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________________ 3. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 156 अथवा साध्वी के निमित्त से किसी गृहस्थ ने भोजन, पानी, औषधि, पात्र आदि बनवाए हो, तो वे पदार्थ उस साध्वी या साधु को वोहराना योग्य नहीं, पर बाकी साधु-साध्वी को वोहराना कल्पता है। यानी जिनके लिए बनाया, उन्हें छोड़ बाकी सबको वोहराना कल्पता है। उन्हें आधाकर्मी आदि दोष नहीं लगते । 4. प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन में तो एक साधु अथवा एक साध्वी के लिए जो आधाकर्मिक आहार आदि बनाए, बनवाएँ हों, वे सब प्रकार से किसी भी साधु-साध्वी को लेना नहीं कल्पता। शास्त्रों में इसका भी सूक्ष्म वर्णन है, यहाँ मात्र सामान्य परिचय प्रस्तुत किया गया है। शय्यातर - पिण्ड कल्प जो साधु को रहने के लिए स्थान देता है, उस घर के स्वामी को या उपाश्रय के मालिक को शय्यातर कहते हैं । उनके घर का पिंड - आहारादि 12 पदार्थ साधुओं को वोहराना व उनका लेना नहीं कल्पता । 1. आहार 4. स्वादिम 7. कम्बल 10. निष्पलक - 2. पानी 5. कपड़ा 8. ओघा 11. नेरणी ( नेलकटर) ये 12 वस्तुएँ तथा छुरी, कैंची, सरपला आदि भी साधु को लेना नहीं कल्पता क्योंकि इस कारण राग, विनय, लोभ आदि के दोष संभवित हैं । किन्तु 10 वस्तुएँ शय्यातर के घर की ना कल्पता है 1. तृण 2. मिट्टी का ढेला 4. मात्रा का पात्र 5. बाजोट 8. संथार - 3. खादिम 6. पात्र 9. सुई 12. कान का मैल निकालने की चाटुई । 3. भस्म (राख) पाट पाटली 6. 9. लेपप्रमुख वस्तु 7. शय्या 10. उपधि (वस्त्रादि) सहित शिष्य । यह कल्प सब तीर्थंकरों के साधुओं को निश्चय से होता है । राजपिंड कल्प छत्रपति, चक्रवर्ती आदि राजा तथा सेनापति, पुरोहित, श्रेष्ठी, प्रधान व सार्थवाह के साथ जो राज करता है, उसे राजा कहते हैं। उनके घर का अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण - ये 8 वस्तुएँ राजपिंड कहलाती हैं तथा रस जिह्वा का विषय है। यह जो रस का प्रिय लगना है, उसे राग का हेतु कहा है और जो रस का अप्रिय लगना है उसे द्वेष का हेतु । जो दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। - उत्तराध्ययन (32/61)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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