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________________ तीर्थंकरों का शासन कल्प तीर्थंकरों के शासन का संवहन साधु-साध्वी जी करते हैं। तीर्थंकर परमात्माओं की वाणी में किंचित्मात्र भी अंतर नहीं होता, सिद्धान्त कभी भी परिवर्तित नहीं होते। किन्तु काल के प्रभाव से उनकी परम्परा के साधु साध्वियों के आचार में अन्तर हो जाना स्वाभाविक है। किस काल में श्रमण-श्रमणी वृंद का स्वभाव, बौद्धिक स्तर, ग्रहण शक्ति, समर्पण, आचार के प्रति जागृति कैसी है, इत्यादि अनेक कारणों को मध्य नजर रखते हुए, उनका कल्प भिन्न-भिन्न हो सकता है। जैसे इस काल के अन्तिम आचार्य श्री दुप्पस्सह सूरि के समय में छट्ठ तक की तपस्या ही रहेगी- काल का प्रभाव तो रहता ही है। श्रमण-श्रमणी वर्ग के अनुष्ठान विशेष अथवा आचार को कल्प कहते हैं। इसके 10 भेद हैं अचेलकुदेसिय, सज्जायर, रायपिंड किइकम्मे । वय-जिट्ठ पडिक्कमणे, मासं पज्जोसणा कप्पे॥ अचेलक कल्प - वस्त्र न रखना या थोड़े, अल्पमूल्य वाले तथा जीर्ण वस्त्र रखना अचेलक कल्प कहलाता है। ऋषभदेव जी तथा महावीर स्वामी के साधु तो श्वेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करें। उनके वस्त्रों का माप, प्रकार आदि शास्त्रों में वर्णित है। इस प्रकार आधा शरीर खुला-आधा शरीर ढका रखें यानी न्यून वस्त्र पहले समझना। इसीलिए उसे अचेलक कल्प कहते हैं। द्वितीय से लेकर तेईसवें तीर्थंकर के साधु ऋजु प्राज्ञ होते हैं- अधिक समझदार भी होते हैं और धर्म का पालन भी पूर्णरूप से करना चाहते हैं । वे दोष आदि का विचार स्वयं कर लेते हैं इसलिए उनके लिए छूट है। वे अधिक मूल्य वाले पंचरंगी वस्त्र भी ले सकते हैं, उनके लिए ‘सचेलक' कल्प है। किन्तु प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के साधु-साध्वियों के लिए अचेलक कल्प नियत (निश्चित) है। औद्देशिक कल्प - साधु अथवा साध्वी के उद्देश्य से तैयार किए गए आहार आदि को औद्देशिक कल्प कहते हैं। इसके अनुसार मध्य के 22 तीर्थंकरों के समय में जिस साधु अज्ञान महादुःख है। अज्ञान से भय उत्पन्न होता है। सब जीवों के संसार-परिभ्रमण का मूल कारण अज्ञान ही है। - इसिभासियाइं (21/1)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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