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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 157
प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन के साधु-साध्वियों को राजपिंड लेना नहीं कल्पता। राजपिण्ड में बहुत दोष हैं, जैसे - वैभव में आसक्ति, अमंगल की संभावना, आत्मविराधना, लोकनिंदा इत्यादि । मध्य के 22 तीर्थंकरों के साधु-साध्वी ऋजु प्राज्ञ होते हैं इसलिए राजपिंड को सदोष जानते हैं, तो नहीं लेते। इस कारण उन्हें राजपिंड कल्प की मर्यादा नहीं है। कृतिकर्म कल्प शास्त्रोक्त विधि के अनुसार अपने से बडो को वन्दन करना कृतिकर्म कल्प है। वह 2 प्रकार का है- एक तो खड़े होना और दूसरा द्वादशावर्त वन्दन करना। जिनशासन में ऐसी मर्यादा है कि साधुओं में छोटी दीक्षा पर्याय वाला लम्बी दीक्षा पर्याय वाले को वंदन करता है। इसमें बाप-बेटा, राजा - प्रधान नहीं देखा जाता। सामान्य भाषा में पुत्र ने पहले दीक्षा ली हो और पिता ने बाद में ली हो, तो पिता पुत्र को वंदन करे । इसका विस्तार, अपवाद आदि शास्त्रों में सूक्ष्म रूप से मिलते हैं। तथा पुरुष प्रधानता होने .से व शासन व्यवस्था होने से सभी साध्वियाँ बिना दीक्षा पर्याय देखे सब साधुओं को वंदन करे यानी 100 साल की दीक्षिता साध्वी नवदीक्षित साधु को वंदन करे । कृतिकर्म कल्प का पालन न करने से अनेक दोष लगते हैं। जैसे अहंकार
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वृद्धि, लोकनिन्दा, अविनय, संसारवृद्धि इत्यादि । यह कल्प सब तीर्थंकरों के शासन के लिए समान है।
व्रत कल्प
सूक्ष्म प्राणातिपात (हिंसा), मृषावाद (असत्य), अदत्तादान (चोरी), मैथुन ( अब्रह्मचर्य) और परिग्रह, इन पाँचों से विरत होना व्रत कल्प है। प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन में पाँच महाव्रत होते हैं, इसी को पंचायाम धर्म भी कहते हैं। मध्यम तीर्थंकर (यानी 2 से 23 ) के साधु ऋजु व प्राज्ञ होते हैं । वे चौथे व्रत को पाँचवें में अन्तर्भूत कर लेते हैं। यानी अपरिगृहीत स्त्रीभोग का पच्चक्खाण तीसरे अदत्तादान व्रत में तथा परिगृहीत स्त्रीभोग का पच्चवखाण परिग्रह व्रत में समा लेते हैं। क्योंकि जहाँ स्त्री है, वहाँ परिग्रह है। अतः मध्यम 22 तीर्थंकर के साधु के लिए मैथुन विरमण व्रत छोड़कर 4 महाव्रत यानी चातुर्याम धर्म जानना चाहिए ।
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शास्त्र में कहीं पर ऋषभदेव जी एवं महावीर स्वामी के तीर्थं में रात्रिभोजनविरमण व्रत मूलव्रत गिनकर साधु के 6 व्रत बताए हैं किन्तु बाईस तीर्थंकर के तीर्थ में इसे उत्तर गुण में गिनते हैं, इसलिए उनके तो 4 व्रत ही मानना ।
ज्येष्ठ कल्प
ज्ञान, दर्शन और चारित्र में बड़े को ज्येष्ठ कहते हैं। प्रथम और अंतिम
वही वीर प्रशंसित होता है, जो अपने को तथा दूसरे की दासता के बंधन से मुक्त कराता है।
आचारांग (1/2/5)
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