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________________ 8. 9. 10. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 158 तीर्थंकर के शासन में उपस्थापना अर्थात् बड़ी दीक्षा में जो साधु बड़ा होता है, वही ज्येष्ठ माना जाता है। जिसने साधुओं के आचार को पढ लिया हो, अर्थ जान लिया हो, जो अव्रतों का परिहार मन, वचन और काया से करता है, नव प्रकार से शुद्ध संयम का पालन करता है, ऐसे साधु को ही उपस्थापना यानी बड़ी दीक्षा देनी चाहिए। मध्यम तीर्थंकरों के शासन में निरतिचार चारित्र पालने वाला ही बड़ा माना जाता है। वे सब प्रवीण होते हैं, इसलिए दीक्षा के दिन से ही छोटे और बड़े गिने जाते हैं। इनको समझाने के लिए शास्त्रकारों ने पिता-पुत्र, राजा - मुनीम, माता-पुत्री आदि के उदाहरण लेकर विस्तृत रूप से स्पष्ट किया है। प्रतिक्रमण कल्प किए हुए पापों की आलोचना आवश्यक प्रतिक्रमण कहलाता है। इसमें प्रथम एवं चरम तीर्थंकर के समय में साधु-साध्वी को प्रमादवश अनजानेपन में दोष -स्खलना होने की संभावना रहती है। इस कारण उनके लिए दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आवश्यक है भले ही दोष लगे हों या न लगे हो । मध्य 22 तीर्थंकरों के साधु-साध्वी मूलत: अप्रमादी होते हैं। उन्हें पाप लगा या कोई स्खलना हुई है, ऐसा पता लगे तो ही दैवसिक या रात्रिक प्रतिक्रमण शाम को लेते हैं। शेष- पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण मध्य के समय में होते ही नहीं हैं। इस तरह यह भी अनियत कल्प है। अथवा सुबह कर 22 जिनेश्वरों के - मास कल्प - चातुर्मास या किसी दूसरे कारण के बिना, 2 मास से अधिक एक स्थान पर न ठहरना मासकल्प है। प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के साधु को एक जगह 1 मास के उपरान्त रहने की आज्ञा नहीं है क्योंकि उससे अधिक रहने पर गृहस्थों के साथ प्रतिबन्ध, लघुता की प्राप्ति, धर्मप्रचार का अभाव, ज्ञान की अप्राप्ति आदि अनेक दोष संभावित हैं। कदाचित् कालदोष, क्षेत्रदोष, द्रव्यदोष, भावदोष आदि के कारण विहार में असमर्थ हो या एक जगह ही रहना पड़े तो उपाश्रय पलटे, मोहल्ला पलटे, घर पलटे, मंजिल पलटे और कुछ भी न हो तो सथारा भूमि पलट कर भाव से भी मासकल्प करे । मध्य के 22 तीर्थंकरों के लिए मासकल्प का कोई नियम नहीं है। पर्युषणा कल्प श्रावण के प्रारम्भ से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक एक स्थान पर रहना पर्युषणा कल्प है। प्रथम तीर्थंकर एवं अन्तिम तीर्थंकर के शासनकाल में जघन्य से 70 दिन और उत्कृष्ट से 6 महीने के पर्युषण जानने चाहिए। मध्य 22 तीर्थंकरों के साधुओं के लिए कोई साधक निवृत्ति की साधना करता है, परिजन, धन तथा भोग-विलास को छोड़ देता है और अनेक कष्टों को भी सहन करता है, परन्तु यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । आचारांग नियुक्ति (220)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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