्धमानसूरिजी कृत 'वीरजिनपारणकम्', 'जिनस्तुति', धर्मघोषसूरिजी कृत 'महावीर कलश' आदि विशेष रूप से उल्लिखित हैं। भाषा की सौम्यता एवं भक्तिवाद की मधुरता ऐसे स्तोत्रों में दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत भाषा में तीर्थंकर स्तुति आचार्य सिद्धसेन द्वारा तीर्थंकर स्तुति - जैन परम्परा के विद्वान आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने आह्लादजनक भाषा में तीर्थंकरों की स्तवना की है। बत्तीस पद्यों वाली अनेक द्वात्रिंशिकाएँ उन्होंने रची जिनमें अनेक तीर्थंकर स्तुति से सम्बन्ध रखती हैं। कल्याणमन्दिर स्तोत्र की भी 44 गाथाओं द्वारा श्री पार्श्वनाथ प्रभु का गुणोत्कीर्तन आचार्य सिद्धसेन ने किया है। कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि, भीताभयप्रदमनिन्दित मङियपद्मम्। संसारसागर-निमज्जदशेषजन्तु-पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य॥ . इस प्रकार विविध अलंकारों, छंदों, रसों के प्रयोग से, भाषा के सरस उपयोग से श्री पार्श्वनाथ जी की भक्ति की है। आचार्य मानतुंग द्वारा तीर्थंकर स्तुति - छठी शताब्दी के उत्तरकाल में हुए आचार्य मानतुंग सूरि जी द्वारा रचित आदिनाथ स्तोत्र (भक्तामर स्तोत्र) आज भी अत्यन्त प्रसिद्ध है जिसमें प्रथम तीर्थंकर युगादिदेव को परिलक्षित करके तीर्थंकरों की गुण स्तुति की है। राजा भोज के कारागृह में रचे इस स्तोत्र में भक्तिरस का अपूर्व आनन्द है। चार प्रकार के पुरुष हैं- कुछ पुरुष वेष छोड़ देते हैं, किन्तु धर्म नहीं छोड़ते। कुष्ठ धर्म छोड़ देते हैं, किन्तु वेष नहीं छोड़ते हैं। कुछ वेष भी छोड़ देते हैं और धर्म भी। कुछ ऐसे होते हैं जो न वेष छोड़ते हैं और न धर्म। - व्यवहारसूत्र (10) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 5. 6. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 151 - भूषणाय तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ । तुभ्यं नम: क्षितितलामल -: तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-शोषणाय ॥ भाषा के सौन्दर्य से युक्त इस स्तोत्र पर ' कल्याण मन्दिर' का भी यत्किंचित् प्रभाव दिखा है। आचार्य बप्पभट्ट सूरि द्वारा तीर्थंकर स्तुति - विक्रम की आठवीं शती में हुए आचार्य बप्पभट्ट सूरि जी ने 96 पद्यों व 24 स्तुति कदम्बकों द्वारा क्रमागत जिनेश्वरों की स्तुति की जो 'चतुर्विंशतिका' के नाम से प्रसिद्ध हुई । वीर जिनेश्वर की स्तुति हेतु 11 पद्यों में 'वीरस्तव' की रचना भी उन्होंने ही की । शब्दालंकारों के आकर्षक उपयोग द्वारा स्तुतियाँ उस समय अत्यन्त प्रसिद्ध रही । शोभनमुनि द्वारा तीर्थंकर स्तुति - तिलकमंजरी के रचयिता कवि धनपाल के भ्राता के रूप में प्रसिद्ध शोभन मुनि ने गोचरी लाते - लाते 96 पद्यों में 24 तीर्थंकरों की क्रमागत रच दी। इसे ‘चतुर्विंशतिजिनस्तुति' के रूप में जाना गया। डा. हर्मन जेकोबी ने इसका जर्मन भाषा में भी अनुवाद किया । आचार्य हेमचन्द्र द्वारा तीर्थंकर स्तुति पाश्चात्य विद्वान् जिन्हें Ocean of Knowledge कहते हैं, ऐसे कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी ने अपनी अनुपम रचनाओं से भक्तिकाव्य को नया आयाम दिया। वीतराग के गुणों की स्तुति स्तवना करने वलो 20 प्रकाशों में 'वीतराग स्तोत्र', प्रभु वीर को समर्पित दो द्वात्रिंशिकाएँ परिशिष्ट पर्व में मंगल रूप में भगवान् महावीर का चार पद्यों वाला 'वीरजिनस्तोत्र' आदि उनके भक्ति रस से परिलक्षित कराते हैं। चवालीस श्लोक निबद्ध 'महादेव स्तोत्र' भी समन्वयात्मक भक्ति का परिचायक है, जिसमें ब्रह्मादि तथा तीर्थंकरों की सुन्दरतम लालित्य पूर्ण व्याख्या की है । त्रिषष्टिश्लाकापुरुष के विशालकाय प्रबन्ध में भी प्रारम्भ में 24 तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। आज भी वह स्तुति 'सकलार्हत् स्तोत्र' के रूप में प्रख्यात है। उपाध्याय यशोविजय द्वारा तीर्थंकर स्तुति 17वीं शती के ज्योतिर्धर महोपाध्याय यशोविजय जी अथाह ज्ञानी थे। उनका आत्मज्ञान प्रभुभक्ति के भावों में दृष्टिगोचर होता है । समन्वयात्मक दृष्टि से लिखा गया 'परमात्मपञ्चविंशतिका' में अरिहन्त व सिद्धों के विशुद्ध स्वरूप का वर्णन किया गया है। 'जिनमें निरन्तर विज्ञान, आनन्द और ब्रह्म प्रतिष्ठित हैं, ऐसे शुद्ध-बुद्ध स्वभाव वाले परमात्मा को नमन' । यशोविजय जी विरचित 'सिद्धसहस्रनामछन्द' अति सुन्दर है । - दुष्कर ब्रह्मचर्य की साधना के लिए सतत सावधान तथा मनसा वाचा कायेन ब्रह्मचारियों को देव, दानव गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर सभी नमस्कार करते हैं। - उत्तराध्ययन (16/16) - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88152 उपर्युक्त प्रमुख संस्कृत स्तोत्रों के अलावा तीर्थंकर भक्ति निमित्त अनेक स्तोत्र रचे गए हैं। यथा 3. • मुनि बालचन्द्रजी कृत नमोस्तु वर्द्धमानाय • सिद्धर्षि गणि जी विरचित श्री जिनस्तवन • उपाध्याय भोजसागर जी लिखित श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तोत्र 4 आचार्य कमलप्रभ सूरि जी विरचित जिनपंजर स्तोत्र • धर्मघोष सूरि जी कृत चतुर्विंशति जिनस्तुतियाँ • जिनपति सूरि जी, रत्नशेखर सूरि जी विरचित चतुर्विंशति जिनस्तवन • भद्रबाहु स्वामी जी लिखित 'लघुजिनसहस्रनामस्तोत्र' अन्य भाषाओं के स्तोत्रों में तीर्थंकर स्तुति 1. जिनप्रभ सूरि जी ने फारसी भाषा में श्री ऋषभजिनस्तवन को निबद्ध किया है। ग्यारह गाथाओं में रचित इस स्तवन की पहली गाथा में वे कहते हैं • समयसुंदर सूरि जी कृत ऋषभ भक्तामर • वादिदेव सूरि जी विरचित कलिकुण्डपार्श्वजिनस्तवन • धर्मवर्द्धन गणी जी द्वारा रचित वीर भक्तामर इत्यादि अल्ला ल्लाहि तुराहं, कीम्ब रुसहिआ नु तूं मराष्कवाद । दुनीपकसमे दानइ बुस्सारह बुध चिरा नम्हं ॥ आचार्य समयसुन्दर सूरि द्वारा विरचित “ षड्भाषामयानि - जिनपंचकस्तोत्राणि” में कवि ने संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची तथा अपभ्रंश, इन छह भाषाओं में ऋषभदेव, शान्तिजिन, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी की स्तवना की है। श्री शान्तिजिन स्तवन में भी श्री सोमसुन्दर सूरि जी ने छह भाषाओं के प्रयोग से तीर्थंकर प्रभु की स्तवना की है। पैशाची भाषा में वे लिखते हैं - नेहे जस्ससरंमि कंतिसलले वंतारुते वंगना तिट्ठीओपति-बिंबिता अचवला रंगतताराजुता । रेहंतिब्भमरप्पसंगसुभगं भोजवालीओ विव तं संतिं नमह प्पसंतहितयं कं तप्पतप्पापहं ॥ जो तत्त्व - विचार के अनुसार नहीं चलता, उससे बड़ा मिथ्यादृष्टि कौन हो सकता है ? वह दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने मिथ्यात्व को समृध्द करता है। - उत्तराध्ययन (37/13) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 153 ___ शौरसेनी फारसी, मागधी, पाली आदि अनेक भाषाओं में स्तोत्र रचे गए हैं जिनमें तीर्थंकर प्रभु की भक्ति की गई है। स्तोत्र साहित्य में तीर्थंकर भक्ति का आधार आवश्यक नियुक्ति में भक्ति के फल की चर्चा करते हुए कहा है कि भत्तीइ जिणवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा। भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं॥" अर्थात् जिनेश्वर की भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं, राग द्वेष समाप्त होकर आरोग्य, बोधि और समाधि लाभ होता है। __तीर्थंकरों की स्तवना से पारमार्थिक व लौकिक दोनों मनोरथ पूर्ण होने की भावना रहती है, किन्तु मूलतः स्तोत्र के माध्यम से स्तुतिकर्ता अपने उपास्य के गुणों के वर्णन के साथ आत्मकल्याण की भावना भी रखता है। भक्त अपने इष्ट देव की भक्ति करता है, उनके गुणों का संस्तवन करता है, उसके पीछे आशा होती है इष्ट देव की तरह बनने की। ___ कहा गया है- “गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः" यानी जैन दर्शन, व्यक्ति का नहीं, अपितु गुण का उपासक है। तीर्थंकर देवाधिदेव के गुणोत्कीर्तन से हमारी जिह्वा पवित्र हो, उनकी शुद्धात्मा के गुण हमारी आत्मा में भी आए, इसी मंगल आधार से स्तोत्र साहित्य में तीर्थंकर स्तुति का प्रचलन हुआ। जो मनुष्य काम-भोगों को चाहते तो हैं, किन्तु परिस्थिति विशेष से उनका सेवन नहीं कर पाते हैं, वे भी दुर्गति में जाते हैं। - उत्तराध्ययन (9/53) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 154 जिज्ञासा - शत्रुंजय (सिद्धाचल) तीर्थ शाश्वत है। क्या सभी तीर्थंकर शत्रुंजय पधारे है ? तीर्थंकरों ने शत्रुंजय की महिमा के विषय में क्या कहा है ? समाधान ऋषभदेव प्रभु के आदेश से गणधर पुण्डरीक स्वामी ने सवा लाख श्लोक प्रमाण श्री शत्रुंजय माहात्म्य नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसके पश्चात् श्री महावीर स्वामी जी के आदेश से गणधर सुधर्मा स्वामी ने मनुष्यों की योग्यता देख उसे संक्षेप करके 24,000 श्लोक प्रमाण रचना की जिसे वर्षों बाद धनेश्वर सूरि जी ने लिपिबद्ध किया। शत्रुंजय माहात्म्य के अनुसार श्री अरिष्टनेमि जी तलेटी पर पधारे एवं अन्य सभी 23 तीर्थंकर ऊपर पर्वत पर पधारे एवं अनेकों तीर्थंकरों के समवसरण भी सिद्धाचल गिरिराज की पावन भूमि पर हुए । श्री अजितनाथ स्वामी जी ने फरमाया है- यह शाश्वत और सर्वदा स्थिर शत्रुंजय पर्वत संसार - सागर में डूबने वाले लोगों को जीवनदान देने वाला है। इस शैल (पर्वत) और शील की सेवा करने से उत्तम फल मिलता है । इस शत्रुंजय पर्वत पर जितने सिद्ध हुए हैं और होंगे, उन्हें जानने पर भी केवली एक ही जीभ होने से कहने में समर्थ नहीं हैं। - श्री अभिनन्दन स्वामी जी ने फरमाया है- यह शत्रुंजय पर्वत अन्तरंग राग द्वेषमोह रूप शत्रुओं को नष्ट करने वाला, सब पापों को दूर करने वाला और मुक्ति का लीलागृह है। जब अरिहंत भगवान मुक्त हो जाएँगे, तब यह तीर्थ सबका कल्याण करने वाला होगा। श्री चन्द्रप्रभ स्वामी जी ने फरमाया है- इस अस्थिर संसार में शत्रुंजय तीर्थ और अरिहंत भगवान का ध्यान, ये श्रेष्ठ आलंबन हैं। जिस प्रकार देवों में जिनेश्वर देव, ध्यानों में शुक्ल ध्यान, व्रतों में ब्रह्मचर्य, धर्मों में श्रमणधर्म मुख्य है, उसी तरह तीर्थों में शत्रुंजय तीर्थ मुख्य है । श्री शान्तिनाथ स्वामी जी जिनेश्वर भगवान की सेवा और संघ ये श्री महावीर स्वामी जी ने फरमाया है- दूसरे तीर्थों में किया हुआ पाप कुछ जन्मों तक रहता है किन्तु शत्रुंजय में किया हुआ पाप तो प्रत्येक जन्म में बढता ही रहता है । शत्रुंजय पर चढ़ने वाले अनायास ही लोक के अग्रभाग मोक्ष पर ही चढते हैं क्योंकि यह पापमोचक तीर्थ है। फरमाया है - शील, शत्रुंजय पर्वत, समताभाव, शिवपद मोक्ष के गवाह हैं। इस प्रकार अनेक तीर्थंकरों ने तीर्थाधिपति शत्रुंजय तीर्थ की महिमा का वर्णन किया है। इसका विस्तृत विवेचन शत्रुंजय माहात्म्य में प्राप्त होता है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों का शासन कल्प तीर्थंकरों के शासन का संवहन साधु-साध्वी जी करते हैं। तीर्थंकर परमात्माओं की वाणी में किंचित्मात्र भी अंतर नहीं होता, सिद्धान्त कभी भी परिवर्तित नहीं होते। किन्तु काल के प्रभाव से उनकी परम्परा के साधु साध्वियों के आचार में अन्तर हो जाना स्वाभाविक है। किस काल में श्रमण-श्रमणी वृंद का स्वभाव, बौद्धिक स्तर, ग्रहण शक्ति, समर्पण, आचार के प्रति जागृति कैसी है, इत्यादि अनेक कारणों को मध्य नजर रखते हुए, उनका कल्प भिन्न-भिन्न हो सकता है। जैसे इस काल के अन्तिम आचार्य श्री दुप्पस्सह सूरि के समय में छट्ठ तक की तपस्या ही रहेगी- काल का प्रभाव तो रहता ही है। श्रमण-श्रमणी वर्ग के अनुष्ठान विशेष अथवा आचार को कल्प कहते हैं। इसके 10 भेद हैं अचेलकुदेसिय, सज्जायर, रायपिंड किइकम्मे । वय-जिट्ठ पडिक्कमणे, मासं पज्जोसणा कप्पे॥ अचेलक कल्प - वस्त्र न रखना या थोड़े, अल्पमूल्य वाले तथा जीर्ण वस्त्र रखना अचेलक कल्प कहलाता है। ऋषभदेव जी तथा महावीर स्वामी के साधु तो श्वेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करें। उनके वस्त्रों का माप, प्रकार आदि शास्त्रों में वर्णित है। इस प्रकार आधा शरीर खुला-आधा शरीर ढका रखें यानी न्यून वस्त्र पहले समझना। इसीलिए उसे अचेलक कल्प कहते हैं। द्वितीय से लेकर तेईसवें तीर्थंकर के साधु ऋजु प्राज्ञ होते हैं- अधिक समझदार भी होते हैं और धर्म का पालन भी पूर्णरूप से करना चाहते हैं । वे दोष आदि का विचार स्वयं कर लेते हैं इसलिए उनके लिए छूट है। वे अधिक मूल्य वाले पंचरंगी वस्त्र भी ले सकते हैं, उनके लिए ‘सचेलक' कल्प है। किन्तु प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के साधु-साध्वियों के लिए अचेलक कल्प नियत (निश्चित) है। औद्देशिक कल्प - साधु अथवा साध्वी के उद्देश्य से तैयार किए गए आहार आदि को औद्देशिक कल्प कहते हैं। इसके अनुसार मध्य के 22 तीर्थंकरों के समय में जिस साधु अज्ञान महादुःख है। अज्ञान से भय उत्पन्न होता है। सब जीवों के संसार-परिभ्रमण का मूल कारण अज्ञान ही है। - इसिभासियाइं (21/1) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 156 अथवा साध्वी के निमित्त से किसी गृहस्थ ने भोजन, पानी, औषधि, पात्र आदि बनवाए हो, तो वे पदार्थ उस साध्वी या साधु को वोहराना योग्य नहीं, पर बाकी साधु-साध्वी को वोहराना कल्पता है। यानी जिनके लिए बनाया, उन्हें छोड़ बाकी सबको वोहराना कल्पता है। उन्हें आधाकर्मी आदि दोष नहीं लगते । 4. प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन में तो एक साधु अथवा एक साध्वी के लिए जो आधाकर्मिक आहार आदि बनाए, बनवाएँ हों, वे सब प्रकार से किसी भी साधु-साध्वी को लेना नहीं कल्पता। शास्त्रों में इसका भी सूक्ष्म वर्णन है, यहाँ मात्र सामान्य परिचय प्रस्तुत किया गया है। शय्यातर - पिण्ड कल्प जो साधु को रहने के लिए स्थान देता है, उस घर के स्वामी को या उपाश्रय के मालिक को शय्यातर कहते हैं । उनके घर का पिंड - आहारादि 12 पदार्थ साधुओं को वोहराना व उनका लेना नहीं कल्पता । 1. आहार 4. स्वादिम 7. कम्बल 10. निष्पलक - 2. पानी 5. कपड़ा 8. ओघा 11. नेरणी ( नेलकटर) ये 12 वस्तुएँ तथा छुरी, कैंची, सरपला आदि भी साधु को लेना नहीं कल्पता क्योंकि इस कारण राग, विनय, लोभ आदि के दोष संभवित हैं । किन्तु 10 वस्तुएँ शय्यातर के घर की ना कल्पता है 1. तृण 2. मिट्टी का ढेला 4. मात्रा का पात्र 5. बाजोट 8. संथार - 3. खादिम 6. पात्र 9. सुई 12. कान का मैल निकालने की चाटुई । 3. भस्म (राख) पाट पाटली 6. 9. लेपप्रमुख वस्तु 7. शय्या 10. उपधि (वस्त्रादि) सहित शिष्य । यह कल्प सब तीर्थंकरों के साधुओं को निश्चय से होता है । राजपिंड कल्प छत्रपति, चक्रवर्ती आदि राजा तथा सेनापति, पुरोहित, श्रेष्ठी, प्रधान व सार्थवाह के साथ जो राज करता है, उसे राजा कहते हैं। उनके घर का अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण - ये 8 वस्तुएँ राजपिंड कहलाती हैं तथा रस जिह्वा का विषय है। यह जो रस का प्रिय लगना है, उसे राग का हेतु कहा है और जो रस का अप्रिय लगना है उसे द्वेष का हेतु । जो दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। - उत्तराध्ययन (32/61) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 6. 7. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 157 प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन के साधु-साध्वियों को राजपिंड लेना नहीं कल्पता। राजपिण्ड में बहुत दोष हैं, जैसे - वैभव में आसक्ति, अमंगल की संभावना, आत्मविराधना, लोकनिंदा इत्यादि । मध्य के 22 तीर्थंकरों के साधु-साध्वी ऋजु प्राज्ञ होते हैं इसलिए राजपिंड को सदोष जानते हैं, तो नहीं लेते। इस कारण उन्हें राजपिंड कल्प की मर्यादा नहीं है। कृतिकर्म कल्प शास्त्रोक्त विधि के अनुसार अपने से बडो को वन्दन करना कृतिकर्म कल्प है। वह 2 प्रकार का है- एक तो खड़े होना और दूसरा द्वादशावर्त वन्दन करना। जिनशासन में ऐसी मर्यादा है कि साधुओं में छोटी दीक्षा पर्याय वाला लम्बी दीक्षा पर्याय वाले को वंदन करता है। इसमें बाप-बेटा, राजा - प्रधान नहीं देखा जाता। सामान्य भाषा में पुत्र ने पहले दीक्षा ली हो और पिता ने बाद में ली हो, तो पिता पुत्र को वंदन करे । इसका विस्तार, अपवाद आदि शास्त्रों में सूक्ष्म रूप से मिलते हैं। तथा पुरुष प्रधानता होने .से व शासन व्यवस्था होने से सभी साध्वियाँ बिना दीक्षा पर्याय देखे सब साधुओं को वंदन करे यानी 100 साल की दीक्षिता साध्वी नवदीक्षित साधु को वंदन करे । कृतिकर्म कल्प का पालन न करने से अनेक दोष लगते हैं। जैसे अहंकार - वृद्धि, लोकनिन्दा, अविनय, संसारवृद्धि इत्यादि । यह कल्प सब तीर्थंकरों के शासन के लिए समान है। व्रत कल्प सूक्ष्म प्राणातिपात (हिंसा), मृषावाद (असत्य), अदत्तादान (चोरी), मैथुन ( अब्रह्मचर्य) और परिग्रह, इन पाँचों से विरत होना व्रत कल्प है। प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन में पाँच महाव्रत होते हैं, इसी को पंचायाम धर्म भी कहते हैं। मध्यम तीर्थंकर (यानी 2 से 23 ) के साधु ऋजु व प्राज्ञ होते हैं । वे चौथे व्रत को पाँचवें में अन्तर्भूत कर लेते हैं। यानी अपरिगृहीत स्त्रीभोग का पच्चक्खाण तीसरे अदत्तादान व्रत में तथा परिगृहीत स्त्रीभोग का पच्चवखाण परिग्रह व्रत में समा लेते हैं। क्योंकि जहाँ स्त्री है, वहाँ परिग्रह है। अतः मध्यम 22 तीर्थंकर के साधु के लिए मैथुन विरमण व्रत छोड़कर 4 महाव्रत यानी चातुर्याम धर्म जानना चाहिए । - शास्त्र में कहीं पर ऋषभदेव जी एवं महावीर स्वामी के तीर्थं में रात्रिभोजनविरमण व्रत मूलव्रत गिनकर साधु के 6 व्रत बताए हैं किन्तु बाईस तीर्थंकर के तीर्थ में इसे उत्तर गुण में गिनते हैं, इसलिए उनके तो 4 व्रत ही मानना । ज्येष्ठ कल्प ज्ञान, दर्शन और चारित्र में बड़े को ज्येष्ठ कहते हैं। प्रथम और अंतिम वही वीर प्रशंसित होता है, जो अपने को तथा दूसरे की दासता के बंधन से मुक्त कराता है। आचारांग (1/2/5) - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 9. 10. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 158 तीर्थंकर के शासन में उपस्थापना अर्थात् बड़ी दीक्षा में जो साधु बड़ा होता है, वही ज्येष्ठ माना जाता है। जिसने साधुओं के आचार को पढ लिया हो, अर्थ जान लिया हो, जो अव्रतों का परिहार मन, वचन और काया से करता है, नव प्रकार से शुद्ध संयम का पालन करता है, ऐसे साधु को ही उपस्थापना यानी बड़ी दीक्षा देनी चाहिए। मध्यम तीर्थंकरों के शासन में निरतिचार चारित्र पालने वाला ही बड़ा माना जाता है। वे सब प्रवीण होते हैं, इसलिए दीक्षा के दिन से ही छोटे और बड़े गिने जाते हैं। इनको समझाने के लिए शास्त्रकारों ने पिता-पुत्र, राजा - मुनीम, माता-पुत्री आदि के उदाहरण लेकर विस्तृत रूप से स्पष्ट किया है। प्रतिक्रमण कल्प किए हुए पापों की आलोचना आवश्यक प्रतिक्रमण कहलाता है। इसमें प्रथम एवं चरम तीर्थंकर के समय में साधु-साध्वी को प्रमादवश अनजानेपन में दोष -स्खलना होने की संभावना रहती है। इस कारण उनके लिए दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आवश्यक है भले ही दोष लगे हों या न लगे हो । मध्य 22 तीर्थंकरों के साधु-साध्वी मूलत: अप्रमादी होते हैं। उन्हें पाप लगा या कोई स्खलना हुई है, ऐसा पता लगे तो ही दैवसिक या रात्रिक प्रतिक्रमण शाम को लेते हैं। शेष- पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण मध्य के समय में होते ही नहीं हैं। इस तरह यह भी अनियत कल्प है। अथवा सुबह कर 22 जिनेश्वरों के - मास कल्प - चातुर्मास या किसी दूसरे कारण के बिना, 2 मास से अधिक एक स्थान पर न ठहरना मासकल्प है। प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के साधु को एक जगह 1 मास के उपरान्त रहने की आज्ञा नहीं है क्योंकि उससे अधिक रहने पर गृहस्थों के साथ प्रतिबन्ध, लघुता की प्राप्ति, धर्मप्रचार का अभाव, ज्ञान की अप्राप्ति आदि अनेक दोष संभावित हैं। कदाचित् कालदोष, क्षेत्रदोष, द्रव्यदोष, भावदोष आदि के कारण विहार में असमर्थ हो या एक जगह ही रहना पड़े तो उपाश्रय पलटे, मोहल्ला पलटे, घर पलटे, मंजिल पलटे और कुछ भी न हो तो सथारा भूमि पलट कर भाव से भी मासकल्प करे । मध्य के 22 तीर्थंकरों के लिए मासकल्प का कोई नियम नहीं है। पर्युषणा कल्प श्रावण के प्रारम्भ से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक एक स्थान पर रहना पर्युषणा कल्प है। प्रथम तीर्थंकर एवं अन्तिम तीर्थंकर के शासनकाल में जघन्य से 70 दिन और उत्कृष्ट से 6 महीने के पर्युषण जानने चाहिए। मध्य 22 तीर्थंकरों के साधुओं के लिए कोई साधक निवृत्ति की साधना करता है, परिजन, धन तथा भोग-विलास को छोड़ देता है और अनेक कष्टों को भी सहन करता है, परन्तु यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । आचारांग नियुक्ति (220) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 159 यह निश्चय से नहीं है। किसी दोष के न लगने पर वे 1 करोड़ पूर्व भी एक स्थान पर ठहर सकते हैं। दोष होने पर एक महीने में भी विहार कर सकते हैं। इनकी विशेष जानकारी कल्पसूत्र में प्राप्त होती है। इस तरहं ये 10 कल्प कहे गए हैं। कल्पसूत्र में इन्हीं 10 कल्पों का विस्तृत विवेचन है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में ये दसों कल्प स्थित कल्प अर्थात् अवश्य कर्त्तव्य हैं। मध्यम 22 तीर्थंकरों के लिए शय्यातर पिंड कल्प, कृतिकर्म कल्प, व्रतकल्प, ज्येष्ठ कल्प ये 4 कल्प आवश्यक है एवं शेष 6 अनवस्थित हैं यानी आवश्यकता पडने पर ही किए जाते हैं, ऐसा पंचाशक कल्पसूत्र आदि में वर्णन है। जिज्ञासा साधु सब समान हैं, तो उनके कल्प का भेद क्यों हुआ ? समाधान - ऋषभदेव जी के समय के लोग ऋजु और जड़ होते थे । यथा दृष्टान्तऋषभदेव जी के तीर्थ में किसी आचार्य का शिष्य स्थंडिल भूमि पर गया । बहुत देर वापिस आया। गुरु ने कारण पूछा। शिष्य ने सरलता से कहा- मार्ग पर नाटक मंडली नाटक कर रही थी। सो देखने के लिए मैं खड़ा रहा। गुरु ने समझाया "हम साधु हैं। हमें नाटक देखना नहीं कल्पता । " शिष्य ने तहत्ति कहा। पुनः एक बार वही शिष्य बाहर गया और देर से आया। गुरु ने कारण पूछा। शिष्य ने ऋजुता से कहा मार्ग पर नर्तकी नृत्य कर रही थी । उसे देखने के लिए खड़ा था। तब गुरु ने कहा- तुम्हें पहले मना किया था न ? तब शिष्य ने जड़ता से कहा " आपने तो नट देखने से मना किया था, नर्तकी देखने से नहीं ।" गुरु ने उसे समझाया और शिष्य ने सरलता से स्वीकार किया । इस दृष्टांत में ऋजुता, सरलता से वह सत्यशील, विनयवंत रहा किन्तु जड़ता के कारण गुरु का भाव नहीं समझ पाया । - - - तीर्थंकर महावीर के साधु वक्र और जड़ कहे हैं। तथा मध्य के 22 तीर्थंकरों के समय के साधु व मनुष्य ऋजु त्र प्राज्ञ कहे गए हैं (वे सरल भी हैं और ज्ञानवान भी) । इस कारण ही तीर्थंकरों के शासन कल्प की व्यवस्था भिन्न है। पार्श्वनाथ जी की परंपरा के केशी श्रमण व महावीर स्वामी जी के शिष्य गणधर गौतम का मिलन - ज्ञानचर्चा इस संदर्भ ऐतिहासिक है। जिस प्रकार बीज के दग्ध हो जाने पर फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार कर्म रूपी बीजों के दग्ध हो जाने पर भव रूपी अंकुर फिर उत्पन्न नहीं होते अर्थात् मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं करते। दशाश्रुतस्कन्ध ( 5/15) - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 160 जिज्ञासा - भगवान महावीर के साधु-साध्वियों की सामान्य चर्या की प्रमुख 10 बातें क्या हैं ? समाधान - भगवती सूत्र, स्थानांग सूत्र आदि में साधु-साध्वी जी की दशविध समाचारी का विधान है1. आवश्यकी - उपाश्रय से बाहर जाते हुए आवश्यक कार्य के लिए जाता हूँ, ऐसा कहे ? 2. नैषेधिकी - कार्य से निवृत्त होकर आए तब मैं निवृत्त हो चुका हूँ, ऐसा कहे। 3. आपृच्छा - अपना कार्य करने की अनुमति लेना। 4. प्रतिपृच्छा - दूसरों का कार्य करने की अनुमति लेना (मना किए हुए कार्य की)। 5. छन्दना - पहले लाए हुए आहार के लिए साधर्मिक साधुओं को आमंत्रित करना। 6. निमंत्रण - आहार लाने के लिए अन्य साधु को पूछना। 7. इच्छाकार - कार्य करने हेतु इच्छा जताना या जानना। 8. मिथ्याकार - भूल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना। 9. तथाकार - गुरु के वचनों को तहत्ति कह स्वीकार करना। 10. उपसंपदा - ज्ञानादि प्राप्ति के लिए अन्य गुरु के समीप रहना। मैत्री-भाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को विशुध्द बनाकर निर्भय हो जाता है। - उत्तराध्ययन (29/17) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिहन्त पद ध्यान साधना अरिहन्त का अभिप्राय है आर्हन्त्य की अनुभूति। आर्हन्त्य प्रकट कर हम सभी को अरिहन्त बनना है। उनमें भी तीर्थंकर तो परम उत्कृष्ट आत्माएँ हैं। अरिहन्त बनने हेतु आवश्यक है अरिहन्त का तादात्म्य यानी उनके साथ एकमेक हो जाना। आचारांग सूत्र में फरमाया है कि1. उनकी दृष्टि 2. उनका स्वरूप ज्ञान 3. उनका आगमन 4. उनकी चेतसिक अनुभूति और 5. उनका सान्निध्य इन 5 प्रकारों से अरिहंत के साथ एकरूप बना जाता है। यह ध्यान साधना की गूढ़ पद्धति है। तीर्थंकर परमात्मा हमें इस राग द्वेष से मुक्त होकर आत्मा से परमात्मा बनने का उपदेश देते हैं। उनसे एकमेक होने के लिए उनसे त्रैकालिक सम्बन्ध जोड़ना अनिवार्य है। "हे प्रभो ! आप मेरे भविष्य काल और मैं आपका भूतकाल। पहले आपकी आत्मा भी मेरी तरह इस संसार में उलझी थी। हिंसा, असत्य, प्रमाद आदि दोष आपकी जीवात्मा में भी थे। जिस तरह मैं अभी इस व्यापार, परिवार, संसार के मायाजाल में फंसा हूँ, पहले आप भी फंसे थे। मैं आपका भूतकाल ही तो हूँ और मुझे तो आपके जैसा भविष्यकाल चाहिए। राग और द्वेष से मुक्त, सभी विकारों से मुक्त, सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त। आप मेरे भविष्यकाल ही हो और इसलिए वर्तमान काल में मैं आपके द्वारा दिखाए गए पथ का अनुसरण कर रहा हूँ ताकि एक दिन उस गन्तव्य तक पहुँच सकूँ जहाँ आत्मा को शाश्वत सुख है यानी मोक्ष।" तीर्थंकर प्रभु का जाप मन्त्र शक्ति का प्रभाव अचिन्त्य है। नाम निक्षेप के प्रभाव से इससे सकारात्मक ऊर्जा व चैतन्य स्वरूप का सर्जन होता है। निस्संदेह रूप से तीर्थंकर प्रभु का नाम स्वयं में ही मंत्र स्वरूप है व इसका मंत्रोच्चारण व नामस्मरण कर्मनिर्जरा का अद्वितीय माध्यम है। जैन आम्नाय में 4 प्रकार के जाप बताए गए हैं आचार की प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करना चाहिए। - दशवैकालिक (9/3/2) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 162 भाष्य जाप वैखरी वाणी में भाष्य जाप किया जाता है। परमात्मा संबंधी मंत्र भाष्य तथा स्तुति स्तोत्रादि का स्पष्ट उच्चारण यानी जो मुख से बोला जाए व जिसका उच्चारण कानों से सुना जाए, वह वैखरी वाणी से भाग्य जाप होता है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगों से शरीर की व्याधियाँ समाप्त होती हैं और चित्त पर जमे स्थूल विकार कम होते हैं। पशु उपांशु जप मध्यमा वाणी में होता है, जिसमें ओष्ठ (होठ ) और जिह्वा (जीभ) चलती है परन्तु आवाज बाहर सुनाई नहीं देती । बाह्य परिणाम में ग्रंथि प्रभाव के अनुसार जाप से हमारे शरीर की पिच्युटरी ग्रंथि (PITUTIARY GLAND) से 9 रसबिंदुओं का स्राव होता है। आंतरिक परिणाम के अनुसार मध्यमा वाणी के जाप से यथाप्रवृत्तिकरण की प्राप्ति होती है। - मानस जाप मंत्रों का मानस जप और कायोत्सर्गादि पश्यन्ती वाणी से होता है। इसमें भाषा से ऊपर उठकर भावों को देखा जाता है जो मन में से निकलते हैं और मन को ही सुनाई देते हैं। पश्यन्ती के जाप से पिच्युटरी ग्रंथि (PITUTIARY GLAND) से 12 रसबिंदुओं का स्राव होता है एवं अपूर्वकरण तक की प्राप्ति की जा सकती है। - अजपा जाप यह जाप की सबसे उत्कृष्ट अवस्था है । जब परा वाणी द्वारा अक्षर से अनक्षर तक पहुँच जाते हैं, तब ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकरूपता हो जाती है। यह निर्विकल्प समाधि की अवस्था होती है। इसमें ध्याता अपने आत्मा को परमात्म स्वरूप ही देखने लगता है। इससे 16 रसबिंदुओं का स्राव होता है एवं देह व आत्मा का ग्रंथिभेद एवं उत्कृष्ट आत्मदर्शन उपलब्ध हो सकता है । तीर्थंकर या उनसे संबंधित अरिहन्त आदि अन्य मंत्रों का स्वरूप, जाप की पद्धति और परिणाम भी विविध और विस्तृत हैं। परम्परा से ऐसा प्रचलित है कि मात्र ' णमो अरिहंताणं' पद का 400 बार जाप करने से ध्यानी सम्यग्दृष्टि आत्मा एक उपवास का लाभ तक प्राप्त कर सकते हैं। तीर्थंकरों के जाप से अवर्णनीय कर्मनिर्जरा होती है। अर्हम् मन्त्र की विशिष्टता अक्षर विज्ञान के अनुसार 1. “अ” यह वायु बीज है। वायु वाहन का प्रतीक है। वायु हल्की होने से ऊपर उठती है। यह शब्द ऊपर उठाने में सहायक होता है। इस प्रकार 'अ' वायुबीज होकर समाधि एवं कर्मक्षय में सहायक है। वह साधक साधना कैसे कर पाएगा, कैसे श्रामण्य का पालन करेगा, जो काम विषय - राग का निवारण नहीं करता, जो संकल्प-विकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विवादग्रस्त है । दशवैकालिक (2/1) - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 163 2. “रि"- यह अग्निबीज है। यह रूपान्तरित होकर अरिहन्तत्व की विशुद्ध ऊर्जा प्रदान करता है क्योंकि 'रि' निर्जरा का प्रतीक है। जो हमारे दूषणों, विकारों व बुरे संस्कारों को जलाने का काम करता है। "ह" यह व्योम बीज है। यह आनन्द का प्रतीक है। इसका काम है विस्तार करना, विकसित करना, व्यापकता लाना, तरंगों को फैलाने में सहायक होना। सत् चित् आनंद की यह अनुभूति कराता है। 4. "त" - यह वायुबीज है। इसका काम पुन: 'अ' की तरह ऊपर उठाना है। जो आर्हन्त्य हममें विद्यमान है, यह बीज उसका बोध कराता है। अरिहन्त पद के विशिष्ट कमलबद्ध प्रकार से सम्यक् आराधना करने से भूरि भूरि कर्मनिर्जरा होती है एवं आत्म-आलोचना होती है। अरिहंत पद की उत्कृष्ट कमलबद्ध आराधना से तीर्थंकर • नाम कर्म का भी बंध हो सकता है, ऐसा ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। इसका एक कारण यह भी कि 'अहं' प्रणिधान ध्यान का उत्तमोत्तम आलंबन है। जिनशासन के सारभूत सिद्धचक्र का आदि बीज भी ‘अर्ह' मंत्र ही है। अहँ में अनेक शक्तियाँ निहित हैं, क्योंकि यह उनका बीज है। यथा . परमेष्ठी बीज - परम पद को प्राप्त तीर्थंकर अरिहंत परमेष्ठी के बीज हैं। तत्त्व की दृष्टि से वे द्रव्य-भाव अरिहंत हैं। आत्मीयता से वे भाषक सिद्ध हैं। शासन के सूर्य प्रचारक होने से वे उपदेशक आचार्य हैं। शास्त्रों के प्ररूपक होने से वे पाठक उपाध्याय हैं और निर्विकल्प चित्त होने से वे साधु तो हैं ही। • जिन व सिद्ध बीज - भूत, भविष्य, वर्तमान के सभी जिनेश्वर ‘अहँ' में प्रतिष्ठित हैं। मोक्ष का हेतु होने से यह मोक्ष बीज है। भौतिक दृष्टि से यह सुवर्ण सिद्धि व अनेक महासिद्धियों का भी कारणभूत है। ज्ञान बीज - अहँ ब्रह्मस्वरूप है। इसमें अ से ह, सभी अक्षर कलासहित प्रतिष्ठित माने जाते हैं, इसलिए यह सम्यक् श्रुतज्ञान का बीज माना जाता है। त्रैलोक्य बीज - अर्हम् को शाश्वत, अविनाशी, अभयकारी एवं त्रिलोक-त्रिकाल में व्याप्त माना जाता है। अ, र. ह और म् अत्यंत विशिष्टता के धनी हैं। इसलिए यह मंत्र परम प्रभावक कहा गया है। आवेशवश यदि साधक कोई चाण्डालिक गलत व्यवहार कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए। किया हो तो 'किया' कहे और न किया हो तो 'नहीं किया' कहे। - उत्तराध्ययन (1/11) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 164 आत्म-ध्यान साधना स्वयं की इन्द्रियों, मन आदि को वश में करने वाला तथा स्व-आत्मा का परमात्मा में विलीन करने वाला ध्यान एक उत्कृष्ट साधना पद्धति है। सालम्बन व निरालंबन ध्यान के निमित्त से आर्हन्त्य की सम्यक् प्राप्ति संभव है। प्राचीन जैन परम्परा में महाप्राण नामक ध्यान साधना की पद्धति प्रचलित थी जिसमें साधक विशिष्ट आत्मदर्शन करता था। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने 12 वर्ष तक नेपाल की गुफाओं में रहकर महाप्राण ध्यान साधना की थी, जिसमें साधक गहरी समाधि अवस्था में चला जाता है। कभी-कभी यह विचार आता है कि तीर्थंकर परमात्मा संयम अवस्था में किस प्रकार अपनी इन्द्रियों को वश में करते होंगे ? किस प्रकार अपने चित्त का निरोध करते होंगे ? शायद आज जो ध्यान साधना की प्रणालियाँ अथवा पद्धतियाँ हमें प्राप्त हुई हैं, वे अनेक तीर्थंकरों आदि आत्माओं द्वारा अनुभव से प्ररूपित हैं। समस्त विचारों, विकारों, विषयों से विमुक्त होकर ये ध्यान विशुद्धता के पथ पर अग्रसर करते हैं। योग की भी इसमें महती भूमिका है। श्री आचारांग सूत्र में मानव देह में चेतना के 32 केन्द्रस्थान बताए हैं। जैसे1. पैर 2. टखने 3. जंघा 4. घुटने 5. उरु 6. कटि 7. नाभि 8. उदर (पेट) 9. पार्श्व-पसाल 11.छाती 12. हृदय 14.कन्धे 15. भुजा 17.अंगुलि 18. नाखून 20. ठुड्डी 21. होठ 22. दांत 23.जीभ 24. तालु 25. गला 26.कपोल 27. कान 28. नाक 29.आँख 31. ललाट 32.सिर इन एक-एक स्थान को क्रमश: धीरे-धीरे शिथिल करके मन को परमात्मा से संयुक्त करता हूँ। मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ- इस भेदविज्ञान से परमात्मा से एकमेक होने का प्रयत्न करना चाहिए। हमको भगवान बनाना ही भगवान का लक्ष्य रहा। कोई प्रभुपूजा से परमात्मा से तादात्म्य जोड़ता है, कोई मंत्रजाप से एकरूप होता है, कोई योग-ध्यान साधना से प्रभु से एकमेक होता है। लक्ष्य 30. भौंहें साधना में मानसिक निर्मलता अनिवार्य है, वही कर्म-निर्जरा का कारण है। - व्यवहारभाष्य-पीठिका (6/190) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 165 एक है एवं मार्ग अनेक हैं। यह भी सत्य है कि यह एक भव (जन्म) में हो, इसकी गारंटी नहीं है और हजार जन्मों में भी पूर्ण हो, इसकी भी गारंटी नहीं है। जैनधर्म भाव प्रधान धर्म है। मोक्ष की प्राप्ति अन्तर्मुहूर्त में भी संभव है और असंख्य जन्मों में भी । मोक्ष का द्वार : जिनाज्ञा पालन आचार्य हेमचन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. वीतराग स्तोत्र नामक ग्रंथरत्न में कहते हैंवीतरागं ! सपर्यायास्तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाराद्धा विरुद्धा च, शिवाय च भवाय च । इस संसार में स्तवनीय, पूजनीय, वंदनीय अगर कोई भी है तो वह एकमात्र वीतराग तीर्थंकर परमात्मा ही है और इन वीतराग परमात्मा की पूजा की अपेक्षा उनका आज्ञापालन अधिक महत्त्वपूर्ण है। आराधित आज्ञा मुक्ति का कारण है और विराधित आज्ञा संसार और दुखों का कारण है। आज्ञा ही धर्म का प्राण है। जिनपूजा तीर्थंकर की आज्ञा से विरुद्ध हो, तो मुक्ति नहीं दे सकती। मंत्रजाप यदि तीर्थंकर की आज्ञा से विरुद्ध किया जाए, तो यथोचित फल नहीं देता । ध्यान-साधना यदि तीर्थंकरों की आज्ञा के विपरीत की जाए, तो संसारवर्धक हो सकती है। योगविंशिका ग्रंथ की वृत्ति में लिखा है- “ आज्ञारहितस्य तस्यास्थिसंघातरूपत्व प्रतिपादनात् " और संबोध प्रकरण में आचार्य हरिभद्र सूरीश्वर जी फरमाते हैं- “ आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अट्ठि संघाओ”- जो आज्ञा से युक्त है, वह संघ है और जो आज्ञारहित है, वह अस्थियो का समूह (हड्डियों का ढाँचा) है। वर्तमान समय में इस क्षेत्र में तीर्थंकर जीवित अवस्था में नहीं हैं। उनकी अनुपस्थिति में आचार्य भगवन्त जिनशासन को संभालते हैं एवं जिनप्रतिमाएँ व जिनागम ही हमारे आधार हैं। तीर्थंकरों से जुड़ने हेतु प्रतिमाएँ विशेष आलम्बन हैं एवं प्रतिमापूजन की वैज्ञानिकता एवं उससे आत्मविकास स्वत:सिद्ध है। एवं मूल, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, शास्त्र, ग्रंथ आदि वाङ्मय में परम्परा से तीर्थंकर प्रभु की वाणी लिपिबद्ध होकर सुरक्षित है। परमात्मा को हम पर अत्यंत करुणा थी, हम भी उनकी भांति परमात्मा बन सकें, भोग से योग की यात्रा करें, जीव से जिनत्व की यात्रा करें, उस हेतु से हमें मार्ग-दर्शन दिया जो वो आज श्रुत साहित्य में सुरक्षित है। आवश्यकता है उसके सम्यक् आचरण की । आभार । अरिहन्त और सिद्ध ये साध्य तत्त्व हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु ये साधक तत्त्व हैं। ज्ञानयोग, भक्तियोग, तपयोग, कर्मयोग - ये साधना तत्त्व हैं। जिनाज्ञा पालन मोक्ष का अग्र द्वार है। तीर्थंकर परमात्मा का इस पथप्रदर्शन हेतु अनन्तानंत - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा : अरिहन्त, अरुहन्त, अर्हन्त आदि पदों के अर्थों में क्या वैविध्य है? समाधान : प्राकृत में अरह, अरहन्त इत्यादि कई रूप मिलते हैं जिनके भाव तो समान हैं किन्तु अर्थ भिन्न हैं। अरह जिनके लिए कोई रहस्य नहीं है। जिन्होंने परिग्रहरूपी रथ का व जन्म-जरा का अन्त कर दिया है। अरहन्त अरिहन्त अरहन्त - - - तीर्थंकर : एक अनुशीलन 166 - जिन्होंने क्रोधादि कषाय व कर्मों का क्षय ( नाश) कर दिया है। जिन्होंने ज्ञान - दर्शन पर लगे सभी आवरणों का भेदन किया है। अरुहन्त जिन्हें बार-बार उत्पन्न नहीं होना । अर्हत् जो अध्यात्म के शिखर पर पहुँचकर वंदनीय, पूजनीय, नमस्कार योग्य बन चुके हैं। भावों की समानता किन्तु अर्थों की भिन्नता को दर्शाने वाले इस प्रकार अनेक शब्द हैं। जिज्ञासा : रावण ने तीर्थंकर नामकर्म बाँधा है, तो वह तीर्थंकर कब बनेगा ? समाधान : रावण ने अष्टापद तीर्थ पर जिनेन्द्रभक्ति करते हुए तीर्थंकर नाम कर्म बाँधा है, निकाचित नहीं किया। अभी उसके उत्कृष्ट 15 भव शेष थे। पंद्रह भव जितना समय व्यतीत होने पर ही वह महाविदेह नामक क्षेत्र में परम तीर्थंकर पद को प्राप्त करेगा तथा सिद्ध-बुद्ध यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करेगा । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर प्रतिमा चिन्तन तीर्थंकर परमात्मा चारों निक्षेप ( नाम - स्थापना - द्रव्य - भाव) द्वारा पूजनीय होते हैं। उनका भाव निक्षेप वंदनीय - पूजनीय होने से उनके नाम और स्थापना निक्षेप भी उतने ही वंदनीय और पूजनीय हैं। उनकी अनुपस्थिति में उनकी प्रतिमा हमें उनसे जोड़ने में अद्भुत सहायता करती है। परमात्मा के ध्यान, उनकी पूजा के लिए प्रतिमा एक अद्वितीय आलम्बन है। प्रतिमापूजन से सम्यक्त्व की दृढ़ता होती है एवं परमात्मपूजन का साक्षात् अवसर मिलता है । यद्यपि सभी तीर्थंकर परमात्माओं की प्रतिमाएँ प्रायः एक सही ही प्रतीत होती हैं, उनके चिह्न अथवा फण आदि के द्वारा उनकी पहचान की जाती है। तीर्थंकर प्रतिमा पर फणों का रहस्य जिनप्रतिमा की श्रृंखलाओं में दो तीर्थंकर की प्रतिमाओं पर छत्र के रूप में सर्प-फण दृष्टिगोचर होते हैं। वे हैं - श्री सुपार्श्वनाथ जी एवं श्री पार्श्वनाथजी । श्री सप्ततिशतस्थान प्रकरण में लिखा है इग पण नव य सुपासे, पासे फणतिन्नि सग इगार कमा। फणिसिज्जासुविणाओ, फणिदंभन्तीइ नन्नेसु ॥ 23 ॥ सप्तम श्री सुपार्श्वनाथ प्रभु के मस्तक ऊपर छत्ररूप में एक, पाँच या नौ फण हो सकते हैं तथा वीसवे श्री पार्श्वनाथ प्रभु के मस्तक पर तीन, सात या ग्यारह फण होते हैं। इसके पीछे भी कारण है। आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. फरमाते हैं कि त्रिषष्टिशलाकापुरुष के श्री सुपार्श्वनाथ चरित्र में सुप्तमेकफणे पंचफणे नवफणेऽपि च । नागतल्पे ददर्श स्वं, देवी गर्भे प्रवर्द्धिनी ॥ ज्ञान से भावों और पदार्थों का सम्यग् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है, चारित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्मा परिशुद्ध होती है। - उत्तराध्ययन (28/35) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 168 पृथ्व्या देव्यास्तदा स्वप्ने, दृष्टं ताद्गमहोरगम्। शक्रो विचक्रे भगवन्मूर्ध्निछत्रमिवाऽपरम् ॥ तदादिचाऽभूत्समवसरणेष्व परेष्वपि। नाग एकफणः पञ्चफणो-नवफणोऽथ वा॥ भावार्थ : सुपार्श्वनाथ प्रभु की माता पृथ्वी ने (जब प्रभु गर्भ में थे), तब बढते गर्भ के प्रभाव से स्वप्न में स्वयं को एक फण, पांच फण एवं नव फणो वाली नागशय्या पर सोते हुए देखा। जब सुपार्श्वनाथ प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब माँ ने स्वप्न में जैसा सर्प देखा था, वैसा ही सर्प इन्द्र ने प्रभु के मस्तक पर निर्मित किया। यह अद्वितीय छत्र सा प्रतीत होता था। उसी समय से प्रभु के अन्य समवसरणों में 1, 5 व 9 फणों से युक्त सर्प स्थापित होने लगे। इसी प्रकार, जब कमठासुर (मेघमाली देव) प्रभु पार्श्व को उपसर्ग दे रहा था, तब धरणेन्द्र नागराज ने पूर्वभव का चिंतन करते हुए एवं उपकार का स्मरण करते हुए प्रभु की रक्षा हेतु सर्प का रूप बनाया एवं फणों द्वारा प्रभु की नासिका तक आए पानी से रक्षा की; इत्यादि। वर्तमान समय में प्राप्त प्राचीन प्रतिमाओं में स्वतंत्र मूर्तियों में सुपार्श्वनाथ जी की प्रतिमा या तो बिना सर्पफणछत्र के है अथवा पाँच सर्पफणों से युक्त है। एक या नौ सर्पफणों के छत्रों वाली स्वतंत्र प्रतिमाएँ नहीं मिली हैं। पर दिगम्बर स्थलों की कुछ जिनमूर्तियों के परिकर में 1, 9 सर्पफणों के छत्रों वाली सुपार्श्वनाथ जी की लघु मूर्तियाँ अवश्य उत्कीर्ण हैं। कुंभारिया, बडौदा, शहडोल, मथुरा, देवगढ, खजुराहो आदि स्थलों पर फणों की लाक्षणिक विशिष्टता वाली सुपार्श्वनाथ जी की अति प्राचीन प्रतिमाएँ मिलती हैं। पार्श्वनाथ जी के मस्तक पर सर्पफणों के छत्र का सदैव ही प्रदर्शन किया गया है। चौसा, मथुरा, अकोटा, रोहतक, सिरोही आदि अनेकस्थलों पर पार्श्वनाथ जी की फणयुक्त प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं। ज्ञातव्य है कि पूर्वकाल में फणों का उत्कीर्तन मूलतः परिकर में होता था जो शनैः शनैः प्रतिमाजी के अंगरूप में जुड़ गया। तीर्थंकर के लांछण (चिह्न) का रहस्य इस सन्दर्भ में लांछण शब्द का अर्थ है- लक्षण/ चिह्न/ जैन वाङ्मय में इसी हेतु से 'मषतिलकादिके चिह्ने' तथा 'लछण अंको चिह्न' इत्यादि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। ये लांछण (चिह्न) तीर्थंकर परमात्मा के शरीर पर प्राप्त होते हैं। अभिधान चिन्तामणि ग्रंथ की स्वोपज्ञ टीका में आचार्य हेमचन्द्र जहाज चलाने वाला नियमिक तो ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है और चारित्र जहाज है। इस ज्ञान, ध्यान, चारित्र तीनों के मेल से भव्य जीव संसार-समुद्र से पार हो जाते हैं। - मूलाचार (898) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88169 सूरीश्वर जी कहते हैं कि तीर्थंकर की दक्षिणभावी जंघा पर जो चिह्न होता है, वही उनका लछण निर्धारित होता है। श्री त्रिकालवर्ती महापुरुष में उल्लिखित है जम्मण काले जस्स दु दाहिण पायम्मि होइ जो चिन्हं । तं लक्खण पाउ तं, आगमसुते सुजिण देहे ॥ अर्थात् - तीर्थंकर के जन्म के समय उनके दाएँ (दाहिने) पैर के अँगूठे पर इन्द्र जो चिह्न देखते हैं, उसी को उनका लांछण निश्चित कर देते हैं। . स्पष्ट है कि तीर्थंकर परमात्मा का लांछण जन्म से ही उनके शरीर पर होता है। प्रत्येक तीर्थंकर का विशिष्ट लांछण होता है । महाविदेह क्षेत्र, ऐरावत आदि क्षेत्रों में भी तीर्थंकर (विहरमानों) के विशिष्टतम लांछण होते है। लांछण कौनसा होगा, यह तीर्थंकर नाम कर्म, शरीर नाम कर्म आदि कर्मप्रकृतियों से भी सम्बन्धित होता है। वर्तमान समय में कतिपय प्रबुद्ध विचारकों ने लांछण के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पर चिन्तन - विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। 24 तीर्थंकरों में से 17 तीर्थंकरों के चिह्न पशु-पक्षी जगत् से संबन्ध रखते हैं। सभी लक्षण प्रकृति की सौम्यता से जुड़े हैं जिससे तीर्थंकर परमात्मा के हृदय में प्राणी जगत् के प्रति करुणामय एवं आत्मतुल्य दृष्टि ध्वनित होती है। कुछ तीर्थंकरों के लांछण का मनोवैज्ञानिक संबंध उनके पूर्वभव, जीवन, माता के दोहद आदि से जोड़ा जाता रहा है। यथा • ऋषभदेव जी ने 400 बैलों के मुख पर छींकी लगाने का सुझाव दिया एवं कृषि का प्रवर्तन किया जिसका संबंध वृषभ (बैल) से है व उनका चिह्न वृषभ है। • पद्मप्रभ जी की माता ने स्वप्न में पद्मसरोवर का दोहद देखा व यही उनका चिह्न है । • चन्द्रप्रभ जी की माता ने चन्द्रपान का दोहद किया व चंद्र ही उनका चिह्न है। • पार्श्वनाथ जी की माता ने गर्भकाल में सर्प को देखा। पार्श्वकुमार ने जलती लकड़ी में सर्प को जीवित बचाया एवं उनका चिह्न सर्प है। • नेमिनाथ जी के शंख बजाने का प्रसंग प्रसिद्ध है व उनका चिह्न शंख है । • महावीर स्वामी का जीव एक भव में सिंह बना था एवं वासुदेव के भव में सिंह को उन्होंने मारा था। उनका चिह्न सिंह है । इत्यादि जो और जितने हेतु संसार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के हैं । ओ नियुक्ति (53) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 170 प्रागैतिहासिक काल की अत्यन्त प्राचीन समय की प्रतिमाओं में लांछण (चिह्न) उत्कीर्ण करने की परम्परा नहीं थी । तीर्थंकर प्रतिमाएँ प्राय: समान होती हैं एवं लांछण से ही उनकी पहचान होती है। लोहानीपुर से प्राप्त कुषाणकालीन तथा मथुरा से प्राप्त मौर्यकालीन प्रतिमाओं पर लांछण (चिह्न) प्राप्त नहीं होते। धीरे-धीरे प्रतिमाओं की पहचान हेतु चिह्नों का उत्कीर्तन प्रारम्भ हुआ । पुरातात्त्विक सामग्रीरूपेण प्राप्त जिनप्रतिमाओं पर लांछण (चिह्न) का उत्कीर्णन सिंहासन के ऊपर अथवा धर्मचक्र के समीप होता था। वर्तमान में यह पादपीठ पर होता है अर्थात् चरण चौकी पर । अतः प्रतिमाविज्ञान में लांछण (चिह्न) का विशेष महत्त्व है। तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षिणियों का रहस्य जैन वाङ्मय में यक्ष-यक्षिणी का उल्लेख तीर्थंकर परमात्मा के चरण सेवक के रूप में हुआ है। तीर्थंकर जब केवलज्ञान प्राप्ति के बाद तीर्थ की संरचना करते हैं, तब उनके धर्मोपदेश के पश्चात् समवसरण में ही सौधर्मेन्द्र प्रत्येक तीर्थंकर के सेवक के रूप में यक्ष-यक्षिणी युगल को नियुक्त करता है । वे व्यंतर निकाय अथवा वाणव्यंतर निकाय के देवी-देवता होते हैं। उनके नाम शाश्वत होते हैं किन्तु आत्माएँ बदलती रहती हैं। जैसे- प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति का पद वही रहता है। किन्तु व्यक्ति बदलता रहता है। यथा - पद्मावती नाम की देवी ऋषभदेव जी के समय भी थी और उनके देवलोक से च्युत हो जाने पर किसी अन्य आत्मा ने वह स्थान पाया और पार्श्वनाथ जी की चरण सेविका के रूप में शासनसेवा की। जो कोई व्यक्ति तीर्थंकर की आराधना करते हैं, तब कई बार उनकी उत्कृष्ट आराधना से प्रभावित होकर यक्ष यक्षिणी उन्हें फल देते हैं तथा शासन पर आई विपत्तियों को दूर करने से वे शासन देव अधिष्ठायक देव या देवी भी कहलाते हैं। यक्ष-यक्षिणी देव-देवी दृढ़ सम्यक्त्वी होते हैं। आसन्न भव्यात्माएँ होने से कुछ भवों के उपरान्त ही मोक्ष जाने की योग्यता रखते हैं । पूर्वभव में धर्माराधना के बल से किन्तु जीवन के अंतिम काल शुभाशुभ भाव से मरने पर वे व्यंतर योनि में उत्पन्न होते है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ जी) की शासन रक्षिका देवी अम्बिका के पूर्वभव का वृत्तांत प्राप्त होता है। पूर्वभव में वह अम्बिका नामक धर्मनिष्ठा कन्या थी । उसका विवाह सोमभट्ट ब्राह्मण के साथ हुआ व सिद्ध और बुद्ध नाम दो पुत्र भी हुए। एक बार उसने एक जैन मुनि को भक्तिभाव से सुपात्रदान दिया। यह दृश्य देखते ही उसकी सास ने क्रोधाविष्ट होकर उसे घर से बाहर निकाल दिया। अम्बिका अपने दोनों बच्चों के साथ नेमिनाथ जी का स्मरण करते रैवतगिरि ( गिरनार ) की ओर चल पड़ी। सोमभट्ट अम्बिका जो यत्नवान् साधक अन्तर्विशुद्धि से युक्त है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है। ओषनियुक्ति (759) - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 171 को बुलाने उसके पीछे-पीछे आया । किन्तु अंबिका ने समझा कि वह उसे मारने आया है । अत्यंत भय से वह नेमिनाथ प्रभु का स्मरण करते हुए दोनों बालकों को साथ लेकर कूए में कूद गई और मरकर व्यंतर निकाय की देवी तथा नेमिनाथ जी की अधिष्ठायक देवी बनी। निर्वाणकलिका, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, प्रवचन - सारोद्धार, पद्मानंदमहाकाव्य, आचारदिनकर, देवतामूर्तिप्रकरण, मंत्राधिराजकल्प इत्यादि ग्रंथों में शासनरक्षक यक्ष-यक्षिणी जी के नाम, लक्षण इत्यादि का उल्लेख है। प्राचीन परम्परा में यक्ष एवं यक्षिणी तीर्थंकर की प्रतिमाओं के सिंहासन या सामान्य पीठिका के क्रमशः दायीं और बायीं ओर अंकित किए जाते थे। प्रतिष्ठासारोद्धार में भी लिखा है। "यक्षं च दक्षिणे पार्श्वे वामे शासनदेवता ।” किन्तु वर्तमान में यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाओं का स्वतंत्र अस्तित्व लगभग 9वीं 10 वीं शताब्दी के पश्चात् से ही प्रचलित हुआ है। स्वतंत्र मूर्तियों में यक्ष यक्षिणी के मस्तक पर छोटी जिन प्रतिमा उत्कीर्ण करने का भी प्रचलन रहा है। जैन परम्परा में वीतराग तीर्थंकर की प्रतिमा ध्यान का एक श्रेष्ठ आलम्बन है। मंत्रों व भावो की ऊर्जा से मण्डित तीर्थंकर की स्थापना निक्षेप हमें जिनदर्शन से निजदर्शन की ओर अग्रसर करती है। जिनपूजा अष्टकर्मों के निवारण का एवं सकारात्मकता का वैज्ञानिक आधार है अतः परमात्मा से तादात्म्य जोडने हेतु प्रतिमा में परमात्म दर्शन परमात्म पूजन अद्वितीय साधन है। जिज्ञासा - वर्तमान समय में श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा में जिनप्रतिमाओं का लाक्षणिक स्वरूप भिन्न है । पूर्वकाल में भी यही स्थिति थी ? समाधान जैन परम्परा में अति प्राचीन काल से ही जिनमूर्ति जिनप्रतिमाओं के निर्माण व पूजन की परम्परा रही है। वर्तमान समय में श्वेताम्बर परंपरा में मान्य तीर्थंकरों की देवदूष्य वस्त्र युक्त नेत्रयुक्त प्रतिमाएँ प्रचलित हैं एवं दिगंबर परंपरा में मान्य पूर्ण अचेल ध्यानमग्न प्रतिमाएँ प्रचलित हैं। प्राचीन काल की प्रतिमाओं में दोनों प्रकार की प्रतिमाओं के अवशेष प्राप्त होते हैं । किन्तु यह एक समीक्षात्मक सत्य है कि श्वेताम्बर परम्परा भी पूर्वकाल में दिगंबर प्रतिमाओं को मान्य रखती थी । अर्थात् पहले एक प्रतिमा केवल प्रतिमा होती थी एवं उसमें श्वेताम्बर दिगम्बर का भेद नहीं था। आज जो प्राचीन प्रतिमाएँ खुदाई आदि से भी प्राप्त होती हैं, वे किसी परम्परा विशेष से संबंधित हैं, ऐसा कथन अनुचित होगा। प्रतिमाओं में जो आज भेद दृष्टिगोचर होता है, वह द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से तथा गीतार्थ जैनाचार्यों की दूरदर्शिता से प्रभावित है, ऐसा अनेक विद्वानों का मानना है । - राग-द्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होकर निरन्तर कर्म-बन्धन करता रहता है। मरणसमाधि (612) - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 172 जिज्ञासा - क्या तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमा का पूजन शास्त्रोक्त है? समाधान - आगम - मूल, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका तथा अनेकानेक शास्त्रों में प्रतिमा पूजन का स्पष्ट उल्लेख है। • ज्ञाताधर्मकथांग में द्रौपदी रानी द्वारा जिनेश्वर देव की प्रतिमा पूजन का वर्णन। • उपासकदशांग में आनंद श्रावक द्वारा जिनमंदिर में पूजन का उल्लेख। • जीवाजीवाभिगम सूत्र में जिनबिंबों के स्वरूप का विशद वर्णन। • कल्पसूत्र में महाराजा सिद्धार्थ द्वारा जिनपूजा का वर्णन। • श्रीपाल चरित्र में श्रीपाल राजा द्वारा आदीश्वर प्रभु के समक्ष यंत्राराधना का वर्णन। उपदेशमाला में जिनपूजन का श्रावक के आवश्यक कर्त्तव्य के रूप में उल्लेख। इस प्रकार आवश्यक सूत्र, महानिशीथ सूत्र, भगवती सूत्र, भक्तपरिज्ञा सूत्र, पद्म चरित्र, त्रिषष्टिशलाकापुरुष, शजय माहात्म्य, इत्यादि अनेकानेक ग्रंथों में मूर्तिपूजन का महत्त्व बताया गया है। काल के प्रभाव से आए अमूर्तिपूजक तत्त्वों को बोध देने हेतु हमारे प. पू. आचार्य विजयानंद सूरीश्वर जी म.सा. (आत्माराम जी) ने सम्यक् दर्शन प्रदायक व जिन प्रतिमा तादात्म्य उन्नायक 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' पुस्तक की रचना की है जिसमें तीर्थंकर की प्रतिमा पूजन विषयक समग्र भ्रान्तियों का निराकरण व सभी को परमात्मा से जोड़ने का सफल | प्रयास किया गया है। 'इसने मुझे मारा'- कुछ इस विचार से हिंसा करते हैं। 'यह मुझे मारता है'- कुछ इस विचार से हिंसा करते हैं। 'यह मुझे मारेगा'- कुछ इस विचार से हिंसा करते हैं। - आचाराङ्ग (1/1/6/6) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट • वर्तमान चौबीसी का परिचय • जम्बूद्वीप भरत क्षेत्र की आगामी चौबीसी • 20 विहरमान तीर्थंकरों का सामान्य परिचय अढ़ाई द्वीप की त्रिकाल चौबीसी • श्री अजितनाथजी के समय विचरे उत्कृष्ट 170 तीर्थंकर . मौन एकादशी के दिन 150 कल्याणक की गणना श्री पार्श्वनाथ भगवान के प्रमुख 108 नाम व तीर्थ Page #195 --------------------------------------------------------------------------  Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 175 वर्तमान चौबीसी का परिचय & Lirimitivo rico क्र.सं. तीर्थंकर का नाम | श्री ऋषभदेव जी श्री अजितनाथ जी श्री संभवनाथ जी श्री अभिनन्दन स्वामी जी श्री सुमतिनाथ जी श्री पद्मप्रभ जी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभ जी श्री सुविधिनाथ जी श्री शीतलनाथजी | श्री श्रेयांसनाथ जी 12. श्री वासुपूज्य स्वामीजी श्री विमलनाथ जी श्री अनन्तनाथजी | श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुन्थुनाथ जी श्री अरनाथ जी | श्री मल्लिनाथ जी स्वामी जी | श्री नमिनाथ जी 22. | श्री नेमिनाथ जी | श्री पार्श्वनाथ जी श्री महावीर स्वामी जी पूर्वभवों की संख्या | पूर्वभव का नाम तेरह (13) वज्रनाभ चक्री तीन (3) विमलवाहन तीन (3) विपुलवाहन तीन (3) महाबल तीन (3) अतिबल (पुरुषसिंह) तीन (3) अपराजित तीन (3) नंदीषण सात (7) या आठ (8) पद्मराज तीन (3) महापद्म तीन (3) पद्मनरपति तीन (3) नलिनीगुल्म तीन (3) पद्मोत्तर पद्मसेन तीन (3) पद्मरथ तीन (3) दृढरथ बारह (12) मेघरथ तीन (3) सिंहावह तीन (3) धनपति तीन (3) वैश्रमण नौ (9) या तीन (3) श्रीवर्मा (शूरश्रेष्ठ) तीन (3) सिद्धार्थ सुप्रतिष्ठ (शंख) दस (10) आनन्द (सुबाहु) सत्ताईस (27) नन्दन ऋषि तीन (3) नौ (9) विशेष: जीव के भवों की गिनती सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद से ही की जाती है जब उसका अधिकतम पौन पुद्गल परावर्तन काल शेष होता है। तीर्थंकर भगवंतों की आत्माएँ 'जो होवे मुझ शक्ति इसी, सवि जीव करूँ शासनरसी' के भाव से तीर्थंकरत्व प्राप्त करती हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 176 पूर्वभव सम्बन्धी परिचय क्र.सं. द्वीप (4) जम्बूद्वीप जम्बूद्वीप जम्बूद्वीप जम्बूद्वीप धातकीखंड द्वीप धातकीखंड द्वीप धातकीखंड द्वीप धातकीखंड द्वीप 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. क्षेत्र (5) पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र दिशा (6) सीता नदी के उत्तर सीता नदी के दक्षिण सीता नदी के दक्षिण सीता नदी के दक्षिण सीता नदी के उत्तर सीता नदी के दक्षिण सीता नदी के दक्षिणं सीता नदी के दक्षिण सीता नदी के उत्तर सीता नदी के दक्षिण 11 8. 9. 10. 11. पुष्कर द्वीप पुष्कर द्वीप पुष्कर द्वीप पुष्कर द्वीप धातकीखंड द्वीप धातकीखंड द्वीप घातकीखंड द्वीप सीता नदी के दक्षिण सीता नदी के दक्षिण 12. 13. 14. भरत क्षेत्र मेरु पर्वत के दक्षिण 15. ऐरावत क्षेत्र भरत क्षेत्र पूर्व महाविदेह क्षेत्र मेरु पर्वत के उत्तर मेरु पर्वत के दक्षिण सीता नदी के उत्तर सीता नदी के उत्तर 16. जंबूद्वीप 17. जंबूद्वीप पूर्व महाविदेह क्षेत्र 18. सीता नदी के दक्षिण जंबूद्वीप 19. जंबूद्वीप पूर्व महाविदेह क्षेत्र पश्चिम महाविदेह क्षेत्र सीतोदा नदी के दक्षिण मेरु पर्वत के दक्षिण भरत क्षेत्र 20. जंबूद्वीप 21. जंबूप भरत क्षेत्र भरत क्षेत्र 22. जंबूद्वीप मेरु पर्वत के दक्षिण मेरु पर्वत के दक्षिण मेरु पर्वत के दक्षिण 23. जंबूद्वीप भरत क्षेत्र 24. जंबूद्वीप भरत क्षेत्र मेरु पर्वत के दक्षिण विशेष: पूर्वभव में संभवनाथ जी ने दुष्काल के समय अन्नादि से साधर्मिकों की तन-मन-धन से सेवा की एवं साधर्मिक वात्सल्य के उत्तम भाव से तीर्थंकर नामगोत्र बाँधा । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sim tvorio ao क्र.सं. विजय (7) पुष्कलावती विजय वत्सा विजय रमणीय विजय मंगलावती विजय पुष्कलावती विजय वत्सा विजय रमणीय विजय मंगलावती विजय पुष्कलावती विजय वत्सा विजय रमणीय विजय मंगलावती विजय तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 177 पूर्वभव सम्बन्धी परिचय नगरी (8) पुण्डरीकिणी सुसीमा शुभापुरा रत्नसंचया पुण्डरीकिणी सुसीमा शुभापुरा रत्नसंचया पुण्डरीकिणी सुसीमा शुभापुरा रत्नसंचया महापुरी रिष्टा भदिलपुरी पुंडरीकिणी खड्डीपुरी सुसीमा वीतशोका चम्पा कौशाम्बी राजगृह अयोध्या अहिच्छत्रा गुरु नाम (9) वज्रसेन अरिदमन संभ्रान्त विमलवाहन सीमन्धर (विनयनंदन) पिहितास्रव अरिदमन युगधर सर्वजगानन्द सस्ताध वज्रदन्त वज्रनाभ सर्वगुप्त चित्ररथ विमलवाहन धनरथ संवर साधुसंवर वरधर्म सुनन्द 16. पुष्कलावती विजय आवर्त्त विजय वत्सा विजय सलिलावती विजय नंद अतियश दामोदर (जगन्नाथ) पोट्टिलाचार्य विशेषः श्री शान्तिनाथ जी ने मेघरथ राजा के भव में पक्षी की रक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने का निश्चय कर अहिंसा व जीवदया का अनुमोदनीय कार्य किया था। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 178 2. उत्तरकुरु में युगलिक 5. ललितांग देव 8. सौधर्म देवलोक 11. वज्रनाभ चक्रवर्ती 3. सौधर्म देवलोक 6. वज्रजंघ राजा 9. जीवानन्द वैद्य 12. सर्वार्थसिद्ध विमान 2. सौधर्म देवलोक 5. पद्म राजा 3. 6. अजितसेन चक्रवर्ती वैजयंत अनुत्तर विमानवासी देव ऋषभदेव जी के 13 भव 1. धन सार्थवाह 4. महाबल राजा 7. युगलिक 10. अच्युत देवलोक 13. ऋषभदेव जी चन्द्रप्रभ स्वामी के 7 भव 1. वर्मराजा 4. अच्युतेन्द्र 7. चन्द्रप्रभ स्वामी शान्तिनाथ जी के 12 भव 1. श्रीषेण राजा 4. अमित तेज 7. अच्युत देवलोक 10. मेघरथ राजा मुनिसुव्रत स्वामी के 9 भव 1. शिवकेतु राजा 4. सनत्कुमार देव 7. श्रीवर्म राजा नेमिनाथ जी के 9 भव 1. धन राजा 4. माहेन्द्र देवलोक 7. शंख राजा पार्श्वनाथ जी के 10 भव 1. मरुभूति 4. किरणवेग विद्याधर 7. मध्यम ग्रैवेयक 10. पार्श्वनाथ जी 2. युगलिक 5. प्राणत देवलोक 8. वज्रायुध चक्री 11. सर्वार्थसिद्धविमान 3. सौधर्म देवलोक 6. बलभद्र 9. तीसरा अवेयक 12. शान्तिनाथ जी । 2. सौधर्म देवलोक 5. वज्रकुंडन राजा 8. अपराजित देवलोक 3. कुबेरदत्त राजा 6. ब्रह्मदेवलोक 9. मुनिसुव्रत स्वामी 2. 5. 8. सौधर्म देवलोक अपराजित राजा अपराजित देवलोक 3. चित्रगति विद्याधर 6. आरण देवलोक 9. नेमिनाथ जी 2. हाथी 5. अच्युत देव 8. सुवर्णबाधु चक्री 3. सहस्रार देव वज्रनाभ 9. प्राणत देव अपने लिए अथवा दूसरों के लिए क्रोध या भय से किसी भी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहँचाने वाला वचन न तो स्वयं बोले और न दूसरों से ही बुलवाएँ। - दशवैकालिक (6/11) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) क्र.सं. श्रुतज्ञान (10) बारह (12) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग (11) अंग ग्यारह ग्यारह (11) ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग | ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग | ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) | ग्यारह (11) अंग ग्यारह (11) अंग | ग्यारह (11) अंग 24. | ग्यारह (11) अंग तीर्थकर : एक अनुशीलन @ 179 पूर्वभव सम्बन्धी परिचय किस देवलोक से च्यवन | स्वर्गायुष्य (12) सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान 33 सागरोपम विजय अनुत्तर विमान 33 सागरोपम सातवाँ ग्रैवेयक 34 सागरोपम (29) जयन्त अनुत्तर विमान 33 सागरोपम जयन्त अनुत्तर विमान 33 सागरोपम नवमां ग्रैवेयक 31 सागरोपम छठा ग्रैवेयक 28 सागरोपम वैजयंत अनुत्तर विमान 33 सागरोपम 9 वाँ आणत देवलोक 34 सागरोपम (19) 10वाँ आणत देवलोक 20 सागरोपम 12वाँ अच्युत देवलोक 22 सागरोपम 10वाँ प्राणत देवलोक 20 सागरोपम 8वाँ सहस्रार देवलोक 18 सागरोपम 10वाँ प्राणत देवलोक 20 सागरोपम विजय अनुत्तर विमान 32 सागरोपम सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान 33 सागरोपम सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान 33 सागरोपम सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान 33 सागरोपम जयन्त अनुत्तर विमान 33 सागरोपम अपराजित अनुत्तर विमान 33 सागरोपम 10वाँ प्राणत देवलोक 20 सागरोपम अपराजित अनुत्तर विमान 33 सागरोपम 10वाँ प्राणत देवलोक 20 सागरोपम 10वाँ प्राणत देवलोक 20 सागरोपम विशेष: श्री पार्श्वनाथ चरित्र में उल्लेख है कि प्राणत स्वर्ग से श्री पार्श्वप्रभु के देवात्मा जिज्ञासावश च्यवन से पूर्व बाल रूप से माता वामा रानी को देखने आए थे। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 0 180 14 महावीर स्वामी जी के स्थूल 27 भव क्र.सं. नाम / गति विशेष नयसार महाविदेह क्षेत्र में, समकित प्राप्ति सौधर्म देवलोक 1 पल्योपम का आयुष्य मरीचि ऋषभदेव जी के प्रपौत्र, कुलमद व नीच गोत्र कर्म बधन ब्रह्मदेवलोक 10 सागरोपम का आयुष्य कौशिक कोलाक ग्राम में त्रिदंडी, 80 लाख पूर्व की आयु पुष्पमित्र स्थूणा नगर में त्रिदंडी, 72 लाख पूर्व की आयु सौधर्म देवलोक मध्य स्थिति वाले देव अग्निद्योत चैत्यग्राम में त्रिदंडी 60 लाख पूर्व की आयु ईशान देवलोक मध्य स्थिति वाले देव अग्निभूति मंदर गांव में त्रिदंडी, 56 लाख पूर्व की आयु सनत्कुमार देवलोक | मध्य स्थिति वाले देव भारद्वाज श्वेतांबी नगरी में त्रिदंडी, 44 लाख पूर्व की आयु माहेन्द्र देवलोक मध्य स्थिति वाले देव स्थावर राजगृही नगरी में त्रिदंडी, 34 लाख पूर्व की आयु ब्रह्मदेवलोक मध्य स्थिति वाले देव 16. विश्वभूति राज राजगृही में संभूति मुनि से दीक्षा लेकर नियाणा (निदान) महाशुक्र देवलोक उत्कृष्ट स्थिति वाले देव 18. त्रिपृष्ठ वासुदेव कानों में शीशा डलवाया, पोतनपुर, 84 लाख पूर्वायुष्य तमस्तमप्रभा 33 सागरोपम की नरकायु केसरी सिंह पंकप्रभा नरक यहाँ से निकलने के बाद अनेक तिर्यंच-मनुष्य के छोटे भव विमल राजकुमार माँ विमला, पिता प्रियमित्र, युवावस्था में दीक्षा प्रियमित्र चक्रवर्ती मूकानगरी में पोटिलाचार्य के पास संयम, 84 लाख वर्षायु महाशुक्र देवलोक 17 सागरोपम का आयुष्य नंदन राजकुमार 11,60,000 मासक्षमण से तीर्थंकर नामकर्म बंध, 25 लाख वर्षायु प्राणत देवलोक 20 सागरोपम का आयुष्य 27. || वर्धमान (महावीर) चरमतीर्थपति 14. 15. 17. सिंह Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 181 सर्प सिंह मूषक तुला मूल मकर च्यवन कल्याणक तिथि च्यवन नक्षत्र च्यवन राशि | योनि (13) | (14) (15) (16) आषाढ़ वदी 4 उत्तराषाढ़ा नकुल वैशाख सुदी 13 रोहिणी भुजंगम | फाल्गुण सुदी 8 मृगशीर्ष वैशाख सुदी 4 पुनर्वसु (अभिजित्) मिथुन छाग श्रावण सुदी 2 मघा माघ वदी 6 चित्रा कन्या महिष (व्याघ्र) भाद्रपद वदी 8 विशाखा मृग (व्याघ्र) चैत्र वदी 5 अनुराधा वृश्चिक मृग फाल्गुण वदी 9 वानर (श्वान) 10. | वैशाख वदी 6 पूर्वाषाढ़ा नकुल (बंदर) 11. ज्येष्ठ वदी 6 श्रवण वानर 12. ज्येष्ठ सुदी 9 शतभिषा अश्व 13. | वैशाख सुदी 12 उत्तराभाद्रपद छाग (गौ) 14. | श्रावण वदी 7 रेवती मीन हस्ति 15. | वैशाख सुदी 7 पुष्य कर्क माझार (अज) 16. | भाद्रपद वदी 7 भरणी मेष हस्ति 17. | श्रावण वदी 9 कृत्तिका वृषभ छाग (बकरा) 18. | फाल्गुण सुदी 2 रेवती गजवर 19. | फाल्गुण सुदी 4 अश्विनी अश्व 20. | श्रावण सुदी पूर्णिमा श्रवण मकर वानर 21. आसोज (आश्विन) | अश्विनी मेष अश्व सुदी पूर्णिमा 22. | कार्तिक वदी 12 चित्रा कन्या महिष (व्याघ्र) 23. | चैत्र वदी 4. विशाखा तुला मृग (व्याघ्र) 24. | आषाढ सुदी 6 | उत्तराषाढ़ा (उत्तराफाल्गुनी)| कन्या महिष (गौ) मीन मीन मेष विशेषः राशि, नक्षत्र, योनि, गण इत्यादि ज्योतिष विषयक गणित सामग्री है जिसका स्वयं में बहुत महत्त्व है। तथा कल्याणक तिथियों के संदर्भ में मारवाड़ी या गुजराती पंचांग की भिन्नता से मतान्तर सम्भव है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता का प्रथम स्वप्न (17) 1. वृषभ (बैल) 2. गज (हाथी) 3. गज (हाथी) 4. गज (हाथी) 5. गज (हाथी) 6. गज (हाथी) 7. गज (हाथी) 8. गज (हाथी) 9. गज (हाथी) 10. गज (हाथी) 11. गज (हाथी) 12. गज (हाथी) 13. गज (हाथी) 14. गज (हाथी) 15. गज (हाथी) 16. गज (हाथी) 17. गज (हाथी) 18. गज (हाथी) 19. गज (हाथी) 20. गज (हाथी) 21. गज (हाथी) 22. गज (हाथी) 23. गज (हाथी) 24. केसरी सिंह तीर्थंकर : एक अनुशीलन 182 गर्भ स्थिति (18) 9 मास 4 दिन 8 मास 25 दिन 9 मास 6 दिन 8 मास 28 दिन 9 मास 6 दिन 9 मास 6 दिन 9 महीने 19 दिन 9 महीने 7 दिन 8 महीने 26 दिन 9 महीने 6 दिन 9 महीने 6 दिन 8 महीने 20 दिन 8 महीने 21 दिन 9 महीने 6 दिन 8 महीने 26 दिन 9 महीने 6 दिन 9 महीने 5 दिन 9 महीने 8 दिन 9 महीने 7 दिन 9 महीने 8 दिन 9 महीने 8 दिन 9 महीने 8 दिन 9 महीने 6 दिन 9 महीने 72 जन्म कल्याणक तिथि (19) चैत्र वदी 8 माघ सुदी 8 मार्गशीर्ष सुदी 14 माघ सुदी 2 वैशाख सुदी कार्तिक वदी 12 ज्येष्ठ सुदी 12. पौष वदी 12 मार्गशीर्ष वदी 5 माघ वदी 12 फाल्गुन वदी 12 फाल्गुन वदी 14 माघ सुदी 3 वैशाख वदी 13 . माघ सुदी 3 ज्येष्ठ वदी 13 वैशाख वदी 14 मार्गशीर्ष सुदी 10 मार्गशीर्ष सुदी 11 ज्येष्ठ वदी 8 श्रावण वदी 8 श्रावण सुदी 5 पौष वदी 10 चैत्र सुदी 13 विशेष: तीर्थंकरों की माता 14 स्वप्न मुख में प्रवेश करते हुए देखती है । इतिहासकारों के अनुसार शान्तिनाथ-कुंथुनाथ-अरनाथ जी की माता ने 14 स्वप्न दो बार देखे क्योंकि वे तीर्थंकर के साथ-साथ चक्रवर्ती आत्माएँ भी थीं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 183 नामकरण प्रथम स्वप्न में 'वृषभ' व शिशु की जंघा पर वृषभ चिह्न के कारण। 2. द्यूतक्रीड़ा (सोगठबाजी) में माता के द्वारा राजा को पराजित करने के कारण। 3. राज्य में दुष्काल होने पर भी अत्यधिक धान्य संभावित होने के कारण। 4. गर्भरूप में भी इन्द्र के द्वारा सदा अभिनंदन किए जाने के कारण। 5. न्याय करने में माता द्वारा सुमति (श्रेष्ठ बुद्धि) के परिचय के कारण। 6. गर्भप्रभाव से माता को हुए पद्मशय्या में सोने के दोहद के कारण। 7. गर्भप्रभाव से माता के पार्श्व (कंधे) सुंदर व प्रभावशाली होने के कारण। 8. गर्भप्रभाव से माता के चंद्रपान के दोहद व शिशु की चंद्र समान आभा के कारण। 9. माता ने संपूर्ण विधियों में कुशलता अर्जित की व बालक के दाँत पुष्प की भाँति थे। 10. माता के करस्पर्श से पिता का दाहज्वर शीतल (शांत) हो जाने के कारण। 11. माता द्वारा अपने आप को श्रेय करने वाली देवशय्या में सोते हुए देखने के कारण। 12. वसुपूज्य राजा के पुत्र होने, वसुदेवता द्वारा वसुरत्नों की वृष्टि करने के कारण। 13.. गर्भ के प्रभाव से माता का, शरीर एवं बुद्धि विमल (स्वच्छ) हो जाने के कारण। 14. गर्भ में आने पर माता के द्वारा अनंत मणियों की माला व अनंत चक्र देखने के कारण। 15. प्रभु के गर्भ में आने पर माता द्वारा धर्म का अधिक पालन करने के कारण। 16. गर्भ के प्रभाव से संपूर्ण राज्य में व्याप्त महामारी की शान्ति हो जाने के कारण। 17. गर्भवती माता द्वारा जमीन पर रहे रत्नस्तूप (कुंथु) देखने के कारण। 18. माता द्वारा स्वप्न में अतिविशाल रत्नमय चक्र (अर) देखने के कारण। 19. माता को हए, रात्रि में 6 ऋतओं की पष्पशय्या में सोने के दोहद के कारण। 20. गर्भप्रभाव से माँ को मुनि की भांति सुंदर व्रत पालने की इच्छा जगी। 21. गर्भस्थ शिशु के प्रभाव से विरोधी शत्रुओं के भी नतमस्तक हो जाने के कारण। 22. गर्भकाल में माता द्वारा स्वप्न में अरिष्टरत्नमय चक्र देखे जाने के कारण। 23. गर्भप्रभाव से माता ने अंधकार में भी पास से जाते काले सर्प को देखा। 24. राज्य में धन-धान्य समृद्धि के कारण व प्रभु की वीरता के कारण। विशेष: तीर्थंकरों के नाम प्रमुखतया मातृइच्छा से प्रभावित रहे। इनका सविशेष वर्णन पुस्तक के प्रथम विभाग में दिया गया है। ऋषभ, चंद्रानन, वारिषेण और वर्धमान ये 4 शाश्वत नाम Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 184 माता का नाम (23) माता की गति (24) - मोक्ष सनत्कुमार देवलोक जन्म देश | जन्म भूमि (21) (22) 1. | कोशल देश इक्ष्वाकु भूमि 2. | कोशल देश अयोध्या 3. | कुणाल देश श्रावस्ती | कोशल देश अयोध्या | कोशल देश | अयोध्या 6. वत्स देश कौशाम्बी 7. | काशी देश वाराणसी 8. पूर्व देश चन्द्रपुरी 9. कोशल देश काकन्दी 10. | मलय देश भद्दिलपुर 11. काशी देश 12. अंग देश चम्पापुरी 13.| पंचाल देश कांपिल्यनगर 14. कोशल देश | अयोध्या 15. उत्तर कौशल देश | रत्नपुरी 16. कुरु देश | गजपुर (हस्तिनापुर) 17. कुरु देश | गजपुर (हस्तिनापुर) 18. कुरु देश | गजपुर (हस्तिनापुर) 19. विदेह देश मिथिला 20. | मगध देश | राजगृही 21. विदेह देश मिथिला 22. कुशात देश | शौरीपुरी 23. काशी देश वाराणसी 24. पूर्व देश क्षत्रियकुंड सिंहपुरी मरुदेवी विजया रानी सेना रानी सिद्धार्था रानी मंगला रानी सुसीमा रानी पृथ्वी रानी लक्ष्मणा रानी रामा रानी नन्दा रानी विष्णु रानी जया रानी श्यामा रानी सुयशा रानी सुव्रता रानी अचिरा रानी श्री रानी देवी रानी प्रभावती रानी पद्मावती रानी . वप्रा रानी शिवा रानी - वामा रानी 1 देवानंदा ब्राह्मणी 2 त्रिशला रानी सनत्कुमार देवलोक माहेन्द्र देवलोक माहेन्द्र देवलोक मोक्ष अच्युत देवलोक (मतान्तर-माहेन्द्र) विशेषः मरुदेवी माँ पूर्वभव में केर का पत्ता थीं। उत्कृष्ट भावों से पुण्यार्जन हुआ। हाथी की अंबाड़ी पर बैठे-बैठे उन्हें केवलज्ञान-मोक्ष हुआ एवं इस काल की वे प्रथम मोक्षगामी आत्मा थी। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन , 185 वंश पिता का नाम पिता की गति गोत्र (25) (26) (27) (28) | नाभि कुलकर | नागकुमार देव काश्यप गोत्र इक्ष्वाकु वंश जितशत्रु राजा | ईशान देवलोक | जितारी राजा | संवर राजा | मेघ राजा | श्रीधर राजा प्रतिष्ठ राजा महासेन राजा ईशान देवलोक | सुग्रीव राजा सनत्कुमार देवलोक दृढ़रथ राजा 11. विष्णु राजा 12.| वसुपूज्य राजा |कृतवर्मा राजा 14. सिंहसेन राजा 15. भानु राजा 16. विश्वसेन राजा | सनत्कुमार देवलोक 17. शूर राजा | माहेन्द्र देवलोक 18. सुदर्शन राजा 19.1 कुंभ राजा 20. सुमित्र राजा गौतम गोत्र हरिवंश 21. विजय राजा काश्यप गोत्र इक्ष्वाकु वंश 22.| समुद्रविजय राजा गौतम गोत्र हरिवंश 23. अश्वसेन राजा | माहेन्द्र देवलोक काश्यप गोत्र इक्ष्वाकु वंश 24. ऋषभदत्त ब्राह्मण | मोक्ष सिद्धार्थ राजा अच्युत देवलोक (मतान्तर-माहेन्द्र) विशेष : ऋषभदेव प्रभु ने बाल्यावस्था में जब 1 वर्ष के थे, इंद्र के हाथों से गन्ने को पकड़ा था इसलिए सौधर्मेन्द्र ने उनके वंश का नाम इक्ष्वाकु (इक्षु+आकु) रखा था। यह प्रथम मानव वंश था। वश Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन ® 186 वर्ण/आभा (30) | गण (31) | पदवी (32) कांचन वर्ण (सुवर्ण) | मानव कुलकर, राजा मानव(देव) राजा देव राजा देव राजा राक्षस राजा ini ♡ ivoroo oo राक्षस राजा राजा | रक्त वर्ण (लाल) | सुवर्ण | श्वेत वर्ण (सफेद) श्वेत वर्ण (सफेद) राजा सुवर्ण लांछण/चिह्न (29) वृषभ (बैल) | हस्ति (हाथी) | अश्व (घोड़ा) | वानर (बंदर) क्रौंच (सारस) पक्षी पद्म (लाल) कमल | स्वस्तिक (साथिया) 8. | चन्द्रमा (शशि) | मकर (मगरमच्छ) | श्रीवत्स 11.| खड्गी (गैंडा) 12. महिष (पाडा) 13.| वराह (सूअर) 14. सेन-सिंचाणा (बाज) 15. वज्र 16. मृग (हिरण) 17.| छाग (बकरा) 18. नंद्यावर्त 19. कलश (कुंभ) | काचबो (कछुआ) 21.| | नीलकमल शंख फणीश्वर-नागेन्द्र सर्प राक्षस देव राक्षस मानव राक्षस(देव) राक्षस मानव देव रक्त वर्ण (लाल) | सुवर्ण चेत मानव राजा राजा राजा कुमार (राज्य नहीं किया) राजा राजा राजा चक्रवर्ती राजा, कामदेव चक्रवर्ती राजा, कामदेव चक्रवर्ती राजा, कामदेव कुमार (राज्य नहीं किया) राजा राजा कुमार (राज्य नहीं किया) कुमार (राज्य नहीं किया) कुमार (राज्य नहीं किया) राक्षस नीलवर्ण (नीला) कृष्ण वर्ण (काला) 20. सुवर्ण देव कृष्ण वर्ण (काला) नीलवर्ण (नीला) राक्षस राक्षस मानव 24. सिंह सुवर्ण विशेष : श्री ऋषभदेव जी से पूर्व कुलकर व्यवस्था थी। तब हाक्कार, माक्कार, धिक्कार की दंडनीति ___ थी एवं कल्पवृक्षों से सभी युगलिकों की इच्छाएँ पूर्ण हो जाती थीं। काल के प्रभाव से यह व्यवस्था क्षीण होने पर ऋषभदेव जी ने राज्य व्यवस्था को दिशा दी। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 187 उत्सेधांगुल देह प्रमाण (33) | 500 धनुष |450 धनुष 400 धनुष 350 धनुष 300 धनुष 250 धनुष Krir tvoro di asso प्रमाणागुंल देह वैवाहिक प्रमुख पत्नी प्रमाण (34) स्थिति (35) | (36) 120 प्रमाणांगुल विवाहित सुनन्दा, सुमंगला 108 प्रमाणांगुल 96 प्रमाणांगुल 84 प्रमाणांगुल 72 प्रमाणांगुल 60 प्रमाणांगुल 48 प्रमाणांगुल सोमा 36 प्रमाणांगुल 24 प्रमाणांगुल 21 अंगुल 30 अंश 19 अंगुल 10 अंश 16 अंगुल 40 अंश 14 अंगुल 20 अंश 12 प्रमाणांगुल 10 अंगुल 40 अंश 9 अंगुल 30 अंश यशोमती, विजया 8 अंगुल 20 अंश कृष्णा 7 अंगुल 10 अंश 6 प्रमाणांगुल अविवाहित अविवाहित 4 अंगुल 40 अंश | विवाहित 3 अंगुल 30 अंश| " 2 अंगुल 20 अंश अविवाहित | अविवाहित 27 अंश प्रमाण । विवाहित प्रभावती 21 अंश प्रमाण विवाहित | यशोदा 40 धनुष धनुष शूरश्री ciats i en 25 धनुष 20 धनुष 15 धनुष 10 धनुष 9 हाथ 7 हाथ 24. विशेष : अंगुल के 3 भेद हैं- आत्मांगुल यानी जिस काल में जो मनुष्य होते हैं, उनके अपने अंगुल, उत्सेधांगुल यानी 8 यवमध्य जिससे मनुष्य, नारकी, देवता की अवगाहना नापी जाती है एवं प्रमाणांगुल जो सबसे बड़ा होता है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 23 & inno 2. 3. 4. 5. 6. पुत्र-पुत्री (37) 100 पुत्र 2 पुत्री 3 पुत्र 3 पुत्र 3 पुत्र 13 पुत्र 7. 17 पुत्र 8. 10/8 पुत्र 9. 19 पुत्र 10. 12 पुत्र 11. 99 पुत्र 12. 12 पुत्र 13. - 14.88 पुत्र 15. 19 पुत्र 16. 1 करोड़ 50 लाख पुत्र 18.1 करोड़ पचीस लाख 19. 2019 पुत्र 21. 22. 23. 24. विशेष : - 50 लाख पुत्र 17.1 करोड़ 23,750 वर्ष - कुमारावस्था (38) 20 लाख पूर्व 18 लाख पूर्व 15 लाख पूर्व 1221⁄2 लाख पूर्व 10 लाख पूर्व 1721 लाख पूर्व 5 लाख पूर्व 221⁄2 लाख पूर्व | 50 हजार पूर्व 25 हजार पूर्व 21 लाख वर्ष 18 लाख वर्ष 15 लाख वर्ष 172 लाख वर्ष 22 लाख वर्ष | 25,000 वर्ष तीर्थंकर : एक अनुशीलन 188 | 21,000 वर्ष | 100 वर्ष 7500 वर्ष 12500 वर्ष 300 वर्ष 30 वर्ष 30 वर्ष राज्यावस्था (39) 63 लाख पूर्व 53 लाख पूर्व 1 पूर्वांग 44 लाख पूर्व 4 पूर्वांग 382 लाख पूर्व 4 पूर्वांग 29 लाख पूर्व 12 पूर्वांग 211⁄2 लाख पूर्व 16 पूर्वांग 14 लाख पूर्व 20 पूर्वांग 621⁄2 लाख पूर्व 24 पूर्वांग 50 हजार पूर्व 28 पूर्वांग 50 हजार पूर्व 42 लाख वर्ष 30 लाख वर्ष 15 लाख वर्ष 5 लाख वर्ष 50,000 वर्ष 47500 वर्ष 42,000 वर्ष 15,000 वर्ष 5,000 वर्ष कुल गृहस्थावस्था (40) 83 लाख पूर्व 71 लाख पूर्व व 1 पूर्वांग 59 लाख पूर्व एवं 4 पूर्वांग 49 लाख पूर्व एवं 8 पूर्वांग 39 लाख पूर्व एवं 12 पूर्वांग 29 लाख पूर्व एवं 16 पूर्वांग 19 लाख पूर्व एवं 20 पूर्वांग 9 लाख पूर्व एवं 24 पूर्वांग 1 लाख पूर्व एवं 28 पूर्वांग 75 हजार पूर्व 63 लाख वर्ष 18 लाख वर्ष 45 लाख वर्ष 22 लाख 50 हजार वर्ष 7 लाख वर्ष 75,000 वर्ष 71,250 वर्ष 63,000 वर्ष 100 वर्ष 22,500 वर्ष . 7,500 वर्ष 300 वर्ष 30 वर्ष 30 वर्ष 1 पुत्री श्री ऋषभदेव जी इस काल के प्रथम राजा थे। मानवजाति के लिए आवश्यक, पुरुषों की बहत्तर (72) कलाओं एवं स्त्रियों की 64 (चौंसठ ) कलाओं, ब्राह्मी लिपि आदि का ज्ञान उन्होंने ही प्रदान किया । इनसका वर्णन कल्पसूत्र आदि में है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 189 दीक्षा तप (42) छट्ठ तप (बेला) 1. 99 2. "" 3. 99 4. 5. नित्य भक्त ( एकासना ) छट्ठ तप (बेला) 6. "" 7. 99 8. 22 9. मार्गशीर्ष वदी 6 22 10. माघ वदी 12 11. फाल्गुन वदी 13 12. फाल्गुन वदी 15 ( पूर्णिमा) चौथ भक्त (उपवास) E 99 13. माघ सुदी 4 छट्ठ तप (बेला) 99 14. वैशाख वदी 14 "" 99 22 99 | अट्ठम तप (तेला) छट्ठ तप (बेला) "" दीक्षा कल्याणक तिथि (41) चैत्र वदी 8 माघ सुदी 9 मार्गशीर्ष सुदी 15 (पूर्णिमा) माघ सुदी 12 वैशाख सुदी 9 कार्तिक वदी 13 ज्येष्ठ सुदी 13 पौष वदी 13 15. माघ सुदी 13 16. ज्येष्ठ वदी 14 17. वैशाख वदी 5 18. मार्गशीर्ष सुदी 11 19. मार्गशीर्ष सुदी 11 20. फाल्गुण सुदी 12 21. आषाढ़ वदी 9 22. श्रावण सुदी 6 23. पौष वदी 11 " 24. मार्गशीर्ष सुदी 10 22 | अट्ठम तप (तेला) छट्ठ तप (बेला) दीक्षा शिविका (पालकी) (43) सुदर्शना शिविका सुप्रभा शिविका सिद्धार्था शिविका अर्थसिद्धा शिविका अभयंकरा शिविका निवृत्तिरा मनोहरा शिविका मनोरमिका शिविका सूरप्रभा शिविका शुक्लप्रभा शिविका विमलप्रभा शिविका पृथ्वी शिविका देवदिन्ना शिविका सागरदत्ता शिविका नागदत्ता शिविका सर्वार्था शिविका विजया शिविका वैजयन्ती शिविका जयन्ती शिविका अपराजिता शिविका देवकुरु शिविका द्वारवती (उत्तरकुरु) विशाला शिविका चंद्रप्रभा शिविका विशेष : तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध होते हैं। कुछ शास्त्रकारों का मत है कि पार्श्वकुमार को नीलांजना नामक नर्तकी की मृत्यु के निमित्त से अथवा नेमिनाथ - राजुल के चित्र देखकर उस निमित्त से वैराग्य भाव की जागृति हुई । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 190 दीक्षा वृक्ष (47) अशोक वृक्ष लं अशोक वृक्ष सहदीक्षित व्यक्ति | दीक्षा नगरी । दीक्षा वन (44) (45) (46) 1. | चार हजार (4000) | विनीता (अयोध्या) सिद्धार्थ वन 1000 अयोध्या सहस्राम्र वन 1000 श्रावस्ती 1000 अयोध्या | एक हजार (1000) अयोध्या कौशाम्बी बनारस चंद्रपुरी काकन्दी भद्दिलपुर सिंहपुरी 12. छह सौ (600) चंपापुरी विहारगेह वन 13. एक हजार (1000) कंपिलपुर सहस्राम्र वन अयोध्या सहस्राम्र वन रत्नपुरी वेप्रगा वन हस्तिनापुर सहस्राम्र वन हस्तिनापुर हस्तिनापुर 19.| तीन सौ (300) मिथिला 20. | एक हजार (1000)| राजगृही नीलगुहा वन 21. " सहस्राम्र वन द्वारवती (द्वारिका) 23.| तीन सौ (300) वाराणसी आश्रमपद वन 24.| अकेले क्षत्रियकुंड ज्ञातृखंड वन | अशोक वृक्ष मिथिला " अशोक वृक्ष विशेष : ऋषभदेव जी प्रथम राजा थे। सरल स्वभावी 4000 लोगों ने दीक्षा का उद्देश्य समझे बिना राजा की देखा-देखी दीक्षा ग्रहण की एवं उसे पाल न पाने से तापस बने अथवा अपने अलग-अलग मत चलाए किन्तु अनेक पुनः जैनधर्म में दीक्षित हुए। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा वेला (48) अपराह्न (दोपहर) "" 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. पूर्वाह्न (सुबह) अपराह्न (दोपहर) 20. 99 "" 99 पूर्वाह्न (सुबह) अपराह्न (दोपहर) 99 "" "" 99 पूर्वाह्न (सुबह) अपराह्न 99 "" 99 99 99 "" 21. 22. पूर्वाह्न (सुबह) 23. पूर्वाह्न (सुबह) 24. अपराह्न (दोपहर ) तीर्थंकर : एक अनुशीलन 191 प्रथम पारणा स्थल (49) हस्तिनापुर अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या विजयपुर ब्रह्मस्थल पाटलीखंड पद्मखंड श्वेतपुर रिष्टपुर सिद्धार्थपुर महापुर धान्यकंटक वर्धमानपुर सौमनसपुर मंदिरपुर चक्रपुर राजपुर मिथिला राजगृही वीरपुर द्वारिका कोपकट कोल्लाग सन्निवेश दीक्षा पश्चात् प्रथम पारणा द्रव्य (50) 400 दिन बाद इक्षुरस (गन्ने का रस ) 2 दिन बाद परमान्न (खीर) से "" 22 99 99 99 19 99 99 99 99 99 99 99 "" 99 99 19 99 19 "" 99 99 विशेष : 400 बैलों के मुख पर छीकी बांधने का सुझाव देने के कारण लाभान्तराय कर्मोदय से श्री ऋषभदेव प्रभु को 400 दिन तक गोचरी नहीं मिली। लोग स्वर्ण, पुत्री आदि दोहराते किन्तु ज्ञान न होने से लोग गोचरी दोहराने में असमर्थ रहते। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 192 प्रथम भिक्षादाता (51) 1. | श्रेयांसकुमार | ब्रह्मदत्त 3. | सुरेन्द्रदत्त इन्द्रदत्त प्रथम भिक्षादाता | उत्कृष्ट तप की गति (52) | (53) उसी भव में मोक्ष | बारह महीने आठ महीने विचरण क्षेत्र (54) आर्य + अनार्य आर्य क्षेत्र पद्म सोमदेव महेन्द्र | सोमदत्त एक या तीसरे भव में मोक्ष | पुष्प पुनर्वसु नद 12.| सुनन्द जय विजय 15.| धर्मसिंह 16. सुमित्र 17. व्याघ्रसिंह 18. अपराजित 19. विश्वसेन 20.| ब्रह्मदत्त 21. दिन्नकुमार 22.| वरदिन्नकुमार आर्य + अनार्य 23.| धन्य वणिक् आर्य + अनार्य 24.| बहुल ब्राह्मण छह महीने आर्य + अनार्य विशेष : श्रेयांसकुमार ने इस अवसर्पिणी काल का प्रथम सुपात्रदान दिया। वे श्री ऋषभदेव जी के ही वंशज थे एवं पूर्वभव में भी उनसे संबंध थे। प्रभु को देखते ही उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया एवं उन्होंने निर्दोष इक्षुरस प्रभु को वोहराया। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 193 केवलज्ञान वेला (58) पूर्वाह्न प्रथम प्रहर छद्मस्थ अवस्था केवलज्ञान कल्याणक केवलज्ञान तप | (55) (56) (57) | 1000 वर्ष फाल्गुण वदी 11 |अट्ठम तप 2. | 12 वर्ष पौष सुदी 11 षष्ठ तप (छट्ठ) 3. | 14 वर्ष कार्तिक वदी 5 | 18 वर्ष पौष सुदी 14 20 वर्ष चैत्र सुदी 11 6 महीना चैत्र सुदी 15 9 महीना फाल्गुण वदी 6 6 महीना फाल्गुन वदी 7 4 महीना कार्तिक सुदी 3 3 महीना पौष वदी 14 2 महीना माघ वदी अमावस 1 महीना माघ सुदी 2 चतुर्थभक्त 2 महीना पौष सुदी 6 छ? तप वैशाख वदी 14 15.| 2 वर्ष पौष सुदी 15 | 1 वर्ष पौष सुदी 9 17.| 16 वर्ष चैत्र सुदी 3 | 3 वर्ष कार्तिक सुद 12 1 अहोरात्र मार्गशीर्ष सुद 11 अट्ठम तप 20.| 11 महीना फाल्गुण वदी 12 | छट्ठ तप 21.| 9 महीना . मार्गशीर्ष सुदी 11 | 54 दिन आश्विन वदी अमावस | अट्ठम तप 23.| 83 दिन चैत्र वदी 4 अट्ठम तप 24. 12 वर्ष 6 महीने | वैशाख सुदी 10 छट्ठ तप | 15 दिन 3 वर्ष पश्चिमाह्न अंतिम प्रहर विशेष : छद्मस्थ अवस्था में प्रथम तीर्थंकर को एक अहोरात्रि एवं अंतिम तीर्थंकर को दो घड़ी (48 मिनट) नींद आई। शेष किसी भी तीर्थंकर ने छद्मस्थ अवस्था में नींद नहीं ली। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन ॐ 194 केवलज्ञान नगरी (59) केवलज्ञान वन (60) शकटमुख उद्यान सहस्राम्र वन लं #i - पुरिमताल अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या अयोध्या कौशाम्बी वाराणसी चन्द्रपुरी काकन्दी भद्दिलपुर सिंहपुरी चंपापुरी कंपिलपुर अयोध्या रत्नपुरी हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर मिथिला राजगृही मिथिला गिरनार भेलुपुर (वाराणसी) जूंभिका नगरी केवलज्ञान वृक्ष (61) न्यग्रोध वृक्ष (वट वृक्ष) सप्तपर्ण वृक्ष शाल वृक्ष प्रियाल वृक्ष. प्रियंगु (रायण) वृक्ष छत्राभ (छत्राकार) वृक्ष शिरीष वृक्ष नागकेसर (पुन्नाग) वृक्ष मल्ली (मालूर) वृक्ष पिलुंख वृक्ष तिंदुक वृक्ष पाटलक वृक्ष जंबू (जम्बु) वृक्ष अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष ... दधिपर्ण वृक्ष नंदी वृक्ष तिलक वृक्ष आम्र वृक्ष अशोक वृक्ष चम्पक वृक्ष बाकुल वृक्ष वेतस वृक्ष धातकी वृक्ष शाल वृक्ष विहारगेह वन सहस्राम्र वन 14.| वेप्रगा वन सहस्राम्र वन 17. 18. 19. नीलगुहा वन सहस्राम्र वन 22. 23. 24. आश्रमपद वन ऋजुवालिका नदी के तट पर विशेष : केवली आत्माएँ समवसरण में भी तीर्थंकरों को वंदन नहीं करती क्योंकि वंदन घातिकर्मों के क्षय के लिए किया जाता है एवं केवलज्ञानियों ने घातिकर्मों का क्षय कर लिया होता है अत: वंदन की आवश्यकता नहीं होती। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन * 195 गण एवं गणधर (62) साधु संख्या (63) sim tvorosos 84 95 102 116 100 107 95 84 हजार 1 लाख 2 लाख 3 लाख 3 लाख 20 हजार 3 लाख 30 हजार 3 लाख 2 लाख 50 हजार 2 लाख 1 लाख 84 हजार 72 हजार 68 हजार 66 हजार 64 हजार 62 हजार 60 हजार 50 हजार 40 हजार 30 हजार 20 हजार 18 हजार 16 हजार 14 हजार प्रमुख गणधर (शिष्य) (64) ऋषभसेन (पुण्डरीक) सिंहसेन चारु वज्रनाभ चमर गणी सुद्योत/सुव्रत/प्रद्योत विदर्भ दिन्न गणी/दत्तप्रभव वराह नन्द/आनन्द/प्रभुनन्द कौस्तुभ सुभूम/सुधर्मा मंदर गणी यश/जस/यशोगणी अरिष्ट चक्रायुध शंबगणी/स्वयंभू कुंभ अभीक्षक/इंद्र/भिषज मल्लि गणी/कुंभ शुभ/शुम्भ वरदत्त गणी आर्यदत्त/शुभदिन्न इन्द्रभूति गौतम om også 11 11 10 24. | 9 गण, 11 गणधर विशेष : सभी गणधर भगवंत क्षत्रिय कुल के थे। केवल भगवान महावीर के इन्द्रभूति गौतम आदि 11 गणधर ब्राह्मण कुल के थे। जो प्रभु को वाद में परास्त करने आए थे किन्तु प्रतिबोधित होकर दीक्षित हुए एवं गणधर बने। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी संख्या (65) 1. 2. 3. 4. 5. 6. 3 लाख 3 लाख 30 हजार 3 लाख 36 हजार 6 लाख 30 हजार 5 लाख 30 हजार 4 लाख 20 हजार 7. 4 लाख 30 हजार 8. 3 लाख 80 हजार 9. 1 लाख 20 हजार 101 लाख 6 हजार 11. 1 लाख 3 हजार 12. 1 लाख 13. 14. 62 हजार 15. 62400 16. 61600 17. 60600 18. 60000 19. 55000 20. 50000 21. 41000 22. 40000 23. 38000 24. 36000 1 लाख आठ सौ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 196 प्रमुख साध्वी (66) ब्राह्मी फल्गु (फाल्गुनी) श्यामा अजिता काश्यपी रति सोमा सुमना वारुणी सुयशा (सुलसा) धारिणी धरणी धरा (शिवा) पद्मा शिवा श्रुति (शुभा ) दामिनी रक्षिता (रक्षिका) बंधु पुष्पवती अनिला यक्षदत्ता पुष्पचूला चंदना (चंदनबाला) श्रावकगण (67) श्रेयांस आदि 3 लाख 5 हजार सगर आदि 2 लाख 98 हजार 2 लाख 93 हजार 2 लाख 88 हजार 2 लाख 81 हजार 2 लाख 76 हजार 2 लाख 57 हजार 2 लाख 50 हजार 2 लाख 29 हजार 2 लाख 89 हजार 2 लाख 79 हजार 2 लाख 15 हजार 2 लाख 8 हजार 2 लाख 6 हजार 2 लाख 4 हजार 2 लाख 90 हजार 1 लाख 79 हजार 1 लाख 84 हजार 1 लाख 83 हजार 1 लाख 72 हजार 1 लाख 70 हजार नन्द आदि 1 लाख 69 हजार सुद्योत आदि 1 लाख 64 हजार आनंद आदि 1 लाख 59 हजार विशेष : भगवती सूत्र ( व्याख्या प्रज्ञप्ति ) नामक अंग आगम में प्रभु वीर द्वारा समाधान दिए हुए गौतम स्वामी जी के 36 हजार प्रश्नों का संकलन है। तथा उपासकदशांग नामक आगम प्रभु वीर के आनंद आदि 10 प्रमुख श्रावकों का विस्तृत वर्णन है । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 8 197 | केवलज्ञानी श्रमण (70) श्राविकागण (68) सुभद्रा आदि 5 लाख 54 हजार 5 लाख 45 हजार 16 लाख 36 हजार 5 लाख 27 हजार 15 लाख 16 हजार 5 लाख 5 हजार 4 लाख 93 हजार 8. | 4 लाख 91 हजार | 4 लाख 71 हजार 10.4 लाख 58 हजार 11.| 4 लाख 48 हजार 12.| 4 लाख 36 हजार 13.4 लाख 24 हजार 14.|4 लाख 14 हजार 15.| 4 लाख 13 हजार 16.| 3 लाख 81 हजार 17.| 3 लाख 81 हजार 18.3 लाख 72 हजार 19.| 3 लाख 70 हजार 20.| 3 लाख 50 हजार 21.| 3 लाख 48 हजार 22. | महासुव्रता आदि 3 लाख 36 हजार 23. | सुनन्दा आदि 3 लाख 39 हजार 24. | सुलसा आदि 3 लाख 18 हजार प्रमुख भक्त राजा (69) भरत चक्रवर्ती सगर चक्रवर्ती मृगसेन राजा मित्रवीर्य राजा सत्यवीर्य राजा अजितसेन राजा दानवीर्य राजा मघवा चक्रवर्ती युद्धवीर्य राजा सीमंधर राजा त्रिपृष्ठ वासुदेव द्विपृष्ठ वासुदेव स्वयंभू वासुदेव पुरुषोत्तम वासुदेव पुरुषसिंह वासुदेव कुणाल (कोणालक) कुबेर राजा सुभूम चक्रवर्ती अजित राजा विजय राजा हरिषेण चक्रवर्ती श्रीकृष्ण वासुदेव प्रसेनजित राजा श्रेणिक राजा 20000 20000/22000 15000 14000 13000 12000 11000 10000 7500 7000 6500 6000 5500 5000 4500 4300 3200 2800/2200 2200 1800 1600 1500 1000 700 विशेष : जिस दिशा में भगवान महावीर स्वामी विहार करते, महाराज श्रेणिक हररोज उस दिशा में 8-10 कदम आगे जाकर 108 स्वर्ण जव (जौ) से स्वस्तिक की रचना करते थे। राजा श्रेणिक की मृत्युचिता में भी 'वीर-वीर' की ध्वनि प्रसारित हुई थी। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 198 वैक्रियलब्धिधारी श्रमण (74) लं + - - मनःपर्यवज्ञानी श्रमण (71) 12750/12650 12500 12150 11650 | 10450 10300 9150 8000 7500 7500 11.| 6000 12.| 6000/6100 13.| 5500 5000 4500 4000 3340 2551 1750 1500 1250/1260 1000 750 24.| 500 अवधिज्ञानी | चतुर्दशपूर्वधारी श्रमण (72) श्रमण (73) 9000 4750 9400 3720 9600 2150 9800 1500 11000 2400 10000 2300 (2000) 9000 2030 8000 2000 8400 1500 7200 1400 6000 1300 5400 1200 4800 1100 4300 1000 3600 900 3000 800 2500 670 2600 610 2200 668 1800 500 1600 1500 400 1400 350 1300 20600 20400 19800 19000 18400 16800 (16108) 15300 . 14000 13000 12000 11000 10000 9000 8000 7000 6000 5100 7300 (3800) 2900 2000 450 5000 1500 1000 (1100) 700 300 विशेष : तीर्थंकर प्रभु अपने सभी साधुओं को 7 वर्गों में विभक्त करते हैं- 1. केवलज्ञानी 2. मनः पर्यवज्ञानी 3. अवधिज्ञानी 4. चतुर्दशपूर्वधारी 5. वैक्रियलब्धिधारी 6. वादी 7. सामान्यमुनि। शास्त्रभेद में मतांतर से संख्याभेद आता है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 6. .7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. वादी श्रमण (75) तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 199 अनुत्तर विमान सामान्य मुनि गामी श्रमण (77) (76) 22900 (अनुपलब्ध) 12650 12400 12000 11000 10450 (10650) 9600 8400 7600 6000 5800 5000 4700 3600 3200 2800 2400 2000 1600 1400 1200 1000 800 1600 23. 600 1200 24. 400 800 विशेष : श्री ऋषभदेव प्रभु ने अपने गणधर पुण्डरीक स्वामी को चतुर्विध संघ की अनुज्ञा देने हेतु कान में ‘सूरिमंत्र' सुनाया था। उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए आज भी आचार्यपद प्रदान करने हेतु गुरु द्वारा सूरिमंत्र प्रदान किया जाता है। "" "" 19 "" 99 29 "" 99 "" 22 "" "" 27 "" "" 99 99 4166 21485 129192 232934 254200 269585 245025 200307 156012 59019 48124 38634 38843 39450 40657 41464 43155 32506 28854 21182 9083 11289 10790 10089 "" पर्यायान्त भूमि अर्थात् केवलज्ञान के कितने समय बाद मोक्ष जाना प्रारम्भ हुआ ? (78) अन्तर्मुहूर्त (दो घड़ी) एक दिन बाद "" "" 99 "" 99 "" "" 99 99 "" "" "" "" 99 99 27 29 "" 99 दो वर्ष तीन वर्ष चार वर्ष Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवृक्ष ऊँचाई (79) 6000 धनुष 5400 धनुष 4800 धनुष 4200 धनुष 3600 धनुष 3000 धनुष 2400 धनुष 1800 धनुष 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 1200 धनुष 10.1080 धनुष 11. 960 धनुष 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 840 धनुष 720 धनुष 600 धनुष 540 धनुष 480 धनुष 420 धनुष 360 धनुष 300 धनुष 240 धनुष 180 धनुष 120 धनुष 27 धनुष 21 धनुष तीर्थंकर : एक अनुशीलन 888200 (3 गाऊ / 3 कोस) (2 गाऊ 1400 धनुष) (2 गाऊ 800 धनुष ) (2 गाऊ 200 धनुष) ( 1 गाऊ 1600 धनुष) (12 गाऊ) ( 1 गाऊ 400 धनुष) समवसरण की रचना ( 80 ) 48 कोस (144 किलोमीटर) 46 कोस ( 138 किलोमीटर) 44 कोस (132 किलोमीटर) 42 कोस (126 किलोमीटर) 40 कोस (120 किलोमीटर) 38 कोस ( 114 किलोमीटर) 36 कोस (108 किलोमीटर) 34 कोस (102 किलोमीटर) 32 कोस ( 96 किलोमीटर) 30 कोस ( 90 किलोमीटर) 28 कोस 84 किलोमीटर) 26 कोस ( 78 किलोमीटर) 24 कोस ( 72 किलोमीटर) 22 कोस ( 66 किलोमीटर) 20 कोस (60 किलोमीटर) 18 कोस (54 किलोमीटर) 16 कोस (48 किलोमीटर) 14 M 42 किलोमीटर) 12 कोस (36 किलोमीटर) 10 कोस ( 30 किलोमीटर) 8 कोस ( 24 किलोमीटर) 6 कोस ( 18 किलोमीटर) 5 कोस ( 12 किलोमीटर) 4 कोस ( 1 योजन) विशेष : समवसरण के 2 प्रकार हैं- वृत्त (गोलाकार) और चतुरस्र (चौरस) अशोक वृक्ष नीचे अरिहंत का देवच्छंद (उपदेश देने का स्थान ) होता है एवं चारों दिशाओं में रत्नजड़ित सिंहासन होते हैं व पूर्व द्वार से प्रभु प्रवेश करते हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 201 प्रथम देशना का विषय (80) अन्य नाम (81) यतिधर्म और श्रावकधर्म आदिनाथ जी धर्मध्यान के 4 प्रकार अनित्य भावना अशरण भावना एकत्व भावना संसार भावना अन्यत्व भावना अशुचि भावना आस्रव भावना पुष्पदन्त जी संवर भावना निर्जरा भावना धर्म भावना बोधिदुर्लभ भावना लोकभावना व नवतत्त्व का स्वरूप मोक्ष का उपाय व कषाय का स्वरूप इन्द्रियविजय मन शुद्धि राग द्वेष और मोह विजय सामायिक यतिधर्म और श्रावक धर्म की योग्यता श्रावक करणी | 4 महाविगई, रात्रिभोजन अभक्ष्य त्याग अरिष्टनेमि जी 23. | | 12 व्रत, अतिचार व कर्मादान पुरुषादानीय यतिधर्म और गृहस्थ धर्म वर्धमान, सन्मति, काश्यप, ज्ञातृकुलनंदन विशेष : तीर्थंकर सर्वप्रथम आत्मबोध एवं विरतिधर्म का स्वरूप समझाते हैं। नेमिनाथ जी ने केवलज्ञान होते ही 16 प्रहर (48 घंटे) की देशना दी थी एवं महावीर स्वामी जी ने निर्वाण से पूर्व 16 प्रहर की अस्खलित देशना प्रदान की थी। 15. 22. | 24. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 202 सुवर्ण नर चार nivoroo oo चार सुवर्ण पीला चार चार चार गौर सिंह चार यक्षिणी का नाम | यक्षिणी का | यक्षिणी का | यक्षिणी की भुजाएँ (82) वर्ण (83) वाहन (84) | (85) | चक्रेश्वरी (अप्रतिचक्रा) | सुवर्ण गरुड़ आठ या बारह अजिता (अजितला) गौर लोहासन (या गाय)| चार | दुरितारी गौर मेष (मयूर/महिष) | चार | कालिका (काली) श्याम पद्म चार | महाकाली पद्म अच्युता (श्यामा/मानसी) श्याम 7. | शान्ता 8. | भृकुटि (ज्वाला) वराह (या हंस) | सुतारा (चंडालिका) वृषभ अशोका (गोमेधिका) पद्म 11. मानवी (श्रीवत्सा) 12. चंडा (प्रचण्डा) श्याम अश्व 13. विदिता (विजया) हरताल जैसा पद्म हरित 14. अंकुशा पदम चार या दो 15. कंदर्पा (प्रज्ञप्ति) मत्स्य 16. निर्वाणी पद्म 17.| बला (अच्युता) 18.| धारिणी (काली) पद्म 19 | वैरोट्या पद्म 20.| नरदत्ता (अच्छुप्ता) भद्रासन (या सिंह) | चार 21.| गांधारी (मालिनी) चार या आठ 22.| अंबिका (कूष्माण्डी) सिंह | चार 23.| पद्मावती सुवर्ण कुर्कुट सर्प चार 24.| सिद्धायिका हरित सिंह या गज | चार या छह विशेष : अम्बिका देवी पूर्वभव में पुत्र समेत कुए में कुदी थी। चिह्न स्वरूप देवीरूप में भी एक पुत्र उनके हाथ में रहता है। वर्तमान में गिरनार तीर्थ पर जो नेमिनाथ जी की प्रतिमा है, वह रत्नसार श्रावक के तप निमित्ते देवी अंबिका ने दी। FFFFFFFFF ___FFFFFF गौर गौर * चार मयूर चार. CIRC चार सुवर्ण Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 203 Lirir tvorio o 12. यक्षिणी के दाएँ हाथ में आयुध/मुद्रा यक्षिणी के बाएँ हाथ में आयुध/ मुद्रा (86) (87) वरमुद्रा, बाण, चक्र, पाश (दक्षिण) मातुलिंग | धनुष, वज्र, चक्र, अंकुश (वाम) वरदमुद्रा, पाश अंकुश, फल (बिजोरा) वरदमुद्रा, अक्षमाला फल (या सर्प), अभयमुद्रा वरदमुद्रा, पाश सर्प, अंकुश वरदमुद्रा, पाश (या नागपाश) मातुलिंग, अंकुश वरदमुद्रा, वीणा (या पाश/बाण) धनुष (या मातुलिंग) अभयमुद्रा (अंकुश) वरदमुद्रा, अक्षमाला (मुक्तामाला) त्रिशूल (या पाश), अभयमुद्रा खड्ग, मुद्गर फलक (या मातुलिंग), परशु वरदमुद्रा, अक्षसूत्र कलश, अंकुश वरदमुद्रा, पाश (या नागपाश) फल, अंकुश वरदमुद्रा, मुद्गर (या पाश) कलश (या वज्र), अंकुश (या अक्षसूत्र) वरदमुद्रा, शक्ति पुष्प (या पाश), गदा 13. बाण, पाश धनुष, सर्प 14. खड्ग व पाश अथवा फलक खेटक व अंकुश उत्पल (कमल) अंकुश पद्म, अभयमुद्रा पुस्तक, उत्पल (कमल) कमंडलु, पद्म (या वरदमुद्रा) बीजपूरक (बिजोरा), शूल (या त्रिशूल) मुषुण्डि (या पद्म), पद्म 18. मातुलिंग, उत्पल पाश (या पद्म) अक्षसूत्र वरदमुद्रा, अक्षसूत्र मातुलिंग, शक्ति वरदमुद्रा, अक्षसूत्र बीजपूरक (बिजोरा), कुंभ (या शूल) वरदमुद्रा, खड्ग (अक्षमाला, वज्र, परशु) बीजपूरक, कुंभ या शूल (खेटक, मातुलिंग) आम्रलुम्बि, पाश पुत्र, अंकुश 23. | पद्म, पाश (शीर्ष में सर्पफण छत्र) फल, अंकुश पुस्तक, अभयमुद्रा / वरमुद्रा मातुलिंग (या पाश), बाण | वीणा | पद्म फल विशेष : कुछ विद्वानों के अभिमतानुसार सभी यक्षिणी में सर्वाधिक पुण्यवंत एवं जागृत देवी पद्मावती है जो एकभवावतारी कही जाती है। श्री पार्श्वनाथ जी के आराधकों को योग्य फल देने की माता पद्मावती देवी की अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्ष का नाम (88) 1. गोमुख 2. महायक्ष 3. त्रिमुख 4. ईश्वर ( यक्षेश ) 5. तुम्बरु 6. कुसुम (पुष्प) 7. मातंग 8. विजय 9. अजित 10. ब्रह्म 11. ईश्वर ( मनुज) 12. कुमार ( सुरकुमार ) 13. षण्मुख 14. पाताल 15. किन्नर 16. गरुड़ 17. गन्धर्व 18. यक्षेन्द्र ( यक्षराज ) 19. कुबेर ( यक्षेश ) 20. वरुण 21. भृकुटि 22. गोमेध 23. पार्श्व यक्ष 24. मातंग तीर्थंकर : एक अनुशीलन 204 यक्ष का वर्ण (89) सुवर्ण श्याम श्याम श्याम श्वेत नील नील हरित श्वेत श्वेत श्वेत श्वेत श्वेत रक्त रक्त श्याम श्याम श्याम इन्द्रधनुष जैसा श्वेत सुवर्ण श्याम श्याम श्याम यक्ष का वाहन (90) हाथी (या वृषभ) हाथी मयूर ( या सर्प ) गज गरुड़ मृग ( मयूर / अश्व) हाथी हस कूर्म पद्म वृषभ हस मयूर मकर कूर्म | तराह ( या गज) हंस ( या सिंह) राख ( या वृषभ) हाथी वृषभ वृषभ नर ( पुरुष ) कूर्म हाथी यक्ष की भुजाएँ (91) चार आठ छह चार चार चार चार दो चार आठ या दस चार चार बारह छह छह चार चार बारह आठ आठ आठ छह चार दो Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 8 205 दाएं हाथ में मुद्रा/आयुध | बाएँ हाथ में मुद्रा/आयुध | अन्य लक्षण (यक्ष के) (92) (93) (94) वरद मुद्रा, अक्षमाला मातुलिंग (बिजोरा), पाश । गाय जैसा मुख वरद मुद्रा, मुद्गर, अक्षसूत्र मातुलिंग, अभयमुद्रा चतुर्मुख पाश (दक्षिण) अंकुश, शक्ति (वाम) | नकुल, गदा, अभयमुद्रा फल, सर्प, अक्षमाला | त्रिमुख, त्रिनेत्र (नवाक्ष) फल, अक्षमाला नकुल, अंकुश वरदमुद्रा, शक्ति नाग (या गदा), पाश | फल, अभयमुद्रा नकुल, अक्षमाला | बिल्वफल, नागपाश नकुल (या वज्र), अंकुश |चक्र (या खड्ग) मुद्गर त्रिनेत्र | मातुलिंग, अक्षसूत्र (या अभय) नकुल, शूल (या रत्नराशि) | मातुलिंग, मुद्गर, पाश नकुल, गदा, अंकुश, अक्ष- | त्रिनेत्र, चतुर्मुख अभयमुद्रा (या वरमुद्रा) सूत्र, पद्म 11. | मातुलिंग, गदा नकुल, अक्षसूत्र त्रिनेत्र 12.| बीजपूरक, बाण (या वीणा) नकुल, धनुष | फल, चक्र, बाण, खड्ग, नकुल, चक्र, धनुष, फलक | 6 मुख | पाश, अक्ष धनुष, अभयमुद्रा 14. पदम. खडग, पाश नकुल, फलक, अक्षसूत्र त्रिमुख, त्रिनेत्र 15. | बीजपूरक, गदा, अभयमुद्रा नकुल, पद्म, अक्षमाला त्रिमुख 16. बीजपूरक (बिजौरा), पद्म नकुल (या पाश), अक्षसूत्र वराहमुख | वरदमुद्रा, पाश मातुलिंग, अंकुश 18. मातुलिंग, बाण (कपाल), खड्ग | नकुल, धनुष, खेटक, शूल षण्मुख, त्रिनेत्र | मुद्गर, पाश, ीयमुद्रा अंकुश, अक्षसूत्र 19.| वरदमुद्रा, परशु, शूल, अभय बीजपूरक,शक्ति,मुद्गर,अक्ष चतुर्मुख, गरुड़वदन 20. | मातुलिंग, गदा, बाण, शक्ति नकुल, पद्म, धनुष, परशु जटामुकुट,द्वादक्षाक्ष, त्रिनेत्र 21.| बिजोरा, मुद्गर, शक्ति, अभय नकुल, परशु, वज्र, अक्षसूत्र चतुर्मुख, त्रिनेत्र, द्वादशाक्ष 22. | मातुलिंग, परशु, दण्ड (चक्र) नकुल, शूल, शक्ति त्रिमुख समीपे अम्बिका 23. मातुर्लिग, गदा नकुल, उरग (या सर्प) गजमुख, सर्पफलयुक्त | नकुल बीजपूरक (बिजोरा) मस्तक पर धर्मचक्र Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 206 केवली पर्याय (95) 1000 वर्ष कम 1 लाख पूर्व 1 पूर्वांग 12 वर्ष कम 1 लाख पूर्व 4 पूर्वांग 14 वर्ष कम 1 लाख पूर्व 8 पूर्वांग 18 वर्ष कम 1 लाख पूर्व 12 पूर्वांग 20 वर्ष कम 1 लाख पूर्व 16 पूर्वांग 6 मास कम 1 लाख पूर्व 20 पूर्वांग 9 मास कम 1 लाख पूर्व लाख पूर्व 24 पूर्वांग 3 मास कम 1 28 पूर्वांग 4 मास कम 1 लाख पूर्व 3 मास कम 25 हजार पूर्व 2 मास कम 21 लाख वर्ष 1 मास कम 54 लाख वर्ष 2 मास कम 15 लाख वर्ष 3 वर्ष कम 72 लाख वर्ष 2 वर्ष कम 2-21⁄2 लाख वर्ष 1 वर्ष कम 25,000 वर्ष 16 वर्ष कम 23750 वर्ष 3 वर्ष कम 21000 वर्ष 54900 वर्ष 11 मास कम 7500 वर्ष 9 मास कम 2500 वर्ष 54 दिन कम 700 वर्ष 84 दिन कम 70 वर्ष 29 वर्ष 5 मास 15 दिन कुल दीक्षा (संयम) पर्याय (96) एक लाख पूर्व एक लाख पूर्व में 1 पूर्वांग कम एक लाख पूर्व में 4 पूर्वांग कम 1 लाख पूर्व में 8 पूर्वांग कम 1 लाख पूर्व में, 12 पूर्वांग कम 1 लाख पूर्व में 16 पूर्वांग कम 1 लाख पूर्व में 20 पूर्वांग कम 1 लाख पूर्व में 24 पूर्वांग कम 1 लाख पूर्व में 28 पूर्वांग कम 25 हजार पूर्व 21 लाख वर्ष 54 लाख वर्ष 15 लाख वर्ष 721⁄22 लाख वर्ष 2-21⁄2 लाख वर्ष 25000 वर्ष 23750 वर्ष 21000 वर्ष 54900 वर्ष 7500 वर्ष 2500 वर्ष 700 वर्ष 70 वर्ष 42 वर्ष विशेष : मुनिसुव्रत स्वामी जी ने योग्यता जानकर बीस योजन का विहार करके भरुच में अश्व (घोड़े) को प्रतिबोध दिया था। कादम्बरी जंगल में श्री पार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन से हाथी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ था । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 207 " in tino no कुल आयुष्य मोक्ष कल्याणक संलेखना तप निर्वाण वेला (97) तिथि (98) (99) (100) 84 लाख पूर्व माघ वदी 13 छह उपवास दिवस का पूर्व भाग 72 लाख पूर्व चैत्र सुदी 5 एक मास के उपवास दिवस का पूर्व भाग 60 लाख पूर्व चैत्र सुदी 5 एक मास उपवास दिवस का उत्तर भाग 50 लाख पूर्व वैशाख सुदी 8 दिवस का पूर्व भाग 40 लाख पूर्व चैत्र सुदी 9 दिवस का उत्तर भाग 30 लाख पूर्व मार्गशीर्ष वदी 11 दिवस का पूर्व भाग 7. | 20 लाख पूर्व फाल्गुन वदी 7 दिवस का पूर्व भाग 10 लाख पूर्व भाद्रपद वदी 7 दिवस का पूर्व भाग • 2 लाख पूर्व भाद्रपद सुदी 9 दिवस का पूर्व भाग 10. | 1 लाख पूर्व वैशाख वदी 2 दिवस का उत्तर भाग 11. | 84 लाख वर्ष श्रावण वदी 3 दिवस का पूर्व भाग 12. | 72 लाख वर्ष आषाढ़ सुदी 14 दिवस का उत्तर भाग 13:| 60 लाख वर्ष आषाढ़ वदी 7 रात्रि का पहजा भाग 14. | 30 लाख वर्ष चैत्र सुदी 5 रात्रि का पहला भाग 10 लाख वर्ष ज्येष्ठ सुदी 5 रात्रि का अन्तिम भाग लाख वर्ष ज्येष्ठ वदी 13 रात्रि का पहला भाग हजार वर्ष वैशाख वदी 1 रात्रि का पहला भाग 84 हजार वर्ष मार्गशीर्ष सुदी 10 रात्रि का अन्तिम भाग 55 हजार वर्ष फाल्गुन सुदी 12 रात्रि का पहला भाग 20. | 30 हजार वर्ष ज्येष्ठ वदी 9 रात्रि का पहला भाग 21. | 10 हजार वर्ष वैशाख वदी 10 रात्रि का अंतिम भाग 22.| 1 हजार वर्ष आषाढ सुदी 8 रात्रि का पहला भाग 23.| 100 वर्ष श्रावण सुदी 8 रात्रि का पहला भाग 24.| 72 वर्ष . कार्तिक वदी | छट्ठ (बेला) तप रात्रि का अन्तिम भाग अमावस्या विशेष : जिस रात्रि को भगवान महावीर का परिनिर्वाण हुआ, उस अमावस्या की रात्रि में देवों के गमनागमन से भूमंडल आलोकित व प्रभुरूपी भाव उद्योत के जाने पर अंधकार मिटाने के लिए मानवों ने दीप संजोए, इसी से दीपमालिका पर्व (दीपावली) प्रारंभ हुआ। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 8 208 वर्तमान ढूंक (101) | वर्तमान ढूंक निर्माता (102) निर्वाण स्थल (100) अष्टापद पर्वत | सम्मेद शिखर सम्मेद शिखर सम्मेद शिखर सिद्धवर ट्रॅक धत्तधवल ट्रॅक आनंदगिरि ढूंक अचलगिरि ढूंक मोहनगिरि ढूंक प्रभासगिरि ढूंक ललितघट ढूंक सुप्रभगिरि ट्रंक विद्युगिरि ढूंक संकुलगिरि ढूंक अयोध्या नगरी के राजा भागीरथ हेमनगर के राजा हेमदत्त पुरनपुर (धातकी खंड), के राजा रत्नशेखर पद्मनगर के राजा आनन्दसेन प्रभाकर नगर (बंगाल) के राजा सुप्रभ राजा उद्योत पुंडरीक नगर के राजा ललितदत्त श्रीपुरनगर के राजा हेमप्रभ भद्दिलपुर (मालव) के राजा मेघरथ बालनगर (मालव) के राजा आनंदसेन 12. | चम्पापुरी 13. | सम्मेदशिखर निर्मलगिरि ढूंक स्वयंभूगिरि ढूंक दत्तवरगिरि ढूंक प्रभासगिरि ट्रंक ज्ञानधरगिरि ढूंक नाटिकगिरि ढूंक अचलगिरि ढूंक निर्जरगिरि ढूंक मित्रधरगिरि ढूंक कनकावती (महाविदेह) के राजा कनकरथ कौशाम्बी नगरी के राजा बालसेन श्रीपुरनगर (पंजाब) के श्रावक भवदत्त । मित्रपुर नगर के राजा सुदर्शन शालीभद्र नगर (वत्स) के राजा देवधर भद्रपुर नगर के राजा आनंदसेन श्रीपुरनगर (कलिंग) के राजा अमरदेव रत्नपुरी नगर के राजा सोमदेव श्रीपुरनगर के राजा मेघदत्त 22. | गिरनार (रैवतक) 23. | सम्मेद शिखर 24. | पावापुरी (अपापा) | सुवर्णगिरि ढूंक गंधपुर नगर के राजा प्रभसेन विशेष : अष्टापद पर्वत पर सिंहनिषद्या नामक चैत्य भरत चक्रवर्ती ने बनवाया था। किन्तु वर्तमान में अष्टापद पर्वत लुप्त है। कुछ विद्वानों के अनुसार कैलास ही के निकट अष्टापद है जो गहन शोध व अध्ययन का विषय है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 209 निर्वाण आसन | कितनों के साथ | (कितने पायुगान्तमा निर्वाण आसन कितनों के साथ युगान्तभूमि (103) मोक्ष (104) (कितने पाट तक मोक्ष) (105) पर्यंकासन (पद्मासन) 10000 असंख्यात पाट उत्सर्ग आसन (कोयोत्सर्ग) 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 308 संख्यात पाट 500 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 600 संख्यात पाट 6000 संख्यात पाट 7000 संख्यात पाट 108 संख्यात पाट 900 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 500 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 1000 संख्यात पाट 536 पाँच पाट 33 चार पाट 24. | पर्यंकासन (पद्मासन) तीन (सुधर्मा स्वामी, जंबू स्वामी) विशेष : तीर्थंकर महावीर स्वामी जी के निर्वाण के 64 वर्ष पश्चात् जम्बू स्वामी जी का मोक्ष हुआ। ये भरतक्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम मोक्षगामी थे। उनके बाद मोक्षादि अनेक बातों का विच्छेद हो गया। अकेले Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. निर्वाण अन्तराल (106) | 50 लाख करोड़ सागरोपम | 30 लाख करोड़ सागरोपम 10 लाख करोड़ सागरोपम 9 लाख करोड़ सागरोपम तीर्थंकर : एक अनुशीलन 210 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 9 करोड़ सागरोपम 11. 1 करोड़ सागर में 100 | सागर 6626000 वर्ष कम | 90000 करोड़ सागरोपम | 9000 करोड़ सागरोपम 900 करोड़ सागरोपम 90 करोड़ सागरोपम 12. 54 सागरोपम 13. 30 सागरोपम 14. 9 सागरोपम 15. 4 सागरोपम 16. 3 सागरोपम कम 3/4 पल्योपम 17. आधा पत्योपम 18. 1000 करोड़ वर्ष कम 1/4 पल्योपम 19. 1000 करोड़ वर्ष 20. 54 लाख वर्ष 21. 6 लाख वर्ष 22. 5 लाख वर्ष 23. 83750 वर्ष 24. 250 वर्ष अन्तिम तीर्थंकर के निर्वाण से अन्तराल (107) 42 हजार 3 वर्ष 8 1⁄2 महीने कम 1 करोड़ सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 821⁄2 महीने कम 50 लाख सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 8 2 महीने कम 20 लाख सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 8 2 महीने कम 10 लाख सागर 42 हजार 3 वर्ष 821⁄2 महीने कम 1 लाख करोड़ सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 81⁄2 महीने कम दस करोड़ सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 81⁄2 महीने कम 1000 करोड़ सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 8 2 महीने कम 100 करोड़ सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 8 2 महीने कम 10 करोड़ सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 8 2 महीने कम 1 करोड़ सागरोपम 42 हजार 3 वर्ष 821⁄2 महीने कम 100 सागर 6626000 वर्ष 46 सागरोपम 65 लाख 84 हजार वर्ष 16 सागरोपम 65 लाख 84 हजार वर्ष 7 सागरोपम 65 लाख 84 हजार वर्ष 3 सागरोपम 65 लाख 84 हजार वर्ष 3/4 पल्योपम 65 लाख 84 हजार वर्ष 1/4 पल्योपम 65 लाख 84 हजार वर्ष 1000 करोड़ 65 लाख 84 हजार वर्ष 65 लाख 84 हजार वर्ष 11 लाख 84 हजार वर्ष 5 लाख 84 हजार वर्ष 84000 वर्ष 250 वर्ष विशेष : बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध पहले जैन श्रमण थे (संभवत: प्रभु पार्श्व परम्परा के साधु) ऐसा बौद्ध ग्रंथों में आता है। महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध समकालीन दार्शनिक माने जाते हैं एवं कई सिद्धान्त भी समान माने जाते हैं। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण राशि (108) 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. .10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. मकर 21. मेष 22. तुला 23. तुला 24. तुला मकर वृषभ मिथुन कर्क कर्क कन्या वृश्चिक वृश्चिक धनु धनु कुम्भ मीन मीन मीन कर्क मेष वृषभ मीन मेष तीर्थंकर : एक अनुशीलन 211 निर्वाण नक्षत्र ग्रहशांति (109) (110) अभिजित् मृगशीर्ष मृगशीर्ष (आद्रा) पुष्य पुनर्वसु चित्रा अनुराधा (मूल) ज्येष्ठा (श्रवण) मूल पूर्वाषाढ़ा धनिष्ठा उत्तराभाद्रपद रेवती रेवती पुष्य भरणी कृत्तिका रेवती भरणी (अश्विनी) श्रवण अश्विनी चित्रा विशाखा स्वाति गुरु गुरु गुरु गुरु लै सूर्य चन्द्र शुक्र गुरु गुरु मंगल बुध बुध बुध बुध बुध बुध केतु शनि बुध राहु केतु बुध धर्म विच्छेद (111) (1 /4) पाव पल्योपम (1/4) पाव पल्योपम (3/4) पौन पल्योपम (1/4) पाव पल्योपम ( 3 / 4) पौन पल्योपम (1/4) पाव पल्योपम (1/4) पाव पल्योपम विशेष : नौवें से सोलहवें तीर्थंकर तक असंयति - पूजा बढ़ने से धर्मतीर्थ का एवं सभी 12 अंगों का विच्छेद हुआ था। किन्तु बारहवें अंग - दृष्टिवाद का विच्छेद सभी तीर्थंकर के अन्तरकाल में होता आया है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 212 मतोत्पत्ति शासन में भावी जिनवर (112) (113) जैन, शैव, सांख्य | मरीचि शासन में रुद्र (114) भीमावलि जितशत्रु श्रीवर्मा राजा inim tvorio o ESOŠOS 10. वेदान्तिक, नास्तिक | हरिषेण, विश्वभूति | श्रीकेतु, त्रिपृष्ठ, मरुभूति, अमिततेज, धन | | नंदन, नन्द, शंख, सिद्धार्थ, श्रीवर्मा विश्वानल सुप्रतिष्ठ अचल पुंडरीक . अजितधर अजितनाथ पेढाल रावण, नारद ऋषि, कार्तिक, सेठ, श्रीवर्मा 22. 23. बौद्ध दर्शन 24. वैशेषिक दर्शन श्रीकृष्ण, देवकी, बलदेव अंबड, सत्यकि, आनन्द (नंद) | श्रेणिक, सुपार्श्व, पोट्टिल, उदायन राजा, शंख, दृढायु, शतक, रेवती, सुलसा सत्यकि रुद्र विशेष : 11 रुद्र तीर्थंकरों के भक्त व विशिष्ट ज्ञानी होने से अंग विद्या के जानकार थे। इनका . विशेष वर्णन-विस्तार दसवें पूर्व में आता है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन में चक्रवर्ती (115) 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. | शान्तिनाथ (स्वयं) भरत चक्रवर्ती सगर चक्रवर्ती 23. 24. I 1. मघवा, सनत्कुमार चक्री 17. कुंथुनाथ (स्वयं) 18. अरनाथ (स्वयं) सुभूम चक्रवर्ती 19. 20. पद्म चक्रवर्ती 21. हरिषेण, जयसेन चक्री 22. ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तीर्थंकर : एक अनुशीलन 213 बलदेव (116) अचल विजय भद्र सुप्रभ सुदर्शन आनन्द नन्दन रामचन्द्र बलभद्र (बलराम ) वासुदेव (117) त्रिपृष्ठ द्विपृष्ठ स्वयम्भू पुरुषोत्तम पुरुषसिंह पुरुष पुंडरीक दत्त - नारायण (लक्ष्मण) श्रीकृष्ण प्रतिवासुदेव (118) अश्वग्रीव तारक मेरक मधुकैटभ निशुम्भ बलि प्रह्लाद रावण - जरासंध विशेष : 'ऋषभदेव प्रभु पधारे हैं।' ऐसा समाचार देने वाले पुरुषों को भरत चक्रवर्ती ने 12 21⁄2 करोड़ स्वर्ण मोहरें दी थीं। महावीर प्रभु पधारे हैं,' यह समाचार सुन नंदीवर्धन व श्रेणिक ने दूत को 122 लाख स्वर्ण मुद्राएँ, 5 वस्त्र और सोने की जीभ भेंट दी। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 8 214 जंबूद्वीप भरतक्षेत्र की आगामी चौबीसी क्र.सं. आगामी चौबीसी नाम | किसकी आत्मा है ? | अभी कहाँ ? |श्री पद्मनाभ जी (महापद्म) | श्रेणिक महाराजा पहली नरक में |श्री सुरदेव जी सुपार्श्व श्रावक तीसरे देवलोक में |श्री सुपार्श्व जी कोणिक पुत्र उदायी तीसरे देवलोक में श्री स्वयंप्रभ जी पोट्टिल श्रावक चौथे देवलोक में श्री सर्वानुभूति जी दृढायु श्रावक दूसरे देवलोक में श्री देवश्रुत जी कार्तिक सेठ पहले देवलोक में श्री उदयप्रभ जी शंख श्रावक बारहवें. देवलोक में श्री पेढाल जी आनंद श्रावक पहले देवलोक में श्री पोट्टिल जी सुनंद श्रावक पाँचवें देवलोक में श्री शतकीर्ति जी शतक श्रावक तीसरे नरक में श्री मुनिसुव्रत जी देवकी माता आठवें देवलोक में श्री अमम जी श्रीकृष्ण वासुदेव तीसरी नरक में श्री निष्कषाय जी सत्यकी विद्याधर पाँचवें देवलोक में श्री निष्पुलाक जी श्रीकृष्ण भ्राता बलभद्र छठे देवलोक में श्री निर्मम जी सुलसा श्राविका पांचवे देवलोक में श्री चित्रगुप्त जी बलभद्र माता रोहिणी दूसरे देवलोक में श्री समाधि जी रेवती श्रावक बारहवें देवलोक में श्री संवरक जी (संवर) शतानिक (शताली) श्रावक बारहवें देवलोक में श्री यशोधर जी द्वैपायन ऋषि अग्निकुमार देव श्री विजय जी बारहवें देवलोक में |श्री मल्लि जी नारद विद्याधर पाँचवें देवलोक में श्री देवजिन जी अंबड परिव्राजक बारहवें देवलोक में श्री अनन्तवीर्य जी अमर कुमार नवमें ग्रैवेयक में |श्री भद्रजिन जी (भद्रंकर) | स्वाति बुद्ध सर्वार्थसिद्ध विमान विशेष : श्रेणिक महाराजा ने अपूर्व अरिहंत भक्ति कर तीर्थंकर नामगोत्र बाँधा। महापद्म स्वामी के जन्म के समय शतद्वार नगरी में पद्म और रत्नों की वर्षा होगी। वे 8 वर्ष की उम्र में राजा बनेंगे व 2 इन्द्र उनकी सेवा में रहेंगे। उनकी आयु, वर्ण, राशि, कल्याणक आदि प्रभु वीर की भाँति होंगे। . कर्ण 24. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 215 महावीर स्वामी जी के निर्वाण के कितने वर्ष पश्चात् जन्म 84007 वर्ष और 5 माह 24257 वर्ष और 5 माह 168007 वर्ष और 5 माह 668007 वर्ष और 5 माह 1268007 वर्ष और 5 माह 6668007 वर्ष और 5 माह 1 हजार करोड़ 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह पाव पल्योपम 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह पौन पल्योपम 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह 3 सागरोपम 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह 7 सागरोपम 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह | 16 सागरोपम 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह 46 सागरोपम 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह 100 सागरोपम 66 लाख 68 हजार 7 वर्ष 5 माह 1 करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 10 करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 100 करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 1000 करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 10 हजार करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 1 लाख करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 21. 10 लाख करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 22. | 20 लाख करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 23. | 50 लाख करोड़ सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 24. | 1 कोड़ा-कोड़ी सागरोपम 42 हजार 7 वर्ष 5 माह 2. | विशेष : प्रभु वीर के निर्वाण के 3 वर्ष और 81 मास के बाद चौथा आरा समाप्त हुआ। उनके निर्वाण से 21,003 वर्ष और 81 मास के बाद पाँचवाँ आरा समाप्त होगा। एवं कुल 42,003 वर्ष और 81 मास बाद यह अवसर्पिणी काल समाप्त होगा। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8216 महाविदेह क्षेत्र के 20 विहरमान तीर्थंकर लांछण (चिह्न) विहरमान का नाम 1. श्री सीमन्धर स्वामी 2. श्री युगमंधर स्वामी 3. श्री बाहु स्वामी 4. श्री सुबाहु स्वामी श्री सुजात ( संयातक) स्वामी श्री स्वयंप्रभ स्वामी 5. 6. 7. श्री ऋषभानन स्वामी 8. श्री अनन्तवीर्य स्वामी 9. श्री सूरप्रभ (सुरप्रभ) स्वामी 10. श्री विशालधर (विशालकीर्ति) स्वामी 11. श्री वज्रधर स्वामी 12. श्री चन्द्रानन स्वामी 13. श्री चन्द्रबाहु स्वामी 14. श्री भुजंगप्रभ (भुजंगदेव ) स्वामी 15. श्री ईश्वर स्वामी 16. श्री नेमिप्रभ ( नेमीश्वर) स्वामी 17. श्री वीरसेन स्वामी 18. श्री महाभद्र स्वामी जी 19. श्री देवसेन (देवयश) स्वामी 20. श्री अजितवीर्य स्वामी वृषभ (बैल) हस्ति (गज) मृग (हिरण) कपि (बंदर) सूर्य चंद्र सिंह हस्ति (गज) चन्द्र सूर्य शंख / वृषभ वृषभ पद्म (कमल) पद्म (कमल) चंद्र सूर्य वृषभ हस्ति ( गज) चंद्र स्वस्तिक द्वीप का नाम जंबु (जम्बू द्वीप "" 99 धातकी खण्ड द्वीप "" 99 "" 29 "" 99 99 अर्ध पुष्कर द्वीप 99 "" 22 22 " 99 "" विशेष : इन बीसों विहरमान तीर्थंकरों का जन्म हमारे जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के 17वें तीर्थंकर कुंथुनाथ जी के निर्वाण के बाद एक ही समय में हुआ था । बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी जी के निर्वाण होने के बाद इन सब ने एक ही साथ दीक्षा ली एवं एक माह पश्चात् केवलज्ञानी हुए। ये बीसों ही भरतक्षेत्र की भविष्यकाल की चौबीसी के सातवें तीर्थंकर श्री उदयनाथ जी के निर्वाण के बाद एक साथ मोक्ष पधारेंगे। उसी समय अन्य आत्माएँ तीर्थंकरत्व प्राप्त करेंगी । अर्थात् महाविदेह क्षेत्र तीर्थंकरों से न्यून नहीं रहता, बीस तो होते ही हैं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र का नाम 1. पूर्व महाविदेह 2. 3. पूर्व महाविदेह 4. 5. पूर्व महाविदेह 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. पूर्व महाविदेह 14. 15. 16. 17. पश्चिम महाविदेह 18. 19. 20. पश्चिम महाविदेह पश्चिम महाविदेह ::: 99 99 पश्चिम महाविदेह 99 99 "" "" 22 99 E "" 99 99 तीर्थंकर : एक अनुशीलन 217 विजय का नाम विजय का क्रम पुष्कलाव वप्रा वत्सा नलिनावती पुष्कलावती वप्रा वत्सा नलिनावती पुष्कल वप्रा वत्सा नलिनावती पुष्कलावती वप्रा वत्सा नलिनावती पुष्कलावती वप्रा वत्सा नलिनावती 8 25 9 24 8 25 9 24 8 25 9 24 8 25 9 24 8 25 9 24 नगरी पुंडरीकिणी विजया सुसीमा वीतशोका पुंडरीक विजया सुसीमा वीतशोका पुंडरीकी विजया सुसीमा वीतशोका पुंडरीक विजया सुसीमा वीतशोका पुंडरीकिणी विजया सुसीमा वीतशोका दिशा पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व पश्चिम विशेष : सीमंधर स्वामी जी द्वारा प्ररूपित 4 चूलिकाएँ भरत क्षेत्र में आई थी। जैनाचार्य स्थूलिभद्र सूरि जी की सांसारिक बहन साध्वी यक्षा को एक बार सुनने मात्र से ही स्मरण हो जाता था। एक बार साध्वी जी को आत्म ग्लानि हुई कि मुनि श्रीयक का कालधर्म उनके द्वारा जबरदस्ती तपस्या कराने द्वारा हुआ है। शंका निवारणार्थ शासनदेवी साध्वी यक्षा को महाविदेह क्षेत्र में ले गई जहाँ समवसरण में प्रभु देशना दे रहे थे। साध्वी यक्षा को जितना स्मरण रहा, उसके आधार पर वापिस आकर उन्होंने 4 चूलिकाएँ लिखीं जिनमें से 2 आज भी सुरक्षित हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु पर्वत 1. सुदर्शन मेरु 2. 3. 4. 5. विजय मेरु 6. 7. 8. 9. 10. = 11. 66 97 "" 99 "" 34 अचल मेरु 99 "" "" 99 99 22 12. 13. पुष्कर (मंदर) मेरु रेणुका (विजया) 14. महिमा 15. यशोज्ज्वला 16. सेनादेवी 17. विद्युन्माली रु भानुमती 29 18. उमादेवी 19. गंगादेवी 20. कनिका देवी "" तीर्थंकर : एक अनुशीलन 218 माता का नाम पिता का नाम सत्यकी श्रेयांस सुतारा सुदृढ़ विजया सुग्रीव निषध देवसेन 22 सुनन्दा देवसेना सुमंगला वीरसेना मंगलावती विजयावती भद्रावती सरस्वती पद्मावती मित्रभुवन कीर्तिराजा मेघराजा विजयसेन श्रीनाग (नाग) पद्मरथ वाल्मीक देवनंद (देवानंद) महाबल | गजसेन (वज्रसेन) वीरराजा भूमिपाल (भानुसेन ) | देवराजा ( देवसेन) | सर्वानुभूति ( संवरभूति) राजपाल संक्षेप में कहने योग्य बात को व्यर्थ ही बढ़ावा न दें। पत्नी / रानी का नाम रुक्मिणी प्रियमंगला - मोहिनी किंपुरिषा जयसेना प्रियसेना (वीरसेना) जयावंती विजयावती (कुंतीदेवी) नंदसेना विमलादेवी विजयावती लीलावती सुगंधादेवी गंधसेना विशेष : श्री सीमंधर स्वामी जी भरतक्षेत्र से 33157 योजन और 17 कलाँ दूर हैं। वहाँ महाविदेह क्षेत्र में नवकार मंत्र की साधना सतत चालू रहती है । महाविदेह क्षेत्र के साधुओं की मुहपत्ती यहाँ की 1,60,000 मुहपत्तियों के बराबर होती है यानी 400 गुना लंबी, 400 गुना चौड़ी। उनके मुख का प्रमाण 50 हाथ जितना और पात्र के नीचे का प्रमाण 17 धनुष लंबा होता है। वे भी 32 कवल का आहार करते हैं और उनके 32 मुडा का एक कवल होता यानी 1024 मुडा प्रमाण आहार ग्रहण करते हैं । भद्रावती मोहिनी राजसेना सूर्य पद्मावती रत्नावती (रत्नमाला) सूत्रकृताङ्ग (1/14/23) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 219 - 20 विहरमान तीर्थंकरों का सामान्य परिचय irini tvoros o च्यवन कल्याणक जन्म कल्याणक दीक्षा कल्याणक केवलज्ञान कल्याणक मोक्ष कल्याणक जन्म नक्षत्र जन्म राशि शरीर प्रमाण वर्ण गृहवास छद्मस्थ पर्याय चारित्र पर्याय दीक्षा वृक्ष गणधर केवलज्ञानी , साधु भगवन्त साध्वी भगवन्त श्रावक गण श्राविका गण कुल आयुष्य यक्ष यक्षिणी । श्रावण वदी 1 वैशाख वदी 10 फाल्गुन सुदी 3 चैत्र सुदी 13 श्रावण सुदी 3 उत्तराषाढ़ा धनु राशि 500 धनुष कांचन (पीला) 83 लाख पूर्व 1000 पूर्व 1 लाख पूर्व अशोक 84 10 लाख 100 करोड़ (1 अरब) 100 करोड़ (1 अरब) 900 करोड़ 900 करोड़ 84 लाख पूर्व चंद्रायण यक्ष पंचागुली देवी 21. 22. | याक्ष विशेष : पंचागुली देवी ज्योतिष संबंधी देवी है एवं अनेक विद्वान् लोग उन्हें सिद्ध करते हैं। जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में शाश्वत जिनालयों की संख्या 124 है। 32 विजय के 32x3 = 96 अन्य हिसाब से उत्तर पूर्व, उत्तर वक्षस्कार पर्वत पर 16x1 = 16 पश्चिम, दक्षिण पूर्व, दक्षिण पश्चिम में अन्तर नदी के 12x1 प्रत्येक 31 शाश्वत जिनालय होने से 31x4 कुल शाश्वत जिनालय कुल 124 जिनालय = 12 124 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ni Mtwo oo oo = तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 220 जंबूद्वीप भरतक्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी क्र.सं. | भूत काल वर्तमान काल भविष्य काल | श्री केवलज्ञानी श्री ऋषभदेव (आदिनाथ) श्री पद्मप्रभ (महापद्म) श्री निर्वाणी श्री अजितनाथ श्री सूरदेव श्री सागर जिन श्री संभवनाथ श्री सुपार्श्व श्री महायश श्री अभिनंदन स्वामी श्री स्वयंप्रभ श्री विमल श्री सुमतिनाथ श्री सर्वानुभूति श्री सर्वानुभूति (नाथसुतेज) श्री पद्मप्रभ श्री देवश्रुत श्री श्रीधर श्री सुपार्श्वनाथ श्री उदयप्रभ श्री श्रीदत्त श्री चंद्रप्रभ श्री पेढाल श्री दामोदर श्री सुविधिनाथ (पुष्पदंत) श्री पोटिल श्री सुतेज श्री शीतलनाथ श्री शतकीर्ति श्री स्वामी जिन श्री श्रेयांसनाथ श्री मुनिसुव्रत | श्री मुनिसुव्रत (शिवाशी) श्री वासुपूज्य स्वामी श्री अमम | श्री सुमति श्री विमलनाथ श्री निष्कषाय | श्री शिवगति श्री अनन्तनाथ श्री निष्पुलाक श्री अस्त्याग (अवधि) श्री धर्मनाथ श्री निर्मम (निर्मल) श्री नमीश्वर (नेमीश्वर) श्री शान्तिनाथ श्री चित्रगुप्त श्री अनिल श्री कुंथुनाथ श्री समाधि श्री यशोधर श्री अरनाथ श्री सवरक (संतर) श्री कृतार्थ श्री मल्लिनाथ श्री यशोधर श्री जिनेश्वर (धर्मीश्वर) श्री मुनिसुव्रत श्री विजय श्री शुद्धमति श्री नमिनाथ श्री मल्लि श्री शिवकर श्री नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) श्री देवजिन स्यन्दन श्री पार्श्वनाथ श्री अनंतवीर्य श्री सम्प्रति श्री महावीर स्वामी (वर्धमान)| श्री भद्रंकर (भद्रजिन) कर OFå ä ä с ब्राह्मण वही कहला सकता है, जो स्थावर तथा जंगम सभी प्राणियों को भली-भांति जानकर, मन, वचन और देह से उनकी हिंसा नहीं करता। - उत्तराध्ययन (25/23) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. 의 예 예 예 예 예 예 예 तीर्थंकर : एक अनुशीलन * 221 .. जंबूद्वीप ऐरावत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी भूत काल वर्तमान काल | भविष्य काल श्री पंचरूप श्री चंद्रानन (बालचंद्र) श्री सुमंगल श्री जिनधर श्री सुचंद्र श्री सिद्धार्थ श्री संपुटिक (सम्प्रतक) श्री अग्निसेन श्री निर्वाण श्री उज्जयंतिक श्री नंदिषेण (आत्मसेन) श्री महायश (नंदिषेण) श्री अधिष्ठायक श्री ऋषिदिन्न श्री धर्मध्वज श्री अभिनंदन श्री व्रतधारी श्री श्रीचंद्र (वज्रधर) श्री रत्नेश (रत्नसेन) श्री श्यामचंद्र (सोमचन्द्र) श्री पुष्पकेतु (निर्वाणनाथ) |श्री रामेश्वर श्री युक्तिसेन (दीर्घबाहु) श्री महाचन्द्र श्री अंगुष्टम श्री अजितसेन श्री श्रुतसागर श्री विनाशक श्री शिवसेन (सत्यसेन) श्री सिद्धार्थ श्री आरोष श्री देवसेन (देवशर्मा) श्री पुण्यघोष (पूर्णघोष) श्री सुविधान श्री निक्षिप्तशस्त्र श्री महाघोष श्री प्रदत्त श्री असंज्वल श्री सत्यसेन श्री जिनवृषभ (श्रीधर) श्री शूरसेन श्री सर्वशैल श्री अनन्तक (सिंहसेन) श्री महासेन |श्री प्रभंजन श्री उपशान्त श्री सर्वानन्द |श्री सौभाग्य श्री गुप्तिसेन श्री देवपुत्र (उत्तर) | श्री दिनकर (दिवाकर) श्री अतिपार्श्व श्री सुपार्श्व श्री व्रतबिंदु श्री मरुदेव श्री सुव्रत |श्री सिद्धकांत श्री सुपार्श्व (श्रीधर) श्री सुकोशल | श्री शारीरिक श्री श्यामकोष्ठ श्री अनन्तविजय | श्री कल्पद्रुम श्री अग्निसेन (महासेन) श्री विमल श्री तीर्थादि श्री अग्निपुत्र (अग्निदत्त) श्री महाबल | श्री फलेश श्री वारिषेण श्री देवानन्द 예 I is lenir tvoroo osamostaña en 예 예 श्री कुमार , 예 예 예 예 예 예 예 예 예 예 इन पाँचों स्थानों या कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती 1. अभिमान, 2. क्रोध, 3. प्रमाद, 4. रोग और 5. आलस्य। - उत्तराध्ययन (11/3) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | | - लं + । - E+++ 50858 तीर्थकर : एक अनुशीलन 8 222 पूर्व धातकीखंड के भरतक्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी क्र.सं. | भूत काल वर्तमान काल | भविष्य काल श्री रत्नप्रभ श्री युगादिदेव श्री सिद्धनाथ | श्री अमितदेव श्री सिद्धान्त (सिंहदत्त) श्री सम्यग्नाथ (समकित) | श्री सम्भव श्री महासेन श्री जिनेन्द्र श्री अकलंक श्री परमार्थ श्री सम्प्रति श्री चन्द्रस्वामी श्री समुद्धर श्री सर्वस्वामी श्री शुभंकर श्री भूधर श्री मुनिनाथ श्री तत्त्वनाथ (सत्यनाथ) श्री उद्योत श्री विशिष्टनाथ (सुविष्ट) श्री सुंदरनाथ श्री आर्थव श्री अपरनाथ पुरन्दर श्री अभय श्री ब्रह्मशान्ति स्वामी श्री अप्रकंप श्री पर्वतनाथ श्री देवदत्त श्री पद्मनाथ श्री कार्मुक श्री वासवदत्त श्री पद्मानंद श्री ध्यानवर श्री श्रेयांस श्री प्रियंकर श्री कल्प जिन विश्वरूप श्री सुकृत श्री संवर तपस्तेज श्री भद्रेश्वर श्री शुचि (स्वस्थ) प्रतिबोध श्री मुनिचंद्र श्री आनन्द सिद्धार्थ श्री पंचमुष्टि श्री रविप्रभ संयम श्री त्रिमुष्टि श्री चन्द्रप्रभ (प्रभव) श्री अमल श्री गांगिक श्री सानिधनाथ श्री देवेन्द्र श्री प्रवणव श्री सुकर्ण श्री प्रवर श्री सर्वांग श्री सुकर्मा श्री विश्वसेन श्री ब्रह्मदत्त (ब्रह्मेन्द्र) श्री अमम | श्री मेघनंदन श्री इन्द्रदत्त श्री पार्श्वनाथ | श्री सर्वज्ञ श्री जिनपति श्री शाश्वतनाथ ओ देखने वालो ! तुम देखने वालों की बात पर विश्वास और श्रध्दा करके चलो। - सूत्रकृताश (2/3/11) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 223 धातकीखंड के पश्चिम भरत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी क्र.सं. | भूत काल | वर्तमान काल | भविष्य काल श्री वृषभनाथ श्री विश्वेन्दु श्री रत्नकेश (रत्नकोष) श्री प्रियमित्र श्री करण (कपिल) श्री चक्रहस्त श्री शांतनु श्री वृषभ श्री ऋतुनाथ (सांकृत) श्री सुमृदु श्री प्रियतेज श्री परमेश्वर श्री अतीत श्री विमर्ष श्री सुमूर्ति (शुद्धार्तिक) श्री अव्यक्त श्री प्रशमजिन श्री मुहूर्तिक श्री कलाशत श्री चारित्रनाथ श्री निकेश श्री सर्वजिन श्री प्रभादित्य श्री प्रशस्त श्री प्रबुद्ध श्री मंजुकेशी श्री निराहार श्री प्रव्रजित श्री पीतवास श्री अमूर्ति श्री सौधर्म श्री सुररिपु श्री द्विजनाथ (दयावर) श्री तमोदीप श्री दयानाथ श्री श्वेतांग श्री वज्रसेन श्री सहस्रभुज श्री चारुनाथ श्री बुद्धि . श्री जिनसिंह श्री देवनाथ श्री प्रबंधनाथ श्री रेपक श्री व्याधिक श्री अजित श्री बाहुजिन श्री पुष्पनाथ श्री प्रमुख श्री पल्लि श्री नरनाथ श्री पल्योपम श्री अयोग श्री प्रतिकृत | श्री अर्कोपम श्री अभोग श्री मृगेन्द्रनाथ | श्री तिष्ठित श्री कामरिपु श्री तपोनिधिक | श्री मृगनाभ श्री अरण्यबाहु श्री अचल श्री देवेन्द्र श्री नेमिकनाथ श्री आरण्यक श्री प्रायच्छित श्री गर्भज्ञानी श्री दशानन श्री शिवनाथ श्री अजित श्री शांतिक उत्तम वचनों का श्रवण करके भी उस पर श्रध्दा होना अति कठिन है। - उत्तराध्ययन (10/19) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. भूत काल 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8224 धातकीखंड के पूर्व ऐरावत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी वर्तमान काल श्री अपश्चिम श्री पुष्पदंत श्री अर्हन्त 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. श्री वज्रस्वामी श्री इन्द्रयत्न ( चंद्रदत्त) श्री सूर्यस्वामी श्री पुरुख ( पुरुष ) श्री स्वामी जी श्री अवबोध श्री विक्रमसेन श्री निर्घटिक श्री हरीन्द्र श्री प्रतेरिक श्री निर्वाण श्री धर्महेतु श्री चतुर्मुख श्री जिनकृतेन्द्र श्री स्वयंक श्री विमलादित्य श्री देवप्रभ श्री धरणेन्द्र श्री तीर्थनाथ श्री उदयानंद श्री शिवार्थ श्री धर्मोपदेश (धार्मिक) श्री क्षेत्रस्वामी श्री हरिश्चंद्र श्रीसुचरित्र श्री सिद्धानंद श्री नंदक श्री पद्मरूप श्री उदयनाथ श्री रुक्मेन्द्र श्री कृपाल श्री पेढाल श्री सिद्धेश्वर श्री अमृततेज श्री जिनेन्द्र श्री भोगली श्री सर्वार्थ श्री मेघानंद श्री नंदिकेश (नंदीश्वर) श्री हरनाथ ( अधरहर ) श्री अधिष्ठायक श्री शांतिक (क्षेमंतक) श्री नंद श्री कुंडपा श्री वैरोचन बुरे के साथ बुरा होना, बचपना भविष्य काल श्री विजयप्रभ श्री नारायण श्री सत्यप्रभ श्री महामृगेन्द्र श्री चिन्तामणि श्री अशोकचित श्री द्विमृगेन्द्र श्री उपवास श्री पद्मचंद्र श्री बोधचंद्र श्री चिन्ताहिक श्री उत्तराहिक श्री अपाशित श्री देवज श्री नारिक श्री अमोघ श्री नागेन्द्र श्री नीलोत्पल श्री अप्रकंप श्री पुरोहित श्री उभयेन्द्र श्री विश्व (पार्श्व ) श्री निर्वचस श्री वियोषित उत्तराध्ययन (2/24) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. भूत काल श्री सुमेरु श्री जिनकृत श्री ऋषिकेलि (अतीर्थ ) 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 888225 धातकीखंड के पश्चिम ऐरावत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी ܘ | श्री अमृतेन्द्र श्री शंखानंद 10. श्री कल्याणव्रत 11. श्री हरिनाथ 12. श्री बाहुस्वामी 13. श्री भार्गव 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 9. श्री प्रशस्तदत्त ( अश्ववृंद) श्री निर्धर्म श्री कुटलिक श्री वर्धमान श्री सुभद्र श्री प्रतिप्राप्त (पंचपाद) श्री वियोषित श्री ब्रह्मचारी श्री आसकृत श्री चारित्रेश श्री पारिणामिक श्री कंबोज श्री निधिनाथ श्री कौशिक श्री धर्मेश वर्तमान काल श्री उषादित श्री जयनाथ (जिनस्वामी) श्री स्तमित श्री इंद्रजित ( अभिधान ) श्री पुष्पक श्री मंडिक श्री प्रहर श्री मदनसिंह श्री हस्तनिधि श्री चंद्रपार्श्व श्री अश्वबोध श्री जिनाधार (जनकादि) श्री विभूति श्री कुमरीपिंड श्री सुवर्ण श्री हरिवास श्री प्रियमित्र श्री धर्मदेव श्री धर्मचंद्र श्री प्रवाहित श्री नंदिनाथ श्री अश्वामिक (पावन ) श्री पूर्व (पार्श्व ) श्री चित्रस्वामी भविष्य काल श्री रवीन्द्र श्री सुकुमाल श्री पृथ्वी श्री कुलपरोधा (कलापक) श्री धर्मनाथ श्री प्रियसोम श्री वारुण श्री अभिनंदन श्री सर्वा श्री सदृष्ट श्री मौष्टिक श्री सुवर्णकेतु श्री सोमचंद्र श्री क्षेत्राधिप श्री सौढातिक श्री कूर्मेषुक श्री तपोरि श्री देवतामित्र श्री कृपार्श्व श्री बहुद श्री अधोरिक श्री निकंबु श्री दृष्टिस्वामी श्री वक्षेश जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ निश्चयी हो कि यह शरीर भले ही चला जाय, परन्तु मैं अपना धर्म-शासन छोड़ नहीं सकता, उसे इन्द्रिय-विषय कभी भी विचलित नहीं कर सकते, जैसे सुमेरु पर्वत को भीषण बवंडर | दशवैकालिक चूलिका (1/17) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 226 पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व भरत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी वर्तमान काल श्री जगन्नाथ श्री प्रभास (ईश्वर) 1 क्र.सं. भूत काल श्री मदनकाय श्री मूर्तिस्वामी श्री निराग श्री प्रलंबित श्री पृथ्वी श्री चारित्रनिधि श्री अपराजित श्री सुबोधक श्री बुद्धेश श्री वैतालिक श्री त्रिमुष्टिक श्री मुनिबोध श्री तीर्थस्वामी श्री धर्माधिक श्री वमेश (यमेश) 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. श्री सुरस्वामी श्री भरतेश श्री दीर्घनाथ श्री विजित (विख्यात) श्री अवसानक श्री प्रबोध श्री तपोनिधि श्री पाठक श्री त्रिपुरेश (त्रिकर) श्री शोगत 12. 13. श्री वास श्री अहमत् (मनोहर) 14. 15. श्री शुभकर्म (सुकर्मेश ) 16. श्री समाध 17. श्री सप्तादिश ( प्रभुनाथ ) श्री कर्मान्तिक श्री अमलेन्द्र श्री धर्मवृक्ष (ध्वजांजिक) 18. श्री आनन्द 19. श्री सर्वतीर्थ श्री प्रसाद श्री विपरीत 20. श्री निरुपम 21. श्री कुमारिक 22. 23. श्री विहारगृह श्री धरणीश्वर श्री मृगांक श्री कफाटिक श्री गजेन्द्र 24. श्री विकास श्री ध्यान भविष्य काल श्री वसन्तध्वज श्री त्रिमातुल श्री अघटित श्री त्रिखभ श्री अचल श्री प्रवादिक श्री भूमानंद श्री त्रिनयन श्री सिद्धान्त श्री प्रसंग (प्रथग) श्री भद्रेश श्री गोस्वामी | श्री प्रवासिक (कल्याण) श्री मंडल श्री महावसु श्री उदीयन्तु (तेजोदय्) श्री दुर्दुरिक (दिव्यज्योति ) श्री प्रबोध श्री अभयांक श्री प्रमोद श्री दिव्यशक्र (दृकारिक ) श्री व्रतस्वामी श्री निधान श्री निःकर्मक साधक अपने को क्रोध से बचाए, अहंकार को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ को त्याग दे। - उत्तराध्ययन (4/12) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. भूत काल 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 227 पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम भरत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. श्री पद्मचन्द्र श्री रक्तांक श्री अयोगिक श्री सर्वार्थ (सिद्धार्थ) श्री ऋषिनाथ श्री हरिभद्र श्री गणाधिप श्री पारत्रिक (पत्रकाय) श्री ब्रह्म श्री मुनीन्द्र श्री दीप श्री राजर्षि श्री विशाख श्री अचिंतित (आनंदित ) श्री रवि श्री सोमदत्त श्री जय श्री मोक्ष श्री अग्निभानु श्री धनुष्कांग श्री रोमांचित श्री मुक्तिनाथ श्री प्रसिद्ध श्री जिनेश वर्तमान काल श्री पद्मपद श्री प्रभावक श्री योगेश्वर श्री बल श्री सुषमांग ला श्री श्री मृगांक श्री कलबंक श्री ब्रह्मनाथ श्री निषेधक श्री पापहर श्री स्वामी श्री मुक्तिचंद्र श्री अप्राशिक श्री नदीतट श्री मलधारी श्री सुसंयम श्री मलयसिंह श्री अक्षोभ श्री देवधर श्री प्रयच्छ श्री आगमिक श्री विनीत श्री रतानंद भविष्य काल श्री प्रभावक श्री विनयचन्द्र श्री सुभाव श्री दिनकर श्री अगस्तेय ( अनंततेज) श्री धनदत्त श्री पौरवनाथ श्री जिनदत्त - श्री पार्श्वनाथ श्री मुनिसिंधु श्री आस्तिक भवानंद श्री नृपनाथ श्री नारायण श्री प्रथमांक श्री भूपति श्री सुदृष्ट श्री भवभीरुक श्री नंदन श्री भार्गव श्री परानस्यु श्री किल्विषाद श्री प्रभाशिव (नवनाशिक ) श्री भरतेश मेधावी साधक को आत्मपरिज्ञान से यह दृढ निश्चय करना चाहिए कि मैंने पूर्व जीवन में प्रमाद के कारण जो कुछ भूल की है, वह अब कदापि नहीं करूंगा। आचाराङ्ग (1/1/4/36) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 228 पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व ऐरावत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी क्र.सं. भूत काल वर्तमान काल भविष्य काल | श्री कृतान्त श्री निशामित (शंकर) | श्री जशोधर | श्री उपदिष्ट (ओबरिक) श्री अक्षपास श्री सुव्रत (सुकृत) | श्री देवादित्य श्री अचितकर श्री अभयघोष श्री अष्टनिधि श्री नयादि श्री निर्वाणिक श्री प्रचंड श्री पर्णपंडु श्री व्रतवसु श्री वेणुक श्री स्वर्ण (स्वप्न) श्री अतिराज (रविराज) श्री त्रिभानु श्री तपोनाथ श्री विश्व (अश्व) . श्री ब्रह्मादि श्री पुष्पकेतु श्री अर्जुन श्री वजंग श्री धार्मिक श्री तपचन्द्र श्री विरोहित (अविरोध) श्री चंद्रकेतु श्री शारीरिक श्री अपाप श्री प्रहारित श्री महसेन श्री लोकोत्तर श्री वीतराग श्री सुग्रीव श्री जलधि श्री उद्योत श्री दृढ हप्रार श्री विद्योतन श्री तपोधिक श्री वृषातीत श्री सुमेरु श्री अतीत (मधु) श्री अंबरीक श्री सुभाषित (प्रभादित्य) श्री मरुदेव श्री तुंबर | श्री वत्सल श्री दयामय (दामिक) | श्री सर्वशील श्री जिनालय श्री शिलादित्य (शीतल) | श्री प्रतिराज श्री तुषार श्री स्वस्तिक श्री जितेन्द्रिय श्री भुवनस्वामी श्री विश्वनाथ श्री तपादि | श्री सुकुमार श्री शतक श्री रत्नाकर (रत्नकिरण) | श्री देवाधिदेव श्री सहस्तादि (नंदन) श्री देवेश 23. श्री आकाशिक श्री तमोकित श्री लांछन 24. श्री अंबिक श्री ब्रह्मधर श्री प्रवेश वक्त बड़ा ही भयंकर है और इधर प्रतिपल जीर्ण-शीर्ण होती हुई काया है। इसलिए साधक को सदैव अप्रमत्त होकर भारण्ड पक्षी के समान अप्रतिबध्द होकर विचरण करना चाहिए। - उत्तराध्ययन (4/6) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 229 पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम ऐरावत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी क्र.सं. भूत काल 1. श्री सुसंभव ( उपशांत) 2. श्री फाल्गुन 3. श्री पूर्वा 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. श्री सुन्दर श्री गैरिक (गौरव) श्री त्रिविक्रम श्री नरसिंह श्री मृगवसु श्री सोमेश्वर (सौम्य ) श्री सुखभानु श्री अपाप श्री बिबोध श्री संजमिक (सिद्ध) श्री माधीना श्री अश्वतेजा श्री विद्याधर श्री सुलोचन श्री. मौननिधि श्री पुंडरीक श्री चित्रगण श्री माणहिदु ( मतइन्द्र) श्री सर्वांकल श्री भूरिश्रवा श्री पुण्यांग वर्तमान काल श्री गांगेय श्री नलवशा ( बलभद्र ) श्री भीम श्री ध्वजाधिक (दयानाथ ) श्री मुनिनाथ श्री सुभद्र श्री इन्द्रक श्री स्वामीनाथ श्री चंद्रकेतु श्री हितक श्री नंदिघोष श्री रूपवीर्य श्री व्रजनाभ श्री संतोष श्री धर्म श्री फणेश्वर श्री वीरचंद्र श्री मोघानिक श्री स्वच्छ श्री कोपक्षय श्री अकाम श्री धर्म (संतोषित) श्री शत्रुसेन ( शुक्लसेन) श्री क्षेमंकर श्री दयानाथ श्री कीर्तिनाथ श्री शुभंकर भविष्य काल श्री अदोष श्री वृषभ श्री विनयानंद श्री ध्वजादित्य | श्री वस्तुबोध श्री मुक्तिगति (वसुकीर्ति) श्री धर्मबोध श्री देवांग श्री मरीचिका श्री सुजीव श्री यशोधर श्री गौतम श्री मुनिशुद्ध श्री प्रबोध श्री शतानीक श्री चार श्री शतानंद ( सदानंद) श्री वेदार्थ श्री सुधा श्री ज्योतिर्मुख श्री सूर्यांक भयभीत साधक तप और संयम को भी तिलांजलि दे देता है। वह किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के दायित्व को निभा नहीं पाता और न ही सत्पुरुष द्वारा आचरित मार्ग पर ही चलने में समर्थ होता है। प्रश्नव्याकरण (2/2) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 888230 सहस्रकूट के अन्तर्गत 1024 तीर्थंकर सहस्रकूट एक विशिष्ट संरचना है जिसमें तीर्थंकर भगवंतों की हजार से अधिक प्रतिमाएँ स्थापित होती हैं। सिद्धाचल तीर्थ पर सहस्रकूट के तीन स्थानक हैं व अन्य तीर्थों पर भी होते हैं। उनमें 1024 प्रतिमाएँ होती हैं। उनका वर्णन इस प्रकार है 720 जम्बूद्वीप, धातकीखंड द्वीप एवं पुष्करार्ध द्वीप में कुल 5 भरत क्षेत्र व 5 ऐरावत क्षेत्र, यानी 10 क्षेत्र होते हैं। एक क्षेत्र में अतीत वर्तमान - अनागत काल के क्रमशः 24, 24, 24 तीर्थंकर यानी त्रिकाल के 72 तीर्थंकर होते हैं। इस प्रकार 10 क्षेत्रों के 720 तीर्थंकर जिनकी नामावली पूर्व में प्रस्तुत की गई है। श्री अजितनाथ जी के समय में उत्कृष्ट 170 तीर्थंकर विचर रहे थे। उनमें से भरत - ऐरावत क्षेत्रों के 10 तीर्थंकर उपरिलिखित 720 में समाहित हैं एवं 5 महाविदेह की प्रत्येक 32 विदेह विजयों के 160 तीर्थंकर, जिनकी नामावली आगे प्रस्तुत की गई है। वर्तमान समय में महाविदेह क्षेत्र में विचर रहे 20 विहरमान तीर्थंकर यानी 5 महाविदेह में प्रत्येक 4 तीर्थंकर यानी 20 विहरमान तीर्थंकर । भरत क्षेत्र की वर्तमान चौबीसी में 24 तीर्थंकरों (ऋषभ, अजित आदि) के पाँच पाँच कल्याणकों की कुल 120 प्रतिमाएँ भिन्न अवस्थाओं में विराजमान की जाती हैं। तीर्थंकरों के 4 शाश्वत नाम ऋषभ, चंद्रानन, वारिषेण, वर्धमान । 1024 कुल प्रतिमाएँ 160 020 120 004 मतान्तर से भिन्न प्रकार से 1008 प्रतिमाएँ भी स्थापित की जाती है। प्रत्येक 'वाद' रागद्वेष की वृद्धि करने वाला है। आचारांग - चूर्ण ( 1/6/1) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक अनुशीलन 88 231 श्री अजितनाथ जी के समय विचरे उत्कृष्ट 170 तीर्थंकर 5 भरत - 5 ऐरावत के 10 तीर्थंकर जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र 01. श्री अजितनाथ ऐरावत क्षेत्र 02. श्री चन्द्रनाथ धातकीखण्ड पूर्वार्ध भरत क्षेत्र 03. श्री सिद्धान्तनाथ ऐरावत क्षेत्र . 04. श्री पुष्पदंत धातकीखण्ड पश्चिमाई भरत क्षेत्र 05. श्री करणनाथ ऐरावत क्षेत्र . 06. श्री जयनाथ (जिनस्वामी) अर्धपुष्कर पूर्वार्ध भरत क्षेत्र 07. श्री प्रभासनाथ ऐरावत क्षेत्र 08. श्री अग्राहिक (अक्षपास) अर्धपुष्कर पश्चिमार्ध भरत क्षेत्र 09. श्री प्रभावकनाथ ऐरावत क्षेत्र 10. श्री बलभद्र (नलवशा) 01. श्री जयदेव 04. श्री अनन्तहर्ष . 07. श्री प्रियंकर 10. श्री गुणगुप्त 13. श्री युगादित्य 16. • श्री महाकाय 19. श्री हरिहर 22. श्री अनन्तकृत 25. श्री महेश्वर । 28. श्री सौम्यकांत 31. श्री महीधर जम्बूद्वीप महाविदेह क्षेत्र के 32 तीर्थंकर 02. श्री कर्णभद्र 03. श्री लक्ष्मीपति 05. श्री गंगाधर 06. श्री विशालचन्द्र 08. श्री अमरादित्य 09. श्री कृष्णनाथ 11. श्री पद्मनाथ 12. श्री जलधर 14. श्री वरदत्त 15. श्री चन्द्रकेतु 17. श्री अमरकेतु 18. श्री अरण्यवास 20. श्री गमचन्द्र 21. श्री शान्तिदेव 23. श्री गजेन्द्र 24. श्री सागरचन्द्र 26. श्री लक्ष्मीचन्द्र 27. श्री ऋषभ 29. श्री नेमिप्रभ 30. श्री अजितभद्र 32. श्री राजेश्वर (गजेश्वर) विशेषः एक समय में उत्कृष्ट रूप से 170 तीर्थंकर ही हो सकते हैं, किन्तु किन्हीं भी दो तीर्थंकरों का मिलन कभी नहीं होता। अजितनाथ जी के समय में सम्पूर्ण तिर्छा लोक में 170 तीर्थंकरों का विचरण हो रहा था। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 232 धातकीखण्ड के पूर्वार्ध महाविदेह क्षेत्र के 32 तीर्थंकर 1. श्री वीरचन्द्र 2. श्री वत्ससेन 3. श्री नीलकान्त 4. श्री मुंजकेशी 5. श्री रुक्मिक 6. श्री क्षेमंकर 7. श्री मृगांक 8. श्री मुनिमूर्ति 9. श्री विमल 10. श्री आगमिक 11. श्री निष्पाप (दन) 12. श्री वसुंधराधिप 13. श्री मल्लिनाथ 14. श्री वनदेव 15. श्री बलभृत 16. श्री अमृतवाहन 17. श्री पूर्णभद्र 18. श्री रेवांकित 19. श्री कल्पशाख 20. श्री नलिनीदत्त 21. श्री विद्यापति 22. श्री सुपार्श्वनाथ 23. श्री भानुनाथ 24. श्री प्रभंजन 25. श्री विशिष्टनाथ 26. श्री जलप्रभ 27. श्री मुनिचंद्र (महाभीम) 28. श्री ऋषिपाल 29. श्री कुंडदत्त 30. श्री भूतानन्द 31. श्री महावीर 32. श्री तीर्थेश्वर धातकीखंड के पश्चिमा महाविदेह क्षेत्र के 32 तीर्थंकर 01. श्री धर्मदत्त 02. श्री भूमिपति 03. श्री मेरुदत्त 04. श्री सुमित्र 05. श्री श्रीषेण 06. श्री प्रभानंद 07. श्री पद्माकर 08. श्री महाघोष 09. श्री चंद्रप्रभ 10. श्री भूमिपाल 11. श्री सुमतिषण 12. श्री अच्युत 13. श्री तीर्थपति 14. श्री ललितांग 15. श्री अमरचंद्र 16. श्री समाधिनाथ 17. श्री मुनिचंद्र 18 श्री महेन्द्रनाथ 19. श्री शशांक 20. श्री जगदीश्वर 21. श्री देवेन्द्रनाथ 22. श्री गुणनाथ 23. श्री उद्योतनाथ 24. श्री नारायण 25. श्री कपिल 26. श्री प्रभाकर 27. श्री जिनदीक्षित 28. श्री सकलनाथ 29. श्री शीलारनाथ 30 श्री वज्रधर 31. श्री सहस्रार 32. श्री अशोक विशेष: इन 170 तीर्थंकरों में से नीलम जैसे श्याम वर्ण के 16 तीर्थंकर माणिक्य के समान लाल (रक्त) वर्ण के 30 तीर्थंकर स्वर्ण (सोने) के समान पीत (पीले) वर्ण के 36 तीर्थंकर थे। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 233 अर्धपुष्कर द्वीप के पूर्वार्ध महाविदेह क्षेत्र के 32 तीर्थंकर 01. श्री मेघवाहन 02. श्री जीवरक्षक 03. श्री महापुरुष 04. श्री पापहर 05. श्री मृगाकनाथ 06. श्री सुरसिंह 07. श्री जगत्पूज्य 08. श्री सुमतिनाथ 09. श्री महामहेन्द्र 10. श्री अमरभूति 11. श्री कुमारचंद्र 12. श्री वारिषेण 13. श्री रमणनाथ 14. श्री स्वयंभू 15. श्री अचलनाथ 16. श्री मकरकेतु 17. श्री सिद्धार्थनाथ 18. श्री सफलनाथ 19. श्री विजयदेव 20. श्री नरसिंह 21. श्री शतानन्द 22. श्री वृंदाकर 23. श्री चन्द्रातप 24. श्री चंद्रगुप्त 25. श्री दृढरथ 26. श्री महायशा 27. श्री उष्मांक 28. श्री कामदेव 29. श्री समरकेतु 30. श्री पुष्पकेतु 31. श्री कामदेव 32. श्री समरकेतु __ अर्धपुष्कर द्वीप के पश्चिमार्ध महाविदेह क्षेत्र के 32 तीर्थंकर 01. श्री प्रसन्नचंद्र , .02. श्री महासेन 03. श्री वज्रनाथ 04. श्री सुवर्णबाहु 05. श्री कुरुचंद्र 06. श्री वज्रवीर्य (कुरुविंद) 07. श्री विमलचंद्र 08. श्री यशोधर 09. श्री महाबल 10.. श्री वज्रसेन 11. श्री विमलबोध 12. श्री भीमनाथ 13. श्री मेरुप्रभ 14. श्री भद्रगुप्त 15. श्री सुदृढसिंह 16. श्री सुव्रत 17. श्री हरिश्चंद्र 18. श्री प्रतिमाधर 19. श्री अतिश्रेय 20. श्री अजितवीर्य 21. श्री कनककेतु 22. श्री फल्गुमित्र 23. श्री ब्रह्मभूति 24. श्री हितकर 25. श्री वरुणदत्त 26. श्री यशकीर्ति 27. श्री नागेन्द्र 28. श्री महीधर 29. श्री कृतब्रह्म 30. श्री महेन्द्र 31. श्री वर्धमान 32. श्री सुरेन्द्रदत्त विशेष: इन 170 तीर्थंकरों में से पन्ने के समान हरित (हरे) वर्ण के 38 तीर्थंकर तथा हीरे के समान श्वेत (सफेद/कांचन) वर्ण के 50 तीर्थंकर थे, ऐसा विविध ग्रंथकारों का मत है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 234 मौन एकादशी के दिन 150 कल्याणक की गणना तीर्थंकर | जम्बूद्वीप भरत क्षेत्र धातकीखंड-पूर्वभरत क्षेत्र क्रमांक (1) अतीत चौबीसी (4) अतीत चौबीसी श्री महायश सर्वज्ञाय नमः 4. श्री अकलंक सर्वज्ञाय नमः श्री सर्वानुभूति अर्हते नमः 6. श्री शुभंकर अर्हते नमः श्री सर्वानुभूति नाथाय नमः 6. श्री शुभंकर नाथाय नमः श्री सर्वानुभूति सर्वज्ञाय नमः 6. श्री शुभंकर सर्वज्ञाय नमः श्री श्रीधरजिन नाथाय नमः 7. श्री सत्यनाथ नाथाय नमः (2) वर्तमान चौबीसी (5) वर्तमान चौबीसी श्री नमिनाथ सर्वज्ञाय नमः 21. श्री सर्वांगनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री मल्लिनाथ अर्हते नमः 19. श्री गांगिकनाथ अर्हते नमः श्री मल्लिनाथ नाथाय नमः 19. श्री गांगिकनाथ नाथाय नमः श्री मल्लिनाथ सर्वज्ञाय नमः 19. श्री गांगिकनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री अरनाथ नाथाय नमः 18. श्री त्रिमुष्टिनाथ नाथाय नमः (3) अनागत चौबीसी (6) अनागत चौबीसी श्री स्वयंप्रभ सर्वज्ञाय नमः 4. श्री सम्प्रति सर्वज्ञाय नमः श्री देवश्रुत अर्हते नमः 6. श्री मुनिनाथ अर्हते नमः, श्री देवश्रुत नाथाय नमः 6. श्री मुनिनाथ नाथाय नमः श्री देवश्रुत सर्वज्ञाय नमः 6. श्री मुनिनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री उदयनाथ नाथाय नमः 7. श्री विशिष्टनाथ नाथाय नमः एक समय द्वारिका नगरी में श्री नेमिनाथ भगवान पधारे। श्रीकृष्ण ने उन्हें 3 प्रदक्षिणा की व प्रश्न किया “हे स्वामिन्। एक वर्ष में 360 दिन होते हैं। उन सभी दिनों में ऐसा कौनसा दिन है जिसमें अल्पव्रत तप प्रमुख करने पर भी वह दिन बहुत ज्यादा फल देने वाला होता है ? तब भगवान ने फरमाया कि हे कृष्ण ! मार्गशीर्ष शुक्ल 11 के दिन अल्प पुण्य करने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। अतीत-अनागत-वर्तमान समय के तीर्थंकरों के 150 कल्याणक इसी दिन होते हैं। अतः इस दिन एक उपवास किया जाए तो 150 उपवास का लाभ मिलता है। घर संबंधीसांसारिक कर्मों का त्याग कर मौन रहकर चउविहार उपवास सहित पौषध करनी चाहिए। श्रीकृष्ण ने पुनः पूछा “हे स्वामिन् ! पूर्व में किस पुण्यवान जीव ने इस मार्गशीर्ष शुक्ल 11 की आराधना की है ? इससे क्या फल की प्राप्ति हुई ? प्रभु ने उत्तर में सुव्रत मुनि का वृत्तान्त सुनाया Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 235 पुष्करार्धद्वीप-पूर्व भरत क्षेत्र tooos ñ 9 9 तीर्थंकर | धातकीखंड-पश्चिम भरत क्षेत्र क्रमांक (7) अतीत चौबीसी श्री सुमृदुनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री अव्यक्तनाथ अर्हते नमः श्री अव्यक्तनाथ नाथाय नमः श्री अव्यक्तनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री कलाशतनाथ नाथाय नमः (8) वर्तमान चौबीसी श्री अरण्यबाहु सर्वज्ञाय नमः श्री योगनाथ अर्हते नमः श्री योगनाथ नाथाय नमः श्री योगनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री अयोगनाथ नाथाय नमः (9) अनागत चौबीसी श्री परमेश्वर सर्वज्ञाय नमः श्री शुद्धार्तिकनाथ अर्हते नमः श्री शुद्धार्तिकनाथ नाथायनमः श्री शुद्धार्तिकनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री निष्केशनाथ नाथाय नमः (10) अतीत चौबीसी 4. श्री प्रलंबित सर्वज्ञाय नमः 6. श्री चारित्रनिधि अर्हते नमः 6. श्री चारित्रनिधि नाथाय नमः 6. श्री चारित्रनिधि सर्वज्ञाय नमः 7. श्री अपराजितनाथ नाथाय नमः (11) वर्तमान चौबीसी 21. श्री मृगांकनाथ सर्वज्ञाय नमः 19. श्री प्रसादनाथ अर्हते नमः 19. श्री प्रसादनाथ नाथाय नमः 19. श्री प्रसादनाथ सर्वज्ञाय नमः 18. श्री ध्वजांशिकनाथ नाथाय नमः (12) अनागत चौबीसी 4. श्री त्रिखंभनाथ सर्वज्ञाय नमः 6. श्री प्रवादिकनाथ अर्हते नमः 6. श्री प्रवादिकनाथ नाथाय नमः 6. श्री प्रवादिकनाथ सर्वज्ञाय नमः 7. श्री भूमानंदनाथ नाथाय नमः o ó orit धातकी खंड के दक्षिण भरतार्ध में विजयपुर नगर में सूर नामक सेठ था। गुरुदेव के श्रीमुख से मौन एकादशी की महिमा सुनी तो उसने 11 वर्ष तक मौन एकादशी का तप किया व विधिपूर्वक उद्यापन किया। अनुक्रम से तप के प्रभाव से वह आरण देवलोक में 21 सागरोपम की आयुवाला देव हुआ। देश, काल एवं कार्य को बिना समझे समुचित प्रयत्न तथा उपाय से हीन किया जाने वाला कार्य सुख-साध्य होने पर भी सिध्द नहीं होता है। - निशीय-भाष्य (4803) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 20 236 जम्बूद्वीप-ऐरावत तीर्थंकर | पुष्करार्ध-पश्चिम भरत क्षेत्र क्रमांक (13) अतीत चौबीसी श्री सर्वार्थ सर्वज्ञाय नमः श्री हरिभद्र अर्हते नमः श्री हरिभद्र नाथाय नमः श्री हरिभद्र सर्वज्ञाय नमः श्री गणाधिप नाथाय नमः (14) वर्तमान चौबीसी श्री प्रयच्छ सर्वज्ञाय नमः श्री अक्षोभनाथ अर्हते नमः श्री अक्षोभनाथ नाथाय नमः श्री अक्षोभनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री मलयसिंह नाथाय नमः (15) अनागत चौबीसी श्री दिनकर सर्वज्ञाय नमः श्री धनदनाथ अर्हते नमः श्री धनदनाथ नाथाय नमः श्री धनदनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री पौषधनाथ नाथाय नमः (16) अतीत चौबीसी 4. श्री उज्जयंतिक सर्वज्ञाय नमः 6. श्री अभिनंदन अर्हते नमः 6. श्री अभिनंदन नाथाय नमः 6. श्री अभिनंदन सर्वज्ञाय नमः 7. श्री रत्नेशनाथ नाथाय नमः (17) वर्तमान चौबीसी 21. श्री श्यामकोष्ठ सर्वज्ञाय नमः 19. श्री मरुदेवनाथ अर्हते नमः 19. श्री मरुदेवनाथ नाथाय नमः 19. श्री मरुदेवनाथ सर्वज्ञाय नमः 18. श्री अतिपार्श्व नाथाय नमः (18) अनागत चौबीसी 4. श्री नंदिषेण सर्वज्ञाय नमः 6. श्री वज्रधर अर्हते नमः 6. श्री वज्रधर नाथाय नमः 6. श्री वज्रधर सर्वज्ञाय नमः । 7. श्री निर्वाणनाथ नाथाय नमः वहाँ से वह जंबूद्वीप के शौरीपुर नगर में समुद्रदत्त सेठ की स्त्री प्रीतिमती के गर्भ से उत्पन्न हुआ। उसका नाम सुव्रत रखा गया। गार्हस्थ्य जीवन में दाक्षिण्यता को प्राप्त सुव्रत सेठ 11 करोड़ धन का स्वामी बना व लोक में माननीय भी हुआ। एक बार नगर में शीलसुंदर नामक आचार्य पधारे। वह भी उन्हें वंदन करने गया। आचार्य व मुनिवृंदों ने धर्मोपदेश में मौन एकादशी पर भी प्रकाश डाला। यह सुनते ही सुव्रत सेठ के मन में ऊहापोह होने लगा और उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। गुरुदेव से मार्गदर्शन लेकर मौन एकादशी का तप संपूर्ण परिवार के साथ करने का संकल्प लिया। दूध पीने की कोई कितनी ही तीव्र अभिलाषा क्यों न रखे, पर बांझ गाय से कभी दूध नहीं मिल सकता है। - बृहत्कल्पभाष्य (1944) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 237 तीर्थंकर | धातकीखंड-पूर्व ऐरावत क्षेत्र धातकी खंड-पश्चिम ऐरावत क्षेत्र क्रमांक (19) अतीत चौबीसी (22) अतीत चौबीसी श्री पुरुरव सर्वज्ञाय नमः 4. श्री अश्ववृंद सर्वज्ञाय नमः श्री अवबोध अर्हते नमः 6. श्री कुटलिक अर्हते नमः श्री अवबोध नाथाय नमः 6. श्री कुटलिक नाथाय नमः श्री अवबोध सर्वज्ञाय नमः 6. श्री कुटलिक सर्वज्ञाय नमः श्री विक्रमसेन नाथाय नमः 7. श्री वर्द्धमान नाथाय नमः (20) वर्तमान चौबीसी (23) वर्तमान चौबीसी श्री शांतिकनाथ सर्वज्ञाय नमः 21. श्री नंदिकेश सर्वज्ञाय नमः श्री हरनाथ अर्हते नमः 19. श्री धर्मचंद्र अर्हते नमः श्री हरनाथ नाथाय नमः 19. श्री धर्मचंद्र नाथाय नमः श्री हरनाथ सर्वज्ञाय नमः 19. श्री धर्मचंद्र सर्वज्ञाय नमः श्री नंदिकेश नाथाय नमः 18. श्री धर्मदेव नाथाय नमः (21) अनागत चौबीसी (24) अनागत चौबीसी श्री महामृगेन्द्र सर्वज्ञाय नमः 4. श्री कलापक सर्वज्ञाय नमः श्री अशोचित अर्हते नमः 6. श्री प्रियसोम अर्हते नमः श्री अशोचित नाथाय नमः 6. श्री प्रियसोम नाथाय नमः श्री अशोचित सर्वज्ञाय नमः 6. श्री प्रियसोम सर्वज्ञाय नमः श्री द्विमृगेन्द्र नाथाय नमः 7. श्री वारुणजिन नाथाय नमः सुव्रत सेठ की तपश्चर्या उत्कृष्ट थी। अनेक बार उसके घर चोरी की कोशिश, आग लगाने की कोशिश की गई किन्तु सेठ मौन एकादशी के दिवस कायोत्सर्ग में दृढ रहे व उनके तप से प्रभावित हो शासनदेव ने उनकी रक्षा की। एक बार चार ज्ञान के धारक आचार्य गुणसुंदर वहाँ पधारे। उनकी आत्मविषयक हृदयस्पर्शी देशना सुन भवभीरु सेठ सुव्रत ने दीक्षा स्वीकार की। एक बार सुव्रत मुनि मौन एकादशी के दिन मौनव्रत करके कायोत्सर्ग में खड़े थे। किसी मिथ्यादृष्टि व्यंतर देव ने किसी अन्य साधु के शरीर में प्रवेश कर सुव्रत मुनि को विचलित करना चाहा किन्तु मुनि दृढ़-अचल रहे। शुक्लध्यान ध्याते हुए क्षपक श्रेणी पर चढ़कर कर्मों का क्षय करते हुए वे केवलज्ञान व तदनन्तर मोक्ष को प्राप्त हुए। इस तरह अन्य भव्य जीव भी यह तपाराधन कर सांसारिक व आत्मीय ऋद्धि को प्राप्त करते हैं। इस संबंध में श्री नेमीश्वर भगवान के श्रीमुख से श्रवणकर श्रीकृष्ण वासुदेव भी धर्म के विषय में उद्यमवन्त हुए, जिसके कारण तीर्थंकर नामगोत्र का उपार्जन किया। यह सब भगवान महावीर ने प्रधान गणधर श्री गौतम स्वामी जी से कहा। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 0 238 पुष्करार्धद्वीप-पश्चिम ऐरावत क्षेत्र तीर्थंकर | पुष्करार्ध द्वीप-पूर्व ऐरावत क्षेत्र क्रमांक (25) अतीत चौबीसी श्री अष्टनिधि सर्वज्ञाय नमः श्री वेणुकनाथ अर्हते नमः श्री वेणुकनाथ नाथाय नमः श्री वेणुकनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री त्रिभानुनाथ नाथाय नमः (26) वर्तमान चौबीसी श्री शतकनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री स्वस्तिकनाथ अर्हते नमः श्री स्वस्तिकनाथ नाथाय नमः श्री स्वस्तिकनाथ सर्वज्ञाय नमः श्री शिलादित्य नाथाय नमः (27) अनागत चौबीसी श्री निर्वाणिक सर्वज्ञाय नमः श्री अतिराज अर्हते नमः श्री अतिराज नाथाय नमः श्री अतिराज सर्वज्ञाय नमः श्री अश्वनाथ नाथाय नमः (28) अतीत चौबीसी 4. श्री सौन्दर्यनाथ सर्वज्ञाय नमः 6. श्री त्रिविक्रम अर्हते नमः 6. श्री त्रिविक्रम नाथाय नमः 6. श्री त्रिविक्रम सर्वज्ञाय नमः 7. श्री नरसिंह नाथाय नमः (29) वर्तमान चौबीसी 21. श्री क्षेमंकर सर्वज्ञाय नमः 19. श्री संतोषित अर्हते नमः 19. श्री संतोषित नाथाय नमः 19. श्री संतोषित सर्वज्ञाय नमः 18. श्री अकामनाथ नाथाय नमः (30) अनागत चौबीसी . 4. श्री मुनिनाथ सर्वज्ञाय नमः 6. श्री चंद्रकेतु अर्हते नमः 6. श्री चंद्रकेतु नाथाय नमः 6. श्री चंद्रकेतु सर्वज्ञाय नमः । 7. श्री ध्वजादित्य नाथाय नमः जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे बाद में परितप्त नहीं होते हैं। - सूत्रकृताङ्ग (1/3/4/15) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 239 | Lerir tvo i co si è as श्री पार्श्वनाथ भगवान के प्रमुख 108 नाम व तीर्थ वर्तमान चौबीसी के 23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान की आत्मा जब पूर्वभव में देवलोक में देवरूप में विद्यमान थी, तब उन्होंने अत्यंत उत्साह से तीर्थंकर के 500 कल्याणकों पर उपस्थिति दर्ज की व परम भक्ति भाव से मंडित होकर तीर्थंकरों की स्तवना की एवं अन्य देवी-देवताओं को भी प्रेरणा-प्रतिबोध दिया। पुण्योपार्जन की पराकाष्ठा से उनके द्वारा आदेय नाम कर्म व यश नाम कर्म का बंध हुआ जिसके फलस्वरूप शनैः शनैः उनकी सिद्धि-प्रसिद्धि में आशातीत वृद्धि हुई है व अनेक नाम प्रचलित हुए। प्रमुख 108 नाम व उनके प्रसिद्ध मूल स्थल के नाम इस प्रकार हैंश्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ शंखेश्वर, जिला मेहसाणा (गुजरात) श्री जीरावला पार्श्वनाथ जीरावला, जिला सिरोही (राजस्थान) श्री केशरिया पार्श्वनाथ भद्रावती, जिला चंद्रपुर (महाराष्ट्र) श्री स्तंभन पार्श्वनाथ खम्भात, जिला खेड़ा (गुजरात) श्री मनमोहन पार्श्वनाथ कम्बोई, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री जोटीगड़ा पार्श्वनाथ मुजपुर, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री शंखला पार्श्वनाथ शंखलपुर, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री गंभीरा पार्श्वनाथ गांभु, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री गाड़लिया पार्श्वनाथ मांडल, जिला विरमगाम (गुजरात) श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ धोलका, जिला अहमदाबाद (गुजरात) श्री शामला पार्श्वनाथ शामला की पोल, जिला अहमदाबाद (गुज.) श्री मूलेवा पार्श्वनाथ पांजरा पोल, जिला अहमदाबाद (गुजरात) श्री ह्रींकार पार्श्वनाथ कालूपुर, जिला अहमदाबाद (गुजरात) श्री सुखसागर पार्श्वनाथ दोशीवाड़ा की पोल, अहमदाबाद (गुजरात) श्री मुहरी पार्श्वनाथ टींटोई, जिला साबरकांठा (गुजरात) श्री पोशीना पार्श्वनाथ नानापोशीना, जिला साबरकांठा (गुजरात) श्री विघ्नापहार पार्श्वनाथ मोटापोशीना, जिला साबरकांठा (गुजरात) श्री स्फुलिंग पार्श्वनाथ वीजापुर, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री नागफणा पार्श्वनाथ विहार, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री कल्याण पार्श्वनाथ वीसनगर, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री मनोरंजन पार्श्वनाथ स्टेशन रोड, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री सुलतान पार्श्वनाथ सिद्धपुर, जिला महेसाणा (गुजरात) श्री डोसला पार्श्वनाथ घोता सकलाणा, जिला बनासकांठा (गुजरात) o comio ja Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 240 24. श्री पल्लवीया पार्श्वनाथ श्री भीलड़िया पार्श्वनाथ श्री पंचासरा पार्श्वनाथ श्री कोका पार्श्वनाथ श्री कंकण पार्श्वनाथ श्री घीया पार्श्वनाथ श्री धरणेन्द्र पार्श्वनाथ श्री पद्मावती पार्श्वनाथ श्री धींगडमल्ल पार्श्वनाथ श्री वाड़ी पार्श्वनाथ श्री दूधाधारी पार्श्वनाथ श्री टांकला पार्श्वनाथ श्री भीड़भंजन पार्श्वनाथ श्री वणछरा पार्श्वनाथ श्री कंसारी पार्श्वनाथ श्री सोमचिंतामणि पार्श्वनाथ श्री सांवरा पार्श्वनाथ श्री वाराणसी पार्श्वनाथ श्री प्रगटप्रभावी पार्श्वनाथ श्री लोढण पार्श्वनाथ श्री अमीझरा पार्श्वनाथ श्री कल्हारा पार्श्वनाथ श्री चंपा पार्श्वनाथ श्री सूरजमंडण पार्श्वनाथ श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ श्री नवसारी पार्श्वनाथ श्री दोकड़िया पार्श्वनाथ श्री चोरवाड़ी पार्श्वनाथ श्री नवपल्लव पार्श्वनाथ श्री अमृतझरा पार्श्वनाथ श्री बरेजा पार्श्वनाथ पालनपुर, (उत्तर गुजरात) भीलड़िया, जिला बनासकांठा (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) धमसा की नेल, अरवल्ली पहाड़ी नरोड़ा, जिला अहमदाबाद (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) नवा डीसा (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) पटेल वाडा जिला खेडा (गुजरात) मोभा रोड, जिला डभोई (गुजरात) खंभात, जिला खेड़ा (गुजरात) खंभात, जिला खेड़ा (गुजरात) बोरसद, जिला आनंद (गुजरात) भेलुपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) डभोई, जिला बड़ौदा (गुजरात) डभोई, जिला बड़ौदा (गुजरात) . गंधार, जिला भरुच (गुजरात) श्रीमाली पोल, जिला भरुच (गुजरात) गोलवाड़ जिला पाटण (गुजरात) गोपीपुरा, जिला सूरत (गुजरात) गोपीपुरा, जिला सूरत (गुजरात) नवसारी, जिला बलसाड़ (गुजरात) प्रभासपाटण, जिला जूनागढ़ (गुजरात) चोरवाड़, जिला जूनागढ़ (गुजरात) मांगरोल, जिला जूनागढ़ (गुजरात) जामभाणवड़, जिला जामनगर (गुजरात) बरेजा, जिला जूनागढ़ (गुजरात) जरात) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 241 श्री सप्तफणा पार्श्वनाथ श्री भाभा पार्श्वनाथ श्री भद्रेश्वर पार्श्वनाथ श्री घृतकल्लोल पार्श्वनाथ श्री भयभंजन पार्श्वनाथ श्री लोद्रवा पार्श्वनाथ श्री संकटहरण पार्श्वनाथ श्री कुंकुमरोल पार्श्वनाथ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ श्री सिरोडीया पार्श्वनाथ श्री हमीरपुरा पार्श्वनाथ श्री पोसली पार्श्वनाथ श्री कच्छुलिका पार्श्वनाथ श्री दादा पार्श्वनाथ श्री सेसली पार्श्वनाथ श्री राणकपुरा पार्श्वनाथ श्री सोगठिया पार्श्वनाथ श्री वरकाणा पार्श्वनाथ श्री नवलखा पार्श्वनाथ श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ श्री विजयचिंतामणि पार्श्वनाथ श्री मंडोवरा पार्श्वनाथ श्री करेड़ा पार्श्वनाथ श्री वही पार्श्वनाथ श्री नवखंडा पार्श्वनाथ श्री नागेश्वर पार्श्वनाथ श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ श्री अजाहरा पार्श्वनाथ श्री शेरीसा पार्श्वनाथ | श्री सम्मेतशिखर पार्श्वनाथ भणसाल, जिला जामनगर (सौराष्ट्र) चोरीवाला, जिला जामनगर (गुजरात) भद्रेश्वर, जिला कच्छ (गुजरात) सुथरी, जिला कच्छ (गुजरात) भीनमाल, जिला जालोर (राजस्थान) लोद्रवपुर, जिला जैसलमेर (राजस्थान) कोठरीपाड़ा, जिला जैसलमेर (राजस्थान) जिला जालोर (राजस्थान) नून, जिला सिरोही (राजस्थान) सिरोड़ी मोटी, जिला सिरोही (राजस्थान) हमीरपुर कृष्णकुंज, जिला सिरोही (राजस्थान) पोसालिया, जिला सिरोही (राजस्थान) काछोली, जिला सिरोही (राजस्थान) मोरी बेड़ा, जिला पाली (राजस्थान) सेसली : फालना, जिला पाली (राजस्थान) राणकपुर, जिला पाली (राजस्थान) नाडलाई, जिला देसुरी (राजस्थान) वरकाणा, जिला पाली (राजस्थान) गुजराती कटला जिला पाली (राजस्थान) कापरड़ा, जिला जोधपुर (राजस्थान) मेडता रोड, जिला नागौर (राजस्थान) मेडता सिटी, जिला नागौर (राजस्थान) मुंडावा, जिला पाली (राजस्थान) भोपालसागर, जिला चित्तौडगढ (राजस्थान) मल्हारगढ, जिला मन्दसौर (म.प्र.) घोघाबंदर, जिला भावनगर (गुजरात) उन्हेल, जिला झालावाड़ (राजस्थान) मेवानगर, जिला बाड़मेर (राजस्थान) अजाहरा, जिला जूनागढ (गुजरात) शेरीसा, जिला अहमदाबाद (गुजरात) शिखरजी मधुबन, जिला गिरिडीह (झारखंड) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 242 86. | श्री भटेवा पार्श्वनाथ श्री उवसग्गहरं पार्श्वनाथ श्री अलौकिक पार्श्वनाथ श्री कल्पद्रुम पार्श्वनाथ श्री कुक्कुडेश्वर पार्श्वनाथ श्री भुवन पार्श्वनाथ श्री रावण पार्श्वनाथ श्री कामितपूरण पार्श्वनाथ श्री अवंती पार्श्वनाथ श्री सवीना पार्श्वनाथ श्री चंदा पार्श्वनाथ श्री मक्षी पार्श्वनाथ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ 99. श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ 100. श्री गिरुआ पार्श्वनाथ 101. श्री मनोवांछित पार्श्वनाथ | श्री विमल पार्श्वनाथ श्री विघ्नहरा पार्श्वनाथ 104. श्री महादेवा पार्श्वनाथ 105.| श्री आनंदा पार्श्वनाथ 106. | श्री चारुप पार्श्वनाथ 107. | श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ 108.| श्री गोड़ी पार्श्वनाथ चाणस्मा, जिला महेसाणा (गुजरात) नगपुग, जिला दुर्ग (मध्य प्रदेश) हासामपुरा, जिला उज्जैन (मध्य प्रदेश) धीयाभेड़ी, जिला मथुरा (उत्तर प्रदेश) कुक्कुडेश्वर, जिला मन्दसौर (म.प्र.) खंभात, जिला खेड़ा (राजस्थान) अलवर (राजस्थान) उन्हेल, जिला उज्जैन (मध्य प्रदेश) अनन्तपेठ, जिला उज्जैन (मध्य प्रदेश) सवीनाखेड़ा, जिला उदयपुर (राजस्थान) । पेलेस रोड, जिला उदयपुर (राजस्थान) मक्षीजी, जिला उज्जैन (मध्य प्रदेश) शिरपुर, जिला आकोला (महाराष्ट्र). कुंभोजगिरि, जिला कोल्हापुर (महाराष्ट्र) अमलनेर, जिला जलगाँव (महाराष्ट्र) नेर, जिला धुलिया (महाराष्ट्र) वाणियावाड, जिला छाणी (गुजरात) रांदेर. सूरत (गुजरात) पाटण, जिला महेसाणा (गुजरात) उंबरी, जिला बनासकांठा (गुजरात) - चारुप, जिला महेसाणा (गुजरात) नासिक सिटी, (महाराष्ट्र) पायधुनी, मुंबई (महाराष्ट्र) 102. 103. इसके उपरान्त भी अहिच्छत्र पार्श्वनाथ, त्रिभुवनभानु पार्श्वनाथ इत्यादि अनेक नाम भी प्रसिद्ध हैं। कतिपय विद्वानों के अनुसार इस प्रकार नाम संग्रह से 1008 नाम तक लिखे जा सकते हैं। जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है। - अनुयोगद्वार सूत्र (127) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 243 : प्रार्थना : जय वीयराय! जग गुरु! होऊ ममं तुह पभावओ भयवं। भव-निव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफल-सिद्धी॥1॥ लोग-विरुद्ध-च्चाओ, गुरुजण-पूआ परत्थकरणं च। सुहगुरु जोगो तव्वयण-सेवणा अभवमखंडा॥2॥ वारिज्जइ जइ वि नियाण-बंधण वीयराय! तुह समये। तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं॥3॥ दुक्ख-खओ कम्म-खओ, समाहिमरणं च बोहिलाभो अ। संपज्जउ मह एअं, तुह नाह। पणाम-करणेणं ॥4॥ . सर्व-मंगल-मांगल्यं, सर्व-कल्याण-कारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥5॥ हे वीतराग प्रभो! हे जगद्-गुरु! आपकी जय हो। हे भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे भवनिर्वेद (संसार के प्रति वैराग्य) उत्पन्न हो, मार्गानुसारिता (मोक्ष मार्ग पर चलने की शक्ति) प्राप्त हो और इष्टफलसिद्धि हो, जिससे मैं धर्म की आराधना सरल भाव से कर सकूँ॥1॥ . हे प्रभो! मेरा मन, लोकनिन्दा हो ऐसा कोई भी कार्य करने को प्रवृत्त न हो, धर्माचार्य, माता-पितादि वडिल जनों के प्रति पूर्ण आदर का अनुभव करे और दूसरों का भला (परार्थकरण) करने को तत्पर बने। मुझे सद्गुरु का योग मिले तथा उनकी आज्ञानुसार चलने की शक्ति प्राप्त हो। यह सब जहाँ तक मुझे संसार में परिभ्रमण करना पडे, वहाँ तक अखंड रीति से प्राप्त हो॥2॥ हे वीतराग! यद्यपि आपके प्रवचन में निदान बंधन यानी फल की याचना का निषेध है, फिर भी मैं ऐसी इच्छा करता हूँ कि प्रत्येक भव में आपके चरणों की उपासना करने का योग मुझे प्राप्त हो॥3॥ हे नाथ! आपको प्रणाम करने से दुखों का नाश हो, कर्मों का नाश हो, सम्यक्त्व (बोधिलाभ) मिले और समाधि व शान्तिपूर्वक मरण हो, ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो॥4॥ सर्व मंगलों का मंगलरूप, सर्व कल्याणों का कारणरूप और सर्वधर्मों में श्रेष्ठ, ऐसा जैन शासन जय को प्राप्त होता रहे॥5॥ यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे। - उत्तराध्ययन (32/5) Page #265 --------------------------------------------------------------------------  Page #266 -------------------------------------------------------------------------- _